कर्नाटक युद्ध (Karnatak War) से संबन्धित महत्वपूर्ण जानकारी
कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48):
- यह युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध का जो 1740 में आरम्भ हुआ था, विस्तार मात्र ही था। गृह सरकारों की आज्ञा के विरुद्ध ही दोनों दलों में 1746 में युद्ध हो गया। बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जल पोत पकड़ लिए।
- डूप्ले ने जो 1741 से पाण्डीचेरी का फ्रेंच गवर्नर जनरल था, मॉरीशस स्थित फ्रांसीसी गवर्नर ला बूडोंने (La Bourdonnais) से सहायता मांगी। ला बूडोंने 3000 सैनिक लेकर कोरोमण्डल तट (मद्रास के पास का तट) की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसने अंग्रेजी नौसेना को परास्त किया। मद्रास को जल तथा थल दोनों ओर से फ्रांसीसियों ने घेर लिया। 21 सितम्बर को मद्रास ने आत्मसमर्पण कर दिया।
- युद्धबन्दियों में क्लाइव भी था। ला बूर्डोने का विचार इस नगर से फिरौती लेने का था परन्तु डुप्ले नहीं माना। ला बूोंने ने एक अच्छी राशि के बदले नगर लौटा दिया। परन्तु डूप्ले ने इसको स्वीकार नहीं किया तथा नगर पुनः जीत लिया। परन्तु वह फोर्ट सेन्ट डेविड जो पाण्डीचेरी से केवल 18 मील दक्षिण में स्थित था उसे जीतने में असफल रहा। दूसरी ओर एक अंग्रेजी स्क्वाड्रन ने रीयर एडमिरल बोस्कावे के नेतृत्व में पाण्डीचेरी को घेरने का असफल प्रयत्न किया।
- कर्नाटक का प्रथम युद्ध सेन्ट टोमे के युद्ध के लिए स्मरणीय है। यह युद्ध फ्रांसीसी सेना तथा कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (1744-49) के नेतृत्व में भारतीय सेना के बीच लड़ा गया। झगड़ा फ्रांसीसियों द्वारा मद्रास की विजय पर हुआ। नवाब ने दोनों कम्पनियों को लड़ते हुए देखकर उन्हें आज्ञा दी कि वे युद्ध बन्द करें तथा देश की शान्ति भंग न करें। डूप्ले ने मद्रास को जीत कर नवाब को दे देने का प्रस्ताव किया था। परन्तु जब डूप्ले ने अपना वचन पूरा नहीं किया तो नवाब ने अपनी मांग स्वीकार कराने के उद्देश्य से अपनी सेना भेजी।
- कैप्टिन पेराडाइज (Paradise) के अधीन एक छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने जिसमें 230 फ्रांसीसी तथा 700 भारतीय सैनिक थे, महफूज खां के नेतृत्व में 10,000 भारतीय सेना को अदयार नदी पर स्थित सेन्ट टोमे के स्थान पर पराजित कर दिया। कैप्टिन पेराडाइज की इस विजय ने विदेशी यूरोपीय अनुशासित सेना की ढीली तथा असंगठित भारतीय सेना पर श्रेष्ठता को स्पष्ट कर दिया।
- यूरोप में युद्ध बन्द होते ही कर्नाटक का प्रथम युद्ध समाप्त हो गया। ए ला शापल की सन्धि (1748) से ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया तथा मद्रास अंग्रेजों को पुनः प्राप्त हो गया।
- युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे। स्थल पर फ्रांसीसी श्रेष्ठ रहे। डूप्ले ने अपनी असाधारण दक्षता तथा राजनीति का प्रदर्शन किया। यद्यपि अंग्रेज पाण्डेचेरी को नहीं जीत सके तो भी इस युद्ध से नौसेना का महत्त्व स्पष्ट हो गाय।
कर्नाटक का दूसरा युद्ध (1749-54):
