संगीत और मानसिंह तोमर, तानसेन, सदारंग-अदारंग
संगीत और मानसिंह तोमर, तानसेन, सदारंग-अदारंग
- समस्त ललित कलाओं में विशेष रूप से संगीत में गायन को इसलिये सर्वोपरि माना गया है, क्योंकि इसमें बिना किसी बाह्य माध्यम के कलाकार की भावना को समाज तक पहुंचाने की क्षमता होती है। समय समय पर संगीत के क्षेत्र में इस भूमि पर महान विभूतियों ने जन्म लिया तथा संगीत के विद्यार्थियों का मार्ग दर्शन किया। राजा मानसिंह तोमर, मियां तानसेन, सदारंग एवं अदारंग के योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं जिनका प्रभाव कई पीढ़ियों तक रहेगा।
- ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर न केवल संगीत के राजसी आश्रयदाता थे, अपितु स्वयं एक संगीतज्ञ थे। गायन की ध्रुपद विधा को प्रचलित करने का श्रेय तो उन्हें जाता ही है, साथ ही वे स्वयं ध्रुपद गायन में सक्षम थे। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अनेक ध्रुपद रचनाएँ कीं एवं गुर्जरी तोड़ी, माल गुर्जरी तथा मंगल गुर्जरी जैसे रागों का निर्माण किया। अपने दरबारी संगीतज्ञों की मदद से उन्होंने 'मानकुतूहल' नामक पुस्तक संकलित की। यद्यपि मूल कृति अब उपलब्ध नहीं है, फिर भी इसका 'राग दर्पण' नाम से फ़कीरुल्लाह के द्वारा फ़ारसी में अनुवाद किया गया था, जो उस समय के संगीत के विविध आयामों पर प्रकाश डालता है।
- बादशाह अकबर के दरबार में नवरत्नों में से एक, तानसेन के विषय में किंवदंती है कि राग मल्हार गाने पर वे वर्षा ले आते थे तथा उनके राग दीपक गाने पर दीपक जल उठते थे। उनके नाम से सम्बद्ध कुछ राग मियां की तोड़ी, मियां की मल्हार, दरबारी | कोव्हड़ा तथा मियां की सारंग हैं।
- गायन की ख्याल विधा के रचनाकारों के रूप में सदारंग-अदारंग के नाम अत्यन्त | महत्वपूर्ण हैं। दिल्ली के मुहम्मद शाह 'रंगीले' के शासनकाल में सदारंग - अदारंग के द्वारा ख्याल की हज़ारों बंदिशों की रचना की गई जिनमें बादशाह के नाम के साथ इन दोनों के उपनामों का प्रयोग भी दिखाई देता है, ख्याल की परंपरागत रचनाओं के रूप में यह रचनाएँ आज भी प्रचलित हैं।
1 राजा मानसिंह तोमर का जीवन
- संगीत की प्रसिद्ध नगरी ग्वालियर पर तोमर वंश ने लगभग एक शताब्दी तक राज्य किया। राजा मानसिंह तोमर इस वंश के सबसे प्रसिद्ध राजा हुए। इन्होंने ग्वालियर में सन् 1486 से 1516 ई. तक शासन किया। अपने शासनकाल में इन्हें कई बार शत्रुओं का सामना करना पड़ा परन्तु इस पराक्रमी राजा ने अपने बाहुबल और सैन्यबल से ग्वालियर को सदैव सुरक्षित रखा।
संगीत के क्षेत्र में राजा मानसिंह तोमर का योगदान
