मैसूर एवं ब्रिटिश विस्तार का इससे प्रतिरोध
मैसूर एवं ब्रिटिश विस्तार का इससे प्रतिरोध
- 18वीं शताब्दी में समस्त भारत में साहसी वीर सैनिकों के लिए उत्थान के लिए उत्थान के पर्याप्त अवसर थे। इसी प्रकार का एक वीर योद्धा हैदर अली (जन्म 1727) था। उसने अपना जीवन एक घुड़सवार के रूप में आरम्भ किया और फिर मैसूर का वास्तविक शासक बन गया। शक्ति के इस हस्तांतरण की क्रिया मैसूर के राजा वडियार चिक कृष्णराज के काल में आरम्भ हुई 1731-34 के बीच दो भाइयों, देवराज (मुख्य सेनापति) तथा नंजाराज (राजस्व तथा वित्त के अधीक्षक) ने राज्य की समस्त शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली। दक्षिण में निजाम, मराठों, अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच हुए चतुष्कोणीय संघर्ष ने मैसूर को भी अपने अखाड़े में ला खड़ा किया। मराठों ने 1753, 1754, 1757 तथा 1759 में मैसूर प्रदेश पर आक्रमण किए। इन आक्रान्ताओं की अमिट धन-पिपासा ने मैसूर को संकट में डाल दिया। देवराज भी इन आक्रमणकारियों का प्रतिरोध करने में असफल रहा। ऐसे समय में हैदरअली सामने आया और 1761 तक वह मैसूर का वास्तविक शासक बन बैठा।
- उसने अनुभव किया कि एक संगठित सेना ही समय की मांग है। मराठों का प्रतिरोध करने के लिए उसे एक तीव्रगामी तथा शक्तिशाली घुड़सवार सेना चाहिए, तथा फ्रांसीसियों द्वारा प्रशिक्षित निजाम की सेना के लिए एक अच्छा तोपखाना चाहिए। वह जानता था कि शस्त्र निर्माण कार्य में यूरोपीय लोग बहुत आगे हैं। इसलिए उसने फ्रांसीसियों की सहायता से डिंडीगुल में शस्त्रागार स्थापित किया तथा अपनी सेना को प्रशिक्षण दिलवाया और शीघ्र वह कूटनीति में भी जोड़-तोड़ करने में सिद्धहस्त हो गया। 1761 और 1763 के बीच उसने होजकोट, दोड़बेल्लापुर, सेरा, बेदनूर इत्यादि प्रमुख स्थानों तथा दक्षिण के पोलीगारों को जीत लिया।
- मराठों ने पानीपत के तीसरे युद्ध की हार को शीघ्र ही भुला दिया तथा पेशता माधवराव के नेतृत्व मे पुनः उठ खड़े हुए। 1764, 1766 तथा 1771 में उन्होंने मैसूर प्रदेश पर आक्रमण कर हैदर अली को हराया तथा उसने धन और कुछ क्षेत्र देने पर बाध्य किया। परन्तु 1772 में माधवराव पेशवा की मृत्यु के पश्चात् गड़बड़ी के काल में हैदरअली ने 1774 और 1776 के बीच न केवल खोए हुए प्रदेश पुनः जीत लिए अपितु कृष्णा-तुंगभद्रा घाटी के प्रमुख प्रदेश, बेलारी, कुड्डपा, गूटी तथा करनूल इत्यादि प्रदेश भी प्राप्त कर लिया।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69):
- बंगाल में सुलभ विजय से उन्मत्त हुए अंग्रेजों ने 1776 में हैदराबाद के निजाम निजामअली से सन्धि कर ली जिससे कम्पनी ने उत्तरी सरकारों के बदलते निजाम को हैदरअली के विरुद्ध सायता देने का वचन दिया। हैदरअली का पहले ही अरकाट तथा मराठों से प्रदेश के मामलों पर झगड़ा था। शीघ्र ही हैदरअली ने देखा कि उसके विरुद्ध, निजाम, मराठों तथा कर्नाटक के नवाब का सम्मिलित मोर्चा बन गया है हैदरअली विचलित नहीं हुआ और उसने कूट-नीति से काम लिया। उसने मराठों को धन देकर और निजाम को प्रदेश का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया और फिर कर्नाटक पर आक्रमण किया। डेढ़ वर्ष के अनिर्णायक युद्ध के पश्चात् हैदरअली ने अंग्रेजों के विरुद्ध बाजी उलट दी तथा मद्रास को घेर लिया। भयभीत हुए अंग्रेजों ने उससे एक तिरस्कारपूर्ण सन्धि कर ली (4 अप्रैल, 1769), जिसमें दोनों पक्षों ने विजित प्रदेश लौटा लिए तथा दोनों दलों ने एक दूसरे को आरक्षण के लिए सहायता करने का वचन दिया अर्थात् अंग्रेजों को हैदरअली को सहायता देने का वचन देना पड़ा।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84):