- कर्नाटक के प्रथम युद्ध से डूप्ले की राजनैतिक पिपासा जाग उठी तथा उसने फ्रांसीसी राजनैतिक प्रभाव के प्रसार के उद्देश्य से भारतीय राजवंशों के परस्पर झगड़ों में भाग लेने की सोची। मालेसन (Malleson) ने इस स्थिति का वर्णन यों किया है, "महत्वाकांक्षाएं जाग उठीं, परस्पर द्वेष बढ़ गए। जब बढ़ते हुए प्रभाव की आकांक्षाएँ द्वार खटखटा रही थीं तो उन्हें (यूरोपीय) शान्ति से क्या लेना-देना। यह सुअवसर हैदराबाद तथा कर्नाटक के सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण प्राप्त हुआ।"
- आसफजाह जिसने दक्कन में लगभग स्वायत्ततापूर्ण राज्य बना लिया था, 21 मई, 1748 को स्वर्ग सिधार गया। उसका पुत्र नासिरजंग (1748-50) उसका उत्तराधिकारी बना। परन्तु उसके भतीजे (आसफजाह के पौत्र मुजफ्फरजंग ने दावे को चुनौती दी। दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा उसके बहनोई चन्दा साहिब के बीच विवाद था। शीघ्र ही ये दोनों विवाद एक बड़े विवाद में परिवर्तित हो गए और हमें दलों के बनने तथा टूटने की क्रिया का प्रदर्शन मिला।
- डूप्ले ने इस अनिश्चित अवस्था से राजनैतिक लाभ उठाने की सोची तथा मुजफ्फरजंग को दक्कन की सूबेदारी तथा चन्दा साहिब को कर्नाटक की सूबेदारी के लिए समर्थन देने की बात सोची। अपरिहार्य रूपेण अंग्रेजों को नासिरजंग तथा अनवरुद्दीन का साथ देना पड़ा। डूप्ले को अद्वितीय सफलता मिली। मुजफ्फरजंग चन्दा साहिब तथा फ्रेंच सेनाओं ने 1749 के अगस्त मास में वेल्लौर के समीप अम्बूर के स्थान पर अनवरुद्दीन को हराकर मार दिया। दिसम्बर 1750 में नासिरजंग भी एक संघर्ष में मारा गया। मुजफ्फरजंग दक्कन का सूबेदार बन गया तथा उसने अपने हितकारियों को बहुत से उपहार दिए। डूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिणी भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त कर दिया। उत्तरी सरकारों के कुछ जिले भी फ्रांसीसियों को दे दिए। इसके अतिरिक्त मुजफ्फरजंग की प्रार्थना पर एक फ्रेंच सेना की टुकड़ी बुस्सी की अध्यक्षता में हैदराबाद में तैनात कर दी गई। 1751 में चन्दा साहिब कर्नाटक के नवाब बन गए। डूप्ले इस समय अपनी राजनैतिक शक्ति की चरम सीमा पर पहुंच गया था।
- फ्रांसीसियों के लिए प्रतिकर्ष (anti-climax) आने में देर नहीं लगी। स्वर्गीय अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली ने त्रिचनापली में शरण लीं फ्रांसीसी तथा चन्दा साहिब मिल कर भी त्रिचनापली के दुर्ग को जीत नहीं पाए। अंग्रेजों की सिीत इस फ्रेंच विजय से डांवा डोल हो गई थी। क्लाइव ने जो त्रिचनापली के फ्रांसीसी घेरे को तोड़ने में असफल रहा था, त्रिचनापली पर दबाव कम करने के लिए कर्नाटक की राजधानी अरकाट को केवल 210 सैनिकों की सहायता से जीत लिया। चन्दा साहिब ने 4,000 सैनिक भेजे परन्तु अरकाट को पुनः नहीं जीत सके तथा क्लाइव ने 53 दिन तक (23 सितम्बर से 14 नवम्बर तक) इस सेना का प्रतिरोध किया। फ्रांसीसियों की प्रतिभा को इससे अनन्त क्षति पहुंची। 1752 में स्ट्रिंगर लॉरेन्स के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापली को बचा लिया तथा जून 1752 में घेरा डालने वाली फ्रांसीसी सेना ने अंग्रेजों के आगे हथियार डाल दिए। चन्दा साहिब की भी धोखे से तंजौर के राजा ने हत्या कर दी।
