फिरोज तुगलक का सम्पूर्ण इतिहास (1351-1388)
फिरोज तुगलक (1351-1388) (Firoz Tughluq Complete History in Hindi)
- मुहम्मद तुगलक के उपरांत फिरोज तुगलक गद्दी पर बैठा। उसका जन्म 1309 ई. में हुआ व उसकी मृत्यु 1388 ई. में हुई। वह गयासुद्दीन तुगलक के छोटे भाई रजब का पुत्र था। उसकी माता भट्टी राजपूत कन्या थी जिसने अपने पिता रणमल, अबूहर के सरदार के राज्य को मुसलमानों के हाथों से नष्ट होने से बचाने के लिए रजब से विवाह करने पर सहमति प्रदान कर दी थी। जब फिरोज बड़ा हुआ तो उसने शासन-प्रबंध व युद्ध-कला में प्रशिक्षण प्राप्त किया परन्तु वह किसी भी क्षेत्र में निपुण न बन सका। मुहम्मद तुगलक फिरोज के प्रति बहुत प्रेम रखता था और इसलिए देश के शासन-प्रबंध में उसने उसको अपने साथ ले लिया।
फिरोज तुगलक सिंहासनारोहण (Succession):
- जब 20 मार्च, 1351 ई. को मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हो गई, तो उस डेरे में पूर्ण अव्यवस्था व अशान्ति फैल गई जिसे सिंध के विद्रोहियों व मंगोल वेतनार्थी सैनिकों ने लूटा था व जिन्हें मुहम्मद तुगलक ने तगी के विरुद्ध संग्राम करने हेतु किराये पर रख लिया था। सिंधियों व मंगोलों ने काम तमाम कर दिया होता, परन्तु उसी समय फिरोज से गद्दी पर बैठने को कहा गया। उसने संकोच प्रकट किया, परन्तु जब कुलीन पुरुषों, शेखों व उलेमाओं ने उस पर दबाव डाला, तो वह सुल्तान बनने पर राजी हो गया। इन परिस्थितियों के अधीन ही 23 मार्च, 1351 ई. में थट्टा के निकट एक डेरे में फिरोज का सिंहासनारोहण हुआ।
फिरोज का विरोध (Opposition):
- फिरोज को एक अन्य कठिनाई का सामना करना पड़ा। स्वर्गीय सुल्तान के नायब (deputy), ख्वाजा-ए-जहाँ, ने दिल्ली में एक लड़के को सुल्तान मुहम्मद तुगलक का पुत्र व उत्तराधिकारी घोषित करके गद्दी पर बिठा दिया। यह परिस्थिति गंभीर हो गई और इसलिए फिरोज ने अमीरों, सरदारों तथा मुस्लिम विधि-ज्ञाताओं (jurists) से परामर्श लिया। उन्होंने यह आपत्ति उठाई कि मुहम्मद तुगलक पुत्रहीन था। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ख्वाजा-ए-जहाँ का अभ्यर्थी इसलिए अयोग्य है क्योंकि वह नाबालिग (Minor) है और गद्दी पर ऐसे समय नहीं बिठाया जा सकता जबकि परिस्थिति इतनी गंभीर है। यह भी कहा गया कि इस्लाम के कानून में उत्तराधिकार का कोई पैतृक अधिकार नहीं है। परिस्थितियाँ यह माँग करती हैं कि दिल्ली की गद्दी पर एक शक्तिशाली शासक होना चाहिए। जब ख्वाजा-ए-जहाँ ने अपनी स्थिति दुर्बल पाई, तो उसने आत्मसमर्पण कर दिया। उसकी पुरानी सेवाओं को देखते हुए फिरोज ने उसको क्षमा कर दिया और उसे समाना में आश्रय लेने की अनुमति दे दी। परन्तु मार्ग में शेर खाँ, समाना के सरदार (Commandant), के किसी साथी ने उसका वध कर दिया।
फिरोज तुगलक विवाद (Controversy):
- फिरोज तुगलक के सिंहासनारोहण के विषय में कुछ विवाद हैं। जियाउद्दीन बरनी का मत है कि मुहम्मद तुगलक ने एक आदेशपत्र (Testament) छोड़ा जिसमें उसने फिरोज तुगलक को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था परन्तु सर वुल्जले हेग ने इस आदेशपत्र की विश्वसनीयता पर संदेह किया है। उसका विचार है कि वह बालक जिसे ख्वाजा-ए-जहाँ ने गद्दी पर बिठाया वह मुहम्मद तुगलक का कोई "काल्पनिक पुत्र" नहीं था, वरन् उसके रक्त से था। फलस्वरूप, फिरोज का सिंहासनारोहण कोई यथाक्रम वस्तु न थी और इसलिए उसे बलादग्राही (Usurper) माना जा सकता है। इसके विपरीत अन्य इतिहासकारों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया है। यह कहा जाता है कि ऐसी कोई वस्तु नहीं मिलती है जो इस बालक को मुहम्मद तुगलक का पुत्र बता सके। यदि वह बालक मुहम्मद तुगलक का सच्चा पुत्र था भी, तो फिरोज का सिंहासनारोहण यथाक्रमहीन नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस्लाम में गद्दी के उत्तराधिकार के विषय में कोई पैतृक अधिकार नहीं था। डा. आर.पी. त्रिपाठी के विचारानुसार, फिरोज के सिंहासनारोहण ने "एक बार फिर बहुत बल के साथ चुनाव का अधिकार, जो पुत्र को शासन का अधिकार बिना मना किए हुए भी धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में प्रविष्ट हो रहा था, स्पष्ट कर दिया।" फिरोज के सिंहासनारोहण ने दो और सिद्धांतों पर बल दिया। प्रथम यह कि ऐसी कोई आपत्ति नहीं उठाई जा सकती कि शासक की माता विवाह से पूर्व गैर-मुस्लिम स्त्री थी और दूसरा यह कि यह आवश्यक नहीं कि नया शासक एक प्रसिद्ध विद्वान होना चाहिए। यह ठीक कहा गया है कि फिरोज का सिंहासनारोहण "उतना ही महत्त्वपूर्ण था जितना कि रोचक।"
फिरोज तुगलक गृह नीति (Domestic Policy):
- हम फिरोज के शासनकाल को दो भागों में बाँट सकते हैं-गृह नीति व विदेश नीति। जहाँ तक उसकी गृह नीति का सम्बन्ध है, इस नए सुल्तान का तत्कालीन कार्य जनता को अपनी ओर आकृष्ट करना था। यह कार्य उसने जनता पर राज्य के समस्त ऋणों को क्षमा करके तथा कोई ऐसी चेष्टा न करके सम्पन्न किया, जिसका तात्पर्य उस कोष का पुनः उगाहना हो जो ख्वाजा-ए-जहाँ ने अपने अभ्यर्थी को गद्दी पर बिठाते समय जनता में बाँट दिया था। अपने शासन काल के प्रथम वर्ष में फिरोज ने अपना सारा समय अपने राज्य में व्यवस्था व शान्ति स्थापित करने में व्यतीत किया। नए सुल्तान ने अपने सामने जन-कल्याण का आदर्श रखा और उसने वे सब कार्य किए, जो उनके भौतिक कल्याण व जीवन के सुख हेतु संभव रूप से कर सकता था। उसने विभिन्न क्षेत्रों में बहुत से सुधारों का प्रचलन किया और इस प्रकार सैनिक क्षेत्र में अपनी अयोग्यता के होते हुए भी उसने जनता की सहृदयता प्राप्त कर ली।
फिरोज तुगलक राजस्व नीति (Revenue Policy):
- जब फिरोज तुगलक गद्दी पर बैठा उस समय राजस्व प्रशासन में पूर्ण अस्तव्यस्तता थी। उसने केवल उन्हीं तकावी ऋणों को रद्द नहीं किया जिन्हें मुहम्मद तुगलक के शासन काल में दिया गया था बल्कि उसने यह भी आदेश जारी किए कि राज्य के अधिकारी कृषकों को आतंकित न करें। उसने राजस्व विभाग के अधिकारियों के वेतन बढ़ा दिए। ख्वाजा हिसामुद्दीन को राज्य के सार्वजनिक राजस्व के अनुमान बनाने का कार्य सौंपा गया और इस काम को ख्वाजा ने 6 वर्षों में पूरा किया। उसने केवल प्रांतों का दौरा ही नहीं किया, वरन् राजस्व अभिलेखों का परीक्षण भी किया। फलतः उसने अपने राज्य की खालसा भूमि की मालगुजारी 6 करोड़ 85 लाख टंके निश्चित कर दी। यह विषय वर्णनीय है कि यह अनुमान भूमि के वास्तविक माप पर आश्रित नहीं था, अपितु यह स्थानीय सूचना पर आश्रित था और यह काम चलाने के लिए अच्छा अनुमान था।
