तैमूर के आक्रमण के बाद तुगलक वंश Tughluq Dynasty after Tamur's Invasion
तैमूर के आक्रमण के बाद तुगलक वंश
- 1401 ई. में मल्लू इकबाल ने यह अनुभव किया कि उसके लिए महमूद शाह का सम्मान लाभदायक होगा और इसलिए उसने उसे दिल्ली वापस बुलाने के लिए फुसलाया। तैमूर के हाथों हार जाने के बाद महमूद शाह का अनुभव कटु हो चुका था। गुजरात के मुजफ्फर शाह ने उसका स्वागत नहीं किया। मालवा के दिलावर खाँ ने उसका अच्छा स्वागत किया और उसे धार में एक निवासगृह प्रदान किया परन्तु वह दिल्ली वापस आने के चाव को न रोक सका। मल्लू इकबाल ने पूर्ण सम्मान के साथ महमूद शाह का स्वागत किया परन्तु बाद में उसे एक शाही प्रासाद में नजरबंद करा दिया। राज्य पर वह ऐसे शासन करता रहा जैसे कि महमूद शाह मालवा से वापस ही न आया हो।
- 1402 ई. में मल्लू इकबाल कन्नौज की ओर चला। वह अपने साथ महमूद शाह को भी ले गया। महमूद शाह ने मल्लू के अधीन रहना अत्यन्त अपमानजनक समझा, इसलिए रात में वह शिविर में से निकलकर कन्नौज से भाग आया और जौनपुर के शासक इब्राहीम शाह के यहाँ शरण ली। परन्तु इब्राहीम शाह ने उसका स्वागत नहीं किया और वह कुछ साथियों के साथ वहाँ से चला गया। महमूद शाह कन्नौज के शासक इब्राहीम शाह को वहाँ से निकालने में सफल हो गया और उसने उस नगर को अपना निवास स्थान बना लिया। मल्लू इकबाल दिल्ली वापस चला आया। महमूद शाह के हाथों कन्नौज पर कब्जे को देखकर इब्राहीम शाह ने आधीनता मान ली और स्वयं जौनपुर वापस चला गया।
- उसी वर्ष मल्लू ने ग्वालियर पर अधिकार करना चाहा, परन्तु वह असफल रहा और वह वापस लौटने पर विवश हो गया। 1404 ई. में मल्लू चार महीनों तक इटावा घेरे रहा परन्तु उस पर अधिकार जमाने में असफल रहा। उसने कन्नौज पर कब्जा करने का निश्चय किया, किन्तु वहाँ भी असफल रहा। 1405 ई. में मल्लू बहराम खाँ के विरुद्ध बढ़ा जो सबाज में बस गया था। बहराम खाँ भाग गया परन्तु रोपड़ तक उसका पीछे किया गया। एक सन्त शेख बहराम खाँ तथा मल्लू के बीच विरोध दूर करने में सफल रहा और दोनों ने मिलकर खिज्र खाँ के विरुद्ध लड़ने का निश्चय किया। मल्लू ने धूर्तता के साथ बहराम खाँ को मौत के घाट उतरवा दिया। 12 नवम्बर, 1405 ई. को खिज्र खाँ दीपालपुर से चला, उसने पाकपट्टन के पास मल्लू को परास्त किया व उसका अन्त कर दिया।
- 1405 ई. में मल्लू इकबाल की मृत्यु के बाद दिल्ली का शासन प्रबंध कुछ कुलीन सरदारों के हाथ में आ गया जिनके प्रधान दौलत खाँ लोदी व इख्तियार खाँ थे। उन्होंने महमूद शाह को आमंत्रित किया और वह दिसम्बर 1405 ई. में दिल्ली वापस आया। दौलत खाँ लोदी को दोआब का शासक व इख्तियार खाँ को फिरोजाबाद का शासक नियुक्त कर दिया गया।
- 1406 ई. में महमूद खाँ ने दौलत खाँ लोदी को समाना की विजय करने के लिए भेजा। जौनपुर के इब्राहीम शाह को उनके दुर्व्यवहार के कारण (जो उसने 1402 ई. में अपने शिविर में प्रदर्शित किया था) उसे दण्ड देने के लिए वह स्वयं कन्नौज की ओर बढ़ा। कुछ समय तक महमूद शाह व इब्राहीम शाह की सेनाओं में संघर्ष चलते रहने के बाद एक समझौता हुआ, परन्तु उसके होते हुए भी इब्राहीम शाह कन्नौज पर घेरा डाले रहा तथा उसने उस पर अधिकार कर लिया। वह दिल्ली की ओर बढ़ा और वह यमुना पार करने वाला ही था कि उसे पता चला