- 1769 की सन्धि, सन्धि न रहकर केवल युद्ध विराम ही रह गया था। हैदरअली पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने, 1769 की सन्धि के अनुकूल सहायता नहीं की थी। दूसरे हैदरअली ने देखा कि उसकी बन्दूकों, तोपों, शोरे तथा बारूद की आवश्यकताओं के लिए अंग्रेजों के स्थान पर फ्रांसीसी अधिक सहायक थे। कुछ सैनिक सामान, मालाबार तट पर स्थित फ्रांसीसी बन्दरगाह माही के द्वारा भी मैसूर पहुंचता था। दूसरी ओर पश्चिम में अमरीका का स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ हो गया था। चूंकि फ्रांसीसी अमरीका की ओर से इस युद्ध में सम्मिलित हो गए थे अतएव वॉरन हेस्टिंग्ज को हैदरअली-फ्रांसीसी सम्बन्धों पर बहुत सन्देह था। इन परिस्थितियों में जब अंग्रेजों ने माही-जिसे हैदरअली अपने संरक्षण में समझता था-को जीतने का प्रयत्न किया तो यह हैदरअली को स्पष्ट चुनौती थी।
- हैदरअली ने निजाम तथा मराठों से मिलकर सबके शत्रु-ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बना लिया। जुलाई 1780 में हैदरअली ने कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया तथा कर्नल बेली के अधीन अंग्रेजी सेना को हराकर अरकाट जीत लिया। इसी बीच अंग्रेजों ने निजाम तथा मराठों को हैदरअली से अलग कर लिया। हैदरअली ने दृढ़तापूर्वक इस स्थिति का सामना किया परन्तु पोर्टो नोवो के स्थान पर परास्त हुआ (नवम्बर 1781)। परन्तु अगले वर्ष ही हैदरअली ने कर्नन ब्रेथवेट के अधीन अंग्रेजों को बुरी तरह हराया। ब्रेथवेट को युद्धबन्दी बना लिया गया। परन्तु 7 दिसम्बर, 1782 को हैदरअली की मृत्यु हो गई तथा कार्य भार उसके पुत्र टीपू सुल्तान के सिर पर आ पड़ा। टीपू ने एक वर्ष तक युद्ध जारी रखा परन्तु दोनों पक्ष ही निश्चित विजय नहीं प्राप्त कर सके। अन्त में दोनों पक्षों ने सन्धि करना उचित समझा और मार्च 1784 में मंगलोर की सन्धि द्वारा दोनों पक्षों ने विजित प्रान्त लौटा दिए। युद्ध का यह दूसरा दौर अनिश्चित रहा।
तीसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92):
- अंग्रेजी साम्राज्यवाद की परम्परा के अनुकूल, अंग्रेजों ने इस सन्धि को आने वाले आक्रमण के लिए केवल सांस लेने का समय ही माना। यद्यपि 1784 के पिट्स इण्डिया अधिनियम में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि कम्पनी कोई नया प्रदेश जीतने का प्रयत्न नहीं करेगी, तो भी लार्ड कॉर्नवालिस ने निजाम तथा मराठों की टीपू विरोधी भावनाओं से प्रेरित होकर 1790 में टीपू के विरुद्ध त्रिदलीय संगठन रचा। टीपू को भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध अवश्यम्भावी प्रतीत होता था। अतएव उसने तुर्कों से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया तथा 1784 और 1785 में कुस्तुन्तुनिया (आधुनिक) को एक राजदूत भेजा। 1787 में उसने एक दूतमण्डल फ्रांस भी भेजा।
