फ्रांसीसियों की पराजय के कारण
फ्रांसीसियों की पराजय के कारण
फ्रांसीसियों ने एक समय में अपनी राजनैतिक विजयों से भारतीय संसार को स्तब्ध कर दिया था। परन्तु अन्ततः वे हार गए। इस पराजय के कारण निम्नलिखित थेः
फ्रांसीसियों का यूरोप में उलझनाः
- अठारहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी सम्राटों की यूरोपीय महत्त्वकांक्षाओं के कारण उनके साधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ा। यये सम्राट फ्रांस की प्राकृतिक सीमाओं को स्थापित करने के लिए इटली, बेलजियम तथा जर्मनी में बढ़ने का प्रयत्न कर रहे थे तथा वे उन देशों से युद्धों में उलझ गए। वास्तव में उन्हें इस क्षेत्र में कुछ शत वर्ग मील के क्षेत्र की अधिक चिन्ता थी तथा भारत तथा उत्तरी अमरीका में कई गुना अधिक बड़े क्षेत्र की कम। फलस्वरूप ये उपनिवेश तो पूर्णतया हाथ से जाते रहे तथा यूरोप में नहीं के बराबर ही का क्षेत्र उनको मिल सका। इंग्लैण्ड अपने आप को यूरोप से पृथक मानता था तथा उसकी उस प्रदेश में प्रसार की कोई इच्छा नहीं थे। यूरोप में उसकी भूमिका केवल शक्ति-संतुलन बनाए रखने की ही थी। वह एकचित होकर अपने उपनिवेशों के प्रसार में लगा हुआ था। उसे निश्चय ही सफलता मिली और उसने भारत तथा उत्तरी अमरीका में फ्रांस को पछाड़ दिया।
दोनों देशों की प्रशासनिक भिन्नताएँ-
- वास्तव में फ्रांसीसी इतिहासकारों ने अपने देश की असफलता के लिए अपनी घटिया शासन प्रणाली को दोषी ठहराया है। फ्रांसीसी सरकार स्वेच्छाचारी थी तथा सम्राट के व्यक्तित्व पर ही निर्भर करती थी। महान सम्राट लुई चौदहवें (1648-1715) के काल से ही इस प्रशासन की कमजोरियाँ स्पष्ट हो रही थीं। उस काल के अनेक युद्धों के कारण वित्तीय परिस्थिति बिगड़ गई थी। उसकी मृत्यु के पश्चात् यह अवस्था और भी बिगड़ गई। उसके उत्तराधिकारी लुई पन्द्रहवें ने अपनी रखैलों, कृपापात्रों तथा ऐश्वर्य साधनों पर और भी धन लुटाया। दूसरी ओर इंग्लैण्ड में एक जागरूक अल्पतंत्र राज्य कर रहा था। ह्निग दल के अधीन उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाए और देश "एक प्रकार से अभिषिक्त गणतंत्र" बन गया था। यह व्यवस्था उत्तम थी तथा इसने देश को दिन प्रतिदिन शक्तिशाली बना दिया। आल्फ्रेड लायल ने फ्रांसीसी व्यवस्था के खोखलेपन को ही दोषी ठहराया है। उसके अनुसार, डूप्ले की वापिसी, ला बोडोंने तथा डआश की भूलें, लाली की अदम्यता, इत्यादि से कहीं अधिक लुई पन्द्रहवें की भ्रांतिपूर्ण नति तथा उसके अक्षम मंत्री फ्रांस की असफलता के लिए उत्तरदायी थे।
दोनों कम्पनियों के गठन में भिन्नता-
- फ्रांसीसी कम्पनी सरकार का एक विभाग था। कम्पनी 55 लाख लीव्र (फ्रैंक) की पूंजी से बनाई गई थी जिसमें से 35 लाख लीव्र सम्राट ने लगाए थे। इस कम्पनी के डाइरेक्टर सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते थे तथा लाभांश सरकार द्वारा प्रत्याभूत था अतएव उन्हें कम्पनी की समृद्धि में कोई विशेष अभिरूचि नहीं थी। उदासीनता इतनी थी कि 1715 और 1765 के बीच कम्पनी के भागीदारों की एक बैठक नहीं हुई तथा कम्पनी का प्रबन्ध सरकार ही चलाती रही। फलस्वरूप कम्पनी की वित्तीय अवस्था बिगड़ती चली गई। एक समय में उनकी यह दुर्दश हो गई कि उन्हें अपने अधिकार से मालो के व्यापारियों को वार्षिक धन के बदले देने पड़े। 1721 से 1740 तक कम्पनी उधार लिए धन से ही व्यापार करती रही। कम्पनी को समय-समय पर सरकार से सहायता मिलती रही तथा वह तम्बाकू के एकाधिकार तथा लॉटरियों के सहारे ही चलती रही। ऐसी कम्पनी डूप्ले की मंहगी महत्त्वकांक्षाओं तथा युद्धों की पूर्ति नहं कर सकती थी।
