खिलजी साम्राज्य के विघटन के कारण
खिलजी साम्राज्य के विघटन के कारण
सल्तनत काल का इतिहास एक ऐसे नाटक के समान है जिसमें विभिन्न वंशों का एक-एक करके उत्थान और पतन होता है और जिसमें प्रत्येक वंश की औसत अवस्था लगभग 70 वर्ष है। अजीब सा लगता है कि अलाउद्दीन खिलजी के समय में जो वंश बहुत ऊँचा उठ गया था वह उसके बाद मोम की भांति पिघल जाए। वंश पर आने वाले इस विनाश के कई कारण थे। किसी हद तक स्वयं अलाउद्दीन इनका उत्तरदायी है। लेकिन सामान्यतः साम्राज्य के पतन के बहुत से कारण थेः
(i) सरकार की कमजोरी (Weakness of Government)-
- लेनपूल लिखता है कि "पूर्वी केन्द्रों का इतिहास मुख्यतः राजाओं के आस-पास और पूर्वी वंशों का इतिहास महान् व्यक्तियों के उत्थान तथा उनके उत्तराधिकारियों के पतन का है।"
- यह बात आवश्यक नहीं है कि किसी वंश के सभी शासक होशियार और योग्य ही हों और यह आवश्यक नहीं कि किसी योग्य शासक के उत्तराधिकारी भी सब योग्य हों। उदाहरणार्थ जलालुद्दीन खिजली एक उदार शासक था। उसकी उदारता और सादगी के कारण तुर्की सेना उसको पसन्द न करती थी। अन्त में एक षड्यंत्र द्वारा उसको मार डाला गया। अलाउद्दीन अपने पूर्वज से विपरीत था। हम उसकी तुलना आसानी से अल्तमश, बलबन अथवा शेरशाह से कर सकते हैं। अन्य योग्य शासकों की भाँति उसने अपने रात्ते से अपने शत्रुओं को मार दिया या दूर हटा दिया। उसने शांति स्थापित की और निरंकुशता (Despotism) की नींव डाली। उसने समस्त उत्तरी और दक्षिणी भारत को अपने अधीन कर लिया।
- लेकिन अलाउद्दीन का स्थापित किया साम्राज्य बालू रेत पर आधारित था। ठीक उसी कारण से वह साम्राज्य भी अपने-अपने संस्थापक के बाद अधिक समय न रह सका। बरूनी के मतानुसार स्वयं उसके जीवन के अन्तिम दिनों उसकी पतन के चिह्न दिखाई देने लगे थे। अलाउद्दीन ने अपने पुत्रों को पर्याप्त शिक्षा न दी थी। खिजरखाँ और अन्य व्यक्तियों ने अपने आपको बहुत कमजोर होने का सबूत दिया और वे हमेशा विषय-वासना में व्यस्त रहते थे। इसलिए वे साम्राज्य को न रख सके। काफूर ने सिंहासन पर कब्जा कर लिया था लेकिन अन्त में तुगलग आ गये।
(ii) उत्तराधिकार का कोई कानून नहीं (No Law of Succession)-
- "सुलतान और मलिकों अथवा सेनापति में लगातार संघर्ष रहता था और जो सबसे अधिक उपयुक्त लोग बचते उनमें से प्रधान व्यक्ति ही प्रत्येक राजा और प्रत्येक वंश के जीवन का फैसला करते थे। कार्यपालिका (Executive) की तनिक भी कमजोरी से विद्रोह पैदा हो जाते थे। ऐसे विद्रोही और साहसी व्यक्ति या तो स्वयं अपने लिए सिंहासन प्राप्त करने की कोशिश करते थे या सब प्रकार से उनके ऊपर निर्भर उनके हाथों की कठपुतली राजा की सहायता करते थे। इसके कारण और उत्तराधिकार के निश्चित नियम के अभाव के कारण अराजकता पैदा हो जाती थी और प्रतिद्वन्द्वी दल उठ खड़े होते थे। एक पक्ष दूसरे पक्ष से लड़ता था और एक वंश दूसरे वंश का उत्तराधिकारी बनता था।"
- यह सच बात है कि तुर्कों में उत्तराधिकार का कोई नियम न था। उत्तराधिकार का निर्णय सामान्यतः सबसे अधिक उपयुक्त व्यक्तियों में से बचे प्रधान व्यक्तियों ही करते थे। अतः केवल वह व्यक्ति ही शासक बन सकता था जिसके पास शक्ति होती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक शक्तिशाली व्यक्ति शासक बनना चाहता था। इससे लगातार झगड़े, षड्यंत्र और तनाव (Tension) रहते थे। उस समय के अनेक षड्यंत्रों और विद्रोहों का यही स्पष्टीकरण है, जो भी व्यक्ति तलवार चलाना अच्छा जानता था वह यही सोचता था कि बस सिंहासन उसके ही निकट है।
