व्यक्तित्व की होता है ? व्यक्तित्व के निर्माण के प्रमुख आधार
व्यक्तित्व क्या होता है ?
- साधारण बोल-चाल की भाषा में लोग व्यक्तित्व का मतलब बाहरी रंग-रूप तथा वेश-भूषा समझते हैं, किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं। व्यक्तित्व मनुष्य का सिर्फ बाहरी गुण नहीं जो उसकी शारीरिक रचना से स्पष्ट होता है। पहले व्यक्तित्व का अध्ययन सिर्फ मनोविज्ञान में होता था, किन्तु अब मानवशास्त्र में भी यह चर्चा का विषय बन गया है। मानव शास्त्र के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण अध्ययन हुए हैं, जो व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कृति की भूमिका को महत्वपूर्ण दर्शाते हैं।
- 'व्यक्तित्व' शब्द अंग्रेजी के 'Personality' का हिन्दी रूपान्तरण है, जो लैटिन के 'Persona' शब्द से बना है। इसका अर्थ आकृति तथा नकाब होता है। नाटक आदि में लोग नकाब पहनकर विशेष भूमिका अदा करते हैं। भूमिका बदलने पर नकाब भी बदल लेते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भिन्न-भिन्न भूमिकाओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के नकाब होते हैं। जिस प्रकार की भूमिका अदा करनी होती है, उसी प्रकार के नकाब पहने जाते हैं।
- यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि व्यक्तित्व का अर्थ सिर्फ चेहरा, रंग, कद तथा पोशाक नहीं है। इसके अन्तर्गत शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं का समावेश होता है।
आलपोर्ट के अनुसार- व्यक्तित्व
- "व्यक्तित्व, व्यक्ति के मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो उसका पर्यावरण के साथ अनोखा सामंजस्य निर्धारित करता है। उन्होंने अपनी परिभाषा के द्वारा यह स्पष्ट करना चाहा है कि व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक गुणों का परिवर्तनशील योग है, जो पर्यावरण के साथ उसके अनुकूलन को निर्धारित करता है। इसी के कारण व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग ढंग से व्यवहार करता है ।
पार्क एवं बर्गेस के अनुसार, व्यक्तित्व
- व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यवहारों के उन पक्षों का योग है जो समुह में व्यक्ति की भूमिका निर्धारित करता है आलपोर्ट की तरह ही पार्क एवं बर्गेस ने भी व्यक्तित्व को विभिन्न गुणों का योग बताया है। इन्हीं गुणों के द्वारा समूह में व्यक्तित्व के व्यवहार और भूमिका निर्धारित होते हैं।
उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट होता है कि व्यक्तित्व के निर्माण में शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पक्षों का योगदान होता है। यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का योगदान होता है। यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का सदस्य होते हुए भी दूसरों से अलग व्यक्तित्व का विकास करता है।
व्यक्तित्व के निर्माण के प्रमुख आधार
व्यक्तित्व के निर्माण के तीन प्रमुख आधार होते हैं
1. शारीरिक पक्ष
2. समाज
3. संस्कृति
व्यक्तित्व के विकास में इन तीनों का हाथ होता है, अर्थात् इन्हीं की अन्तः क्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का विकास होता है
व्यक्तित्व के निर्माण का शारीरिक आधार
- इसके अन्तर्गत व्यक्ति की शारीरिक बनावट, आकार, रंग-रूप, कद, वजन आदि आते हैं। साधारण तौर पर व्यक्ति इन्हीं के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करता है। अर्थात् शारीरिक रंग-रूप को देखकर व्यक्ति को आकर्षण अथवा बड़े व्यक्तित्व का बताया जाता है। वंशानुक्रमणवादी व्यक्तित्व के निर्माण में इसी आधार को महत्वपूर्ण बताते हैं। इनके अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रमण, शरीर रचना, बुद्धि एवं प्रतिभा, स्नायुमण्डल तथा अन्तः स्त्रावी ग्रन्थियों का योगदान होता है।