- राजा मानसिंह का संगीत ज्ञान बहुत उच्चकोटि का था। इन्होंने अपने समय के श्रेष्ठ गायक वादकों की सहायता से, (जिनमें भिन्नू, बख्शू, चरजू, घोंडी तथा पांडवी के नाम उल्लेखनीय हैं) 'मानकुतूहल' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसका फ़ारसी अनुवाद सन् 1673 ई. में 'राग-दर्पण' नाम से फ़कीरुल्लाह ने किया।
- मानकुतूहल ग्रन्थ की मूल प्रति सुलभ न होने से 'राग-दर्पण' के आधार पर इसकी विषय वस्तु का ज्ञान होता है।
- फ़कीरुल्ला के अनुसार मानकुतूहल में मुख्य छ: राग-भैरव, मालकौंस, दीपक, श्री, मेघ और हिंडोल माने गए हैं। प्रत्येक राग की पांच या छः रागिनियों का भी उल्लेख है। रागों का विभाजन औडव, षाडव, सम्पूर्ण के आधार पर किया गया है। इसके अतिरिक्त गायकों के गुण-अवगुणों की चर्चा है तथा चार प्रकार के वाद्यों का भी उल्लेख है।
- मानकुतूहल में श्रेष्ठ वाणीकार की विशेषताओं का भी वर्णन है। उसके अनुसार श्रेष्ठ गायक तथा रचयिता को व्याकरण, पिंगल, अलंकार, रस-भाव, देशाचार, लोकाचार का अच्छा ज्ञान होना चाहिये। उसकी प्रवृत्ति कलानुवर्त्ति तथा समय के साथ सामंजस्य स्थापित करने वाली होनी चाहिये। उसके गीत विचित्र तथा अनूठे होने चाहिये तथा संगीत वाद्य, नृत्य में उसकी पैठ होने के अतिरिक्त उसे प्रबन्ध का भी उत्तम ज्ञान होना चाहिये।
- फ़कीरुल्लाह तथा अन्य अनेक आधुनिक विद्वानों के अनुसार ध्रुपद गायकी के प्रचार का श्रेय राजा मानसिंह को है। वे ध्रुपद गायन में विशेष दक्ष थे। उन्होंने स्वयं बहुत से ध्रुपदों की रचना की तथा इस गायकी को बहुत प्रोत्साहन दिया। उनकी रचनाओं में | देवताओं तथा महापुरुषों की स्तुतियां है, कुछ में शृंगारमय चित्र भी हैं। इनमें लोकभाषा (ब्रजभाषा) का प्रयोग किया गया है जिससे ये सामान्य जनता में विशेष लोकप्रिय हुए। आज भी इनके रचे हुए अनेक ध्रुपद प्रचार में हैं।
राजा मानसिंह किस गायन शैली के प्रचारक माने जाते हैं?
- राजा मानसिंह ने कुछ नवीन रागों की भी रचना की जिनमें गुर्जरी तोड़ी, मालगुर्जरी, मंगलगुर्जरी जैसे इत्यादि प्रसिद्ध हैं। राजा मानसिंह स्थापत्य कला में भी रुचि रखते थे। | उनके द्वारा निर्मित कुछ इमारतों में मानमन्दिर तथा गुर्जरी महल उल्लेखनीय हैं। | सिकन्दर के पश्चात् जब इब्राहीम लोदी गद्दी पर बैठा तो ग्वालियर पर अधिकार करने की महत्त्वाकांक्षा से उसने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। इसी बीच सन् 1516 ई. में राजा मानसिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
तानसेन का जीवन परिचय
- शायद ही कोई ऐसा संगीत प्रेमी होगा जो संगीत सम्राट तानसेन के नाम से परिचित न हो । तानसेन की जन्मतिथि के विषय में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार ग्वालियर से अट्ठाईस मील दूर बेहट नामक एक छोटे से गांव में तानसेन का जन्म 1506 ई. में हुआ था।