- दूसरी ओर अंग्रेज कम्पनी एक नीजि व्यापारिक कम्पनी थी। उसके प्रबन्ध में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। प्रशासन इस कम्पनी के कल्याण में विशेष रुचि दर्शाता था। वित्तीय अवस्था अधिक सुदृढ़ थी। व्यापार अधिक था तथा व्यापारिक प्रणाली भी अधिक अच्छी थी। कम्पनी के डाइरेक्टर सदैव व्यापार वे महत्त्व पर बल देते थे। पहले व्यापार फिर राजनीति। यह कम्पनी अपने युद्धों के लिए प्रायः पर्याप्त धन स्वयं अर्जित कर लेती थी। आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि 1736-65 के बीच अंग्रेजी कम्पनी ने 412 लाख पाऊंड और फ्रांसीसी कम्पनी ने 114.5 लाख पाऊंड का माल बेचा। वित्तीय अवस्था से अंग्रेजी कम्पनी इतनी धनाढ्य थी कि डर था कि कहीं संसद लोभ में न आ जाए। हुआ भी यही 1767 में संसद ने कम्पनी को आदेश दिया कि वह 4 लाख पाऊंड वार्षिक अंग्रेजी कोष में दिया करे। एक बार यह भी सुझाव था कि कम्पनी की सहायता से राष्ट्रीय ऋण का भुगतान किया जाए।
नौसेना की भूमिका-
- कर्नाटक के युद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कम्पनी के भाग्य का उदय अथवा अस्त नौसेना की शक्ति पर निर्भर था। 1746 में फ्रांसीसी कम्पनी को पहले समुद्र में फिर थल पर विशिष्टता प्राप्त हुई। इसी प्रकार 1748-51 तक भी जो सफलता डूप्ले को मिली वह उस समय थी जब अंग्रेजी नौसेना निष्क्रिय थी। सप्तवर्षीय युद्ध के दिनों में यह पुनः सक्रिय हो गई। उसकी वरिष्ठता के कारण काऊंट लाली, डूप्ले जितनी सफलता प्राप्त नहीं कर सका और जब डआश भारतीय समुद्रों से चला गा तो मार्ग अंग्रेजों के लिए बिलकुल साफ था तथा अंग्रेजों की विजय में कोई संदेह नहीं रह गया था। वॉल्टेयर के अनुसार ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध में फ्रांस की जल शक्ति का इतना ह्रास हुआ कि सप्तवर्षीय युद्ध के समय उसके पास एक भी जल पोत नहीं था। बड़े पिट ने इस वरिष्ठता का पूर्ण लाभ उठाया। न केवल भारतीय व्यापार मार्ग खुले रहे अपितु बम्बई से कलकत्ता तक जल मागों द्वारा सेना का लाना ले जाना अबाध रूप से चलता रहा। फ्रेंच सेना का पृथक्करण पूर्ण रहा। यदि शेष कारण बराबर भी होते तो भी यह जल सेना की वरिष्ठता फ्रांसीसियों को परास्त करने के लिए पर्याप्त थी।
- बंगाल में अंग्रेजी सफलताओं का प्रभाव अंग्रेजों की बंगाल में विजय एक महत्त्वपूर्ण कारण था। न केवल इससे इनकी प्रतिष्ठ बढ़ी, अपितु इससे बंगाल का अपार धन तथा जनशक्ति उन्हें मिल गई। जिस समय काऊंट लाली को अपनी सेना को वेतन देन की चिन्ता थी, बंगाल-कर्नाटक में धन तथा जन दोनों भेज रहा था। दक्कन इतना धनी नहीं था कि डूप्ले तथा लाली की महत्त्वकांक्षाओं को साकार कर सकता। यद्यपि उत्तरी सरकार बुस्सी के पास थी परन्तु वह केवल डेढ़ लाख ₹ ही भेज सका अधिक नहीं।
- वास्तव में अंग्रेजों की वित्तीय वरिष्ठता का बहुत महत्त्व था जैसा कि स्मिथ ने कहा है कि "न अकेले तथा न मिलकर ही डूप्ले अथवा बुस्सी जल में वरिष्ठ तथा धन में गंगा की घाटी के वित्तीय स्रोतों के स्वामी अंग्रेजों को परास्त कर सकते थे। पाण्डेचेरी से आरम्भ करके सिकन्दर महान तथा नेपोलियन भी बंगाल तथा समुद्री वरिष्ठता प्राप्त शक्ति को परास्त नहीं कर सकते थे। मेरियट ने ठीक ही कहा है कि डूप्ले ने मद्रास में भारत की चाबी खोजने का निष्फल प्रयत्न किया। क्लाइव ने यह चाबी बंगाल में खोजी तथा प्राप्त कर ली।"