1757 से 1772 के दौरान बंगाल में अंग्रेजः क्लाइव द्वारा किए गए कार्य
क्लाइव एक कृत संकल्प तथा साहसी व्यक्ति था। उसके दृढ़ संकल्प में उसके सैनिक गुणों की झलक भी मिलती है।
(अ) असैनिक सुधारः
- कम्पनी अब एक राजनैतिक संस्था बन चुकी थी। अतएव प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता थी। बंगाल की तीन क्रांतियों (1757, 1760 तथा 1764) के कारण गवर्नर, पार्षद तथा कम्पनी के अन्य कार्यकर्त्ता पूर्णतया भ्रष्ट बन चुके थे। प्रत्येक व्यक्ति को केवल धन एकत्रित करने की पड़ी थी। घूस, बेईमानी तथा अन्य उपहार लेने की परम्परा बन चुकी थी। कम्पनी के कार्यकर्ता निजी व्यापार करते थे तथा आन्तरिक करों से बचने के लिए दस्तक का प्रयोग करते थे। वे कम्पनी के हितों की नहीं सोचते थे। क्लाइव ने उपहार लेने बन्द कर दिए, निजी व्यापार बन्द कर दिया। आन्तरिक कर देना अनिवार्य बना दिया। इन प्रतिबन्धों से जो हानि हुई उसकी क्षतिपूर्ति के लिए अगस्त 1765 में कम्पनी के कार्यकर्ताओं की एक व्यापार समिति बना दी गई जिसको नमक, सुपारी तथा तम्बाकू के व्यापार का एकाधिकार दे दिया गया। यह निकाय उत्पादको से समस्त माल मोल लेकर निश्चित केन्द्रों पर यह माल खुदरा व्यापारियों को बेच देता था। इस व्यापार के लाभ कम्पनी के अधिकारियों को उनके पद के क्रमानुसार बांट दिया जाता था। उदाहरण के लिए गवर्नर को 17,500 पौंड, सेना के कर्नन को 7,000 पौंड, मेजर को 2,000 पौंड तथ अन्य कार्यकर्ताओं को कम धन मिल जाता था।
- इस व्यवस्था के कारण सभी दैनिक प्रयोग की वस्तुओं के मोल बढ़ गए तथा बंगाल के लोगों को बहुत कठिनाई होने लगी। यह एक संगठित लूट थी। इस व्यापार समिति के कारण लोगों की कठिनाइयाँ बहुत बढ़ गईं। परन्तु कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्ज ने 1766 में इस योजना को अस्वीकार कर दिया। जनवरी 1767 को क्लाइव ने इस आशय के आदेश दे दिए तथा सितम्बर 1768 में यह योजना समाप्त हो गई।
(ब) सैनिक सुधारः
- 1763 में कोर्ट ऑफ डॉयरेक्टर्ज ने सैनिकों का दोहरा भत्ता बन्द कर दिया था। किसी कारणवश क्लाइव के आने तक इस पर आचरण नहीं हुआ था। यद्यपि आरम्भ में यह दोहरा भत्ता केवल युद्ध के दिनों में ही दिया जाता था, परन्तु मीर जाफर के दिनों से यह शान्ति काल में भी मिलने लगा था। अब यह सैनिकों के वेतन का भाग बन चुका था। इस प्रकार बंगाल में सैनिकों को मद्रास के सैनिकों की अपेक्षा दुगुना भत्ता मिलता था। क्लाइव ने आज्ञा दी कि यह दोहरा भत्ता बन्द कर दिया जाए तथा जनवरी 1766 से यह भत्ता केवल उन सैनिकों को ही मिलता था जो बंगाल तथा बिहार की सीमा से बाहर कार्य करते थे।
- 1772 में कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्ज ने दोहरी प्रणाली को समाप्त करने का निर्णय किया तथा कलकत्ता परिषद तथा उसके प्रधान को आज्ञा दी कि वे स्वयं दीवान बनें और बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के प्रबन्ध को अपने हाथ में ले लें। वॉरेन हेस्टिंग्ज ने दोनों उपदीवानों, मुहम्मद रजा खाँ तथा राजा शिताब राय को पच्यूत कर दिया। परिषद तथा प्रध ान मिलकर अब राजस्व बोर्ड (Board of Revenue) बन गए तथा बोर्ड ने अपने कर संग्राहक नियुक्त कर दिए जिनका कार्य कर व्यवस्था करना था। कोष मुर्शिदाबाद से कलकत्ता लाया गया। समस्त प्रशासन का बोझ कम्पनी के कार्यकर्ताओं पर डाल दिया गया तथा नवाब को इस कार्य का लेश मात्र भी अधिकार नहीं रहा। नवाब की अपनी स्वायत्तता थी परन्तु उसके निजी गृह-प्रबन्ध का पुनर्गठन किया गया और मीर जाफर की विधवा मुन्नी बेगम अल्पवयस्क नवाब मुबारिकुद्दौला की संरक्षक नियुक्त की गई। उसका भत्ता 32 लाख से घटा कर 16 लाख र कर दिया। फिर हेस्टिंग्ज ने मुगल सम्राट से अपने सम्बन्धों को पुनः स्पष्ट किया। 1765 से दिया जाने वाला 26 लाख ₹ वार्षिक बन्द कर दिया गया। सम्राट को दिए हुए इलाहाबाद तथा कारा के जिसे पुनः ले लिए गए तथा 50 लाख ₹ में अवध के नवाब को बेच दिए गए। यद्यपि बाह्य रूप से यह कहा गया कि सम्राट ने मराठों का संरक्षण स्वीकार कर लिया है परन्तु वास्तविक कारण केवल धन एकत्रित करना था। सम्राट के साथ यह सभी निर्णय एकपक्षीय तथा अन्यायपूर्ण थे। उसे कभी भी यह चेतावनी नहीं दी गई थी कि यदि वह मराठों का संरक्षण लेगा तो यह सब कुछ होगा। वॉरेन हेस्टिंग्ज का यह कार्य सर्वथा अन्यायपूर्ण ही था।
भूमि कर सुधारः
- 18वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में अकबर तथा अन्य मुगल सम्राटों की स्थापित की हुई कर-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। अब सर्वत्र अव्यवस्था थी।
- वॉरेन हेस्टिंग्ज का विश्वावस था कि समस्त भूमि शासक की है। उसने अनिश्चित संयुक्त तथा पुश्तैनी अधिकारों की अवहेलना की। जमींदारों को केवल कर संग्रहकर्ता ही माना जिन्हें कृषकों से कर संग्रह करने के लिए केवल अपनी आढ़त (commission) का ही अधिकार था।
- सन्तोषजनक राजस्व व्यवस्था स्थापित करने के लिए उसने सुप्रसिद्ध परीक्षण तथा अशुद्धि (trial and error) का नियम अपनाया।
- 1772 में वॉरेन हेस्टिंग्ज ने कर संग्रहण के अधिकार ऊंची बोली वाले को पांच वर्ष के लिए नीलाम कर दिए। इस तर्क पर कि जमींदार भूमि का स्वामी नहीं है, उसे नीलामी में कोई श्रेष्ठता नहीं दी गई अपितु उसके मार्ग में बाधा डाली गई।
- न्यायिक सुधार-वॉरन हेस्टिंग्ज ने मुगल रूपरेखा पर आधारित न्याय प्रणाली को अपनाने का प्रयत्न किया। 1772 में प्रत्येक जिले में एक दीवानी तथा एक फौजदारी न्यायालय स्थापित कर दिया गया। दीवानी न्याय कलक्टरों के अध ीन होता था। वे सभी प्रकार के मामले सुनते थे। हिन्दू विधि तथा मुसलमानों पर मुस्लिम विधि लागू होती थी। 500 र तक के मामले सुने जा सकते थे। उससे ऊपर सदर दीवानी अदालत में अपील हो सकती थी जिसके अध्यक्ष, सर्वोच्च परिषद् के प्रधान तथा दो अन्य सदस्य होते थे। उनकी सहायता के लिए भारतीय अधिकारी होते थे।
- जिला फौजदारी अदालत एक भारतीय अधिकारी के अधीन होती थी जिसकी सहायता के लिए मुफ्ती और एक काजी होता था। कलक्टर को यह देखना होता था कि साक्षी ठीक से ली गयी तथा उस पर ठीक-ठीक विचार किया गया है।