- सुल्तान ने 24 ऐसे विवादग्रस्त व अन्यायसंगत महसूलों (cesses) का उन्मूलन कर दिया, जो पिछले शासन कालों से लागू हुए चले आ रहे थे। राज्य का मालगुजारी में भाग भी घटा दिया गया। उसने उन उपहारों की प्रथा का अन्त कर दिया, जो कि राज्यपालों से उनकी नियुक्ति के समय लिए जाते थे और वह धनराशि लेना बंद कर दी जो उन्हें हर वर्ष देनी पड़ती थी। ऐसे महसूलों को प्रांताध्यक्ष वास्तव में जनता से वसूल करते थे। करों की नयी व्यवस्था कुरान के अनुसार थी। कुरान द्वारा स्वीकृत चार प्रकार के कर लगाए गए थे और वे थे खिराज, जकात, जजिया और खम्स। खिराज वह भूमि कर था जो भूमि की उपज के भाग के बराबर था, जकात वह 2-1/2% कर था जो मुसलमानों से सम्पत्ति पर लिया जाता था और विशिष्ट रूप से धार्मिक कार्यों पर ही व्यय किया जाता था। जजिया गैर-मुसलमानों तथा काफिरों पर लगाया जाने वाला कर था। परन्तु जजिया का क्षेत्र फिरोज ने बढ़ा दिया और उन ब्राह्मणों तक पर लागू कर दिया जो पहले इससे मुक्त थे। यह बताया जाता है कि जब जजिया ब्राह्मणों पर लगाया गया था, तो उन्होंने उसका महल घेर लिया और उन्होंने अपने पुराने विशेषाधिकार के विरुद्ध आक्रमण पर प्रतिवाद स्पष्ट किया। उन्होंने अपने को जिन्दा जला लेने व सुल्तान पर दैवी कोप घटित होने की धमकी भी दी। सुल्तान ने यह उत्तर दिया कि वे यथासंभव व शीघ्रातिशीघ्र अपनी इच्छानुसार जलकर मर सकते हैं। फल यह हुआ कि अपने को जीवित जलाने की अपेक्षा वे सुल्तान के द्वार पर भूखे बैठ गये। सुल्तान इससे सहमत नहीं हुआ इसलिए उसने ऐसी व्यवस्था की कि ब्राह्मणों पर लागू किया जाने वाला कर हिन्दुओं की छोटी जातियों पर उन करों के अतिरिक्त जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी थे, लगा दिया जाये। खम्स युद्ध में प्राप्त वस्तु का पाँचवां भाग होता था। अलाउद्दीन व मुहम्मद तुगलक लुटे हुए धन का केवल 4/5 भाग लेकर 1/5 भाग छोड़ते थे। फिरोज ने इस्लाम के नियम का अनुसरण किया, जिसके अनुसार राज्य को केवल 1/5 भाग लेने व 4/5 भाग छोड़ने का अधिकार था क्योंकि वह भाग सैनिकों का था। धर्मशास्त्रियों के परामर्शानुसार सुल्तान ने खेतों की उपज पर 10% सिंचाई कर लगा दिया। व्यापारियों को उन अनुचित व अत्याचारी चुंगी करों से मुक्त कर दिया गया, जो उन्हें देश के एक भाग से दूसरे भाग में वस्तुओं के स्वतंत्र प्रचलन को रोकते थे। मालगुजारी के उगाहने वालों को यह चेतावनी दी गई कि उनको कठोरता के साथ दण्ड दिया जायेगा यदि उन्होंने जनता से निर्धारित शुल्कों से अधिक उगाही की।
- फिरोज के इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि वह अपने कोष में बहुत-सा धन रखने योग्य हो सका। उसकी बृहत मालगुजारियों का कारण उत्तम फसलों की उपज की सुधरी हुई विशेषता, जल कर तथा उद्योगों द्वारा आय थी। उद्योगों द्वारा 1,80,000 टंके की वार्षिक आय होती थी। सुल्तान की अर्थ नीति ने जन-समृद्धि में काफी योगदान दिया। शम्से-सिराज अफीफ हमें बताता है कि "उनके घर अनाज, सम्पत्ति, घोड़ों व काष्ठ-वस्तुओं से भरपूर थे। प्रत्येक के पास सोना व चाँदी प्रचुर मात्रा में थी कोई स्त्री आभूषणहीन नहीं थी और कोई भी मकान अच्छे बिस्तरों व दीवानों से खाली नहीं था। धन की अधिकता थी और सुख सामान्य थे। उसके शासनकाल में राज्य को आर्थिक रिक्तता का सामना न करना पड़ा। दोआब से होने वाली मालगुजारी 80 लाख टंके व दिल्ली के प्रदेश से होने वाली मालगुजारी 6 करोड़ 85 लाख टंके थी।" फिर, "ईश्वर व पक्ष में होने वाली ऋतु की कृपा से केवल राजधानी में ही नहीं वरन् उसके सारे राज्य में जीवन सम्बन्धी आवश्यक वस्तुओं की प्रचुरता का प्रचलन हो गया.....अनाज इतना सस्ता था कि दिल्ली के नगर में गेहूँ 8 जीतल प्रति मन व जौ ज्वार आदि 4 जीतल प्रति मन थे। डेरे का एक व्यक्ति अपने घोड़े को । जीतल में 10 सेर (20 पौंड) का खाना दे सकता था। सब प्रकार के वस्त्र सस्ते थे और सफेद व रंगीन दोनों ही प्रकार के सिल्क के कपड़े साधारण मूल्य के थे। मूल्य के सामान्य गिरावट के अनुसार मिठाइयों के मूल्य घटाने के आदेश दिए गए थे।"
- फिरोज की आर्थिक नीति में आलोचक कुछ दोष निकालते हैं। यह कहा जाता है कि सुल्तान ने करों के ठेके देने की व्यवस्था में प्रसार करके एक त्रुटि की। अलाउद्दीन खिलजी व मुहम्मद तुगलक ने इसका प्रबंध प्रत्यक्षतः राज्य के आधीन रखा और यथा संभव मालगुजारी वसूल करने के क्षेत्र में ठेकेदारी को अलग रखा। फिरोज तुगलक द्वारा लागू की गई व्यवस्था से राज्य को कम आय और जनता को अधिक आतंक उठाना पड़ा। फिरोज की प्रणाली में दूसरा दोष यह था कि उसने उस जागीर प्रथा को पुनः शुरू कर दिया जिसे अलाउद्दीन ने बंद कर दिया था। शम्से-सिराज अफीफ ने इस व्यवस्था की इस प्रकार परिभाषा दी है-"सेना के सैनिक भूमि के अनुदान (जागीर) प्राप्त करते थे जो उन्हें सुख व आराम के लिए पर्याप्त होती थी और वे अनियमित रूप से राज्य कोष से अनुदान प्राप्त करते थे। वे सैनिक जो इस प्रकार अपना वेतन प्राप्त नहीं करते थे तो उन्हें उनकी आवश्यकतानुसार मालगुजारी सम्बन्धी कार्य समर्पित कर दिए जाते थे। जब सैनिकों के ये दत्तकार्य सामन्त सम्पत्ति के रूप में आ जाते थे, तो धारकों को जागीरों के धारकों से कुल मात्रा का लगभग आधा भाग मिला करता था। उन दिनों में कुछ व्यक्तियों का कार्य इन दत्त कार्यों को खरीद लेना था जिससे दोनों पक्षों को गुंजायश हो जाती थी। वे उनके बदले में नगर में मूल्य का 1/3 भाग देते थे और जिलों में आधार भाग प्राप्त करते थे। इन दत्त कार्यों के क्रेतागण ऐसा क्रय-विक्रय चलाते रहते थे और अच्छा लाभ प्राप्त करके बहुत से लोग धनी हो गए तथा उन्होंने अपने भाग्य बना लिए।" दूसरा दोष जजिया के क्षेत्र का विस्तार तथा उसके उगाहने में कठोरता का बरता जाना था। सुल्तान ने ब्राह्मणों को "अभक्तिपूर्णता का दुर्ग" समझा और इसलिए वह उन्हें मुक्त करने पर तैयार नहीं था।
फिरोज तुगलक की सिंचाई व्यवस्था (Irrigation):
- कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए, सुल्तान ने सिंचाई की ओर बहुत ध्यान दिया। शम्से-सिराज अफीफ हमें बताता है कि सुल्तान के आदेशों से दो नहरें खोदी गई थीं। उनमें से एक सतलुज में से और दूसरी यमुना में से निकाली गई थी। परन्तु यहिया फिरोज तुगलक के शासन काल में चार नहरों के खोदे जाने का वर्णन देता है। प्रथम नहर सतलुज से घग्घर तक थी। यह 96 मील लम्बी थी। दूसरी नहर 150 मील लम्बी थी और यह यमुना के पानी हो हिसार तक ले जाती थी। तीसरी नहर मंडवी और सिरमौर पहाड़ियों के पास से निकलती थी और उसे हाँसी से जोड़ देती थी। हाँसी से यह अरासानी जाती थी जहाँ हिसार फिरोजाबाद के दुर्ग की नींव रखी हुई थी। चौथी नहर सुरसुती के दुर्ग के निकट घग्घर से हीरानीखेरा के गाँव तक बहती थी। आज भी इन नहरों के कुछ अवशेष देखे जा सकते हैं। इन नहरों के निरीक्षण करने व इस सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट देने के लिए कुशल कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की गई थी। यात्रियों के प्रयोग के लिए व सिंचाई कार्यों हेतु 150 कुएँ फिरोज तुगलक के शासन काल में खोदे गये थे। यह बताया जाता है कि सुल्तान द्वारा सिंचाई की सुविधाओं के फलस्वरूप केवल दोआब में 52 बस्तियों का उदय हुआ। उत्तम फसलों, जैसे गेहूँ, गन्ना इत्यादि की उपज हुई। फल भी बहुत मात्रा में पैदा किए गए।