कि गुजरात का शासक उसके जौनपुर को जीतने का इरादा बना रहा है। इन परिस्थितियों के कारण इब्राहीम शाम जौनपुर वापस पहुँचा। दौलत खाँ लोदी, जो समाना की विजय करने के लिए भेजा गया था, ने बहराम खाँ को समाना से सरहिन्द तक खदेड़ा और उसे आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया। उसने अपने पराजित शत्रु को अपना मित्र बना लिया और उसे अपने संरक्षण में लेकर समाना में रहने लगा। खिज्र खाँ के आने पर दौलत खाँ लोदी दोआब भाग गया और उसके साथी खिज्र खाँ से मिल गए। समाना के अतिरिक्त, खिज्र खाँ ने सिंधु, सुनाम व हिसार पर अधिकार करके उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। इससे दिल्ली की दीवारों के आगे केवल दोआब, रोहतक और संभल महमूद शाह के आधीन रहे।
- यह सच है कि महमूद शाह ने 1408 ई. में हिसार वापस ले लिया, जनवरी 1409 ई. में खिज्र खाँ फिरोजाबाद की दीवारों के बाहर दिखाई दिया और उसने उसका घेरा डाल लिया। परन्तु खिज्र खाँ वापस लौटने पर बाध्य हो गया क्योंकि अकाल व संहार के कारण लोग सेना की सहायता करने में अशक्त थे। 1410 ई. में खिज्र खाँ ने रोहतक जीत लिया परन्तु 6 महीने तक घेरा डाले रहने के परिश्रम द्वारा प्राप्त फल को बनाए रखने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया। 1411 ई. में खिज्र खाँ नारनौल पहुँचा और उसे तथा दिल्ली के दक्षिण में तीन अन्य नगरों को उसने लूट लिया। उसने सीरी में महमूद शाह को घेर लिया परन्तु एक बार फिर अकाल ने उसकी रक्षा की और खिज्र खाँ घेरा हटाने व वापस लौट जाने पर विवश हो गया। फरवरी 1413 ई. में महमूद शाह की मृत्यु हो गई और कैथल में 20 वर्ष तक चलने वाले उसके उस नाममात्र शासन काल का अन्त हुआ जिसमें उसे कभी शक्ति धारण करने को न मिली और जिसमें उसे कई बार राजधानी से भागना भी पड़ा। उसके साथ गयासुद्दीन तुगलक का वंश ही खत्म हो गया। महमूद शाह के विषय में तारीखे मुबारक शाही का रचयिता कहता है-"समस्त राजकाज अत्यधिक अव्यवस्था में पड़ गया था। सुल्तान स्वपदोचित कर्तव्यों की ओर कुछ भी ध्यान न देता था और उसको सिंहासन के स्थायित्व की कुछ भी चिन्ता न थी उसका सारा समय भोग विलास में ही बीतता था।"
दौलत खाँ लोदी (Daulat Khan Lodi):
- महमूद शाह की मृत्यु की बाद कुलीन सरदारों ने अपनी निष्ठा का प्रदर्शन दौलत खाँ लोदी के पक्ष में किया। दौलत खाँ ने दोआब में प्रवेश किया और उसने इटावा के राजपूतों तथा बदायूँ के महाबत खाँ को उनका सार्वभौम शासक मानने पर विवश किया। परन्तु दौलत खाँ दिल्ली वापस चला आया क्योंकि वह जौनपुर के इब्राहीम शाह से संघर्ष करना नहीं चाहता था। दिसम्बर 1413 ई. में खिज्र खाँ ने दौलत खाँ के प्रदेश पर आक्रमण किया और उसने मेवात में प्रवेश किया। उसने संभल में लूट मचा दी। मार्च 1414 ई. में उसने 60,000 अश्वारोहियों के साथ सीरी में दौलत खाँ को घेर लिया। दौलत खाँ चार महीनों तक डटा रहा परन्तु बाद में उसने आत्मसमर्पण कर दिया। 28 मई 1414 ई. को खिज्र खाँ ने दिल्ली में प्रवेश किया और सार्वभौम शासक के रूप में लोदी वंश की नींव डाली। हिसार में दौलत खाँ को बन्दी बना लिया गया।
तुगलक वंश के पतन के कारण (Causes of Downfall of Tughlud Dynasty):
