टीपू की शासन प्रणाली (Tipu's Administration)
टीपू की शासन प्रणाली (Tipu's Administration)
- भारतीय इतिहास में उस समय भारत में केवल निरंकुशवाद का ही बोलबाला था और इसी कारण टीपू का प्रशासन भी भिन्न नहीं हो सकता था। सुलतान ही देश में समस्त सैनिक, असैनिक तथा राजनैतिक शक्ति का केन्द्र था। वह स्वयं ही अपना विदेश मंत्री तथा मुख्य सेनापति अथवा न्यायाधीन था।
- यद्यपि टीपू पर कोई नियंत्रण नहीं था, तो भी वह असंयमी, दयारहित राजा नहीं था। वह कर्मशील तथा कर्त्तव्यपरायण राजा की भांति कार्य करता था। वह समझता था कि अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार के लिए एक दिन उसे ईश्वन को उत्तर देना होगा और व सदैव प्रजा हित के लिए कार्य करता था।
केन्द्रीय प्रशासन- टीपू की शासन प्रणाली
- टीपू को सुधारों तथा नए प्रयोगों से प्यार था। अतएव शीघ्र ही उसने अपने पिता हैदरअली से प्राप्त की हुई शासन प्रणाली में सुधार किए। डाडवैल के अनुसार वह प्रथम भारतीय राजा था जिसने पाश्चात्य परम्पराओं को भारतीय प्रजा पर लागू करने का प्रयत्न किया। प्रत्येक विभाग का एक अलग अधिकारी होता था तथा अनेक निम्न स्तर के अधिकारी उसकी सहायता करते थे। ये सभी मिलकर एक बोर्ड के रूप में कार्य करते थे। पूर्ण वाद-विवाद के पश्चात ही निर्णय लिए जाते थे। इस वाद-विवाद में सदस्यों को मतभेद प्रकट करने का पूर्ण अधिकार था। निणय बहुमत से किए जाते थे तथा बैंठकों की कार्यवाही का ब्यौरा रखा जाता था। परन्तु इस मामलों में अन्तिम निर्णय सुलतान का हही होता था।
टीपू सुलतान के प्रशासन में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पद नहीं होता था। सात मुख्य विभाग थे जो मीर आसिफ के अधीन होते थे जो स्वयं सुलतान के प्रति उत्तरदायी था। ये विभाग इस प्रकार थेः
(1) राजस्व तथा वित्त मीर आसिफ कचहरी के अधीन,
(2) सेना विभाग मीर मरां कचहरी के अधीन,
(3) जुमरा विभाग एक अन्य मीर मीरां कचहरी के अधीन,
(4) तोपखाना तथा दुर्ग रक्षा विभाग मीर सदर कचहरी के अधीर,
(5) वाणिज्य विभाग मलिक-उत्तुज्जार के अधीन,
(6) नाविक विभाग मीर याम कचहरी के अधीर तथा
(7) कोष और टंकन विभाग मीर खजाना कचहरी के अधीन इन 7 के अतिरिक्त अन्य छोटे विभाग भी थे अर्थात् डाक तथा गुप्तचर विभाग, लोग निर्माण तथा पशु विभाग।
टीपू की शासन प्रणाली: प्रान्तीय तथा स्थानीय प्रशासन-
- 1784 के पश्चात् टीपू ने अपने साम्राज्य को सात प्रान्तों में बांट दिया जिन्हें आसफी टुकड़ी कहते थे। कालान्तर में इन प्रान्तों की संख्या 17 हो गई। प्रान्तों में मुख्य अधिकारी आसिफ (असैनिक गवर्नर) तथा फौजदार (सैनिक गवर्नर) होते थे। ये दोनों एक-दूसरे पर नियंत्रण रखते थे। प्रांतों को जिलों और जिलों को ग्रामों में बांटा होता था। स्थानीय प्रशासन का प्रबन्ध पंचायतें करती थीं।
टीपू की शासन प्रणाली: भूमि कर व्यवस्था-
- मुख्य रूप से टीपू ने अपने पिता के काल से चली आ रही भूमि कर प्रणाली को बनाए रखा परन्तु उसमें अधिक कार्यक्षमता लाने का प्रयत्न यिका। उसने जागीरदारी प्रणाली को त्याग कर कृषक तथा सरकार में सीधा सम्पर्क स्थापित किया। उसने कर मुक्त इनाम भूमि पर पुनः अधिकार कर लिया तथा पॉलिगारों (जमींदारों) के पैतृक अधिकार जब्त कर लिए।