- 'अकबरनामा' और 'आईने अकबरी' के रचयिता अबुल फजुल के अनुसार तानसेन की मृत्यु 26 अप्रैल सन् 1589 ई. को आगरा में हुई थी। इस प्रकार तानसेन की मृत्यु लगभग 83 वर्ष की आयु में हुई।
- ऐसा कहा जाता है कि तानसेन के पिता का नाम मकरन्द पांडे था। वे हिन्दू थे। पुत्र पैदा होने पर उनका नाम तन्नामिश्र, त्रिलोचन, तन्नू या रामतनु रखा गया।
- तानसेन की प्रारम्भिक शिक्षा उनके पिता मकरन्द पांडे द्वारा ही हुई थी। बचपन से ही तानसेन की संगीत में रुचि थी।
- तानसेन के विषय में मान्यता है कि उन्होंने वृन्दावन के तत्कालीन प्रसिद्ध सन्त गायक स्वामी हरिदास जी से संगीत शिक्षा प्राप्त की। एक सूत्र के अनुसार मुहम्मद आदिल शाह उर्फ अब्दाली भी तानसेन के गुरु रह चुके हैं।
- कुछ विद्वानों के अनुसार तानसेन की संगीत शिक्षा ग्वालियर में ही सम्पन्न हुई जो उस समय संगीत का मुख्य केन्द्र था। यद्यपि इन समस्त तथ्यों के विषय में मतभेद हैं तथापि वे एक श्रेष्ठ कलाकार थे इसके विषय में सभी एकमत हैं।
जिन राजदरबारों में तानसेन को सम्मान मिला उनमें तीन के नाम उल्लेखनीय है-
1. सूरवंश के राजा मुहम्मदशाह आदिल
2. रीवां के राजा रामचन्द्र वघेला
3. मुगल बादशाह सम्राट अकबर
अकबर के दरबार में तानसेन उनके नवरत्नों में से एक थे जहाँ आप जीवन पर्यन्त रहे और वहीं सन् 1589 ई. में इनका निधन हो गया।
तानसेन का संगीत में योगदान
- तानसेन ने अनेक ध्रुवपदों की रचना की जिनकी विषय वस्तु देवी-देवताओं की स्तुति तथा संगीत के पारिभाषिक शब्दों आदि से सम्बन्धित है।
- तानसेन ने अनेक ध्रुवपद राजा रामचन्द्र बघेला तथा बादशाह अकबर की प्रशंसा में लिखे। उस समय की चार ध्रुपद बानियों (वाणियों) - खंडार, नौहार, डागुर, गौरहार अथवा गोबरहार में से तानसेन गौरहार वाणी के प्रवर्तक माने जाते हैं।
- कुछ रागों के नाम से पहले मियां शब्द जोड़ा जाता है, उनका संबंध तानसेन से माना जाता है, जैसे मियां की रंग, मियां मल्हार, मियां की तोड़ी इत्यादि।
- इनके अतिरिक्त राग दरबारी कान्हड़ा भी उनके द्वारा प्रचारित माना जाता है। तानसेन द्वारा रचित ध्रुवपद और राग आज भी बहुत लोकप्रिय हैं।
- तानसेन के चार पुत्र हमीरसेन, सूरतसेन, तानतरंग खाँ एवं बिलासखाँ हुए। तानसेन की एक पुत्री सरस्वती का विवाह मिश्री सिंह से हुआ। उनकी पुत्र परम्परा के वंशज ध्रुपद गायक एवं रबाबिये कहलाते हैं तथा पुत्री परम्परा के वंशज बीनकार कहलाते हैं। वह अपने समय के श्रेष्ठतम गायक थे। उनका नाम संगीत के आकाश में ध्रुवतारे के समान सदा अटल रहेगा।
सदारंग - अदारंग
- हिन्दुस्तानी संगीत में ख्याल गायन शैली की बहुत सी रचनाओं में 'सदारंगीले मोंमदसा' या 'मोंमदसारंगीले' का नाम बहुत से संगीत प्रेमियों ने सुना होगा। मोहम्मद शाह का असली नाम रौशन अख्तर था किन्तु ये मोहम्मद शाह रंगीले के नाम से जाने जाते हैं। ये 28 सितम्बर सन् 1719 ई. को दिल्ली के सिंहासन पर बैठे तथा सन् 1748 ई. को नादिरशाह ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी तथा इन्हें पराजित कर दिया। उसी वर्ष इनकी मृत्यु हो गई।