- टीपू का ट्रावनकोर के महाराजा से झगड़ा उस समय हुआ जब महाराजा ने डच लोगों से कोचीन रियासत में स्थित जैकौटै तथा क्रगानूर मोल लेने का प्रयत्न किया। टीपू कोचीन रियासत को अपने अधीन मानता था और उसने ट्रावनकोर के इस प्रयत्न को अपनी सत्ता में हस्तक्षेप माना। उसने अप्रैल 1790 में ट्रावनकोर पर आक्रमण करने का निर्णय किया। अंग्रेजों ने जो युद्ध के लिए पहले से ही उद्यत बैठे थे, ट्रावनकोर के राजा का पक्ष लिया, क्योंकि 1784 में दोनों पक्षों के बीच इस आशय की सन्धि हुई थी। कॉर्नवालिस ने एक बड़ी सेना की सहायता से टीपू पर आक्रमण कर दिया और वैल्लौर तथा अम्बूर से होता हुआ वह बंगलौर पर चढ़ आया जो उसने मार्च 1791 में जीत लिया तथा श्रीरंगापट्टम तक पहुंच गया। अंग्रेजों ने कोइम्बटूर भी जीत लिया परन्तु शीघ्र ही उसे पुनः हाथ से खो बैठे। मराठा तथा निजाम की सहायता से उन्होंने पुनः श्रीरंगापट्टम की ओर चढ़ाई की। टीपू ने कड़ा प्रतिरोध किया परन्तु जब उसने देखा कि युद्ध जारी रखना असम्भव है तो उसने श्रीरंगापट्टम की सन्धि कर ली (मार्च 1792)। इसके अनुसार उसे अपने देश का लगभग आध 1 भाग अंग्रेजों तथा उनके साथियों को देना पड़ा। इसके अंतर्गत अंग्रेजों को बारा महल, डिंडीगुल तथा मालाबार मिला, तथा मराठों को तुंगभद्रा नदी के उत्तर का भाग मिला और निजाम को पन्नार तथा कृष्णा नदी के बीच का भाग मिला। टीपू को 3 करोड़ र युद्ध क्षति के रूप में भी देना पड़ा। युद्ध के इस दौर में टीपू की बहुत क्षति हुई तथा वह अपने राज्य को पूर्णतया समाप्त होने से बहुत कठिनाई से ही बचा पाया। कॉर्नवालिस ने इस स्थिति को निम्नलिखित शब्दों में वर्णित किया है: "हमने अपने शत्रु को प्रभावशाली ढंग से पंगु बना दिया है तथा अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं बनने दिया।"
चौथा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799):
- भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीति का मुख्य अंग यह था कि युद्ध करो। फिर अपने आपको आने वाले युद्ध के लिए तैयार करने के लिए शान्ति की नीति अपनाओ। 1798 में लार्ड वैलेजली आया जो एक साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल था। दूसरे उस समय नेपोलियन का भय समस्त यूरोप पर छाया हुआ था। ऐसा होना शान्ति बनाए रखने के लिए उपयुक्त नहीं था। उसने दृढ़ निश्चय किया हुआ था कि या तो टीपू को पूर्णतया समाप्त कर दो अथवा उसे पूर्णतया अपने अधीन कर लो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने सहायक सन्धि का मार्ग अपनाया। उसने टीपू सुल्तान पर यह दोष लगाया कि वह निजाम तथा मराठयों के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा है, अथवा अरब, अफगानिस्तान के जमानशाह, कुस्तुन्तुनिया, मॉरीशस में फ्रांसीसी अधिकारियों अथवा वरसाई में डाइरेक्टरी इत्यादि के साथ, अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए पत्र-व्यवहार कर रहा है। यह सभी बहाने उसकी उद्देश्य पूर्ति के लिए पर्याप्त थे। टीपू ने उत्तर में कहा कि केवल 40 काले रंग के फ्रांसीसी, जिनमें से 10 अथवा 12 शिल्पी तथा नौकर थे, जिन्होंने जहाज का किराया भी स्वयं दिया है, यहां काम की खोज में आए थे। इस उत्तर को स्वीकार नहीं किया गया और अप्रैल 1799 में टीपू के विरुद्ध अभियान आरम्भ कर दिया गया। 4 मई 1799 को श्रीरंगापट्टम का दुर्ग जीत लिया गया तथा मैसूर की स्वतंत्रता समाप्त हो गई। टीपू ने लड़ते-लड़ते वीर गति पाई। उसके कुल के सदस्यों को वैल्लोर में कैद कर दिया गया। अंग्रेजों ने कन्नड़, कोइम्बटूर, वेनाड़, धारपुरम तथा मैसूर का समस्त समुद्री तट अपने प्रदेश में विलय कर लिया। कुल प्रदेश निजाम को भी दिए गए। वडियार वंश का एक बालक मैसूर का राजा बना दिया गया तथा सहायक सन्धि देश पर लाद दी गई।