- सरकार ने प्रेरणाा संलग्न अनुरोध की प्रणाली द्वारा अधिककाधिक भूमि को जोत में लाने का प्रयत्न किया। जिले का कार्यवाह आमिल जिले का दौरा करता था तथा कृषकों को अधिक भूमि जोत में लाने के लिए हल तथा पशुओं के लिए तकावी (सरकार की ओर से दिया हुआ धन) ऋण दिया जाता था। दूसरे, आमिल यह भी देखता था कि यदि किसी परिवार में काम करने वाले अधिक हैं और हल कम हैं तो वह परिवार के मुखिया को अन्य हल प्राप्त करने की प्रेरणा देता था। दूसरी ओर आमिल यह भी देखता था कि यदि किसी ग्राम में किसी विशेष फसल के लिए भूमि तो है परन्तु वहां के वासी उस फसल को करने को उद्यत नहीं हों तो वह उस ग्राम पर उस विशेष फसल की दर से भूमि कर लगा देता था न कि वास्तविक जुती हुई भमि पर।
- भूमि कर प्रायः 1/3 से 1/2 लिया जाता था जो कि भूमि की उर्वरता तथा सिंचाई पर निर्भर होता था। 1792 में भूमि कर की आय एक करोड़ से अधिक थी जो कि श्रीरंगापट्टम की सन्धि के पश्चात् आधी रह गई थी क्योंकि उसे अपने राज्य का आधा भाग शत्रुओं को छोड़ देना पड़ा था। इस क्षति की पूर्ति के लिए टीपू को 1795 में, 1791 के भूमि कर की दरों में 37.5% की वृद्धि करनी पड़ी थी।
- वाणिज्य तथा व्यापार-यूरोपीय शक्तियों की नाईं टीपू ने भी इस तथ्य को समझा कि देश अपने वाणिज्य तथा व्यापार का विकास करके ऊंचा उठ सकता है। इसलिए उसने देशीय तथा अन्तरदेशीय व्यापार का विकास किया तथा अपने गुमाश्ते मस्कट, मुंज, जद्दाह तथा अदन इत्यादि नगरों में नियुक्त किए। उसने पीगू (बर्मा) तथा चीन से भी सम्बन्ध स्थापित करने की सेची। इस आशय से उसने एक वावणिज्य बोर्ड स्थापित किया तथा 1793-94 के नियमों के अनुसार इस विभाग के अधिकारियों के कर्तव्य निश्चित किए। टीपू ने चन्दन, सुपारी, काली मिर्च, मोटी इलाइची, सोने तथा चांदी का व्यापार तथा हाथियों के निर्यात इत्यादि का कार्य केवल सरकार के एकाधिकार में ले लिया। इसी प्रकार आन्तरिक व्यापार के मामले में भी किया, काली मिर्च तथा चन्दर, केवल सरकार ही मोल ले सकती थी। इसके अतिरिक्त उसने राज्य में कुछ कारखाने भी लगाए जहां युद्ध के लिए गोला, बारूद, कागज, चीनी, रेशमी कपड़ा, छोटे-छोटे उपकरण तथा अन्य सुन्दर वस्तुएं बनाई जाती थीं।
- अशोक सेन जैसे प्रसिद्ध लेखक का विचार है कि टीपू की व्यापारिक नीति का मुख्य उद्देश्य सरकार को देश की प्रमुख व्यापारिक संस्था बनाना तथा कोष को भरना तथा आर्थिक गतिविधियों को सैनिक तथा राजनैतिक हितों के अधीन लाना था जो कि व्यापार तथा उद्योग के दीर्घकालीन हितों में नहीं होता था और न ही इससे पूंजीवाद के अधीन औद्योगिक क्रांति लाने के लिए समाज तथा अर्थव्यवस्था को तैयार किया जा सकता था।
टीपू की शासन की सैनिक प्रशासन-