व्यक्तित्व के निर्माण का सामाजिक आधार
- इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण सामाजिक पर्यावरण आता है। समाज के अभाव में व्यक्तित्व का विकास सम्भव नहीं है। यदि किसी व्यक्ति की प्राणिशास्त्रीय रचना बहुत ही अच्छी है, किन्तु वह सामाजिक सम्पर्क से वंचित रहा है, वब ऐसी स्थिति में उसके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य सामाजिक सम्पर्क आवश्यक है।
- सामाजिक सम्पर्क से ही संस्कृति का प्रभाव भी सम्भव होता है। बच्चा जब इस पृथ्वी पर आता है, तब वह सिर्फ जैवकीय प्राणी होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता है और तब वह जैवकीय प्रसणी से सामाजिक प्राणी में बदल जाता है।
व्यक्तित्व के निर्माण सांस्कृतिक आधार
- मानवशास्त्रियों ने व्यक्तित्व के निर्माण में सांस्कृतिक आधार को महत्वपूर्ण बताया है। उनके अनुसार बहुत सी जैवकीय क्षमताओं का निर्धारण संस्कृति से होता है। मानवशास्त्रियों ने संस्कृतियों की भिन्नता के आधार पर विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व के गठन की चर्चा की है। इन विद्वानों में मीड लिटन, कार्डिनर, डूबाइस आदि के नाम प्रमुख हैं। ये विद्वान Culture Personality School के नाम से जाने जाते हैं ।
संस्कृति और व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध
- संस्कृति और व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध का उल्लेख करते हुए जॉन गिलिन ने बताया कि जन्म के बाद मनुष्य एक मानव निर्मित पर्यावरण में प्रवेश करता है, जिसका प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ता है। संस्कृति मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ नियमों तथा तरीकों का निर्धारण करती है। इन्हें समाज के अधिकांश लोग मानते हैं। संस्कृति के अन्तर्गत जिन प्रथाओं, परम्पराओं, जनरीतियों, रूढ़ियों, धर्म, भाषा, कला आदि का समावेश होता है, वे सामाजिक एवं सामूहिक जीवन विधि को व्यक्त करते हैं। उचित व अनुचित व्यवहार के लिए संस्कृति पुरस्कार तथा दण्ड का भी प्रयोग करती है ।
- रूथ बेनेडिक्ट ने अपना विचार प्रकट करते हुए कहा कि बच्चा जिन प्रथाओं के बीच पैदा होता है, आरम्भ से ही उसके अनुरूप उसके अनुभव एवं व्यवहार होने लगते हैं। आगे उसने यह भी बताया कि संस्कृति व्यक्ति को कच्चा माल प्रदान करता है, जिससे वह अपने जीवन का निर्माण करता है। यदि कच्चा माल ही अपर्याप्त हो, तो व्यक्ति का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है। यदि कच्चा माल पर्याप्त होता है तो व्यक्ति को उसका सदुपयोग करने का अवसर मिल जाता है।
क्लूखौन और मूरे के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति कुछ अंशों में -
1. दूसरे सब लोगों की तरह होता है ।
2. दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है और
3. दूसरे किसी भी मनुष्य की तरह नहीं होता।
पहला- प्राणिशास्त्रीय दृष्टिकोण से सभी मानव की शारीरिक विशेषताएँ समान होती हैं जैसे आँख, नाक, कान, हाथ, पैर इत्यादि । अतः प्रत्येक मनुष्य कुछ-न-कुछ अंशों में दूसरे सभी लोगों के समान होता है।
दूसरा- प्रत्येक समाज में कुछ सामान्य व्यवहार प्रतिमान होते हैं। जिन्हें व्यक्ति अपनी पसन्द से अपनाता है। इस प्रकार प्रत्येक दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है। अर्थात् समान व्यवहार व कार्य के आधार पर कुछ लोगों में समानता पायी जाती है।
तीसरा- प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुण होते हैं, जो किसी दूसरे मनुष्य की तरह नहीं होते। यही कारण है कि मानव व्यक्तित्व में भिन्नता पाई जाती है। सांस्कृति पर्यावरण में भिन्नता के कारण दो विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्तियों के सामान्य गुण में समानता नहीं पाई जाती।