फिरोज तुगलक द्वारा किए गए सार्वजनिक निर्माण (Public Works):
- फिरोज को निर्माण का सबसे अधिक चाव था। सर वुल्जले हेग यह ठीक कहते हैं कि फिरोज का निर्माण के लिए ऐसा अत्यधिक चाव रोमन सम्राट् अगस्टस के बराबर था, यदि उससे अधिक नहीं था। फिरोजाबाद (दिल्ली का आधुनिक फिरोजशाह कोटला), फतेहाबाद, हिसार, जौनपुर और फिरोजपुर (बदायूँ के निकट) उसी के द्वारा संस्थापित हुए थे। अपने बंगाल अभियानों में उसने इकदला का नया नाम आजादपुर व पंडुआ का नया नाम फिरोजाबाद रखा। सुल्तान ने 4 मस्जिदें, 30 महल, 200 कारवाँ सराय, 5 जलाशय, 5 अस्पताल, सौ मकबरे, 10 स्नानागार, 10 स्मारक स्तंभ और सौ पुल बनवाये। उसने सिंचाई के लिए 5 नहरें खुदवाई। उसने दिल्ली के आस-पास 1200 उद्यान भी लगाए।
- राज्य का मुख्य वास्तुकार (Architect) मलिक गाजी शहना था जिसे अपने कार्य में अबुल हक की सहायता मिलती थी। यह विषय वर्णन योग्य है कि प्रत्येक भवन की योजना को उसके अनुमान के साथ दीवाने विजारत के सम्मुख रखा जाता था और उन पर तभी धन स्वीकार किया जा सकता था। इन निर्माण कार्यों के विषय में सुल्तान स्वयं यह कहता है, "उन उपहारों में जो ईश्वर ने मुझे अपने नम्र सेवक को दिए हैं, उनमें सार्वजनिक भवन निर्माण की इच्छा भी है। इसलिए मैंने बहुत-सी मस्जिदों, शिक्षालयों और बिहारों का निर्माण कराया जिससे योग्य व वृद्ध, त्यागी व पवित्र, इन भवनों में उसकी उपासना कर सकें और अपनी प्रार्थनाओं से दयालु निर्माता की सहायता कर सकें।" डा. वी.ए. स्मिथ के मतानुसार, "एशियाई राजा, जैसा कि नियम है, उन भवनों में कोई रुचि नहीं रखते हैं जिनका निर्माण उनके पूर्ववर्तियों ने किया था और इसलिए साधारणतया वे भवन टूटते रहते हैं क्योंकि कोई उनकी देखरेख नहीं करता, परन्तु फिरोजशाह की विशिष्टता इसमें है कि उसने अपने पूर्ववर्ती राजाओं व कुलीन पुरुषों के भवनों की मरम्मत कराने व पुनः निर्मित कराने में बहुत ध्यान दिया और उसने अपने निर्माणों से भी अधिक महत्त्व उन भवनों को पुनः स्थापित करने में दिया।" अशोक के दो स्तंभों को मेरठ व टोपरा (अब अम्बाला जिले में) से दिल्ली लाया गया। टोपरा वाले स्तंभ को महल तथा फिरोजाबाद की मस्जिद के निकट पुनः स्थापित कराया गया। मेरठ वाले स्तंभ को दिल्ली के वर्तमान बाड़ा हिन्दू राव अस्पताल के निकट एक टीले करके शिकार या आखेट-स्थान के पास पुनः स्थापित कराया गया। शम्से-सिराज अफीफ इसकी यातायात की प्रक्रिया का इस प्रकार वर्णन देता है-"बहुत-सी बड़ी नावें इकट्ठी की गई थीं, जिनमें से कुछ 5,000 से 7,000 मन तक अनाज और कुछ 2,000 मन तक अनाज ले जा सकती थीं। स्तंभ को बड़ी चतुराई के साथ इन नावों तक लाया गया और फिर उन्हें फिरोजाबाद लाया गया, जहाँ उसे उतार लिया गया और अपार श्रम व कुशलता के साथ उसे कुशक तक पहुँचा दिया गया।"
फिरोज तुगलक द्वारा किए गए न्याय सम्बन्धी सुधार (Judicial Reforms):
- जब फिरोज गद्दी पर बैठा, उस समय देश का दण्ड सम्बन्धी नियम (penal law) बर्बरतापूर्ण था। सुल्तान ने स्वयं यह कहा कि, "पूर्ववर्ती राजाओं के शासन काल में बहुत प्रकार के दण्डों का प्रयोग किया गया। हाथों व पैरों का विच्छेद किया जाना, कानों व नाकों का काटना, आंखों का निकालना, गले में पिघला सीसा ओटा देना, हाथों व पैरों की हड्डियों को हथौड़े द्वारा तोड़ देना, शरीर को आग से जला देना, हाथों में लोहे की कीलें ठोक देना, पैरों व सीनों में कीलें छेद देना, अंग काट देना, मनुष्यों को आरे से चीर डालना, यही और ऐसे बहुत से अत्याचारों का प्रयोग होता था। महान व दयालु ईश्वर ने मुझे अपना सेवक बनाया है और आशा है कि मैं मुसलमानों का अवैध हत्याकांड रोकने और उन पर या किसी अन्य मनुष्य पर होने वाले किसी भी अत्याचार को रोकने में स्वय को अर्पित कर दूँ।" फिरोज के इन सुधारों का फल यह हुआ कि न्याय व्यवस्था में अधिक मानवता आ गई और पहले की अपेक्षा सत्य की खोज करने में केवल सताने वाले साधनों का ही उन्मूलन नहीं किया वरन् अपराधियों पर बहुत नरम दण्डों का प्रयोग किया गया। कुछ दशाओं में अपराधियों को कोई भी दण्ड न मिला। ये दाण्डिक सुधार केवल मुसलमानों ही पर लागू नहीं हुए, वरन् उनका सम्बन्ध सब वर्गों के लोगों से था। डा. वी.ए. स्मिथ फिरोज तुगलक की प्रशंसा इन शब्दों में करता है, "एक सुधार, अंगच्छेदन व संताप का उन्मूलन असीमित प्रशंसा करने योग्य है और उसके जीवन काल में काफी सीमा तक आदेशों को प्रयोग में लाया गया होगा।"
- फिरोज द्वारा प्रचलित अन्य सुधार यह था कि यदि कोई यात्री मार्ग में अपने प्राण देता, तो सामन्त लोगों और मुकद्दमों को यह आवश्यक था कि वे काजी व अन्य मुसलमानों को बुलायें और मृतक का शरीर परीक्षण करायें। यह भी आवश्यक था कि ऐसी रिपोर्ट बनाई जाये जो काजी की मुहर के साथ प्रमाणित करे कि उसके शरीर पर कोई घाव नहीं था। केवल तभी मृतक का अन्तिम संस्कार किया जा सकता था।
- सुल्तान ने एक विवाह विभाग भी बनवाया। यह कार्य वह स्वयं करता था कि उसके धर्म की कोई भी लड़की दहेज की कमी के कारण अविवाहित न रह जाए। उसका यह विभाग मुख्यतः मध्य वर्ग के लोगों, विधवाओं, सार्वजनिक सेवाओं के संरक्षणहीनों के क्षेत्र में कार्य करता था और बहुत कुशल भी था।
फिरोज तुगलक द्वारा निर्मित रोजगार विभाग (Employment Bureau)
- इसका सम्बन्ध विशेषतया उन लोगों से था जो लिपिक या प्रशासन सम्बन्धी नौकरी चाहते थे। दिल्ली के कोतवाल का यह कर्तव्य था कि वह उन मनुष्यों की खोज करे जो बेकार हैं और उन्हें दरबार में पेश करे। ऐसे मनुष्यों की परिस्थितियों तथा योग्यताओं के विषय में सुल्तान स्वयं जाँच-पड़ताल करता था। उनके रुझान के अनुसार उन्हें नौकरी दी जाती थी। यह पता लगाने से कोई प्रयोजन नहीं था कि उनकी सेवाओं की कोई माँग भी थी या नहीं क्योंकि सारा काम दान की भावना से किया जाता था। इस व्यवस्था ने बहुत से बेकार युवकों की सहायता की गयी।
- सुल्तान ने एक खैराती अस्पताल की स्थापना भी की जिसे दारुल शफा कहते थे। इसे योग्य वैद्यों के निरीक्षण में रखा गया था। यहाँ रोगियों को औषधियाँ व भोजन मुफ्त दिया जाता था।
फिरोज तुगलक द्वारा शिक्षा के लिए किए आए कार्य (Learning):
- सुल्तान ज्ञान के प्रसार में बहुत रुचि रखता था। वह शेखों व विद्वानों को सहायता देता था और अपने अंगूरों के महल में उनका स्वागत भी करता था। वह विद्वानों को अर्थ-सहायता भी देता था। सुल्तान को इतिहास का चाव था। जियाउद्दीन बरनी व शम्से-सिराज अफीफ ने अपनी रचनाएँ उसी के संरक्षण में तैयार कीं। उसी के शासन काल में तारीखे फिरोजशाही की रचना हुई। सुल्तान की जीवनी फतूहात-ए-फिरोज शाही के नाम से प्रसिद्ध है। जब सुल्तान ने नगरकोट पर विजय प्राप्त की, तो बहुत-सी संस्कृत पुस्तकें उसके हाथों में आईं। इनमें से 300 पुस्तकों का दलायल-ए-फिरोज शाही के शीर्षकालीन फारसी भाषा में आज-उद्दीन खालिद द्वारा अनुवाद किया गया। बहुत से शिक्षालयों तथा विहारों की स्थापना की गई थी, जहाँ मनुष्य अपने को प्रार्थना व ध्यान में तल्लीन रखते थे। पूजा के लिए प्रत्येक कालेज के पास एक मस्जिद होती थी। इन शिक्षालयों से दो बहुत शिक्षकों का सम्बन्ध रखा गया था। इनमें से एक था मौलाना जलालुद्दीन रूमी जो धर्म विद्या तथा इस्लाम की विधि विद्या का अध्यापक था। दूसरा व्यक्ति समरकन्द का एक प्रचारक था।
