मुहम्मद तुगलक सम्पूर्ण इतिहास
मुहम्मद तुगलक (Mohammad Tughluq)
मुहम्मद तुगलक प्रारम्भिक जीवन (Early life):
- राजकुमार जूना खाँ (Prince Juna Khan) जो मुहम्मद तुगलक के नाम से भी जाना जाता है। गयासुद्दीन तुगलक का ज्येष्ठ पुत्र था। उसका पालन-पोषण एक सैनिक की भाँति हुआ था और उसने उसी में अपने को प्रसिद्ध कर लिया। वह एक तीक्ष्ण-वृद्धि वाला बालक था। खुसरो शाह द्वारा उसे 'तुरंगों का स्वामी' नियुक्त किया गया था। परन्तु जूना खाँ ने अपने संरक्षक खुसरो शाह के विरुद्ध एक आंदोलन शुरू कर दिया और उसने खुसरो शाह को उलट फेंकने में अपने पिता की सहायता की। जब 1320 ई. में उसका पिता सम्राट् बन गया, तो राजकुमार जूना खाँ की उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्ति हो गई और उसे उलघ खाँ (Ulugh Khan) को उपाधि भी दी गई। उसने 1322 ई. और 1323 ई. में वारंगल में दो अभियानों का नेतृत्व किया और यद्यपि वह अपने प्रथम अभियान में असफल रहा, तथापि वह दूसरे अभियान में सफल हुआ। उसने 1325 ई. में अपने पिता की मृत्यु के शीघ्र बाद ही अपने को गद्दी पर विराजमान किया। चालीस दिन तक वह तुगलकाबाद में रहा, उसके बाद वह दिल्ली नगर की ओर बढ़ा और अपने को बलबन के लाल महल में रखा। उसने अपने मुकुटारोहण के समय सोने व चाँदी के सिक्के लोगों में बाँटे।
मुहम्मद तुगलक गृह नीति (Domestic Policy):
- हम मुहम्मद तुगलक के शासन काल की घटनाओं का अध्ययन दो बृहत् भागों में कर सकते हैं-उसकी गृह नीति व उसकी विदेश नीति। जहाँ तक गृह नीति का सम्बन्ध है, मुहम्मद तुगलक अपने शासनकाल के आदि समय से ही अपने शासन-प्रबंध के विस्तारों की ओर देखने लगा था। उसने सबसे पहले अपने राज्य की मालगुजारी तथा प्रांतों के व्यय सम्बन्धी रजिस्टरों के संकलन करने का आदेश दिया। प्रांतों के शासकों को यह आवश्यक हो गया कि वे समस्त सम्बन्धित अभिलेख तथा उस कार्य से सम्बन्धित अन्य सामग्रियाँ दिल्ली भेजे। परिणाम यह हुआ कि आय व व्यय के सारांश साम्राज्य के विभिन्न भागों से दिल्ली आने लगे और ठीक प्रकार से कार्य होने लगा।
2. मुहम्मद तुगलक का दोआब में कर (Taxation in the Doab):
- सुल्तान ने गंगा व यमुना के बीच दोआब में एक वित्तीय प्रयोग किया जिसका परामर्श ठीक नहीं था। उसने केवल कर की दर ही नहीं बढ़ाई, वरन् उसने कुछ अन्य आबवाबों या उपकरों (cesses) का पुनर्जीवन व निर्माण भी किया। लागू की गई वास्तविक धनराशि के विषय में समकालीन व आगामी मुस्लिम लेखकों के विवरणों में कुछ अस्पष्टता व विपरीतताएँ हैं। बारानी कहता है कि करों को 10 से 20 गुना तक अधिक बढ़ा दिया गया था। इलियट के अनुवाद में यह सीमा 10% या 5% बताई गयी है। तारीख-ए-मुबारक शाही में यह बताया गया है कि वृद्धि बीस गुनी थी और इसमें गढ़ी या मकान कर या चराही कर भी जुड़े थे। बदायूनी के अनुसार करों को दुगुना कर दिया गया था। इन परिस्थितियों में आधुनिक लेखकों ने यह संकेत किया है कि अत्यधिक कर 5% से अधिक नहीं था। यह भी कहा जाता है कि दोआब के लोगों पर सुल्तान द्वारा इन अधिक करों के लगाए जाने का ध्येय दण्डात्मक (Punitive) नहीं था जैसा कि बदायूनी (Badauni) और सर वुल्जले हेग ने बताया है, "वरन् यह सैनिक शक्ति बढ़ाने और कुशल आधारों पर शासन-प्रबंध संगठित करने के लिए किया गया था।" चाहे कुछ भी सत्य हो यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस कार्य से अत्यन्त कठिनाई उत्पन्न हुई जो दोआब के लोगों को उठानी पड़ी। बारानी हमको यह बताता है कि "किसानों की कमर टूट गई। वे जो धनी थे उपद्रवी हो गए भूमि बर्बाद हो गई और कृषि की उन्नति रुक गई।
- अनाज महंगा हो गया वर्षा में कमी आ गई, इसलिए दुर्भिक्ष सर्वव्यापी हो गया। यह वर्षों तक चलता रहा और इसलिए हजारों मनुष्य मर गए।" डा. ईश्वरी प्रसाद कहते हैं कि "दुर्भाग्यवश इस उपाय को ऐसे समय लागू किया गया था जबकि दोआब में कठोर दुर्भिक्ष चल रहा था, इसके भयंकर परिणामों ने जनता की कठिनाई को और भी बढ़ा दिया था। यह सुल्तान को दोष से मुक्त नहीं करता, क्योंकि उसके अधिकारी बढ़ी हुई दर पर कर लगाते रहे और उन्होंने दुर्भिक्षों की ओर कोई ध्यान न देते हुए कठोरता के साथ काम किया।" सुल्तान के सहायतार्थ उपाय जैसे कृषकों को ऋण देना, कुएँ खुदवाना और "अकृष्य भूमि को प्रत्यक्षतः राज्य प्रबंध व वित्तीय सहायता के आधार पर हल द्वारा कृषि कार्य में लाना" बहुत देर में घटित हो सके। कृषक जाति ने अपने स्थान छोड़ दिए और अन्य स्थानों पर चले गए। सुल्तान बहुत रुष्ट हो गया और उसने किसानों को उनके वास्तविक स्थानों पर वापस लाने में बहुत कठोर रीतियों का प्रयोग किया। जहाँ तक तुगलक वंश के भविष्य से सम्बन्ध है, इस सब का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
सुल्तान ने कृषि के एक नए विभाग की स्थापना की
- 1. सुल्तान ने कृषि के एक नए विभाग की स्थापना की जिसे दीवाने कोही (Diwan-i-Kohi) कहते थे। इस विभाग का मुख्य ध्येय कृषकों को प्रत्यक्ष सहायता देकर अधिक भूमि कृषि कार्य के अधीन लेना था। 60 वर्ग मील की भूमि का एक लम्बा टुकड़ा इस कार्य के लिए चुना गया। भूमि पर कृषि की गई और हेर-फेर के साथ विभिन्न फसलों की उपज की गई। दो वर्षों में सरकार ने 70 लाख से अधिक व्यय किया। भूमि उन मनुष्यों को दी गई जिन्हें उसकी जरूरत थी। दुर्भाग्यवश यह प्रयोग भी असफल रहा। प्रयोग के लिए लिया गया खेत अनुपजाऊ निकला। तीन वर्षों की अवधि भी कोई पक्का परिणाम न दे सकी। धन भी ठीक प्रकार से व्यय नहीं हुआ और इसका काफी बड़ा भाग केवल बेकार ही गया।
2. दौलताबाद के लिए राजधानी का स्थानांतरण (1327) (Transfer of Capital):
- एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रयोग जो सुल्तान ने किया वह दिल्ली से दौलताबाद के लिए राजधानी का बदलना है। बारानी लिखता है कि दौलताबाद की केन्द्रीय स्थिति थी और दिल्ली, गुजरात, लखनौती तेलिंगाना व अन्य प्रमुख स्थानों से लगभग 700 मील दूर थी। यह नयी राजधानी सामरिक महत्त्व रखती थी। यह मंगोलों के आक्रमणों से सुरक्षित भी थी जो स्थायी रूप से दिल्ली को धमकी देते रहते थे। सुल्तान ने दौलताबाद को अपने अधिकारियों व जनता के लिए उचित स्थान बनाने का पूरा प्रयत्न किया। उन सब को जिन्हें दौलताबाद के लिए प्रस्थान करना था, ये सब सुविधाएँ प्रस्तुत की गईं। उनकी सुगमता के लिए एक विशाल सड़क बनवाई गई। सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगाए गए। दिल्ली व दौलताबाद के बीच एक सुव्यवस्थित डाक व्यवस्था की स्थापना की गई।
- परन्तु जब दिल्ली के लोगों ने दौलताबाद जाने में संकोच प्रकट किया तो सुल्तान अप्रसन्न हो गया और उसने सब लोगों को अपनी सारी सम्पत्ति के साथ दिल्ली छोड़कर दौलताबाद चलने का आदेश दिया। इब्नबूतता बताता है कि सम्राट एक अंधे मनुष्य को दिल्ली से दौलताबाद खींच कर ले गया और एक बिस्तर पर पड़े अपाहिज को अस्त्रक्षेपक द्वारा वहाँ ले जाया गया। दौलताबाद के लिए राजधानी के स्थानांतरण के विषय में बारानी का मत है कि "बिना परामर्श व बिना उतार-चढ़ाव देखे हुए, उसने दिल्ली को बर्बाद कर दिया जिसमें 170 या 180 वर्षों से समृद्धि फैली हुई थी और जो बगदाद व काहिरा का मुकाबला कर रही थी। वह नगर, जिसमें चार-पाँच मील तक सरायें, बस्तियाँ व ग्राम बसे हुए थे, नष्ट भ्रष्ट अर्थात् निर्जन हो गया। कोई बिल्ली व कुत्ता तक न बचा। मनुष्यों को उनके परिवारों के साथ समूहों के रूप में टूटे हुए हृदयों के साथ पलायन पर विवश कर दिया गया बहुत से लोग तो सड़कों ही पर मर गए और जो देवगिरि पहुँचे वे ऐसे निर्वासन को सहन न कर सके और घुट-घुट कर मरने लगे। देवगिरि जैसे काफिर क्षेत्र में चारों ओर मुसलमानों की कबरें फैल गई। सुल्तान यात्रा के लिए बाहर जाने वालों व आ पहुँचने वालों के प्रति बहुत उदार था; परन्तु वे निःसहाय थे और वे निर्वासन को सहन न कर सके। उन्होंने उस अपवित्र देश में अपने सिरों को झुका दिया और भीड़ में से अपने निजी स्थानों तक लौट आने के लिए थोड़े ही बच सके।"
- सुल्तान ने अपने प्रयोग की त्रुटि महसूस की और उसने लोगों को लौट चलने का आदेश निकाला। परिणाम यह हुआ कि जो लोग दौलताबाद की यात्रा से बचे भी थे, वे लौटते हुए यात्रा में मर गए। इस अनुभव का मूल परिणाम यह निकला कि दिल्ली अपना पुराना वैभव व समृद्धि खो बैठी। यह ठीक है कि "सुल्तान अपने प्रदेश के कुछ नगरों से योग्य मनुष्यों और सज्जनों, व्यापारियों व भूमि पतियों को दिल्ली नगर में लाया और उनका वहाँ रहने का प्रबंध किया," परन्तु जब इब्नबतूता दिल्ली आया तो उसने (1334 ई. में) वहाँ के कुछ भागों को फिर भी निर्जन पाया। लेनपूल (Lane Poole) के अनुसार, "दौलताबाद एक पथभ्रष्ट शक्ति का स्मारक था।" डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, यह संदेहास्पद है कि दौलताबाद के लिए राजधानी का तबादला सुल्तान को इस बात की सहायता प्रदान करता है कि वह अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों पर दृढ़ आधिपत्य बनाए रख सके। सुल्तान ने यह नहीं देखा कि दौलताबाद साम्राज्य के उत्तरी सीमा प्रांतों से बहुत दूरी पर स्थित था और उन सीमाओं की ओर स्थायी रूप से निगरानी रखना आवश्यक था। उसने उस चेतावनी की ओर उदासीनता बरती कि हिन्दुओं के उपद्रव व मंगोलों के आक्रमण उसके साम्राज्य को किसी भी समय खतरे में डाल सकते हैं। यदि ऐसी आकस्मिक परिस्थिति आ जाती, तो सुल्तान उसका सामना करने में अवश्य असमर्थ रहता।
5.मुहम्मद तुगलक टकसाल का प्रयोग (1329-30) (Currency Experiment):
- एडवर्ड टामस (Edward Thomas) ने मुहम्मद तुगलक को “धनवानों का राजकुमार" बताया है। बताते हैं कि उसके शासन काल का प्रथम कार्य यह था कि मुद्रा ढलाई (Coinage) को नया रूप दिया गया। उसके विभाजन को बहुमूल्य धातुओं के परिवर्तित मूल्यों के अनुसार पुनः स्थापित कर दिया जाये और आधीन प्रवाह के लिए नए व अधिक ठीक प्रतिनिधियों की उत्पत्ति की जाये। एक नया सोने का सिक्का जिसका भार 200 दानों के तुल्य था और जिसे इब्नबतूता ने दीनार बताया उसे मुहम्मद तुगलक ने निर्गमित किया। उसने 175 दानों के तुल्य भार के सोने व चाँदी के पुराने सिक्कों की जगह असली सिक्कों को फिर से चालू किया जिनका भार 140 चाँदी के दानों के बराबर था। कदाचित् यह परिवर्तन इसलिए था कि "चाँदी की अपेक्षा सोने का सापेक्ष महत्त्व गिर चुका था, दक्षिण के अभियानों के कारण साम्राज्य का कोष पुरानी धातु के सिक्कों से विशाल मात्रा में भर चुका था।"
- 1329 ई. और 1330 ई. में सुल्तान ने तांबे के सिक्कों में सांकेतिक सिक्कों की मुद्रा निर्गमित की। चीन व फारस में पहले से ही ऐसी मुद्रा का प्रचलन था। चीन के मंगोल सम्राट कुबलाई खाँ ने तेरहवीं शताब्दी के अन्त के समय चीन में कागजी मुद्रा का प्रचलन किया था। फारस के शासक गाई खाटू (Gai Khatu) ने 1294 ई. में ऐसा ही प्रयोग किया। अपने सम्मुख ऐसे उदाहरणों के साथ मुहम्मद तुगलक ने एक आदेश जारी किया जिसमें घोषित किया कि समस्त लेन-देन में सोने व चाँदी के सिक्कों की भाँति तांबे के सिक्के भी कानूनी रूप से स्वीकार किए जायें। बारानी के अनुसार, "इस आदेश ने प्रत्येक हिन्दू के घर को टकसाल में बदल दिया और प्रांतों के भारतीय जनों ने तांबे के लाखों व करोड़ों सिक्के बना लिए जिससे उन्होंने अपने भुगतान किए और घोड़े, अस्त्र-शस्त्र व सब प्रकार की उम्दा वस्तुएँ खरीद लीं। धनी लोग, ग्रामीण अध्यक्ष तथा भूमिपति इन तांबे के सिक्कों से धनवान बन गए और राज्य का कोष खाली हो गया। थोड़े ही समय में दूर के देश केवल तांबे के टंके को ही धातु स्वीकार करने लगे और उन स्थानों में जहाँ आदेश के प्रति सम्मान प्रचलित था सोने का टंका तांबे के सौ टंकों के मूल्य के बराबर हो गया। प्रत्येक सुनार अपनी प्रयोगशाला में तांबे के सिक्के ढालने लगा और राजकोष उनसे भर गया। उनका मूल्य इतना गिर गया कि वह पत्थरों व मिट्टी के टुकड़ों के बराबर भी न रहा। जब व्यापार में रूकावट आ गई, तो सुल्तान ने अपना आदेश तोड़ दिया और बड़े क्रोध में आकर यह घोषित किया कि सारे तांबे के सिक्के राजकोष से सोने व चाँदी के सिक्कों में बदल लिए जायें। हजारों लोगों ने उन्हें विनिमय के लिए खरीद लिया और उनके ढेर तुगलकाबाद में पहाड़ों की भाँति लग गए।" बारानी हमें बताता है कि यह प्रयोग दो कारणों से था। प्रथम कारण विजय की महान सेना, जिसकी संख्या 3,70,000 थी, बनाए रखने के लिए धन की आवश्यकता थी। दूसरा कारण यह था कि सुल्तान के अपव्ययी उपहारों के कारण राजकोष में महान कमी आ गई थी। शायद एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि उस समय बाजार में चाँदी की अपेक्षाकृत कमी हो गई थी। डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, एक अन्य सम्भव कारण सुल्तान का प्रयोग के लिए चाव हो सकता है क्योंकि सुल्तान एक नए ही दिमाग का मनुष्य था जो अपने समय की कलाओं व विज्ञानों में खूब कुशल था। सुल्तान ने एक वैज्ञानिक भाव से इस नए प्रयोग के लिए एक प्रबल भावना का आभास किया होगा। ऐसे राजसी आदेश, जिनसे मुद्रा का चलन तथा बाद में सुल्तान का व्यवहार प्रकट हुआ, प्रभावोत्पादक रूप से उस नियमहीनता का दोष काट देते हैं जो आधुनिक लेखकों ने उस पर थोपा है।
- मुहम्मद तुगलक के इस मुद्रा वाले प्रयोग की असफलता के लिए कई कारण बताए गए हैं। यह कहा जाता है कि यह विचारयुक्त संगठित उपाय इसलिए असफल रहा क्योंकि यह समय से बहुत पहले हो गया और लोग उसका वास्तविक महत्त्व न समझ सके। उन दिनों में लोगों के लिए पीतल पीतल था व तांबा तांबा था, चाहे राज्य की आवश्यकता कितनी ही अनिवार्य क्यों न हो। प्रयोग की असफलता का दूसरा कारण यह था कि सुल्तान ने तांबे के सिक्कों को निर्गमित करने का काम केवल राज्य के एकाधिकार में नहीं रखा। एडवर्ड टामस के अनुसार, "ऐसा कोई विशेष यंत्र नहीं था जो राजसी टकसाल और कारीगर के बनाए हुए सिक्के में अन्तर निकाल सके। चीन में कागजी नोटों की नकल को रोकने के लिए जो प्रतिबंध लगे हुए थे, वे तांबे के सिक्कों को अधिकृत बनाने पर नहीं थे और जनता की सिक्के बनाने की शक्ति पर कोई भी प्रभावकारी नियंत्रण नहीं था।" एल्फिन्सटन (Elphinstone) की आपत्ति यह है कि सांकेतिक टकसाल की असफलता का कारण शासन का अस्थायित्व तथा सुल्तान का दिवालियापन था। यह आपत्ति निराधार पाई गई है क्योंकि सुल्तान ने सफल रूप से तांबे के सांकेतिक सिक्कों की जगह सोने व चांदी के सिक्के देकर बहुत जल्दी सारे सिक्के वापस ले लिए। यदि सुल्तान दिवालिया होता तो वह विनिमय में सोने-चाँदी के सिक्के देने योग्य कभी न होता। ब्राउन (Brown) का विचार है कि यह टकसाल की समस्या चौदहवीं शताब्दी में संसार में चाँदी की पूर्ति में कमी के कारण हुई। लगभग 1335 ई. में इंग्लैण्ड में एडवर्ड तृतीय के शासन काल में भी इसी प्रकार से सिक्कों की कमी आ गई थी। अन्य देशों में इसी प्रकार की कठिनाइयों का अनुभव किया गया था।
मुहम्मद तुगलक का उदार शासन प्रबंध (Liberal Administration):
- मुहम्मद तुगलक एक योग्य व्यक्ति था और उसने सब विषयों में उलेमाओं के आदेश स्वीकार करने से इंकार कर दिया। केवल चार कानूनी कर थे-खिराज, जकात, जजिया और खमसा। लेकिन मुहम्मद तुगलक ने उनके अतिरिक्त और भी कर लगाए थे। मुहम्मद तुगलक कोई अंधा धर्म-विश्वासी नहीं था और इसलिए उसने अपने पूर्ववर्तियों तथा उत्तराधिकारियों की अपेक्षा हिन्दुओं की भावनाओं के प्रति काफी सम्मान बरता। उसने सती प्रथा रोकने का प्रयत्न किया। उसने स्वतंत्र राजपूत रियासतों में हस्तक्षेप नहीं किया और उसका यह काम धर्मप्रचारक वर्ग को रुचिकर नहीं था। उसने धार्मिक गुरुओं को न्याय के शासन-प्रबंध पर एकाधिकार से वंचित कर दिया। उसने अपने को याचना का सबसे बड़ा न्यायालय बनाया और जब कभी वह मुफ्तियों से असहमत हुआ, उसने उनके विचार को ठुकरा दिया और अपने विचारानुसार काम किया। राज्य के कुछ ख्याति प्राप्त अधिकारियों को न्यायिक शक्तियाँ दी गई हालाकि वे काजी या मुफ्ती नहीं थे। मुहम्मद तुगलक का भाई मुबारक खाँ दीवानेखाना में काजी के पास उसे मुकद्दमों के फैसले के कार्य में सहायता देने के लिए बैठता था। सुल्तान ने धर्म प्रचारक वर्ग के कुछ मनुष्यों को कठोर दण्ड दिया क्योंकि वे खुले विद्रोह, विप्लव तथा कोष के गबन के अपराधी पाए गए। धर्म प्रचारकों के वर्ग से यह आशा नहीं की गई थी कि वह उस शासक को पसंद करेगा जो शेखों और सैय्यदों तक को जिन्हें मुस्लिम शासक पवित्र समझते थे, दण्ड देगा।
- मुहम्मद तुगलक ने अपने को ईश्वर का प्रतिबिम्ब समझा। उसके सिक्कों के कुछ लेख बताते हैं कि "राजशक्ति प्रत्येक मनुष्य को नहीं दी गई है, वरन् निर्वाचित व्यक्तियों को दी गई है। वह जो सुल्तान का सच्चे रूप में आज्ञापालक है, वह ईश्वर का सच्चा आज्ञापालक है। सुल्तान ईश्वर का प्रतिबिम्ब है और ईश्वर सुल्तान का सहायक है।" उसने खलीफा के लिए मुकद्दमों का भेजना रोक दिया।