- समकालीन विवशताओं के कारण सुलतान को अपने समय का अधिक भाग सैनिक तैयारी में लगाना पड़ता था। टीपू ने अपनी पदाति सेना का अनुशासन यूरोपीय नमूने पर गठित किया और इसमें फारसी के आदेश शब्दों का प्रयोग किया जाता था। उसने भी फ्रांसीसी कमाण्डरों द्वारा अपनी सेना के प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया तथा एक फ्रांसीसी सैनिक टुकड़ी तैयार की परन्तु उसने इनको प्रभावशाली समूह बनने की अनुमति नहीं दी जैसा कि निजाम तथा सिन्धि या के राज्यों में हुआ। वास्तव में उसकी सेना में फ्रांसीसी सैनिकों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती चली गई। 1794 में यह केवल 20 आयुक्त अधिकारियों और श्रीरंगापट्टम की हार के समय केवल 4 आयुक्त तथा 45 अनायुक्त अधि कारियों तथा सैनिकों तक ही सीमित थी। टीपू की सेना की संख्या उसकी सैनिक आवश्यकताओं तथा साधनों के अनुसार बदलती रही। तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध के समय उसके पास 45,000 नियमित पदाति, 2,000 घोड़े तथा कुछ अनियमित सेना थी। 1793 में, अंग्रेजों तथा उनके मित्रों को आधा राज्य देने के पश्चात् उसके पास 30,000 नियमित पदाति, 7,000 घुड़सवार, 2,000 तोपची तथा 6,000 अनियमित घुड़सवार थे।
- हैदरअली तथा टीपू दोनों ने नौसेना के महत्त्व को समझा, परन्तु अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के स्तर को कभी प्राप्त नहीं कर सके। जो भी जलपोत हैदरअली ने बनाए थे वे सभी एडवर्ड ह्यूज ने 1780 में मंगलोर पर आक्रमण के समय नष्ट कर दिए थे।
- जब तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध में अंग्रेजों ने टीपू के अधीन मालाबार तट के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया तो सुलतान के लिए जल सेना का महत्त्व और भी बढ़ गया। 1796 में टीपू ने नौसना बोर्ड का गठन किया तथा 22 युद्धपोत तथा 20 बड़े फ्रिगेट बनाने ककी योजना बनाई। उसने गंगलोर, वाजिदाबाद तथा मोलीदाबाद मे पोत बनाना के घाट बनाए। परन्तु यह योजना सिरे नहीं चढ़ी। उसके साधन अंग्रेजों के साधनों से बहुत कम थे। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए उसने कहा था कि मैं अंग्रेजों के स्थल साधनों को तो समाप्त कर सकता हूं परन्तु मैं समुद्र को तो नहीं सुख सकता।
टीपू का मूल्यांकन-
- हैदरअली तथा उसकी पत्नी फातिमा के घर बहुत प्रार्थना के पश्चात् 20 नवम्बर 1750 को एक पुत्र रत्न जन्मा और उसे टीपू सुल्तान की संज्ञा दी गई। इस प्रकार सुल्तान उसके नाम का अंग था। और राजकुमार तथा शासन काल में वह इसी नाम से जाना जाता था। उसे एक मुसलमान राजकुमार के योग्य पूर्ण शिक्षा मिली और वह अरबी, फारसी, कन्नड़ तथा उर्दू में सुगमता से बातचीत कर सकता था। व एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति था। घुड़सवारी, बंदूक तणि तलवार चलाने में भी सिद्धहत था। वह पालकी में चढ़ना पसन्त नहीं करता था क्योंकि इसे वह केवल स्त्रियों अथवा रोगियों के लिए ही उपयुक्त मानता था। टीपू सुल्तान में पूर्वी उदासीनता अथवा रुढ़िवाद का कण मात्र भी नहीं था और वह नवीन प्रयोग करने को सदैव उद्यत रहता था तथा पाश्चात्य विज्ञान तथा राजनीतिक दर्शन का यथोचित गुणग्राही था। जब फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप कुछ फ्रांसीसी सैनिकों ने श्रीरंगापट्टम में जैकोबिन क्लब बनाने का प्रस्ताव किया तो उसने यह सहर्ष स्वीकार कर लिया और इस अवसर को मनाने के लिए 2300 तोप के गोले तथा 500 हवाई रॉकेट चलाए। यह कहा जाता है कि उसने श्रीरंगापट्टम में "स्वतंत्रता का वृक्ष" भी लगाया, स्वयं जैकोबिन क्लव का सदस्य बना और अपने आप को "नागरिक टीपू" कहलाने लगा।