फिरोज तुगलक और दास प्रथा (Slavery):
- शम्से अफीफ हमें बताता है कि "दासों के जुटाने में सुल्तान बड़ा परिश्रमी था और वह इस कार्य को इस सीमा तक ले जाता था कि वह अपने सामंतों तथा अधिकारियों को यह आदेश देता था कि वे युद्ध के समय में दासों को पकड़ लें और उनमें से अच्छों को छाँटकर दरबार में भेज दें। वे सरदार सबसे अधिक राजसी पक्ष के भागी बनते थे जो अधिक-से-अधिक दास ला सकते थे। लगभग 12000 दास विभिन्न प्रकार के कलाकार हो गए। चालीस हजार दास सुल्तान की महल पर रक्षा करने व उसकी सेवा करने के वास्ते तैयार रहते थे। नगर तथा समस्त जागीरों में 1,80,000 दास थे, जिनकी व्यवस्था व आराम के लिए सुल्तान विशेष चिन्ता करता था। इस संस्था ने देश के केन्द्र भाग में अपनी जड़ें जमा लीं। सुल्तान इसका उचित नियमन अपना कर्तव्य समझता था। सुल्तान ने एक पृथक् कोष, एक पृथक् जाऊ शुगूरी (Jao Shughuri), एक सहायक जाऊ शुगूरी और एक पृथक् दीवान स्थापित किया। दास प्रथा इस्लाम के प्रचार का सबसे सरल मार्ग था क्योंकि प्रत्येक दास इस्लाम धर्म अपना लेता था।
फिरोज तुगलक - सेना (Army):
- सेना सामंती आधार पर बनी थी। सेना के स्थायी सैनिक भूमि के अनुदान पाते थे जो उनके सुखमय जीवन के लिए पर्याप्त था। अस्थायी सैनिकों (गैर-वजह) को प्रत्यक्षतः राज्य से वेतन मिलता था। ऐसे भी सैनिक थे जो राजस्व क्षेत्र में स्थानांतरणीय कार्यों पर रखे जाते थे। इन कार्यों (Assignments) को मध्य-पुरुष राजधानी में उनके मूल्य के 1/3 भाग पर खरीद लेते थे और उन्हें जिलों में आधे मूल्य पर सिपाहियों के हाथ बेच देते थे। इस प्रकार सैनिकों के व्यय पर कुछ मनुष्यों ने लाभ कमा लिया। सुल्तान की सेना में 80,000 या 90,000 घुड़सवार थे और यह संख्या कुलीन पुरुषों द्वारा भेजे जाने वाले प्रतिधारण कर्ताओं (Retainers) द्वारा बढ़ाई भी जा सकती थी। सेना कुशल नहीं हो सकती थी। सुल्तान ने एक नया निर्देश जारी कर दिया। यदि कोई सैनिक अपनी आयु के कारण युद्ध क्षेत्र में सेवा योग्य न रहे तो उसके स्थान पर उसके पुत्र या जामाता या दास को ले लिया जाये। प्रत्यक्षतः सैनिक सेवा में पैतृक आधार पर अधिकार एक दोषपूर्ण वस्तु थी। सुल्तान कुलीन पुरुषों द्वारा भेजे गये प्रतिधारणकर्ताओं पर अधिक विश्वास नहीं रख सकता था क्योंकि अपनी भर्ती, पदोन्नति व अनुशासन के लिए वे अपने मालिकों की ओर देखते थे। ऊपर बतायी गई दत्तकार्यों की व्यवस्था भी दोषपूर्ण थी और यह कुशलता के अनुकूल नहीं थी। वृद्ध व अकुशल सैनिकों को सम्राट के पास तक जाने की आज्ञा नहीं थी और वह सेना की कुशलता पर उसके प्रभाव को बिना देखे हुए हस्तक्षेप कर बैठता था। घोड़ों व सैनिकों का निरीक्षण करने वाले सैनिक भ्रष्टाचारी थे और यह जानते हुए भी सुल्तान अपने कोमल हृदय के कारण उनका निष्कासन नहीं करता था। हमें यह पता चलता है कि सुल्तान ने किसी सैनिक की इस कठिनाई पर ध्यान नहीं दिया जिसका आशय दूसरे साथी से यह शिकायत करना था कि उसे निरीक्षण के लिए अपना घोड़ा पेश करने में किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सुल्तान ने उस सिपाही से उसकी कठिनाई के विषय में पूछा तो उसे पता चला कि वह सिपाही अपने घोड़े को उस समय तक आगे नहीं बढ़ा सकता था जब तक कि वह निरीक्षक को एक स्वर्ण टंका न दे दे। सुल्तान ने निरीक्षक के विरुद्ध कोई दंडात्मक आदेश देने की अपेक्षा अपने पास से उस सिपाही को एक स्वर्ण टंका दिया। जिससे कि वह उस सिक्के को निरीक्षक को देकर अपना कार्य चला सके। अतः इस प्रकार, सुल्तान भी उस सामान्य भ्रष्टाचार में एक पक्ष हो गया जो शासन प्रबंध में प्रचलित था।
फिरोज तुगलक द्वारा जारी सिक्के (Coins):
- सुल्तान ने पूर्णतया नये प्रकार के सिक्के निर्गमित नहीं किये। उसके शासन काल में भी वहीं सिक्के चलते रहे जो मुहम्मद तुगलक के समय से चले आ रहे थे। शम्स-ए-सिराज अफीफ (Shams-i-siraj Afif) का विचार है कि फिरोज ने शशगनी या 6 जीतल का एक सिक्का चलाया, इब्नबतूता भी ऐसे सिक्के का विवरण देता है। फिर भी यह इंकार नहीं किया जा सकता कि फिरोज ने दो सिक्के आधा (1/2 जीतल) और बिख (1/4 जीतल) जारी किए। इन सिक्कों में तांबा व चांदी मिश्रित थी और इनका आशय साधारण मनुष्यों के लेन-देन में सहायता देना था, परन्तु टकसाल के कार्य में बहुत धोखा व भ्रष्टाचार था। यह कहा जाता है कि दो सूचकों ने यह सूचना दी कि 6 जीतल वाले सिक्कों में शुद्ध मान्यता का एक दाने भर अभाव है। खाने जहाँ मकबूल, मंत्री ने कजरशाह को बुलाया (जो टकसाल का स्वामी था) और उसे ऐसी रीति ढूँढ़ निकालने का निर्देश दिया जिससे सुल्तान सिक्कों की शुद्धता के विषय में संतुष्ट हो जाये। कजरशाह ने यह प्रबंध किया कि धातु के परीक्षण से पहले ही सिक्कों को पिघला दिया जाये। वह उन सुनारों के पास भी गया जिनका कार्य राजा के सामने प्रयोग करना था और उनसे यह प्रार्थना की कि वे गोपनीयता के साथ घरिया में पर्याप्त मात्रा में चाँदी रख लें जिससे पिघलने वाली धातु शुद्धता के मान तक आ जाये। उन्होंने ऐसा करने में कठिनाई की ओर संकेत किया, परन्तु ऐसा करने की प्रतिज्ञा कर दी यदि उसके पास चाँदी का प्रबंध हो सका। कजरशाह ने आवश्यक मात्रा में चाँदी ली और उसे उस चारकोल टुकड़े में छिपा दिया जिससे घरिया को गरम करना था और इस प्रकार बिना किसी के देखे सुनार लोग उस धातु को अपने बर्तन में लाने योग्य हो सके। जब धातु का परीक्षण किया गया, तो उसे मान्यता प्राप्त शुद्ध पाया गया। तब दोनों सूचकों को निर्वासन का दण्ड मिला तथा कजरशाह को अपनी ईमानदारी घोषित करने के उपलक्ष्य में शाही हाथी पर नगर में निकाला गया।
फिरोज तुगलक का दरबार (Court):
- सुल्तान ने एक सुन्दर व वैभवपूर्ण दरबार की व्यवस्था रखी जिसे ईद व शबरात के अवसरों पर विशेष रूप से सजाया जाता था। 36 शाही दरबार थे और प्रत्येक के पास अपने अलग अधिकारी रहते थे। इन दरबारों का व्यय वस्तुतः बहुत अधिक होगा।
फिरोज तुगलक की धार्मिक नीति (Religious Policy):