(iii) दुर्बल सेना (Weak Army)-
- खिलजी वंश में अलाउद्दीन ही एक ऐसा राजा था जो सेना की कार्य-कुशलता (Efficiency) के बारे में कुछ करना चाहता था। उसने सेना का पूरी तरह पुनर्गठन किया और उसमें से भ्रष्टाचार (Corruption) को मिटा दिया। अपने बाजार परिनियमों (Market Regulations) द्वारा अलाउद्दीन ने सैनिकों के लिए अल्प वेतन में सुख से रहने की सुविधा प्रदान की। उसने ही सल्तनत के लिए स्थायी सेना (Standing Army) बनाई। वह प्रान्तीय गवर्नरों पर निर्भर रहना नहीं चाहता था। लेकिन उसके उत्तराधिकारियों ने प्रान्तीय गवर्नरों पर अनुचित विश्वास करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने अज्ञान ओर अव्यवहार कुशलता से अलाउद्दीन के समय की सैनिक कार्य-कुशलता (Efficiency) को नष्ट कर दिया। चूँकि अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी निर्बल थे इसलिए शक्तिशाली सैनिक राजा निर्णायक बन गये थे। वास्तव में केवल वह व्यक्ति ही राज बन सकता जिसका सेना पर नियंत्रण होता था या जिसके अधीन सेना होती थी और क्योंकि कोई स्थायी सेना (Standing Army) नहीं थी इसलिए राजा अमीरों और प्रान्तीय गवर्नरों के हाथ की कठपुतली बन गया था।
(iv) मंगोल-आक्रमण (Mongol Invasions)-
- तारीख-ए-फीरोजशाही में बरूनी लिखता है कि "इन निराश दुष्टों (मंगोलों) ने भारत को लूटने की ठान रखी है। उन्होंने लाहौर पर आक्रमण करके उसे लूट लिया है। लाहौर हमारे साम्राज्य की बाह्य चौकी है। कोई वर्ष ऐसा नहीं जब यहाँ आकर गाँवों को न लूटते हों।"
- इस संबंध में डा.ए.एल. श्रीवास्तव कहता है, "मंगोलों के लगातार आक्रमणों ने खिलजी साम्राज्य का अन्त कर दिया। ये आक्रमण रजिया की मृत्यु के बाद 1242 ई. में शुरू हुए। दिल्ली सल्तनत की नीतियों और भाग्य पर मंगोल गहरा प्रभाव डालते थे।"
- मंगोल हमेशा तुर्की साम्राज्य को नष्ट करने की बात सोचते रहते थे। जब भी उनको दिल्ली में निर्बल शासक दिखाई देता वे आक्रमण करना शुरू कर देते थे। उन्होंने भारत के तुर्की शासकों को दम नहीं लेने दिया। अलाउद्दीन ने मंगोंलों के विरुद्ध सभी उचित पूर्वोपाय (Precuations) कर लिए थे। उसने एक स्थायी सेना (Standing Army) बना ली थी और सीमांत डिवीजनों में अपने पुत्रों को तैनात कर दिया था। अलाउद्दील मंगोलों के आतंक को कुछ समय के लिए रोकने में सफल रहा। लेकिन यह कहना गलत होगा कि मंगोलों ने अपने स्वयं के ढंग से सोचना बन्द कर दिया था। अलाउद्दीन के बाद कोई भी खिलजी सुलतान एक बड़ी सेना-शक्ति न रख सका। इसलिए आने वाले प्रत्येक सुलतान के शासन में मंगोलों ने लगातार आक्रमण किये। मंगोल आक्रमणों का लाभ उठाकर असंतुष्ट सरदार अपनी-अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते रहे। इस प्रकार मंगोल आक्रमणों ने अप्रत्यक्ष रूप से खिलजी साम्राज्य को निर्बल बना दिया।