- परन्तु, जब वह बहुत बदनाम हो गया तो उसने खलीफा के प्रति अपना व्यवहार बदल दिया और मिस्र के खलीफा से दिल्ली के सुल्तान की पुष्टि करने की प्रार्थना की। उसने अपने नाम के स्थान पर सिक्कों पर खलीफा का नाम खुदवा दिया। सारे राजसी आदेश खलीफा के नाम जारी किए जाने लगे। 1344 ई. में मुहम्मद तुगलक ने मिस्र के खलीफा द्वारा भेजे गए दूत हाजी सईद सरसरी का स्वागत किया। दूत का भव्य सम्मान के साथ स्वागत किया गया। सुल्तान, राज्य के सारे बड़े अधिकारी, सैय्यद लोग, पवित्र व योग्य मनुष्य और हर कोई जो अपना कोई महत्त्व प्रदर्शित कर सकता था, दूत का स्वागत करने के लिए दिल्ली के बाहर गए। सुल्तान नंगे पैर चला। जब दूत उसके पास आया तो उसने कई बार उसके चरण चूमे। नगर में विजय की महराबें मनाई गईं और दिल खोलकर दान दिया गया।" दूत के भाषणों को लिख लिया गया और उनको दुहराया गया जैसे कि उनसे प्रेरणा ली गई हो। बारानी के अनुसार, "खलीफा के आदेश के बिना, राजा ने पानी का एक घूँट पीने का साहस नहीं किया।" इस सबके होते हुए भी मुहम्मद तुगलक ने अपनी जनता का विश्वास व निष्ठा प्राप्त नहीं की। वह पहले की भाँति अलोकप्रिय बना रहा।
मुहम्मद तुगलक की विदेश नीति (Foreign Policy)
- 1. दिल्ली की सल्तनत मुहम्मद तुगलक के शासन काल में विदेशी संकटों से मुक्त न रह सकी। 1328-29 ई. में तरमाशीरीं खाँ (Taramashirin Khan) जो ट्रांसोक्सियाना का चुगताई सरदार था, ने भारत पर आक्रमण किया। उसने मुल्तान और लाहौर से लेकर दिल्ली के बाहरी भाग तक छापा मारा। ऐसा पता चलता है कि दिल्ली से दौलताबाद के लिए राजधानी का स्थानांतरण और मुहम्मद तुगलक द्वारा उत्तरी सीमाओं की रक्षा के प्रति उदासीनता ने मंगोलों को भारत पर आक्रमण करने की प्रेरणा दी। आक्रमणों के उदय के विषय में लेखकों के बीच मतभेद हैं। याहिया-बिन-अहमद व बदायूनी यह बताते हैं कि मुहम्मद तुगलक ने मंगोलों को हराया और उन्हें देश के बाहर निकाल दिया। परन्तु फरिश्ता का मत है कि मुहम्मद तुगलक ने आक्रमणकारियों को रिश्वत देकर लौट जाने योग्य बना दिया। आक्रमणकारियों को सुल्तान द्वारा दिये गए सोने व रत्नों को "राज्य का मूल्य" समझा गया है। चाहे कुछ भी सच हो, "आक्रमण केवल एक छापे की तरह था और तरमाशीरीं अचानक ऐसे अदृश्य हो गया जैसे आया था।"
- 2. मुहम्मद तुगलक का विचार विश्व विजय का था। उसने खुरासान व ईराक जीतने का निश्चय किया और इस काम के लिए एक बड़ी सेना का संगठन भी किया। ऐसा करने में उसे उन खुरासानी कुलीनों से प्रेरणा मिली थी जिन्होंने उसके दरबार में शरण ली। इसमें उनके अपने निजी स्वार्थ भी थे। जियाउद्दीन बारानी हमें बताता है कि लगभग 3,70,000 मनुष्य दीवाने अर्ज या भर्ती कार्यालय में प्रविष्ट किए गए थे। पूरे एक वर्ष तक उनको इसका वेतन दिया गया था। यह इंकार नहीं किया जा सकता कि खुरासान में अबू सईद के बदनाम शासन के कारण अव्यवस्था थी और मुहम्मद तुगलक निश्चय ही उसका लाभ उठा सकता था। परन्तु यह भूला नहीं जा सकता कि मुहम्मद तुगलक की स्थिति स्वयं भारत में स्थायी नहीं थी और इसलिए विदेशी भूमि को जीतने का विचार तक उसके लिए एक मूर्ख कार्य था। इसके अतिरिक्त उसने यातायात की समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया। भौगोलिक कठिनाइयों के प्रति भी उदासीनता बरती गई। यह बात पूर्णतया भुला दी गई कि हिमालय व हिन्दूकुश के पहाड़ी मार्गों से होकर ऐसी विशाल सेना का निकालना भी एक कठिन कार्य था और उस सेना का भोजन व ऐसे दूर के देश में जीवन की अन्य आवश्यकताओं का प्रबंध करना भी कोई सरल कार्य नहीं था। इसके अतिरिक्त भारत के मुस्लिम सैनिक मध्य एशिया के कठोर योद्धाओं के सामने कोई जोड़ नहीं हो सकते थे। मुहम्मद तुगलक मिस्र के सुल्तान व तरमाशीरीं खाँ की सहायता पर निर्भर नहीं रह सकता था।
- 3. नगरकोट का किला पंजाब में कांगड़ा जिले में एक पहाड़ी पर स्थित था। इसने महमूद गजनी के समय से प्रत्येक तुर्की सेना को परास्त किया था। यह अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में जीतने से रह गया था। 1337 ई. में मुहम्मद तुगलक ने नगरकोट के विरुद्ध आक्रमण की तैयारी की। हिन्दू राजा ने विरोध किया परन्तु हार गया। सुल्तान ने उसे दुर्ग वापस कर दिया।
- 4. फरिश्ता की अध्यक्षता में अनुसरण करते हुए भारतीय इतिहास के बहुत से लेखकों ने यह गलत विचार दिया है कि मुहम्मद तुगलक ने चीन के विरुद्ध आक्रमण हेतु सेना भेजी। परन्तु जियाउद्दीन बारानी तथा इब्नबतूता द्वारा यह स्पष्ट रूप से बताया जाता है कि मुहम्मद तुगलक ने कराजल का पहाड़ जीतने का इरादा किया जो भारत व चीन के प्रदेशों के बीच स्थित है। इब्नबतूता हमें बताता है कि कराजल पहाड़ दिल्ली से 10 मील दूरी पर स्थित था। ऐसा पता चलता है कि अभियान कमायूँ गढ़वाल क्षेत्र के कुछ पहाड़ी लोगों को दिल्ली सल्तनत के आधिपत्य में लाने के लिए किया गया था। इस काम के लिए 1337-38 ई. में एक बड़ी सेना भेजी गई थी। प्रथम आक्रमण सफल रहा, परन्तु जब वर्षा ऋतु आई तो आक्रमणकारियों को बड़ी कठिनाई उठानी पड़ी। सेना का सारा सामान पहाड़ियों ने लूट लिया। जियाउद्दीन बारानी के अनुसार 10 घुड़सवार ही संहार की कथा सुनाने वापस लौटे। परन्तु इब्नबतूता के अनुसार यह संख्या 3 थी। इस असफलता के होते हुए भी, अभियान का उद्देश्य पूरा हो गया। पहाड़ी लोगों ने विरोध की मूर्खता का आभास कर लिया और सुल्तान को सम्मान देने के विचार से सहमत होते हुए अच्छे सम्बन्ध बना लिए।
- 5. बंगाल दिल्ली सल्तनत के प्रति कभी वफादार नहीं रहा था। फखरुद्दीन (Fakhar-Ud-Din) बहराम खाँ के लौहकोट-धारक और पूर्वी बंगाल के शासक ने अपने स्वामी का वध कर दिया और 1336-37 ई. में उसका प्रदेश छीन लिया। लखनौती का शासक कदर खाँ (Qadr Khan) उसके विरुद्ध बढ़ा और स्वयं मारा गया। फखरुद्दीन ने मुहम्मद तुगलक की कठिनाइयों से लाभ उठाया और अपने को बंगाल का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। उसने अपने नाम के सिक्के तक निकलवा दिए। भोज्य पदार्थों व जीवन की अन्य आवश्यकताओं का मूल्य इतना कम था कि फारस के लोग बंगाल को "सब अच्छी वस्तुओं से भरा हुआ नरक" कहते थे।