- जहाँ अन्य सुधारों के लिए फिरोज की प्रशंसा की जाती थी, धार्मिक नीति के लिए उसकी निन्दा भी की जाती है। वह एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उन सबकी सहायता करने को तैयार रहता था जो उसके धर्म के अनुयायी होते थे। उसने समाज व शासन में उलेमा लोगों को ऊँचा स्थान दिया। सुल्तान ने अपने आपको उनके निर्णयाधीन रखा। उसने उनके परामर्श बिना कुछ भी न किया। उसने निर्धन मुसलमानों की पुत्रियों के विवाह के प्रबंध किए। उसने शिक्षालयों व विद्यालयों की व्यवस्था की और राज्य के व्यय पर उनकी व्यवस्था चलाई। परन्तु हिन्दुओं के प्रति वह कठोर था और ऐसा व्यवहार वह अन्य मुस्लिमेतर मतावलम्बियों के प्रति भी रखता था। उसने हिन्दुओं के मन्दिरों का संहार कर दिया और "काफिरों का वध करा दिया जिन्होंने दूसरों को गलत मार्ग पर चलने का लोभ दिया।" उसने मन्दिरों के स्थान पर मस्जिदें बनवाईं। उन हिन्दुओं का उल्लेख करते हुए जो पूजा के लिए कोहाना के नए मन्दिर में एकत्रित हुए थे, सुल्तान ने इस प्रकार लिखा "लोगों को पकड़कर मेरे सामने लाया गया। मैंने ओदश दिया कि इस दुष्टता के नेताओं का दूषित कार्य सार्वजनिक रूप से घोषित कर दिया जाना चाहिए, जिससे महल के द्वार पर आने से पहले ही उनको मृत्यु के घाट उतार दिया जाये। मैंने यह भी आदेश दिया कि उनकी पूजा में काम आने वाली पुस्तकों, मूर्तियों व बर्तनों को जिन्हें उनके साथ लाया गया है, सबके सामने जला दिया जाये। अन्य व्यक्तियों को धमकियों व दण्डों से रोक लिया गया क्योंकि सब मनुष्यों को यह चेतावनी दे दी गई कि कोई भी जिम्मी एक मुस्लिम देश में ऐसे विकट अभ्यासों का अनुसरण नहीं कर सकता।" सुल्तान ने ज्वालामुखी मन्दिर व जगन्नाथ मन्दिरों को नष्ट कर दिया। उसने ब्राह्मणों पर जजिया कर लगा दिया। उसने एक ब्राह्मण को जीवित आग में डलवा दिया जिस पर अपने धर्म के प्रचार का दोष लगाया गया था। कटिहार में सैय्यदों को मृत्यु के घाट उतार दिया गया। जब फिरोज को इसका समाचार मिला, तो वह स्वयं कटिहार गया और वहाँ लोगों के हत्याकांड का आदेश जारी किया। हजारों निरपराध मनुष्यों को अपने प्राण त्यागने पड़े और 23,000 मनुष्यों को बन्दी बनाकर इस्लाम धर्म की दीक्षा दे दी गई। अगले पाँच वर्षों में, सुल्तान प्रत्येक वर्ष कटिहार गया और उसने उस कहानी को लगातार दोहराया। यह अत्याचार इतना बढ़ा था कि "मृतक सैय्यदों की आत्माएँ तक उठकर मध्यस्थ का कार्य करने लगीं।" यह घटना सुल्तान का रोष प्रकट करती है जिसने उन मनुष्यों को दण्ड दिया जिन्होंने सैय्यद पर हाथ उठाने का साहस किया था।
- लोगों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए सुल्तान ने सब प्रकार के लालच दिए। सुल्तान के अनुसार, "मैंने अपने काफिर लोगों को पैगम्बर का धर्म स्वीकार करने की प्रेरणा दी और मैंने यह घोषित किया कि प्रत्येक मनुष्य जिसने इस मत को दोहराया और मुसलमान बन गया, उसे जजिया से मुक्ति मिल जानी चाहिए। इस विषय की सूचना बड़ी मात्रा में लोगों के कान तक पहुँची, बहुत बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने अपने को पेश किया और उन्हें इस्लाम में दीक्षित कर दिया गया।" वे हिन्दू जो मुसलमान बन गए उन्हें जजिया देना आवश्यक न रहा। जिन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया उन्हें जागीरों, नकद उपहारों, उपाधियों, सम्मानों और नौकरियों से कृतार्थ भी किया गया।
- सुल्तान शिया लोगों व उन गैर-सुन्नी मुसलमानों के प्रति भी असहिष्णु था जिन्हें कट्टर सुन्नी काफिर समझते थे। शिया लोगों के विषय में सुल्तान यह कहता है-"मैंने उन सब लोगों को पकड़ लिया और मैंने उन्हें उनकी त्रुटियों से परिचित कराया। उनमें सबसे अधिक उत्साहियों को मैंने मृत्युदण्ड दे दिया और शेष को मैंने निन्दा व लोक दण्ड दिया। मैंने सबके सम्मुख उनकी पुस्तकों को जला दिया, अल्लाह की कृपा से, इस शिया वर्ग का प्रभाव पूर्णतया दब गया।" मूलहिन्द व अबहतियान को बन्दी बना लिया गया और देश से निकाल दिया गया और उनके धार्मिक कृत्यों पर रोक लगा दी गई। मेंहदवी लोगों को सजाएँ दी गईं और उनके नेता रुक्नुद्दीन को काफिर होने के दोष में बन्दी बना लिया गया और कुछ सहायकों तथा शिष्यों के साथ उसका वध कर दिया गया। सुल्तान हमें बताता है कि लोगों ने रुक्नुद्दीन के टुकड़े कर दिए और हड्डियाँ चूर-चूर कर डालीं। सूफी लोगों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया गया।
- सुल्तान मिस्र के खलीफा के प्रति विशेष सम्मान रखता था। उसने अपने को खलीफा का सहायक प्रदर्शित किया। अपने शासन काल के प्रथम 6 वर्षों में, सुल्तान ने मिस्र के खलीफा से दो बार शासक पद का प्रमाण व सम्मान के वस्त्र प्राप्त किये। सिक्कों पर अपने नाम के साथ उसने खलीफा का नाम भी जुड़वा दिया। खुतबा में सुल्तान के नाम के साथ खलीफा का नाम भी पढ़ा जाने लगा।
- सुल्तान की गृहनीति के विषय में कुछ छोटे पहलुओं पर भी ध्यान देना वांछनीय होगा। सुल्तान मुहम्मद तुगलक के पापों को कम करना चाहता था। उसने आदेश दिया कि उन मनुष्यों के उत्तराधिकारियों को उपहारों से संतुष्ट करके राजा की ओर खींच लिया जाये जिन्हें मुहम्मद तुगलक के शासन काल में अंग, नाक, कान, आँख, हाथ या पैर से हाथ धोना पड़ा था। इस विषय में उन्हें प्रमाण-पत्र की सहायता से उचित प्रकार से लिखी हुई घोषणा देना आवश्यक था। ऐसे लिखे हुए क्षमापत्रों को मुहम्मद तुगलक के मकबरे के निकट एक सन्दूक में बंद कर रखा गया था, जिससे कयामत के दिन उनकी सहायता मिल सके। जिन लोगों को पिछले शासन कालों में अपने ग्रामों, भूमियों तथा प्राचीन पैतृक सम्पत्तियों से वंचित होना पड़ा था, उन्हें फिर से उसके अधिकार दे दिये गये। न्यायालयों में उनके अधिकारों को ध्यान के साथ देखा गया और जब वे सिद्ध हो गये, तो उनकी सम्पत्ति उन्हीं को वापस कर दी गई।
- 1358 ई. में फिरोज को जान से मारने के लिए एक षड्यंत्र रचा गया। उसकी चचेरी बहन खुदावन्दजादा तथा उसके पति ने मिलकर यह प्रबंध किया कि सुल्तान के उनके घर पर आने के अवसर पर सशस्त्र मनुष्यों द्वारा उसका वध कर दिया जाये। परन्तु उसके पुत्र दावर मलिक ने यह षड्यंत्र फोड़ दिया जो अपने सौतेले पिता से कोई सहानुभूति नहीं रखता था। उसने संकेतों द्वारा सुल्तान को यह जता दिया कि उसका जीवन खतरे में है और इसलिए सुल्तान अपने वध की तैयारी के पहले ही उस मकान से बाहर निकल आया। अपने महल में लौटने पर, सुल्तान ने उस मकान को घेर लेने का आदेश दिया और इस प्रकार वे सब मनुष्य गिरफ्तार कर लिए गये जिनका आशय सुल्तान को मारना था। खुदावन्दजादा को मृत्युदण्ड दिये जाने की जगह उसको बंदी बना लिया गया, परन्तु उसके पति को निर्वासन की सजा मिली।
फिरोज तुगलक की विदेश नीति (Foreign Policy):