- अलाउद्दीन ने न तो हिन्दुओं को और न मुसलमानों को ही केन्द्रीय सत्ता (Central Authority) के विरुद्ध सर उठाने दिया था। वास्तव में हिन्दुओं की दशा निन्दनीय बना दी गयी थी। अच्छे घराने की हिन्दू औरतों ने पड़ोस के मुसलमानों के घरों में नौकरानियों का काम करना शुरू कर दिया। समस्त जनता का "ये न करो" के नियमों द्वारा मार्गदर्शन कराया जाता था। जो व्यक्ति उसके नियमों का उल्लंघन करते उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाती थी। उसकी जासूसी प्रणाली सुगठित थी। लेकिन अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी इन सावधानियों को न कायम रख सके। इसलिए अलाउद्दीन के बाद साम्राज्य की शक्ति शीघ्रता से गिरने लगी और परिणामतः साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया।
(v) अपविकसित दास (Degenerate Slaves)-
- डा. मेहंदी हसन लिखता है "न तो वे निष्ठावान थे और न वफादार। उनका नैतिक आचरण निम्न था और अधम महत्त्वाकांक्षाएँ उन्हें घेरे रहती थीं। सुलतान फीरोज के जीवन काल में भी वे साम्राज्य के लिए एक शाप (Curse) बन गये थे और उनकी शरारतों ने अव्यवस्था और परेशानियों को बहुत अधिक बढ़ा दिया था जो उसके अंतिम जीवन में बादल बनकर छा गये थे। विद्रोहों का दमन करके या 13वीं शताब्दी के दासों की भाँति सीमाओं में वृद्धि करके राज्य की सेवा करने की अपेक्षा उन्होंने राज्यकोष का धन बहा दिया।"
- समस्त तुर्की सल्तनत में दासों का अधिक बोलबाला था। जब भी उनको अवसर मिलता तो वे शाही शक्ति को अपने हाथों में ले लेते थे। वे बड़े आदमी बन गये थे। ऐबक, बलबन और अल्तमश के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। कालान्तर में दास प्रथा एक नियम बन गई। बाद में मलिक काफूर और खुसरो जैसे योग्य दास हुए। लेकिन ये दास पहले दासों के समान निष्ठावान न थे। मलिक काफूर ने अलाउद्दीन को विष दे दिया और उसके बेटों को मार दिया। खुसरो ने षड्यंत्र करके अपने स्वामी मुबारिक को मार दिया। उन दोनों अपने-अपने लिए सिंहासन छीन लिया। सौभाग्यवश उनके हत्यारों ने उनको समाप्त कर दिया अन्यथा उस काल का इतिहास अधिक काला होता। अतः यह दास प्रणाली साम्राज्य के लिए विनाश का कारण बनी और उसको समाप्त करने में उसकी बड़ी देन रही है।
(vi) हिन्दुओं का विरोध (Opposition of Hindus) -
- तुकों ने भारत में शाही शक्ति और पद छीन लिये थे और उन्होंने हिन्दुओं को स्वतंत्रता से वंचित कर दिया था। हिन्दुओं की स्वतंत्रता जाती रही। वे कुछ समय तक शरब के नशे में खोये रहे, लेकिन बाद में उन्होंने तुर्क ने शासन को उखाड़ने का प्रयत्न किया। यही कारण है कि जब कभी उन्होंने देखा कि सुलतान कमजोर या अयोग्य था या कमजोर होता जा रहा था तो उन्होंने विद्रोह किए और षड्यंत्र रचे। स्वभावतः मुसलमान अमीर चिन्तित हो गए क्योंकि यदि सुलतानों के विरुद्ध हिन्दुओं की विजय हो गई तो उनको बड़े कठोर समय का सामना करना पड़ता। अमीर भी आयोग्य थे, वे चाहते थे कि शासक शक्तिशाली होना चाहिए ओर वे लोग उसके अधीन प्रसन्नतापूर्वक और सुरक्षित रहे। यही कारण है कि जब कभी दुर्बल शासक होता तो सब अमीर मिलकर उसे सिंहासन से हटा देते थे और किसी अधिक अच्छे व्यक्ति की तलाश करते। इससे साम्राज्य की नींव कमजोर पड़ गई और उसे आसानी से मिटा दिया गया।