- जब मुहम्मद तुगलक शासक था, उसके साम्राज्य में सारा भारतवर्ष सिवाय कश्मीर, कच्छ और उड़ीसा व काठियावाड़ के कुछ भाग के, आ गया था। परन्तु उसके पौत्र महमूद शाह की मृत्यु पर उसके राज्य की सीमा एक समकालीन कहावत द्वारा इस प्रकार बताई गई है- "शाह आलम दिल्ली ता पालम।" (इस समय पालम दिल्ली से कुछ मीलों की दूरी पर एक हवाई अड्डा है)। यह छोटा सा राज्य भी लुप्त हो गया और दिल्ली पर सैय्यदों ने अपना राज्य स्थापित कर लिया।
तुगलक वंश के पतन के कई कारण हैं-
- 1. मुहम्मद तुगलक स्वयं तुगलक साम्राज्य के पतन के लिए आंशिक रूप से उत्तरादायी था। राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले जाने के कारण जनता को बहुत कष्ट उठाने पड़े। उसके सांकेतिक सिक्के वाली योजना ने कोष को रिक्त कर दिया। उसकी खुरासान जीतने की आकांक्षा बहुत महंगी सिद्ध हुई। दोआब में कर ने प्रजा को शत्रुओं में बदल दिया। साम्राज्य में शत्रुओं की ऐसी विशाल संख्या उत्पन्न करने में बहुत काफी उत्तरदायित्व उसके वैयक्तिक चरित्र पर भी निर्भर है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उसके साम्राज्य के विभिन्न भागों में बहुत से उपद्रव हुए। उसी के समय में दक्षिण में बहमनी राज्य की स्थापना हुई। उसी के शासन काल में दक्षिण भारत में विजय नगर राज्य स्थापित हुआ। इसी प्रकार, उसके शासन काल में सारा समय एक के बाद दूसरे विद्रोह को कुचलने में व्यय हुआ और जब 1351 ई. में उसका देहान्त हो गया, उस समय भी वह विद्रोहियों के विरुद्ध संग्राम कर रहा था। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि मुहम्मद तुगलक की मृत्यु से पहले भी राज्य छिन्न-भिन्न होने की प्रक्रिया चल रही थी।
- 2. यह छिन्न-भिन्न होने की प्रक्रिया रुक जाती, यदि मुहम्मद तुगलक के बाद कोई शक्तिशाली शासक आता परन्तु वह हो न सका। उसके बाद फिरोज तुगलक आया जो एक वीर सेनानी नहीं था। यह ठीक है कि उसने बहुत से सुधार किए जिनसे उसने अपने को लोकप्रिय बना लिया किन्तु वह अपनी शक्ति से उन भागों को पुनः विजित न कर सका जो किसी समय दिल्ली सल्तनत के भाग थे। उसने विजय नगर के हिन्दू राजाओं व बहमनी राज्य के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया।
- 3. फिरोज तुगलक के उत्तराधिकारियों के अधीन स्थिति और भी बिगड़ गई। गयासुद्दीन तुगलक शाह द्वितीय, अबूबकर शाह, नासिरुद्दीन मुहम्मद, अलाउद्दीन व सिकन्दर शाह जिन्होंने 1388 से 1413 ई. तक शासन किया, सभी बहुत कमजोर थे और इसलिए वे उन भागों को न जीत सके जो स्वतंत्र हो चुके थे। फल यह हुआ कि विघटन की प्रक्रिया रूकने की अपेक्षा फिरोज के उत्तराधिकारियों के शासन काल में और तेज हो गई। वे शासक भोग-विलास में डूबे रहे। उन्होंने अपना सारा समय पारस्परिक झगड़ों में व्यतीत किया। उन्होंने प्रजा को लूटने व उसे मौत के घाट उतारने के लिए सेनाएँ भेजीं, परन्तु उन्होंने लोगों को कोई अच्छा शासन प्रबंध देने की चेष्टा न की जो उनके विश्वास व कर्तव्यपरायणता को जीत लेता।