- फिरोज तुगलक एक पवित्र व दयालु शासक था। उसके पास वह साहस न था जो चौदहवीं शताब्दी के सुल्तान के लिए आवश्यक था। उसमें उन गुणों का अभाव था जो दिल्ली साम्राज्य के उन सब भागों को उसके अधिकाराधीन करने में सहायक हो सकते थे, जो मुहम्मद तुगलक के शासन काल में स्वतंत्र हो चुके थे। सुल्तान को युद्धों से बहुत भय लगता था और रक्तपात देखकर उसका हृदय डूबने लगता था। टामस के अनुसार, "बंगाल के दो अभियानों में उसका सेनापतित्व व परिणामतः थट्टा का पतन सबसे निचले स्तर की वस्तु मालूम होता है, जिस प्रकार वह कच्छ के मरुस्थलों व जाजनगर के दुर्गम स्थानों में भटकता रहा, वह उसकी मूढ़ता का परिचायक है।" दक्षिण को अपने आधीन करने में सुल्तान का कोई प्रयोजन प्रतीत नहीं होता। जब उसके अधिकारियों ने उससे दौलताबाद के लिए एक अभियान भेजने के विषय में कहा, तो "सुल्तान को बड़ी घबड़ाहट हुई, उसकी आँखें आँसुओं से छलकती हुई पाई गईं और उनके तर्क को स्वीकार करते हुए उसने कहा कि इस्लाम धर्म के मनुष्यों के विरुद्ध संग्राम करने का उसने कभी कोई संकल्प नहीं किया।" उसके शासन काल में कोई भी मंगोल आक्रमण नहीं हुआ। याहिया हमें बताता है कि "राज्य के सीमा प्रांतों की सुरक्षा बड़ी सेनाओं तथा सम्राट के शुभ चिन्तकों को वहाँ रखकर हो जाती थी।"
1. फिरोज तुगलक और बंगाल (Bengal):
- हाजी इलियास बंगाल का स्वतंत्र शासक था। वह पूर्वी व पश्चिमी बंगाल का स्वामी बन बैठा था। उसने तिरहुत को अपने प्रदेश में मिलाने के उद्देश्य से उस पर आक्रमण किया। युद्ध के लिए अपनी इच्छा न होते हुए भी, फिरोज तुगलक ने यह अनुभव किया कि शम्सुद्दीन के विरुद्ध कार्य किया जाए। नवम्बर 1353 ई. में, सुल्तान 70,000 घोड़ों वाली सेना के साथ दिल्ली से चला। जब इलियास ने सुल्तान के आने का समाचार सुना, वह इकदला के दुर्ग में चला गया जो पंडुआ से 10 या 12 मील की दूरी पर स्थित था। भगोड़े शत्रु का पीछा करते हुए सुल्तान ने बंगाल के लोगों के लिए एक घोषणा जारी की, जिसका उल्लेख डाक्टर ईश्वरी प्रसाद ने इस प्रकार किया है, "यह दिल्ली सल्तनत के इतिहास में असाधारण लेखपत्रों में से एक था और यह फिरोज की नर्म नीति पर प्रकाश डालता है।" मनुष्यों को सुविधाओं का वचन देकर घोषणा यह की गई, "चूँकि हमारे पवित्र कानों तक यह बात पहुँची है कि इलियास हाजी लखनौती व तिरहुत प्रदेश के लोगों पर अत्याचार एवं दमनकारी व्यवहार कर रहा है; अनाश्यक रूप से रक्त प्रवाहित कर रहा है, स्त्रियों तक का रक्त बह रहा है, यद्यपि प्रत्येक मन और धर्म में यह सुप्रतिष्ठित नियम है कि किसी भी स्त्री का, भले ही वह काफिर हो, वध नहीं किया जाना चाहिए; और जबकि उपरोक्त इलियास हाजी ऐसे अवैध कर लगा रहा है, जो इस्लाम में विधि-विहित नहीं हैं और इस प्रकार जनता को कष्ट दे रहा है; जबकि न तो ऐसे जीवन एवं सम्पत्ति की सुरक्षा है, न सम्मान एवं पवित्रता का बचाव है; और जबकि यह प्रदेश हमारे स्वामियों द्वारा जीता गया था और हमको उत्तराधिकार के तथा इमाम (मिस्र के अब्बासी खलीफा) की भेंट के रूप में प्राप्त हुआ है, हमारे शाही एवं साहसपूर्ण व्यक्तित्व पर इस राज्य के लोगों की रक्षा का भार आ पड़ा है। क्योंकि इलियास हाजी भूतपूर्व सुल्तान के प्रति आज्ञाकारी तथा सिंहासन के प्रति भक्तिपूर्ण था; और हमारे मंगलमय राज्याभिषेक के अवसर पर भी उसने अधीनता एवं राजभक्ति स्वीकार की थी, और हमारी सेवा में न्याय प्रार्थनाएँ एवं उपहार भेजता रहा है, जैसा कि अधीन व्यक्ति के लिए उचित है, इसलिए यदि इससे पूर्व उसके उन अत्याचारों एवं दमन का, जो वह प्रभु के प्राणियों पर कर रहा है, कणमात्र भी हमारे पवित्र ध्यान में लाया गया होता तो हम उसको ऐसी चेतावनी देते जिससे वह इनसे विरत हो जाता और जबकि वह सीमा से आगे बढ़ गया है और उसने हमारे अधिकार के प्रति विद्रोह किया है इसलिए हम जनता की प्रसन्नता के लिए एक अजेय सेना के साथ आ पहुँचे हैं; इसके द्वारा हम सबको उसके अत्याचारों से मुक्त करना, उसके दमन के घावों का न्याय एवं दया की औषधि द्वारा उपचार करवाना चाहते हैं और चाहते हैं कि अत्याचार एवं दमन की उष्ण शोषक वायु द्वारा मुरझाया हुआ उनका (प्रजा जनों का) जीवन वृक्ष हमारी कृपा के स्वच्छ जल से हरा-भरा तथा फलान्वित हो जाये।" हाजी इलियास दिल्ली सेनाओं द्वारा पराजित हुआ, परन्तु सुल्तान ने अपनी इस कठिनाई के साथ प्राप्त विजय का पूरा लाभ लिया और सितम्बर 1364 ई. में बंगाल का राज्य में बिना विलय किए ही दिल्ली वापस आ गया। सुल्तान के इस कार्य के विषय में दो मत हैं। प्रथम यह है कि घिरे हुए दुर्ग में से औरतों के विलाप के शोर को सुनकर सुल्तान ने लौट चलने का निश्चय कर लिया। शम्से-सिराज अफीफ के अनुसार, "दुर्ग में तूफान मचाना, अधिक मुसलमानों को तलवार के घाट उतारना और प्रतिष्ठित महिलाओं को अपमान का पात्र बनाना एक ऐसा अपराध होगा जिसके लिए वह कयामत के दिन कोई उत्तर न दे सकेगा और जिससे उसमें तथा मंगोलों में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा।" दूसरा मत यह है कि सुल्तान इसलिए भाग गया क्योंकि वह उन भयानक परिणामों से डरता था जो वर्षा ऋतु के आगमन के कारण घटित हो सकते थे। उसके भागने का चाहे कोई भी कारण क्यों न हो, हमें टामस के इस विचार से सहमत होना पड़ेगा कि इस "आक्रमण का परिणाम केवल दुर्बलता की स्वीकृति निकला।"
- कुछ वर्ष बाद फिरोज ने बंगाल को पुनः जीतने का प्रयास किया। पूर्वी बंगाल के फखरुद्दीन मुबारक शाह का जामाता जफर खाँ सुनार गाँव से भागकर दिल्ली आया और उसने बंगाल के शासक के दमनकारी कार्यों की शिकायत फिरोज तुगलक से की। हाजी इलियास की मृत्यु ने भी फिरोज को बंगाल के विरुद्ध अभियान करने की प्रेरणा दी। फिरोज तुगलक ने अपनी पुरानी सभी सन्धियों व मित्रता के वचनों को हटा दिया और 1359 ई. में हाजी इलियास के पुत्र तथा उत्तराधिकारी सिकन्दर शाह के विरुद्ध आगे बढ़ा। सुल्तान की सेना में 70,000 घोड़े, लगभग 500 हाथी और काफी पैदल सेना थी। मार्ग में सुल्तान 6 मास तक गोमती नदी के किनारे जफराबाद में ठहरा और वहाँ मुहम्मद तुगलक की स्मृति और जौनपुर नगर स्थापित किया क्योंकि मुहम्मद तुगलक का नाम राजकुमार जूना खाँ था। जब वर्षा ऋतु निकल गई, सुल्तान ने बंगाल की ओर अपना प्रस्थान शुरू किया। अपने पिता की भाँति सिकन्दर शाह इकदला के दुर्ग में जा छिपा जिसे दिल्ली के सैनिकों ने घेर रखा था। दुर्ग की वीरता के साथ रक्षा की गई परन्तु जब वर्षा ऋतु शुरू हो गई और उस क्षेत्र में बाढ़ आ गई तो सुल्तान ने सिकन्दर शाह के साथ ऐसी सन्धि कर ली जो बंगाल के शासक को रुचिकर प्रतीत हुई। फल यह हुआ कि बंगाल का दूसरा अभियान अपने उद्देश्य में असफल रहा। इसने सुल्तान की कमजोरी सिद्ध कर दी।
2. फिरोज तुगलक और जाजनगर (Jajnagar):
- बंगाल से दिल्ली वापस आते समय, सुल्तान ने जाजनगर (वर्तमान उड़ीसा) को जीतने का निश्चय किया। यह बताना कठिन है कि जाजनगर जीतने के पीछे सुल्तान का सच्चा ध्येय क्या था। सर वुल्जले हेग का मत यह है कि सुल्तान पुरी जीतना चाहता था जो जगन्नाथ के मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध थी। सुल्तान के आते ही जाजनगर का शासक भाग निकला और उसने तेलिंगाना में शरण ली। सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों को नष्ट कर दिया। उनकी मूर्तियाँ समुद्र में फेंक दी गईं और उनमें से कुछ को मुसलमानों के पैरों तले कुचलने के लिए दिल्ली ले आया गया। इसके बाद जाजनगर के शासक को वापस बुला लिया गया और उसको इस शर्त पर प्रदेश वापस कर दिया गया कि वह प्रत्येक वर्ष सुल्तान को कुछ हाथी भेंट किया करेगा।
