उत्तरकालीन तुगलक शासक (The Later Tughluq in Hindi)
उत्तरकालीन तुगलक शासक (The Later Tughluqs)
- फिरोज तुगलक के बाद उसका पौत्र गद्दी पर बैठा जिसने गयासुद्दीन तुगलक शाह द्वितीय की उपाधि धारण की। उसके चाचा नासिरुद्दीन मुहम्मद ने उसके सिंहासनारोहण का विरोध किया, परन्तु वह हार गया और कांगड़ा भाग गया। यह नया सुल्तान अपना जीवन विलासिता में व्यतीत करने लगा और उसने अपनी शक्ति को अपने समस्त प्रतिद्वन्द्वियों को मार्ग से हटाकर दृढ़ करना चाहा। उसने अपने भ्राता सालार शाह को कैद कर लिया। अपनी रक्षा हेतु अबूबकर, उसका चचेरा भाई, एक षड्यंत्रकारी हो गया। रुक्नुद्दीन ने भी उसकी सहायता की। परिणाम यह हुआ कि गयासुद्दीन तुगलक शाह द्वितीय अपने महल से यमुना की ओर खुलने वाले द्वार से निकल भागा, परन्तु उसे पकड़ लिया गया और रुक्नुद्दीन के सैनिकों के एक समूह ने उसका वध कर दिया।
- इन परिस्थितियों में 19 फरवरी, 1389 ई. को अबूबकर शाह राजा बना। उसने रुक्नुद्दीन को अपना मंत्री नियुक्त किया। परन्तु बाद में उसका कत्ल करा दिया जब उसे सिंहासन को हड़पने वाले षड्यंत्र में एक सहयोगी की भाँति पाया गया। अबूबकर शाह व नासिरुद्दीन मुहम्मद के बीच सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा था। नासिरुद्दीन मुहम्मद कांगड़ा से चलकर समाना पहुँचा जहाँ 24 अप्रैल, 1389 ई. को उसे शासक घोषित किया गया। उसने दिल्ली की ओर अपनी यात्रा जारी रखी। फलतः अबूबकर नासिरुद्दीन मुहम्मद को पराजित करने में सफल रहा। नासिरुद्दीन यमुना पार करके दोआब पहुँचा और उसने जलेसर में आश्रय लिया जो कि उसका मुख्य केन्द्र था। नासिरुद्दीन मुहम्मद जुलाई, 1389 ई. में एक बार फिर क्षेत्र में आया और दिल्ली की ओर बढ़ा, परन्तु उसे फिर पराजय मिली और उसने जलेसर में शरण ली। दूसरी बार फिर इस पराजय के बाद भी मुल्तान, लाहौर, समाना, हिसार, हांसी व दिल्ली के अन्य उत्तरी जिलों में उसके अधिकार को मान्यता मिलती रही। अप्रैल 1390 ई. में अबूबकर शाह ने दिल्ली छोड़ी परन्तु जब वह नासिरुद्दीन मुहम्मद से मुकाबला करने के लिए जलेसर पहुँचा, तो नासिरुद्दीन ने उसे चक्कर में डाल दिया ; 4,000 घोड़ों की सेना के साथ वह दिल्ली पहुँचा और महल पर अधिकार कर लिया। अबूबकर तुरन्त वापस लौटा और ज्योंही उसने दिल्ली में प्रवेश किया, नासिरुद्दीन मुहम्मद भाग निकला और फिर जलेसर पहुँचा। अबूबकर के विरुद्ध एक षड्यंत्र की रचना हुई और जब उसे इसका पता चला तो अपने साथियों के साथ वह मेवात चला गया। इन्हीं परिस्थितियों में नासिरुद्दीन मुहम्मद ने राजधानी में प्रवेश किया और 31 अगस्त, 1390 ई. को फिरोजाबाद के महल में उसका सिंहासनारोहण हुआ।
- नासिरुद्दीन मुहम्मद ने लगभग चार वर्षों (1390-94) तक शासन किया। उसका प्रथम कार्य अबूबकर व उसके साथियों का संहार करना था। अबूबकर ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे बंदी के रूप में मेरठ भेज दिया गया जहाँ शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई। 1392 ई. में इटावा के हिन्दुओं ने नरसिंह, सर्वधारन व बीरभान के नेतृत्व में उपद्रव कर दिया। उनके विरुद्ध इस्लाम खाँ को भेजा गया। उसने उन्हें हरा दिया और वह नरसिंह को दिल्ली ले आया। ज्योंही वह लौटा, तुरन्त नया उपद्रव उठ खड़ा हुआ और उसे भी फिर कुचल दिया गया। 1393 ई. में एक अन्य विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस अवसर पर जलेसर के शासक ने धोखे से उनके नेताओं को कन्नौज में बहका दिया। वहाँ उसने धोखे के साथ सिवाय सर्वधारन के अन्य सब का वध कर दिया, परन्तु सर्वधारन बच निकला और उसने इटावा में आश्रय लिया। उसी वर्ष सुल्तान मेवात के उपद्रवी जिले में होकर निकला और उसको रौंद डाला। 20 जनवरी, 1394 ई. को नासिरुद्दीन मुहम्मद की मृत्यु हो गई।