- 4. फिरोज तुगलक ने बहुत-सी गलतियाँ कीं जिन्होंने तुगलक वंश के पतन में अपना योगदान किया। उसने जागीर प्रथा फिर से शुरू कर दी। उसने अपने बड़े सरदारों को वेतन की अपेक्षा जागीरें दीं। जागीरों का आशय प्रायः शक्तिशाली रियासतों का बनना हुआ। बड़े-बड़े जिले तथा प्रांत तक बड़े सरदारों व कुलीन लोगों को दे दिए गए। करा व डालामऊ मरदान दौलत को 'पूर्व का राणा' की उपाधि के साथ प्रदान किए गए। जौनपुर तथा जफराबाद दूसरे अमीर को दे दिए। गुजरात सिकन्दर खाँ व बिहार वीर अफगन को दे दिया गया। इन सब कुलीन पुरुषों से सीमाओं की रक्षा करने तथा आंतरिक विषयों का प्रबंध करने की आशा की जाती थी। समय के साथ इन जागीरदारों ने दिल्ली सुल्तान की शक्ति की अवहेलना की और तुगलक साम्राज्य के विरोध में स्वतंत्र रियासतें व राज्य स्थापित कर लिया। यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि फिरोज तुगलक ने ऐसी विनाशकारी शक्तियों को छोड़ दिया जिन्होंने अन्त में साम्राज्य के टुकड़े कर दिए। फिरोज के उत्तराधिकारियों के शासनकाल ही में अवध का प्रांत तथा गंगा के पार के प्रदेश में बंगाल की सीमाओं तक स्वतंत्र जौनपुर राज्य का संगठन हो गया। गुजरात, मालवा और खानदेश के प्रांतों ने दिल्ली से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और स्वतंत्र राज्य बन गए। ग्वालियर में एक हिन्दू रियासत का उदय हुआ। बयाना व काल्पी में मुस्लिम रियासतें बन गईं। मेवात के सरदार व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गए और उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार अपनी शक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदला। दोआब के हिन्दू समय-समय पर विद्रोह करते रहे और दिल्ली के शासकों को सदा उसी पर भरोसा करना पड़ा जो कुछ वे अपनी सशस्त्र सेनाओं के बल पर प्राप्त कर सके।
- 5. फिरोज तुगलक द्वारा की गई एक गलती यह थी कि उसने दासों की एक बहुत लम्बी सेना बना ली जो उसके उत्तराधिकारियों के समय में एक खतरा बन गए। फिरोज तुगलक के शासन काल में दासों की संख्या लगभग 1,80,000 थी जिनमें से 40,000 सुल्तान के महल में सेवाओं के लिए नियुक्त थे। यह ठीक है कि दासों की संख्या बढ़ाकर फिरोज तुगलक उन्हें मुसलमान बनाने व इस्लाम धर्म की संख्या बढ़ाने में सफल हुआ, परन्तु इन दासों ने देश के शासन प्रबंध में हस्तक्षेप किया और फलतः शासन का विघटन करने में एक महत्त्वपूर्ण तत्व बन बैठे। हम इनमें ऐसे योग्य दास नहीं पाते जैसे कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश व बलबन जो दास वंश की महत्ता के लिए उत्तरदायी रहे। फिरोज तुगलक के दास केवल विघटनकारी बने रहे जिन्होंने राज्य के हित को छोड़ते हुए अपने स्वार्थ को सामने रखा। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि फिरोज के लिए उसकी दासों की सेना एक भार मात्र सिद्ध हुई।
- 6. फिरोज तुगलक ने एक अन्य त्रुटि की जिसने तुगलक वंश के पतन को लाने में और योगदान किया। उसके शासन-काल में सेना के बहुत से कर्मचारियों को राजकीय राजस्व से हस्तांतरणीय कार्य दिए जाते थे। उन कार्यों को उनके मूल्य के लगभग 1/3 पर दिल्ली का एक व्यवसायी वर्ग खरीद लेता था। उन्हें जिलों में सिपाहियों के हाथों 1/2 पर बेच दिया जाता था। इस व्यवस्था से बहुत दोष पैदा हो गए और सेना के अनुशासन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। फिरोज तुगलक ने यह भी आदेश दिया कि जब कोई सैनिक वृद्ध हो जाए तो उसका पुत्र, जमाता या दास तक उसके स्थान पर काम में ले लिया