- 6. ऐन-उल-मुल्क मुल्तानी (An-ul-Mulk Multani) अवध का शासक था। वह एक वफदार अधिकारी, एक महान सैनिक व एक सुशिक्षित विद्वान् था। वह कारा के निजाम मईन के विप्लव को दबाने के लिए उत्तरदायी था। जब अवध में अकाल पड़ा तब उसने दानों के मूल्य के 70 से 80 लाख तक के टंके भेजे। इन सेवाओं के होते हुए भी 1340-41 ई. में उसे दौलताबाद जाकर वहाँ के उपद्रव दबाने का आदेश दिया गया। ऐन-उल-मुल्क ने यह सोचा कि ऐसे कार्य का आशय अवध में उसके सम्मान का पतन तथा कूटनीति यातायात द्वारा उसकी शक्ति का घटाना है। उसने सुल्तान से यह प्रार्थना की कि उसे दक्षिण न भेजा जाये, परन्तु जब सुल्तान ने आग्रह बनाए रखा तो उसने उपद्रव मचा दिया। वह पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया। उसे पद से निष्कासित कर दिया और बहुत अपमान के साथ उसे रखा गया। चूँकि सुल्तान यह जानता था कि ऐन-उल-मुल्क एक कमजोर दिल वाला विद्रोही था, अतः उसे मुक्त कर दिया गया और उसे दिल्ली के राजसी उद्यानों का संरक्षक नियुक्त कर दिया गया।
- 7. राज्य के अस्थायित्व से लाभ उठाते हुए सिंध में लूटमारी ने बोलबाला पैदा कर लिया। मुहम्मद तुगलक स्वयं अपनी सेना के साथ वहाँ पहुँचा। लुटेरे तितर-बितर हो गए और उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और इस्लाम धर्म स्वीकार करने को बाध्य किया गया।
- 8. 1336 ई. में एक उत्साही हिन्दू नेता हरिहर ने विजयनगर के हिन्दू राज्य की स्थापना की, उसने कृष्णा नायक, प्रतारुद्र काकतीय के पुत्र की सहायता भी की जबकि उसने 1343-44 ई. में मुहम्मद तुगलक के विरुद्ध विद्रोह किया। बल्लाल द्वितीय ने वारंगल पर अधिकार जमा लिया और उसका मुस्लिम शासक इमाद-उल-मुल्क दौलताबाद भाग गया। फरिश्ता के अनुसार, बल्लाल देव व कृष्णा नायक दोनों ने अपनी सेनाएँ मिला लीं और माबर व द्वार समुद्र को मुस्लिम नियंत्रण से मुक्त कराया। सब दिशाओं में युद्ध व विद्रोह की लपटें भड़क उठीं और दूर के प्रदेशों में सुल्तान के पास सिवाय गुजरात व देवगिरि के कुछ न बचा।"
- 9. कुतलग खाँ (Qutlugh Khan) दौलताबाद का प्रांताध्यक्ष था। उसके आधीन अधिकारियों ने बहुत-सा सार्वजनिक धन गबन कर लिया था और इसलिए मुहम्मद तुगलक ने ऐन-उल-मुल्क मुल्तानी को दौलताबाद भेजने का निश्चय किया। ऐन-उल-मुल्क के अभियान के बाद भी यह काम न हो सका। इसके होते हुए भी, कुतलग खाँ दौलताबाद से वापस बुला लिया गया और अलीम-उद्दीन-उल मुल्क को दौलताबाद का प्रांताध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। फिर भी स्थिति में सुधार न हो सका। फरिश्ता के अनुसार, "कुतलग खाँ के हटने पर लोग अप्रसन्न हो गए और नए शासन प्रबंध द्वारा प्रदर्शित असामर्थ्य भाव ने सब ओर विद्रोहों को जन्म दिया। परिणाम यह हुआ कि देश निर्जन व नष्ट हो गया।"
- 10. अजीज खुम्मर (Aziz Khummar) मुहम्मद तुगलक द्वारा मालवा व घार का शासक नियुक्त किया गया था। उसका व्यवहार कुलीन सरदारों के प्रति आपत्तिजनक था और इसलिए उन्होंने विद्रोह कर दिया। शासक ने ऐसे 80 सरदार पकड़वा लिये और दूसरों को आतंक में लाने के लिए उन्हें अपने महल के सामने कत्ल करा दिया। वह बहुत ज्यादा अत्याचार था और इसलिए हर जगह संकट उठ खड़ा हुआ। अजीज खुम्मर पकड़ लिया गया और उसकी अपमानजनक मृत्यु की गई।
- 11. सुल्तान अपनी शक्ति का उल्लंघन सहन न कर सका और फलस्वरूप वह एक सेना के साथ गुजरात की ओर बढ़ा और अपने हाथ आने वाली प्रत्येक वस्तु का उसने संहार कर दिया। उसी समय उसे देवगिरि में विद्रोह का समाचार मिला और इसलिए उसने देवगिरि की ओर प्रस्थान किया। वहाँ हिन्दुओं, अफगानों व तुर्कों ने मिलकर सुल्तान के विरुद्ध सिर उठाया था, परन्तु सुल्तान ने विद्रोहियों से दौलताबाद वापस ले लिया। जब वह दौलताबाद में था, उसे गुजरात में एक दूसरे विद्रोह का समाचार मिला। वहाँ विद्रोह का नेता सरदार तगी (Taghi) था जो कि एक साधारण जूता बनाने वाला तथा मुस्लिम कुलीनों का एक दास था। वह समस्त असंतुष्ट तत्वों को अपने आधीन लाने में सफल रहा। उसने सफलता के साथ नहरवाला, कैम्बे व भड़ोच के स्थानों को लूट लिया और उन्हें अपने अधिकार में कर लिया। फिर भी मुहम्मद तुगलक तगी को गुजरात से भगाने तथा उसे सिन्ध में शरण लेने योग्य बनाने में सफल रहा। अंततः गुजरात का वातावरण शान्त हो गया।
- 12. जब मुहम्मद तुगलक गुजरात में था, तो विदेशी अमीरों ने अपनी स्थिति पुनः प्राप्त करने की प्रभावशाली योजनाएँ बनाई और उन्होंने देवगिरि का किला घेर लिया। उस पर पुनः प्रभाव जमाने के लिए साम्राज्यवादियों की सारी योजनाएँ असफल रहीं। हसन गंगू ने इमाद-उल-मुल्क को हरा दिया और विद्रोहियों ने दौलताबाद पर कब्जा कर लिया।इस्माइल मुल्क, जिसे विद्रोहियों ने अपना राजा चुन लिया था, ने "ऐच्छिक एवं प्रसन्न रूप से" हसन गंगू के पक्ष में त्यागपत्र दे दिया। अगस्त 1347 ई. में हसन ने अलाउद्दीन बहमन शाह की उपाधि ग्रहण कर ली और बहमनी राज्य की नींव डाली।
- 13. तगी ने सिन्ध में शरण ली थी और मुहम्मद तुगलक ने उसके विरुद्ध बढ़ने का निश्चय किया था, परन्तु मार्ग में सुल्तान बीमार पड़ गया और इसलिए गोंडल पर कुछ समय के लिए रुकने पर विवश हो गया। कुछ दशा सुधरने पर वह सिन्ध में थट्टा की ओर बढ़ा। उस स्थान से 3 या 4 दिन तक बढ़ते ही उसकी दशा गंभीर हो गई और 20 मार्च 1351 ई. को उसका देहांत हो गया। बदायूनी इस प्रकार कहता है-" और इस प्रकार राजा को अपनी जनता से व जनता को अपने राजा से मुक्ति मिल गई।"
- डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, "उन अमीरों की ओर जो उसके डेरे में भीड़ लगाए रहते थे, वह अपनी डगमगाती हुई शक्ति को रोकने के लिए सहायता के हेतु देखता था, किन्तु वे सब बिना किसी योजना या नीति के अल्पबुद्धि वाले थे और उसे केवल बहुत थोड़ी-सी सहायता दे सकते थे। जिस वस्तु ने उसे गम्भीरता के साथ रोका वह चीज उन योग्य शासकों व अधिकारियों की कमी थी जो उसकी योजनाओं को लागू कर सकते। मुख्य स्थान पर मनुष्य की अकुशलता ने व्यक्तित्व के तत्व को इस सीमा तक महत्त्व प्रदान किया कि गड़बड़ वाले क्षेत्रों में व्यवस्था बनाए रखने के लिए सुल्तान की उपस्थिति आवश्यक हो गई। निरन्तर विरोध व कुप्रबंधों से प्रभावित स्थानीय शासन प्रबंध उन विद्रोहियों के सामने न ठहर सके जिनकी शक्ति रोज बढ़ रही थी। अशान्ति की शक्तियों पर प्रतिबंध लगाने में गुजरात या देवगिरि कहीं का भी स्थानीय शासन प्रबंध कोई उत्साह न दिखा सका। केवल सुल्तान ही को आक्रमणों की मुख्य चोट का मुकाबला करना पड़ा। राजसी सेना भी कोई विशेष कुशलता न दिखा सकी। शायद सुल्तान की असाधारण कठोरताओं ने उसका संतोष समाप्त कर दिया था और उसका उत्साह ठंडा कर दिया था।"
मुहम्मद तुगलक का चरित्र व मूल्यांकन (Character and Estimate):
- मुहम्मद तुगलक के चरित्र व सफलताओं के विषय में बहुत विवाद है। एल्फिसटन का यह मत है कि मुहम्मद तुगलक पर थोड़ा बहुत पागलपन का भी प्रभाव था। कुछ लेखक जैसे हेवल, एडवर्ड टामस और स्मिथ उसी के इस विचार का अनुसरण करते हैं। गारडिनर ब्राउन (Gardiner Brown) ने मुहम्मद तुगलक के जीवन के बुरे पहलू को बिल्कुल छोड़ दिया है और उसे 'पागल', 'खून का प्यासा' या 'स्वप्न देखने वाला' होने से मुक्त किया है। जियाउद्दीन बारानी व इब्नबतूता मुहम्मद तुगलक के व्यक्तित्व में गुणों व दोषों के विषय में विपरीत मत रखते हैं। यह विवाद हमेशा से ऐसा ही जीवित रहा है।
- मुहम्मद तुगलक अपने समय के योग्य एवं होनहार विद्वानों में से एक था और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उसके समकालीन लोगों ने उसकी प्रशंसा की है। वह एक तीक्ष्ण बुद्धि व आश्चर्यजनक स्मरण शक्ति रखता था। वह तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, गणितशास्त्र, ज्योतिष व भौतिक विज्ञान जानता था। वह रचना व शैली का पूर्ण स्वामी था। वह एक योग्य व सुन्दर लेखक था। उसे फारसी कविता का बहुत अच्छा ज्ञान था और अपने पत्रों में फारसी कविताओं के कुछ भाग लिखने में उसे बड़ा आनंद आता था। उसे औषधियों का ज्ञान था और वह विवादों में बहुत कुशल था। उपमाओं व अलंकारों के प्रयोग में वह बहुत दक्ष था। जियाउद्दीन बारानी उसे एक योग्य विद्वान बताता है और सृष्टि का ऐसा महान् आश्चर्य समझता है जिसकी योग्यताएँ अरस्तू व आसफ जैसे मनुष्य को आश्चर्य में डाल सकती थीं। वह उदार स्वभाव का था। वह उन सब को बहुत उपहार देता था जो हर समय उसके द्वारों पर भीड़ लगाए रहते थे। उसकी आदतें साधारण थीं। वह अपने समय की प्रचलित बुराइयों से मुक्त था। इब्नबतूता ने उसे "सबसे ज्यादा नम्र व ऐसा मनुष्य जो सदा ठीक व सच्चा काम करने के लिए तत्पर व उत्सुक रहने वाला था" बताया है। बरनी, याहिया-बिन-अहमद सरहिन्दी, बदायूनी, निजामुद्दीन व फरिश्ता ने यह गलत बताया है कि मुहम्मद तुगलक एक धार्मिक व्यक्ति न था और वह पवित्र तथा योग्य मनुष्यों के हत्याकांड के लिए उत्तरदायी भी था। इब्नबतूता प्रत्यक्षतः यह स्वीकार करता है कि "वह (मुहम्मद तुगलक) निष्ठा के साथ धार्मिक सिद्धांत का अनुसरण करता है। स्वयं प्रार्थनाएँ करता है और उन मनुष्यों को दण्ड देता है जो पूजा से उदासीन रहते हैं। दो अन्य समकालीन लेखक शहाबुद्दीन अहमद और उन-बदरे-छाछ भी इब्नबतूता के मत की पुष्टि करते हैं। यह पता चलता है कि मुहम्मद तुगलक की एकमात्र गलती यह थी कि "उसने उस परम्परागत नियम" के प्रति उदासीनता की जिसकी व्याख्या काजी व अन्य मुस्लिम उलेमा करते थे और उसने वही किया जिसे स्वयं ठीक व न्यायसंगत समझा।
- मुहम्मद तुगलक की कल्पना शक्ति बहुत तीव्र थी किन्तु उसके पास व्यावहारिक न्याय व सामान्य बुद्धि का अभाव था। वह तेज काम करने वाला व गरम स्वभाव का था। वह किसी ओर से विरोध सहन नहीं कर सकता था और उन सब को दण्ड देने के लिए तैयार रहता था जो उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने या उससे असहमत होने का साहस करते थे। जियाउद्दीन बारानी के अनुसार, "उसने जो कुछ सोचा, उसने अच्छा सोचा, परन्तु अपनी योजना को लागू करने में उसने अपने प्रदेशों तक को खो दिया, अपनी जनता को असंतुष्ट कर दिया और अपना कोष खाली कर दिया। विस्मय के बाद विस्मय आया और इसलिए गड़बड़ चरम सीमा पर पहुँच गई। लोगों की कुभावनाओं ने विद्रोह के फूटने को जन्म दिया। शाही योजनाओं को लागू करने में नियम दिन प्रतिदिन अधिक शोषणात्मक होने लगे। बहुत दूर के देशों व प्रांतों के कर जाते रहे और बहुत से सैनिक व नौकर तितर-बितर हो गए तथा दूर के स्थानों में छोड़ दिए गए। कोष में अभाव दिखाई देने लगा। सुल्तान के मस्तिष्क का संतुलन खत्म हो गया। अपने स्वभाव की चरम दुर्बलता व कठोरता में आकर उसने अपने को अत्याचार के प्रति समर्पित कर दिया। जब उसने देखा कि उसके आदेश ठीक नहीं चल रहे हैं, जैसा कि वह चाहता था, तो वह अपनी जनता के प्रति और भी अधिक रुष्ट हो गया।"
- मुहम्मद तुगलक ने बरनी से कहा, "मेरा राज्य रोगी है और कोई भी औषधि उसे ठीक नहीं करती। वैद्य सिर का दर्द ठीक करता है परन्तु ज्वर आ जाता है; वह ज्वर दूर करने की चेष्टा करता है तो कुछ अन्य रोग निकल पड़ता है। इसलिए मेरे राज्य में अशान्ति फूट पड़ी है; यदि मैं एक स्थान पर उसे दबाता हूँ वह दूसरे स्थान पर उठ जाती है; यदि मैं फिर, उसे एक जिले में रोकता हूँ, तो दूसरे जिले में गड़बड़ हो जाती है। फिर मैं संदेह या कल्पना पर उनके विद्रोहात्मक व प्रपंचात्मक कार्यों के विरुद्ध दण्ड देने के लिए आगे बढ़ता हूँ और मैं छोटे-छोटे अपराध तक पर मृत्यु दण्ड देता हूँ। यह मैं तब करूंगा जब तक जीवित रहूँगा या जब तक लोग ईमानदारी से काम नहीं करते या विद्रोह व आज्ञोल्लंघन नहीं छोड़ देते। मेरे पास ऐसा कोई वजीर नहीं है जो मेरे निकलते हुए रक्त को दिखाने के लिए नियम बनायेगा। मैं मनुष्यों को दण्ड देता हूँ क्योंकि वे मेरे बिल्कुल विरोधी व शत्रु बन बैठे हैं। मैंने उनके बीच बड़ा धन वितरित किया है, किन्तु वे फिर भी कर्तव्य परायण व मित्र न हो सके।" फिर विद्रोहों के लिए मेरा उपाय तलवार है। मैं दण्ड देता हूँ व तलवार का प्रयोग करता हूँ जिससे कष्टों द्वारा सुधार हो सके। जितना अधिक लोग विरोध करते हैं; उतना ही अधिक मैं दण्ड देता हूँ।"