- 22 जनवरी, 1394 ई. को उसका पुत्र अलाउद्दीन सिकन्दर शाह की उपाधि ग्रहण करके गद्दी पर बैठा। उसका अल्प शासन काल उपद्रवों से भरा रहा। गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह बीमार पड़ गया और 8 मार्च, 1394 ई. को उसकी मृत्यु हो गई।
- रिक्त गद्दी अब नासिरुद्दीन मुहम्मद के सबसे छोटे पुत्र राजकुमार मुहम्मद को प्राप्त हुई। उसने नासिरुद्दीन महमूद तुगलक की उपाधि ग्रहण की। नए राजा को बहुत-सी कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ा। राजधानी में ऐसे बहुत से शक्तिशाली गुट थे जिन्होंने व्यावहारिक रूप में एक शक्तिशाली सरकार बनाना असंभव कर रखा था। हिन्दू सरदारों व मुस्लिम राज्यपालों ने केन्द्रीय सरकार की सत्ता का खुले रूप से उल्लंघन किया। कन्नौज से लेकर बिहार व बंगाल तक सारा देश अव्यवस्थित हो गया। महान् कुलीनों व सरदारों ने अपने हितों व सुविधाओं के अनुकूल राजसी शक्ति का उपयोग किया। ख्वाजा जहाँ जिसे सुल्तान-उस-शर्क या 'पूर्व का राजा' बना दिया गया था, जौनपुर में स्वाधीन बन बैठा और उसने वहाँ एक नए वंश की स्थापना की।
- कुछ कुलीन सरदारों ने फिरोज तुगलक के एक पौत्र नुसरत खाँ को सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़ाया। फिरोजाबाद के अमीरों, मलिकों और पुराने शासन के दासों ने भी उसको सहायता प्रदान की। इस प्रकार विरोधी केन्द्रों पर खड़े हुए दो सुल्तान दिखाई दिए जिनके बीच सिंहासन गेंद की भाँति इधर से उधर घूमने लगा। बहुत से सरदार पैदा हुए परन्तु उनमें बहादुर नाहिर, मल्लू इकबाल और मुकर्रब खाँ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थे। विभिन्न नगर जो विभिन्न समयों पर राज्यों की राजधानी रहे थे, अब उन पर कुछ गुटों का अधिकार हो गया। मुकर्रब खाँ व महमूद शाह दिल्ली में थे। नुसरत शाह व फिरोज के अन्य सरदार फिरोजाबाद में थे। बहादुर नाहिर, जिसके पद पर अस्थायी रूप से मुकर्रब खाँ ने अधिकार कर लिया था, दिल्ली में था। मल्लू जो अपने जीवन के लिए मुकर्रब खाँ के प्रति ऋणी था और जिसने उससे इकबाल खाँ की उपाधि ग्रहण की थी, सीरी में था। तीन वर्षों तक नासिरुद्दीन महमूद व नुसरत शाह के बीच एक अनिश्चयात्मक किन्तु विनाशकारी संग्राम चलता रहा। नासिरुद्दीन महमूद का राज्य दिल्ली की दीवारों से घिरा हुआ था और नाम मात्र में नुसरत शाह दोआब का दावा करता था। इन गृह युद्धों में प्रांतीय राज्यपालों ने कोई भाग न लिया। वे विरोधी वर्गों के भाग्य में होने वाले परिवर्तनों को देखते रहे। 1397 ई. के अन्त की ओर यह समाचार मिला कि तैमूर की सेना ने सिन्ध पार कर लिया है और उच्छ में घेरा डाल दिया है। विदेशी सेना के आगमन का राजधानी के गुटों पर अपना प्रभाव पड़ा। मल्लू इकबाल नुसरत खाँ की ओर चला गया और नए मित्रों ने एक-दूसरे की ओर वफादार रहने का वचन दिया। परन्तु मल्लू इकबाल ने धोखा देकर नुसरत खाँ पर आक्रमण किया जिससे नुसरत खाँ बचकर पानीपत आ गया। तब मल्लू इकबाल ने मुकर्रब खाँ को राजधानी से बाहर निकालने का निश्चय किया और दो महीनों तक दोनों के बीच भयानक संग्राम चलता रहा। यद्यपि कुछ कुलीन पुरुषों के मध्यस्थ बन जाने के कारण उनके बीच सन्धि हो गई, तथापि मल्लू इकबाल ने मुकर्रब खाँ के घर पर आक्रमण किया और वहाँ उसका कत्ल कर दिया। दिल्ली में यह व्यवस्था चल रही थी जिस समय अक्टूबर 1398 ई. में तैमूर ने सिंध को पार किया तथा चनाब व रावी को पार करके मुल्तान पर पहुँच गया, जिस पर उसका पौत्र पहले ही से अपना अधिकार जमाए हुए था।