जाए। सेना में सेवा को पैतृक कर दिया गया और योग्यता व सामर्थ्य सम्बन्धी तत्वों के प्रति उदासीनता बरती गई। इसका सेना की कुशलता पर घातक प्रभाव पड़ा। ऐसी सेना से विदेशियों के आक्रमणों का मुकाबला करने की आशा नहीं की जा सकती थी। फिरोज तुगलक की सेना का अधिकांश भाग उन सैनिकों से निर्मित था जो उसे उसके कुलीन सरदार दिया करते थे। यह सेना केन्द्रीय सरकार अपने नियंत्रण में नहीं रख सकती थी क्योंकि उनकी भर्ती, पदोन्नति व अनुशासन सुल्तान के बजाय उसके कुलीन सरदारों के पास था। सैनिक यंत्र जिस पर साम्राज्य की दृढ़ता निर्भर थी, का शिथिल बनाया जाना, अत्यन्त विनाशकारी था और इसका उत्तरादायित्व फिरोज तुगलक पर ही है।
- 7. उसकी धार्मिक नीति भी आंशिक रूप में तुगलक वंश के पतन के लिए उत्तरदायी रही है। फिरोज तुगलक एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसे हिन्दुओं व गैर-सुन्नी मुसलमानों को सताने में आनंद आता था। हिन्दुओं के मन्दिरों को नष्ट किया गया और उनकी मूर्तियों को तोड़ा गया व उनका अपमान किया गया। उनकी पुस्तकों को जला दिया गया। धमकियों व प्रलोभनों के आधार पर हिन्दुओं को इस्लाम स्वीकार करने की प्रेरणा दी गई। हिन्दुओं से बड़ी कठोरता के साथ जजिया कर उगाहा गया। ब्राह्मणों तक को मुक्ति न मिल सकी। एक ब्राह्मण को इस दोष के आधार पर मृत्युदण्ड दिया गया कि वह मुसलमानों को अपना धर्म छोड़ने पर उकसा रहा था। कटिहार में दो सैय्यदों को मार दिया गया। फिरोज तुगलक ने कटिहार पर आक्रमण किया और उसकी आज्ञा से हजारों हिन्दुओं को मार दिया गया। उनमें से 23,000 को कैदी बना लिया गया और बाद में उन्हें दास के रूप में परिणत कर दिया गया। यह प्रक्रिया पाँच वर्षों तक चलती रही। यह बात फिरोज की हिन्दुओं के प्रति दुर्भावना की द्योतक है। ऐसा ही व्यवहार फिरोज तुगलक ने गैर-सुन्नी मुसलमानों के साथ भी किया, 'मूलहिद' व 'अबहितयान' पकड़ कर निर्वासित कर दिए गए, 'मेहदवी' लोगों को सजाएँ दी गईं। उनके नेता रुक्नुद्दीन के टुकड़े कर दिए गए और फिरोज तुगलक ने इस बात में गर्व अनुभव किया कि ईश्वर ने उसे इस दृष्टता के दमन के लिए बनाया है। वह शिया लोगों के प्रति भी अत्याचारी था। उनकी पुस्तकें सार्वजनिक रूप से जलाई गईं और उन्हें मृत्युदण्ड भी दिया गया। ऐसी धार्मिक नीति का अनुसरण करके फिरोज तुगलक ने उलेमाओं, शेखों और सैय्यदों व अन्य इस्लामी धार्मिक नेताओं की सद्भावना प्राप्त कर ली होगी, परन्तु ऐसा करके उसने अपनी प्रजा की बहुत विशाल संख्या को काफी सीमा तक अपने से दूर कर दिया और इस प्रकार ऐसे कार्य से उसने अपने साम्राज्य की नींवों को स्वयं हिला दिया। फिरोज तुगलक यह भूल गया कि राज्य का आधार शक्ति नहीं वरन् इच्छा है। अपने कार्य से वह अपनी प्रजा का प्रेम पाने में असफल रहा।
- 8. चौदहवीं शताब्दी में इस्लामी राज्य का आधारभूत सिद्धांत शक्ति थी। वह भय व आतंक जिस पर शासक वर्ग टिका हुआ था, लुप्त हो गया। फिरोज तुगलक से प्रजा ने प्रेम तो किया परन्तु वह उससे डरी नहीं। फल यह हुआ कि प्रजा ने उसके शासन की सत्ता की अवहेलना की। कई स्वतंत्र रियासतें बन गईं और साम्राज्य टूटने फूटने लगा। 9. राज्य के अलौकिक स्वरूप ने राज्य की कुशलता पर और भी बुरा प्रभाव डाला। लम्बे शासन काल में मुल्लाओं व मुफ्तियों का प्रभाव हानिकारक सिद्ध हुआ। ऐसा राज्य जिसमें प्रजा का बहुत बड़ा भाग गैर-मुस्लिम था, वह बहुत समय तक ऐसे कानून के आधार पर नहीं चल सकता था, जिसका स्रोत कुरान था।