- मुहम्मद तुगलक को "विपरीतताओं का मिश्रण" (a mixture of opposites) बताया गया है। यदि उसके अपने गुण थे, तो कुछ दोष भी थे। जहाँ वह उदार, दयालु व नम्र था वहाँ बहुत क्रूर भी था। जहाँ वह अपने पास आने वाले सब लोगों को उपहार देता था, वहाँ बहुतों की मृत्यु के लिए उत्तरदायी भी था। सुल्तान का स्वभाव ऐसा था कि कोई विश्वास के साथ यह नहीं कह सकता था कि उसे क्या मिलेगा। यह संभव था कि उसे दान के रूप में कुछ मिल जाये। यह भी उतना ही सम्भव था कि उसको फाँसी मिल जाये। वह लोगों की भावनाओं की चिन्ता नहीं करता था। उसके पास मस्तिष्क का संतुलन या संतोष नहीं था।
- मुहम्मद तुगलक को विपरीतताओं का विचित्र मिश्रण (an amazing compound of contradictions) भी कहा गया है। डा. ईश्वरी प्रसाद का मत है कि उस पर खून का प्यासा व पागल होने के दोष अधिकतर निराधार हैं। किसी भी समकालीन लेखक ने ऐसा कोई विवरण नहीं दिया है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि मुहम्मद तुगलक विक्षिप्त या पागल था। यह सम्भव है कि ऐल्फिस्टन व अन्य यूरोपीय लेखक इब्नबतूता के इस विवरण को गलत समझ बैठे कि कुछ मृतक शरीर सुल्तान के महल के बाहर सदा पड़े रहते थे। यदि वह छोटे से अपराध पर मृत्यु दण्ड का आदेश देता था तो इसका कारण यह था कि उसे अनुपात का कोई ज्ञान नहीं था और इसलिए भी कि उस समय यूरोप व एशिया में ऐसा रिवाज प्रचलित था। धार्मिक वर्ग के सदस्यों ने ही उस पर खून का प्यासा होने का दोष लगाया है। बारानी भी सुल्तान की इस बुद्धि की निन्दा करता है। वह उसकी दार्शनिक कल्पनाओं की बहुत तीव्र भाषा में आलोचना करता है। ऐसी कोई वस्तु देखने में नहीं आती कि सुल्तान को मनुष्य जाति के संहार करने या संगठित मनुष्यों का शिकार करने में आंनद आता था। डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, "सत्य यह है कि सुल्तान ने अपने कमजोर स्वभाव व प्रशासकीय सुधारों के पूर्वगामी आदर्शों का मिश्रण कर दिया, जब लोगों ने उसकी इच्छाओं के अनुसार कार्य करने में असमर्थता प्रकट की, तो उसका क्रोध भयानक हो गया। उसका असंतोष लोक-उदासीनता का फल था, जिस प्रकार लोक उदासीनता उसकी विस्मयात्मक नवीनताओं का परिणाम थी।"
गार्डिनर ब्राउन के अनुसार, "वह पागल था, यह ऐसा विचार है कि जिसका समकालीन लोग कोई संकेत नहीं देते हैं। यह कि वह एक स्वप्न-दर्शक था तो उसका बहुरूपी व्यावहारिक व तेजपूर्ण चरित्र हमें ऐसा विश्वास करने से रोकता है। उसे एक निरंकुश शासक मानना सच हो सकता है, परन्तु मध्य युग में और किसी प्रकार का शासन कल्पना योग्य भी नहीं था। इस शब्द का इस प्रकार प्रयोग करना जैसे कि वह किसी बीमारी या बुराई का नाम है तो उसका आशय उस तत्व को भूल जाना है कि एक निरंकुश राजकुमार जो नए विचारों तक पहुँच सकता है या जो सुधार के उपाय करता है, वह ऐसे युग में अपने मनुष्यों की समृद्धि के लिए बहुत कुछ कर सकता है जबकि शिक्षा की इतनी कम प्रगति हुई हो और रूढ़िवाद इतना गहरा हो। ऐसे शासक को फिर भी, अपने समय में मुकाबला करने के लिए गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है स्वार्थी हितों की अनिवार्य उथल-पुथल, स्थापित परम्परा के लिए सहज लगाव उसके लिए अगणित शत्रुओं की उत्पत्ति करते हैं। अलोकप्रिय सुधारों को लागू करने वाले अधिकारी स्वामी के आदेशों का बहाना कर अपनी जान बचा लेते हैं। यदि उसकी योजनाओं पर बिना वजह आपत्ति आ पड़े या बुरे व अकुशल अधिकारी अपने स्वार्थों के लिए भ्रष्ट हो जाएँ, तो वह सब इस कारण है कि वह एक निरंकुश शासक है और इसलिए उसे यह दोष अपने जिम्मे लेना चाहिए। यदि वह एक योद्धा रहा है और मृत्यु उसका वरण करती है जबकि वह थट्टा की दीवारों के नीचे मुहम्मद बिन तुगलक की भाँति किसी छोटे से यह कहता है-
संग्राम में फँसा हुआ है, तो स्वर्ग का निर्णय उस लोकप्रिय निर्णय की पुष्टि करता हुआ मालूम होता है और साहित्य उसने ऐसा नाम छोड़ा जिस पर विश्व पीला पड़ गया, एक शिक्षा देने या कहानी सजाने के वास्ते।
लेनपूल के अनुसार,
- "मुहम्मद तुगलक मध्य युग का सबसे अधिक विलक्षण जीव था। वह ऐसा मनुष्य था जिसके विचार अपने समय से बहुत आगे थे। अपने शासन की समस्याओं का भार उठाने के लिए अलाउद्दीन के पास एक तेजस्वी किन्तु बन्द मस्तिष्क था; मुहम्मद तुगलक अपनी योजनाओं में अधिक साहसी था, परन्तु वे विचार एक प्रशिक्षित बुद्धि तथा शिक्षित कल्पना वाले मनुष्य के आदर्श थे। वह अपने समय की मान्यताओं में पूर्ण, फारसी कविता का योग्य विद्यार्थी, भारतीय शिक्षा की लातिनी शैली का उस्ताद अलंकार के युग में सर्वश्रेष्ठ रूप से अभिभावक, यूनानी तर्कशास्त्र व वेदान्तशास्त्र में प्रशिक्षण-प्राप्त था जिससे विद्वान भी विवाद करते डरते थे। वह गणित तथा विज्ञान का प्रेमी था। समकालीन लेखक उसकी रचना तथा विचित्र सुन्दर लिपि की अगाध प्रशंसा करते हैं। उसकी सुन्दर मुद्रा यह प्रमाणित करती है कि अरब के चरित्र को अपनाने की कला में उसका समालोचनात्मक चाव था, जिसे वह पढ़ता व समझता था हालांकि वह भाषा को तेजी के साथ बोल सकता था।"