- फ्रांसीसी कम्पनी के डायरेक्टरों ने इस युद्ध में हुई धन की हानि के लिए डूप्ले को वापिस बुला लिया। 1754 में गोडेहू (Godeheu) को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गवर्नर जनरल तथा डूप्ले का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया तथा 1755 में दोनों कम्पनियों के बीच एक अस्थायी सन्धि हो गई।
- इस प्रकार इस झगड़े का दूसरा दौर भी अनिश्चित रहा। स्थल पर अंग्रेजी सेना की प्रधानता सिद्ध हो गई थी तथा उनका प्रत्याशी मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बन गया था। परन्तु हैदराबाद में अभी भी फ्रांसीसी सृदृढ़ अवस्था में थे तथा उन्होंने सूबेदार सालारजंग से और भी अधिक जागीर प्राप्त कर ली थी। (वास्तव में मुजफ्फरजंग एक छोटी सी झड़प में फरवरी 1751 में मारा गया था।) उत्तरी सरकारों के महत्त्वपूर्ण जिले जिनकी वार्षिक आय 30 लाख ₹ थी, फ्रांसीसी कम्पनी को अर्पण कर दिए थे। इस दूसरे युद्ध से फ्रांसीसियों की प्राथमिकता को कुछ ठेस पहुँची तथा अंग्रेजों की स्थिति दृढ़ हो गई।
कर्नाटक का तीसरा युद्ध (1758-63):
- यह युद्ध भी यूरोपीय संघर्ष का ही भाग था। 1756 में सप्तवर्षीय युद्ध के आरम्भ होते ही भारत में दोनों कम्पनियों के बीच शान्ति समाप्त हो गई। फ्रांसीसी सरकार ने अप्रैल 1757 मे काऊन्ट लाली को भारत भेजा। लगभग 12 मास की यात्रा के पश्चात् अप्रैल 1758 में वह भारत पहुंचा। इसी बीच अंग्रेज सिराजुद्दौला को पराजित कर बंगाल पर अपना अधिकार स्थापित कर चुके थे। इसके कारण अंग्रेजों को अपार धन मिला जिससे वे फ्रांसीसियों को दक्कन में पराजित करने में सफल हुए।
- काऊंट लाली ने 1758 में ही फोर्ट सेन्ट डेविड जीत लिया। इसके पश्चात् उसने तंजौर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे दी क्योंकि उस पर 56 लाख र शेष था। यह अभियान असफल रहा जिससे फ्रांसीसी ख्याति को हानि पहुंची। इसके पश्चात् लाली ने मद्रास को घेर लिया परन्तु एक शक्तिशाली नौसेना के आने पर उसे यह घेरा उठाना पड़ा। फिर लाली ने बुस्सी को हैदराबाद से वापिस बुला लिया। यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी। इसके कारण वहां फ्रांसीसियों की स्थिति कमजोर हो गई। दूसरी ओर पोकॉक के नेतृत्व में अंग्रेजी बेड़े ने डआशा के नेतृत्व में फ्रांसीसी बेड़े को तीन बार पराजित किया तथा उसे भारतीय सागर से लौट जाने पर बाध्य कर दिया। इससे अंग्रेजी विजय स्पष्ट हो गई तथा 1760 में सर आयरकूट ने वन्दिवाश के स्थान पर फ्रांसीसियों को बुरी तरह पराजित किया। बुस्सी युद्धबन्दी बना लिया गया। जनवरी 1761 में फ्रांसीसी पूर्ण पराजय के पश्चात् पाण्डीचेरी लौट आए। अंग्रेजों ने इसे भी घेर लिया तथा 8 मास पश्चात् फ्रांसीसियों ने इस नगर को भी शत्रु के हवाले कर दिया। शीघ्र ही माही तथा जिंजी भी इनके हाथ से निकल गए। इस प्रकार आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वन्द्विता का नाटक समाप्त हो गया तथा फ्रांसीसी हार गए।
- इस प्रकार युद्ध का तीसरा दौर पूर्णरूपेण निर्णायक सिद्ध हुआ। यद्यपि युद्ध के अन्त में (1763 में) पाण्डीचेरी तथा कुछ अन्य फ्रांसीसी प्रदेश उन्हें लौटा तो दिए गए परन्तु उनकी किलाबन्दी (fortification) नहीं हो सकती थी तथा भारत से उनका पत्ता कट गया।