- 10. भारत जीतने के बाद मुसलमानों को प्रत्येक वस्तु मिल गई। उन्हें स्त्रियाँ, मदिरा व धन बहुत मात्रा में मिल गया। उन्होंने ऐय्याशी का जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया। अभियान के बीच में भी उन्होंने एक अव्यवस्थित भीड़ की भाँति व्यवहार प्रदर्शित किया। सैनिक गुण अदृश्य हो गए। ऐसे नमूने की सेना हिन्दुओं, अन्य उपद्रवियों तथा विदेशी आक्रमणकारियों के सामने न ठहर सकी।
- 11. यद्यपि काफी लम्बे समय से हिन्दू एक विदेशी शासन के आधीन रहते चले आ रहे थे, तथापि उन्होंने अपने को स्वतंत्र करने की चेष्टाओं का त्याग नहीं किया। रणथम्भोर को जीतने व उसे अपने राज्य में मिलाने में 150 से अधिक वर्ष लगे। यद्यपि दोआब दिल्ली के बहुत निकट स्थित है, तथापि वह शान्त कभी न रहा। हिन्दू लोग हमेशा उपद्रव करते रहे और उन पर दिल्ली सल्तनत का नियंत्रण केवल नाममात्र रहा। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ज्योंही दिल्ली सल्तनत की शक्ति कमजोर पड़ी, तो उन्होंने विद्रोह कर दिए और भारत के विभिन्न भागों में स्वतंत्र हो गए।
- 12. दिल्ली सल्तनत एक 'पुलिस राज्य' था। इसका एकमात्र कार्य शान्ति व व्यवस्था बनाए रखना तथा मालगुजारी उगाहना था। जब वह उन कर्तव्यों को उचित रूप से सम्पादित करने में असमर्थ रही, तो उसने अपने अस्तित्व के आदि कारण को ही खो दिया।
- 13. डा. लेनपूल के अनुसार, " हिन्दुओं के साथ पारस्परिक विवाह संबंध भी तुगलक वंश के पतन का एक कारण था।" परन्तु इस विचार को स्वीकार नहीं किया जाता है। यह कहा जाता है कि यद्यपि फिरोज तुगलक की माता हिन्दू थी, फिर भी उसने हिन्दुओं के प्रति कोई नम्रता नहीं बरती। बाद की घटनाएँ भी लेनपूल के विचार की पुष्टि नहीं करतीं। अपने साम्राज्य को दृढ़ बनाने के लिए अकबर ने वैवाहिक संधियों की नीति अपनाई और यह माना जा सकता है कि ऐसा करने में वह सफल भी हुआ। केवल तभी मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हुआ जबकि औरंगजेब ने उस नीति को छोड़ दिया।
- 14. परन्तु यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत पर तैमूर के आक्रमण ने तुगलक वंश के पतन में अन्तिम एवं स्पष्ट योगदान दिया। आक्रमण के समय भी महमूद शाह व नुसरत शाह दो शासक थे जो एक ही समय पर दिल्ली का शासक बनने का दावा करते थे। जिस रीति से दिल्ली की प्रजा को लूटा गया व उसका हत्याकांड किया गया, उसने तुगलक वंश की नींव को पूर्णतया हिला दिया होगा। हमें बताया जाता है कि तीन महीनों तक दिल्ली में कोई भी शासक न रहा। देश में बिल्कुल अव्यवस्था व अशान्ति थी। विभिन्न प्रांत बिल्कुल स्वतंत्र बन गए और उनके विरुद्ध कदम उठाने वाला कोई भी न था। अपने पुनः शासक बन जाने के बाद तक महमूद शाह ने अपने आधीन राज्य में शान्ति व व्यवस्था लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। उसने अपना सारा समय विलासिता में व्यतीत किया। कोई आश्चर्य नहीं कि उसका साम्राज्य ही लुप्त हो गया। उसकी सत्ता सिद्ध करने के लिए कुछ भी अवशेष न रहा।