- "संक्षेप में, वह उस सब में सम्पूर्ण था जो उस युग व उस देश में संस्कृति द्वारा प्राप्त हो सकता था, उसने अपने प्रशिक्षण की सफाई में मौलिक विचार का एक प्राकृतिक ज्ञान, एक आश्चर्यजनक स्मरण शक्ति और एक अडिग इच्छा का योग कर दिया। उसका केन्द्रीय राजधानी का विचार, उसकी सांकेतिक सिक्के की योजना, उसकी अन्य बहुत-सी योजनाओं की भाँति अच्छी थी। परन्तु उसने अपनी नवीनताओं के लिए देशी नापसंदी पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने बिना संतोष के अपने नए उपायों को लागू करने में जल्दी की, जिससे कि लोग उसे धीरे-धीरे अपना सकें, जब वे असंतुष्ट हो गए और उन्होंने विद्रोह किया तो उसने उन्हें निर्दयता के साथ सजा दी। उसे जो अच्छा प्रतीत हुआ, उसे फौरन किया जाने का आदेश मिला और जब वह असफल या असंभव प्रतीत हुआ, तो उसकी निराशा रोष की सीमा पर पहुँच गई और उसने अपना क्रोध बिना कोई भेदभाव किए उन अप्रसन्न अपराधियों पर उतारा जो उसकी कल्पना के साथ न चल सके। अतः अपने सर्वोत्तम संकल्पों, उत्तम विचारों एवं संतोष के संतुलन बिना, अनुपात का कोई ध्यान न करते हुए, मुहम्मद तुगलक को सम्पूर्ण विफलता प्राप्त हुई। उसका शासन ऐसा था जिसमें विद्रोहों का एक लम्बा सिलसिला चलता रहा जिन्हें उसने बर्बरतापूर्वक दबाया। उसकी प्रजा, जिसे वह लाभ पहुँचाना चाहता था और जिस पर उसने अपरा कोष लुटाया, उससे अप्रसन्न होने लगी, उसकी सारी योजनाएँ निरर्थक हो गईं और जब सिन्ध नदी के किनारे 26 वर्ष बाद उसका देहान्त हुआ, तो उसने एक टूटा-फूटा साम्राज्य और एक लुटी हुई व विद्रोही प्रजा छोड़ी।"
- सर वुल्जले हेग के अनुसार, "मुहम्मद तुगलक जैसे विषम व प्रतिकूल चरित्र को अंकित करना कोई सरल कार्य नहीं है। वह उन असाधारण राजाओं में से था जो कभी गद्दी पर बैठे। अपनी बहुत अपव्ययी उदारता में उसने विद्रोहमयी तथा अविवेकपूर्ण निर्दयता का संयोग कर दिया; उसने इस्लाम के कानून द्वारा निर्धारित रीति व संस्कारों को स्वीकार किया परन्तु समस्त सार्वजनिक मामलों में उनका बिल्कुल पालन नहीं किया, उसने उन सब के लिए एक अन्धविश्वासी सम्मान दिया जिनकी जाति या जिनकी पवित्रता का आदर किया जाता था, परन्तु जब उसका रोष जाग्रत हो जाता था तब वह व्यक्तिगत पावनता या पुरोहित (उल्मा) के रक्त तक का सम्मान न करता था। उसके कुछ प्रशासकीय व अन्य सैनिक उपाय उसकी सर्वश्रेष्ठ योग्यता का प्रमाण देते हैं, शेष कार्य किसी पागल जैसे मनुष्य के हैं। उसका संरक्षणाधीन विद्वान जियाउद्दीन बारानी, इतिहासकार जिसके साथ उसने काफी सीमा तक घनिष्ठता स्वीकार की और जिससे उसने प्रायः परामर्श लिया, वह बहुत से ऐसे अत्याचारों का वर्णन करता है जिनकी स्वीकृति या जिनके आदेश सुल्तान ने 12 दुष्ट परामर्शदाताओं के कुप्रभाव के कारण जारी किए, वह सुल्तान को 'दयनीय', 'अभिशप्त' या सबसे 'अधिक अभिशप्त' से दोषारोपित करता है, जिसको मुसलमानों का रक्त प्रवाहित करने में आनंद आता था। परन्तु मुहम्मद तुगलक कोई दुर्बल व्यक्ति नहीं था और अपने परामर्शदाताओं के हाथ में कभी कठपुतली बन कर नहीं रहा। यदि उसके परामर्शदाता दूषित व रक्त के प्यासे थे तो वही उनका चुनाव करता था, यदि वह बुरे परामर्शों का अनुसरण करता था, तो वह इसलिए करता था क्योंकि वे उसके द्वारा प्रशंसित होते रहते। इसी भाँति बारानी बताता है कि आदि काल में अपना सम्पर्क साद काफिर, तर्काचार्य उबैद, अभक्तिपूर्ण कवि अलीमुद्दीन दार्शनिक से रखने के कारण प्रशासकीय व दण्ड सम्बन्धी कार्यों में वह इस्लाम के कानून के प्रति उदासीनता रख लेता था, किन्तु यह केवल विशेष दलील है। उसके इन स्वतंत्र विचार वालों के साथ सम्पर्क ने इस्लाम में उसके विश्वास को कम नहीं किया, और इससे अन्य क्षेत्रों में कानूनों के प्रति उसके ज्ञानपूर्ण सम्मान या उसकी परम्पराओं के आदर में कोई कमी न आ सकी। यह तर्काचार्यों, कवियों या दार्शनिकों का दोष नहीं है कि उसने अपनी अभिरुचि को स्पष्ट रूप से बिना खोले हुए सांसारिक विषयों में दैवी स्पष्टीकरण के क्षेत्र में मानवीय विवेक को जान बूझकर पसंद किया और इस प्रकार रूढ़िवाद को ठुकरा दिया। उसके निजी निर्णय ने उसको गलत मार्ग दिखाया, परन्तु यह उसकी प्रवृत्ति के कारण था। एक न्यायकर्ता व प्रशासक के नाते उसका विशेष दोष यह था कि उसमें अपरिमित गर्न था जिसने उसे अपराधों के बीच अन्तर निकालने की शक्ति से वंचित कर रखा था। उसके सारे आदेश पवित्र होते थे और एक अव्यावहारिक निर्देश से तनिक भी हटाव और विद्रोह या आज्ञा न मानने का गंभीर अपराध सभी का एक दण्ड था-निर्दयता के साथ मृत्यु दण्ड। इस नीति ने राजा तथा प्रजा पर सामूहिक रूप से प्रभाव डाला व साथ ही उसकी प्रतिक्रिया भी चलती रही। अपने सार्वभौम शासक की बर्बरता से तंग आकर वे और भी अधिक प्रतिक्रियावादी बन गए। उनकी आज्ञावहेलना से चिढ़कर वह और भी रुष्ट हो गया। उसके शासन काल में उसका विशाल साम्राज्य बहुत कम समयों पर उपद्रवों से मुक्त रहा और उसकी मृत्यु पर सारा राज्य उथल-पुथल में आ फँसा।
- "बरनी, उसके उपकारों व भयों का विचार न करते हुए, आश्चर्य के साथ ऐसा विवरण देता है। वह कहता है कि सुल्तान का गर्व इतना अपरिमित था कि वह यह सुनना सहन नहीं कर सकता था कि इस पृथ्वी का कोई कोना, यहाँ तक कि आकाश तक का कोई कोना, उसकी सत्ता के अधीन नहीं है। एक ही समय पर वह सुलेमान व सिकन्दर दोनों ही था; वह केवल राजपद से ही संतुष्ट नहीं था क्योंकि वह धार्मिक पुरोहित का पद प्राप्त करने का भी इच्छुक था। उसकी यह आकांक्षा थी कि संसार की सब वस्तुओं को वह अपना दास बना ले और बरनी उसके इस गर्व को उन फरोन राजाओं व निमरोद के समान समझता है जो राजपद व दैवी-पद दोनों ही का दावा करते थे, किन्तु विधि के प्रति उसके चिन्ताजनक सम्मान तथा इस्लाम धर्म में उसके दृढ़ विश्वास ने उसके माथे से नास्तिकता तथा अनिष्ठा का कलंक हटा दिया। वह उसकी तुलना बुस्ताम के बयाजिद और मन्सूर-उल-हल्लाज के पुत्र हुसेन से करता जिन्होंने अपने भक्ति के आनंद में रत होकर यह विश्वास किया कि वे ईश्वर में अपने को मिला चुके हैं, परन्तु उसकी बर्बरतापूर्ण निर्दयता ने किसी भी पवित्रता को उसके ऐसे दावों से वंचित कर दिया।"