- प्रशासक तथा शासक के रूप में टीपू सफल रहा और विरोधियों ने भी उसकी सराहना की है। लैफ्टिनेन्ट मूर ने उसके विषय में कहा है: "जब एक व्यक्ति एक अनजाने देश से गुजरता हुआ यह देखे कि वहां फसलें उत्तम हैं, देश में जनसंख्या तथा उद्योग बहुत हैं; वाणिज्य विकसित हो रहा है, और प्रत्येक वस्तु हर्ष तथा सफलता की द्योतक है, तो व प्राकृतिक रूप से यी कहेगा कि जनता एक कुशल प्रशासन के अधीन है। जिसमें उसे विकसित ोने का अवसर मिलम रहा है। ऐसा है टीपू के प्रदेश का चित्र।" सर जॉन शोर ने भी इसी प्रकार लिखा था, "टीपू के किसान सुरक्षित हैं और उन्हें श्रम के लिए प्रोत्साहन तथा उसका फल भी मिलता है। टीपू को अपने सैनिकों की राजभक्ति तथा विश्वास भी प्राप्त है।" ऐसे समय में जब सैनिक कमाण्डरों द्वारा दल बदलना साधारण बात थी, टीपू के सैनिकों ने उस अनुशासन तथा राजभक्ति का परिचय दिया जिसको यूरोपीय प्रेक्षकों ने भी सराहा है।
- विल्क्स का यह कहना है कि हैदर राज्य बनाने के लिए जन्मा और टीपू उसे खोने के लिए। यह ऐतिहासिक सत्य तो है परन्तु इससे टीपू की कार्यकुशलता तथा उकसी कठिनाइयों का पूर्ण परिचय नहीं मिलता जिनसे उसका साक्षात्कार हुआ। टीपू की वीरता तथा नवीन प्रयोगों की भावना प्रायः उसके अवगुण माने जाते हैं। हैदरअली ने तो प्राचीन वडियार वंश के झूठे ढोंग को जीवित रखा, परन्तु टीपू ने 1787 में बादशाह की उपाधि धारण करक ली, अपने नाम के सिक्के चलाए, वर्षों तथा महीनों के हिन्दू नामों के स्थान पर अरबी नामों का प्रयोग किया तथा नए पंचांग का प्ररम्भ किया। टीपू का नवीन परिवर्तन लाना केवल परिवर्तन नहीं था अपितु वे एक ाग्रत शासक द्वारा प्रारम्भ किए गए सुधार थे।
- साम्राज्यवादी लेखकों का टीपू को एक "सीधा सादा दैत्य" तथा धर्मान्ध शासक बतलाना, निश्चय ही सत्य नहीं। टीपू की धर्मपरायणता को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया गया है। यह सत्य है कि उसने हिन्दू कुर्गों तथा नायरों का दमन किया परन्तु जिन मुसलमान मोपलाओ ने उसकी आज्ञा का उल्लंघन किया उन्हें भी उसने क्षमा नहीं किया। कुछ वर्ष पूर्व मिले शृंगेरी पत्रों से पता चलता है कि जब 1791 में हुए मराठा आक्रमणों से श्रृंगेरी मन्दिर का भाग टूट गया तो शृंगेरी के मुख्य पुरोहित की प्रार्थना पर टीपू ने मन्दिर की मरम्मत के लिए तथा शारदा देवी की मूर्ति की स्थापना के लिए धन दिया। सुल्तान ने श्रीरंगापट्टम के दुर्ग में स्थित श्री रंगनाथ नरसिंह अथवा गंगाधारेश्वर के मन्दिरों की पूजा में कभी हस्तक्षेप नहीं किया।
- निश्चय ही दक्षिणी भारत के इतिहास में टीपू का एक बहुत आकर्षक व्यक्तित्व था। उस वीर और साहसी व्यक्ति ने आत्माभिमान कभी छोड़ा और वैल्जली की सन्धि का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। उसने पाश्चात्य साम्राज्यवाद की गाड़ी में बैठक कर निर्जीव जीवन व्यतीत करने के स्थान पर मृत्यु को आलिंगन करना श्रेयस्कर समझा। दुर्भाग्य यह था कि उसका एक ऐसे विरोधी से साक्षात्कार था जिसमें पूर्व भारत को रौंद देने की शक्ति थी। जीवित रहने वाले सैंकड़ों महाराजाओं तथा निजामों के स्थान पर उसके जीवन से आधुनिक भारतीयों को अधिक प्रेरणा मिलती है।