- जाजनगर से सुल्तान छोटा नागपुर गया। नागपुर के रास्ते में सुल्तान रास्ता भूल गया और कुछ महीनों तक सुल्तान के आश्रय स्थान के विषय में कोई भी ज्ञान न हो सका। उन जंगलों में बहुत से सैनिकों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
3. फिरोज तुगलक और नगरकोट (Nagarkot):
- यह सत्य है कि मुहम्मद तुगलक ने 1337 ई. में नगरकोट का दुर्ग जीता था, परन्तु मुहम्मद तुगलक के ही शासन काल के अन्तिम दिनों में यह स्वतंत्र हो चुका था। फिरोज तुगलक ने इसे एक बार फिर जीतने का निश्चय किया। 6 महीनों तक इस दुर्ग पर घेरा पड़ा रहा और अन्ततः इसके शासक ने अधीनता स्वीकार कर ली। सुल्तान ने ज्वालामुखी मन्दिर में प्रवेश किया। उसकी मूर्तियाँ तोड़ डाली गई और उनके टुकड़ों को गाय के रक्त व माँस में साना गया। कुछ मूर्तियों को विजय की स्मृति में मदीना भेजा गया। यह वर्णनीय है कि ज्वालामुखी मन्दिर से सुल्तान को बहुत-सी संस्कृत पुस्तकें प्राप्त हुईं और उनमें से कुछ का दैलायल-ए-फिरोज शाही के नाम से फारसी में अनुवाद भी किया गया।
4. फिरोज तुगलक और सिन्ध (Sindh):
- मुहम्मद तुगलक सिन्ध में लड़ते हुए मरा था और सिन्ध में ही एक डेरे में फिरोज तुगलक की ताजपोशी हुई थी। सिन्ध को इसलिए फिर से जीतना आवश्यक समझा गया। 1361-62 ई. में फिरोज तुगलक 90,000 घुड़सवारों, 480 हाथियों, 5,000 नावों तथा असंख्य पैदल सेना को लेकर सिन्ध के जामों की राजधानी थट्टा के विरुद्ध बढ़ा। सिन्ध के शासक जाम बबानिया ने 20,000 घुड़सवार और 4,00,000 पैदल सेना की सहायता से सुल्तान का विरोध करने का निश्चय किया। अकाल व महामारी फूट पड़ने के कारण दिल्ली की सेना को बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ा। इस प्रकार दिल्ली सेना का लगभग 1/3 भाग नष्ट हो गया। दुर्भाग्यवश, गुजरात की ओर बढ़ने में फिरोज अपना मार्ग खो बैठा क्योंकि उसके पथ प्रदर्शकों ने उसके साथ धोखाधड़ी की। वह कच्छ की खाड़ी में पहुँच गया। लगभग 6 महीने तक सुल्तान व उसकी सेनाओं के विषय में कुछ पता न चल सका। फिर भी उसके योग्य मंत्री खाने जहाँ मकबूल ने उनके पास नई सेना भेजी और उसकी सहायता से सुल्तान ने 1363 ई. में सिन्ध पर आक्रमण किया और उन्हें समझौता करने पर विवश कर दिया। सिन्धी लोग सुल्तान का आधिपत्य स्वीकार करने व कर के रूप में कई लाख टंके का वार्षिक कर अदा करने पर सहमत हो गये। जाम बबानिया को दिल्ली लाया गया और उसके स्थान पर उसके भाई की नियुक्ति कर दी गई। पराजित जामों ने सुल्तान के प्रति जीवन भर अपनी निष्ठा का प्रदर्शन दिया। डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, "सिन्ध का अभियान फिरोज तुगलक के शासन काल की एक अति मनोरंजक घटना है। यह सुल्तान की मूर्खता एवं कूटनीतिक अदूरदर्शिता का अपूर्व उदाहरण है।"
फिरोज तुगलक की मृत्यु (Death of Firoz):
- सुल्तान के अन्तिम दिन शान्तिपूर्ण नहीं थे। जैसे-जैसे वह वृद्ध हुआ, उसका अनुमान असफल होने लगा। सुल्तान को एक तीव्र धक्का लगा जबकि 1374 ई. में उसके ज्येष्ठ पुत्र फतेह खाँ का देहान्त हो गया। अपने पुत्र मुहम्मद को शासन-प्रबंध में भागीदार बनाना सुल्तान के लिए एक गलती सिद्ध हुई। क्योंकि कार्य करने की जगह राजकुमार ने अपना सारा समय विलास में व्यतीत किया। राजकुमार की कार्य में रुचि उत्पन्न कराने के लिए बहुत से प्रयत्न किए गए किन्तु वे निष्फल रहे। निराश होकर कुलीन पुरुषों ने मुहम्मद खाँ की शक्ति के विरुद्ध एक विद्रोह खड़ा कर दिया और मुहम्मद खाँ लड़ने पर बाध्य हो गया। वह विजय के निकट आ चुका था जबकि कुलीन पुरुष सुल्तान को रणक्षेत्र में ले आए। फल यह हुआ कि मुहम्मद खाँ हार गया और अपनी जान बचाने के लिए वह सिरमौर की पहाड़ियों में भाग गया। तब फिरोज ने अपने पौत्र गयासुद्दीन तुगलक शाह (फतेह खाँ के पुत्र) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उसको राजसी उपाधि भी प्रदान की। 80 वर्ष की आयु में फिरोज तुगलक की 20 सितम्बर, 1388 ई. को मृत्यु हो गई। मोरलैंड के मतानुसार, "फिरोज की मृत्यु से एक युग समाप्त हो गया। कुछ ही वर्षों में साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में भारत में एक भी प्रभावशाली मुस्लिम शक्ति न रही।"
खाने जहाँ मकबूल (Khan-i-Jahan Maqbul):
- खाने जहाँ मकबूल वास्तव में तेलिंगाना का एक हिन्दू था। उसका हिन्दू नाम कुटु या कुन्नू था। मुहम्मद तुगलक के समय में वह मुसलमान बन गया। उसे मुल्तान की जागीर मिल गई थी और उसने बड़ी कुशलता के साथ उसका प्रबंध भी किया। जब फिरोज गद्दी पर बैठा, उसने मकबूल को अपने दरबार में बुलाया और अहमद बिन अय्याज के पतन के बाद उसे प्रधानमंत्री बना दिया। सुल्तान ने उसे खाने जहाँ अर्थात् 'विश्व का स्वामी' की उपाधि प्रदान की। सुल्तान को उसमें इतना विश्वास था कि जब कभी वह दिल्ली से बाहर जाता था, तो राज्य का कार्य मकबूल को ही सौंप जाता था। उसने भी सहायतार्थ नई सेना भेजकर अपने राजा को सिन्ध में हारने से बचा लिया था। लेनपूल के मतानुसार, "सुल्तान का सहायक होने के नाते उसने उस समय राज्य को सुरक्षित रखा जबकि उसका स्वामी बाहर होता था। उसने अपूर्व योग्यता तथा कुशलता से राज्य का शासन प्रबंध चलाया। यदि पहले की अपेक्षा सीमाएँ अधिक सीमित होतीं, तो छोटे क्षेत्र को अधिक विकसित व अधिक उपजाऊ बना दिया जाता। निस्संदेह यह मकबूल का प्रभाव तथा राजपूत स्त्री बीबी नैला के रक्त का ही प्रभाव था कि नये शासन में अत्यधिक कुलीनता व कृषक वर्ग के लिए विचारशीलता के गुण प्रकट हुए।"
- यद्यपि मकबूल एक महान् राजनीतिज्ञ था, तथापि वह भोग-विलास का दास भी था। उसके हरम में श्याम रंग की यूनानी स्त्रियों से लेकर केसरी रंग की चीनी स्त्रियों तक लगभग 2,000 स्त्रियाँ रहती थीं। सुल्तान को मकबूल से इतना प्यार था कि उसने उसके प्रत्येक पुत्र को एक हजार से अधिक की वार्षिक आय और उसकी प्रत्येक पुत्री के विवाह के लिए उससे भी अधिक धन स्वीकार कर रखा था। उसके हरम की स्त्रियों की संख्या देखते हुए यह व्यय बहुत अधिक होगा। मकबूल में अन्य दोष भी था। वह अपने रिश्तेदारों तथा बच्चों के लिए बहुत ऊँचे तथा आय वाले पद प्रदान करता था। मकबूल काफी लम्बी आयु तक जीवित रहा और जब 1370 ई. में उसकी मृत्यु हो गई, तो पिता के स्थान पर उसके पुत्र जूना शाह को नियुक्त कर दिया गया और उसे भी खाने जहाँ की उपाधि दी गई। दुर्भाग्यवश वह अपने पिता की भाँति वफादार न निकला। उसने सुल्तान व उसके पुत्र राजकुमार मुहम्मद खाँ के बीच सम्बन्ध बिगाड़ने का प्रयास किया। जब सुल्तान को इसका ज्ञान हुआ तो उसने उसका निष्कासन कर दिया।
फिरोज का व्यक्तित्व व मूल्यांकन (Character and Estimate):