- न्याय खुली अदालत में होता था। यहां मुस्लिम कानून लागू होता था। मृत्युदण्ड तथा सम्पत्ति की जब्ती के लिए सदर निजामत अदालत को प्रमाणित करना (confirmation) आवश्यक था। जिला निजामत अदालत से अपील सदर निजामत अदालत में होती थी, जिसका अध्यक्ष उपनाजिम होता था। एक मुख्य काजी, एक मुख्य मुफ्ती तथा तीन मौलवी भी उसकी सहायता करते थे। इस सदर निजामत अदालत के कार्य का निरीक्षण परिषद तथा उसके अध्यक्ष करते थे।
- क्लाइव का मूल्यांकनः भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक क्लाइव ही था। उसने समय की गति को समझा तथा वह ठीक दिशा में बढ़ा। उसने अपने प्रतिद्वन्द्वी डूप्ले को मात दी तथा अधिक स्थायी परिणाम प्राप्त किए। उसका अरकाट को घेरना (1751) एक अत्यन्त कुशलतापूर्ण चाल थी जिससे कर्नाटक में फ्रांसीसियों के विरुद्ध पांसा पलट गया। (1757) के प्लासी के युद्ध में विजय के पश्चात् नवाब उसकी एक कठपुतली बन गया। बंगाल में साधनों का उपयोग करके उसने दक्षिण भारत को विजय कर लिया तथा फ्रांसीसियों को यहां से निकाल दिया। सर्वोपरि बात यह थी कि उसने व्यापारिक संस्था को प्रादेशिक संस्था बना दिया। बंगाल में इसकी भूमिका सम्राट-निर्माता की थी। जब 1765 में वह पुनः बंगाल आया तो उसने कम्पनी की नींव को दृढ़ बना दिया। सत्य ही बर्क ने उसी "बड़ी-बड़ी नींवें रखने वाला" की संज्ञा दी है।
- एक आधुनिक अध्ययन में पर्सीवल स्पीयर ने क्लाइव के विषय में कहा है कि "भारत में अंग्रेजी साम्राज्य तो बन ही जाता परन्तु उसका स्वरूप भिन्न होता तथा उसमें समय भी अधिक लगता।" उसके अनुसार, क्लाइव भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का निर्माता ही नहीं अपितु भविष्य का अग्रदूत था। वह साम्राज्य का संयोजक नहीं अपितु उसमें नए-नए प्रयोग करने वाला था जिसने नई सम्भावनाओं का पता लगाया। क्लाइव भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का अग्रमामी था।"
- क्लाइव की धन-लोलुपता तथा कुटिलता के आलोचक भी थे। अंग्रेजी संसद में उस पर बहुत से दोष लगाए गए कि उसने अवैध ढंग से उपहार प्राप्त किए, एक अशुद्ध परम्परा स्थापित की जिससे बंगाल में 1760 तथा 1764 की क्रांतियां हुई। उसने सोसाइटी फॉर ट्रेड बनाकर बंगाल को लूटने की योजना बनाई। दोहरी प्रणाली का उद्देश्य अंग्रेजी शक्ति की स्थापना था न कि जनता का हित। बंगाल को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की जागीर बना दिया गया। सरदार के. एम. पन्निकर ने सत्य ही कहा है कि 1765 से 1772 तक कम्पनी ने बंगाल में "डाकुओं का राज्य" स्थापित कर दिया तथा बंगाल को अविवेक रूप से लूटा। इस अवधि में अंग्रेजी साम्राज्य का सबसे भौंडा रूप देखने को मिला तथा बंगाल की जनता ने बहुत दुःख उठाया।
- क्लाइव एक राजनीतिज्ञ सिद्ध नहीं हुआ। व अन्तर्दर्शी तो था परन्तु दूरदर्शी नहीं। उसके प्रशासनिक सुधारों के कारण उसके उत्तराधिकारियों के लिए बहुत सी कठिनाइयाँ खड़ी हो गईं। प्रायः यह कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना का मुख्य उद्देश्य शान्ति तथा व्यवस्थाा बनाना था। इस कार्य में क्लाइव का कोई योगदान नहीं था। वस्तुतः उसके कार्य से अव्यवस्था ही फैली, व्यवस्था नहीं।