- समकालीन भारतीय लेखक फिरोज की प्रशंसा करने में एकमत हैं। उनका विचार है कि नासिरुद्दीन मुहम्मद के समय से कोई भी राजा "ऐसा न्यायप्रिय, दयालु, ईश्वर से डरने वाला व निर्माणकर्ता" नहीं हुआ जैसा फिरोज था। जनता फिरोज की उपासना करती थी। उसने बुराइयों में सुधार किया। उसने अत्याचार पर प्रतिबंध लगाए। उसने सिंचाई की वृद्धि की। उसने बेकार व जरूरतमंद लोगों की ओर ध्यान दिया। उसने वृद्ध अधिकारियों को निष्कासित करने से इंकार कर दिया और उनके पुत्रों को उनके स्थान पर कार्य करने की आज्ञा दी। उसने निर्धन मुसलमानों की विवाह के विषय में सहायता की। उसने सब वर्गों के मनुष्यों के लिए चिकित्सालयों का प्रबंध कराया। वह एक सच्चा मुसलमान था। वह रोजे रखता था और लोकप्रार्थनाएँ भी करता था। अपनी वृद्धावस्था में वह बहरायच में सलर मसूद के तीर्थ स्थान पर आया और वहाँ उसने एक पावन कार्य के रूप में अपना मुंडन कराया। उसने कुरान का बिना परामर्श किए कभी कोई कार्य नहीं किया। उसने राज्यपालों तक का चुनाव करते समय पवित्र पुस्तक के शुभ संकेतों के अनुसार कार्य किया। वह अपनी जनता के कल्याण के प्रति चिंतित रहता था। उसके शासन काल में जनता ने समृद्धि का आनंद लिया।
- फिर भी, उसके जीवन के कुछ ऐसे पहलू हैं जो उसकी महत्ता पर आघात करते हैं। वह एक सेनानी नहीं था और इसलिए उसने उन प्रदेशों को फिर से जीतने का प्रयास नहीं किया जो उसके पूर्ववर्तियों के समय में दक्षिण में खोए जा चुके थे। वह शासन-प्रबंध में कठोर नहीं था। उसकी अनुचित उदारता स्पष्ट करने के लिए अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। यह पहले ही बताया जा चुका है कि उसने एक सिपाही को टंका दिया जिससे वह अपने निरीक्षक को रिश्वत दे सके। सुल्तान ने सामंती आधार पर अपनी सेना का संगठन करके एक गलती की। उसे जागीर प्रथा का पुनः संचालन नहीं करना चाहिए था जिसका अलाउद्दीन खिलजी ने उन्मूलन कर दिया था। बड़ी जागीरों का अनुदान परेशानी उत्पन्न करने वाला था और अन्ततः तुगलक राज्य को छिन्न-भिन्न करने में यह तत्व भी आशिक रूप से उत्तरदायी था। सुल्तान ने बड़ी संख्या में दास बनाने में भी एक त्रुटि की। इन दासों ने देश के शासन प्रबंध में हस्तक्षेप किया और इस प्रकार वे तुगलक साम्राज्य के पतन के लिए आंशिक रूप से उत्तरदायी बने। तुगलक वंश के पतन का आंशिक उत्तरदायित्व सम्राटों की धार्मिक नीति पर भी है। हिन्दू तथा अन्य गैर-सुन्नी मुसलमान तुगलक सम्राटों के शत्रु बन गए। सुल्तान ने उलेमाओं को भी शासन कार्यों का स्वामी बना कर ठीक काम नहीं किया। डा.आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार, "इतिहास की विडम्बना इस तथ्य में प्रदर्शित होती है कि जिन तत्वों ने फिरोज को लोकप्रियता प्रदान की, वही दिल्ली की सल्तनत को कमजोर बनाने के लिए भी बहुत मात्रा में उत्तरदायी बने हैं।"
- एस.आर. शर्मा के विचारानुसार, "फिरोज न अशोक था न अकबर, जो धार्मिक संयम के लिए प्रसिद्ध हैं। फिरोज औरंगजेब की भाँति धर्मोन्मत्त था, वरन् उसके विपरीत वह बहुत मदिरा पीने वाला भी था। परन्तु इस सबके होते हुए भी वह अपने प्रत्येक पूर्ववर्ती से अधिक रचनात्मक बुद्धि रखता था। सैनिक उत्साहाभाव और राज्य में सामंतवाद लाने की मूर्खता ही वे अन्य दोष हैं जो उस पर लगाए गए हैं।"
- फिरोज की तुलना जलालुद्दीन खिलजी से करने का प्रयास किया गया है। परन्तु यह कहा जाता है कि फिरोज की अन्य किसी शासक की अपेक्षा नासिरुद्दीन मुहम्मद से तुलना करना अधिक अच्छा होगा। नासिरुद्दीन की भाँति वह धर्म के प्रति अधिक अभिरुचि रखता था और उसी की भाँति उसने खाने जहाँ मकबूल को अपना बलबन माना। दोनों शासक कोमल व क्षमाशील स्वभाव के थे, हालांकि फिरोज अधिक कुशल शासक था। सर वुल्जले हेग के अनुसार, "दोनों निर्बल शासक थे, परन्तु मुहम्मद की अपेक्षा फिरोज अधिक कमजोर व डगमगाने वाला था, दोनों दयालु थे परन्तु फिरोज की दयालुता मुहम्मद की अपेक्षा अधिक सचेष्ट थी। फिरोज मुहम्मद की अपेक्षा बहुत अधिक योग्यता रखता था और उसकी कमजोरी का कारण यह था कि वह एक सुस्त मनुष्य की भाँति अपने व्यवसाय के विस्तारों में जाने से घृणा करता था और कष्ट सहन करने से बचना चाहता था। उसकी दयालुता त्रुटिपूर्ण थी क्योंकि वह भ्रष्टाचारी अधिकारियों के प्रति उतनी ही दयालुता बरतता था जितनी अपरिश्रमी कृषकों की ओर, उसका सार्वजनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माण के प्रति चाव कदाचित् उसकी दयालुता व आडम्बर के कारण था।"
- हेनरी इलियट ने फिरोज की तुलना अकबर से करने का प्रयत्न किया है। परन्तु डा. ईश्वरी प्रसाद का कथन है कि यह तुलना अनावश्यक तथा अन्यायसंगत है। उसके कथनानुसार, "फिरोज में उस बुद्धि का शतांश भी नहीं था जो ऐसे विशाल हृदय वाले व बुद्धिमान शासक के लिए अनिवार्य है जो सार्वजनिक हित के उच्च मंच से समस्त वर्गों तथा पंथों की ओर शान्ति, सद्भावना व सहनशीलता के उपदेश देता था। फिरोज के सुधारों में स्थिरता का अभाव था ; वे मुस्लिम शासन व्यवस्था को शक्तिशाली बनाने और उन हिन्दुओं का विश्वास जीतने में असफल रहे जिनकी भावनाएँ उसकी धार्मिक असहिष्णुता द्वारा कटु बन चुकी थीं। उन्होंने पूर्णतया ऐसी प्रतिक्रिया को जन्म दिया, जो उसी वंश के लिए घातक सिद्ध हुई जिसका वह किसी प्रकार से कोई योग्य प्रतिनिधि था।" (Medieval India, p. 314. 15)। सर वुल्जले हेग के मतानुसार, "फिरोज का शासनकाल अकबर के शासन काल से पहले भारत में मुस्लिम शासन के अत्यधिक तेजवान युग का उपसंहार करता है।" अपने चरित्र में कुछ दोषों के होते हुए भी फिरोज “शासन प्रबंध को सुधारने और अपनी प्रजा की दशा संभालने तथा उसका प्रेम जीतने में सफल हुआ। सैनिक सामर्थ्य और विस्तार के विषयों में परिश्रमशीलता ऐसा गुण है जो प्राचीन शासकों के लिए नितांत आवश्यक थे, फिरोज में इन दोनों का अभाव था। बंगाल में दो असफल अभियानों के पश्चात् उसके पास प्रदेश की स्वाधीनता को मान्यता देने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा न रहा, उसके उतावलेपन ने दो बार उसकी सेना के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया। उसका बुराइयों को आसानी से सहन कर लेना उसकी सर्वोच्च सत्ता को पूर्णतया नष्ट कर देता, यदि उसके वे अधिकारी, जिनको होशियारी के साथ चुना गया था और जिन पर उसका पूर्ण विश्वास था, पूरी तरह चौकस व सावधान न होते। वह वैयक्तिक लोकप्रियता जो उसने एक वहमी, निरंकुश व अत्याचारी शासक के प्रिय व दयावान उत्तराधिकारी होने पर प्राप्त की, उसने उसके विश्वसनीय अधिकारियों की निष्ठा को प्राप्त कर लिया, परन्तु उनके लिए उसके अत्यधिक शक्ति-दान ने उसकी गद्दी की शक्ति को घटा दिया। कोई भी नीति, चाहे कितनी ही सुनिर्मित क्यों न हो, उसके उत्तराधिकारियों के कमजोर शासन में उस शक्ति को बनाए न रख सकती थी, उसकी मृत्यु के दस वर्षों के भीतर ही उसके राज्य पर भयानक चोट पड़ी। उसकी विकेन्द्रीयकरण वाली व्यवस्था उसके योग्यतम उत्तराधिकारी को भी विस्मय में डाल देती और उसके वंश के शीघ्र पतन का कारण बनी।"