- राजनीति में मोहम्मद शाह का अनुभव शून्य था इसीलिये इनके शासन काल में स्थिरता न आ पाई थी किन्तु संगीत की दृष्टि से उनका शासन काल महत्त्वपूर्ण रहा। उनके दरबारी बीनकार नियामत खां या नेमत खां ने, जो 'सदारंग' के नाम से जाने जाते है, हमेशा के लिये उनका नाम संगीत जगत में अमर कर दिया।
- दरगाह कुली खां कृत 'मुरक्क-ए-देहली' सन् 1737 ई. से सन 1741 ई. के बीच लिखी गई थी। इस कृति में लेखक ने उस समय के दिल्ली के हालात, यहां की संगीत महफिलों एवं कलाकारों, संगीतकारों आदि का ब्यौरा दिया है। दरगाह कुली खां के अनुसार नेमत खां अथवा नियामत खां के पिता का नाम परमोल खां था। नेमत खां का जन्म औरंगजेब के शासन काल (राज्यकाल सन् 1659 ई. से सन् 1707 ई.) में हुआ था।
- मुग़लवंश के अन्तिम बादशाह मुहम्मदशाह का शासनकाल सन् 1719 से 1748 ई. तक रहा । राजनीति के क्षेत्र में मुहम्मदशाह अधिक सफल नहीं हो पाए परंतु संगीत के प्रति विशेष लगाव ने उन्हें सदा के लिये अमर बना दिया। सदारंग इन्हीं के दरबारी गायक थे। इनका वास्तविक नाम नेमत खां अथवा नियामत खां था। दरगाह कुली खा कृत 'मुरक्क-ए-दिल्ली के अनुसार अदारंग इनके भतीजे थे। अदारंग का वास्तविक नाम फिरोजखां था। अदारंग का विवाह सदारंग की पुत्री से हुआ था। इस प्रकार वह सदारंग के भतीजे, शिष्य एवं दामाद थे।
- सदारंग एक उच्चकोटि के वाग्गेयकार, कुशल ध्रुपद गायक और उत्तम बीनकार (वीणावादक) थे। यद्यपि ख्याल गायन शैली उनसे पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी परन्तु उसे प्रचार में लाने का श्रेय इन्हीं को है। आपने बादशाह को प्रसन्न करने के लिये सैंकड़ों ख्यालों की रचना की और उनमें अपने उपनाम सदारंगीले के साथ बादशाह का नाम जोड़ दिया। तभी उनकी बन्दिशों में 'मोंमदसा रंगीले' या 'सदारंगीले मोहम्मदशाह' - ये शब्द प्रयुक्त हुए मिलते हैं।
- उनकी रचनाएं ब्रजभाषा, राजस्थानी, पूरबी हिन्दी तथा कुछ पंजाबी भाषा में भी उपलब्ध हैं, जिनमें हर प्रकार की विषय वस्तु पाई गई है तथा विभिन्न तालों यथा तिलवाड़ा, झूमरा, आड़ा चौताल, एकताल, चारताल, तीनताल आदि का सुन्दर प्रयोग किया गया है।
- स्वरों के द्वारा भावाभिव्यक्ति पर उनका अद्भुत अधिकार था। संगीत के प्रति उनका इतना लगाव था कि वह प्रतिमास अपने घर एक संगीत गोष्ठी करते थे। जिसमें दिल्ली के सरदार, रईस, प्रमुख नागरिक और कलाकार सभी उपस्थित होते थे।
अदारंग भी एक उच्चकोटि के गायक और प्रतिष्ठित बीनकार (वीणावादक) थे। यह ध्रुपद, ख्याल और तराना विधाओं की रचनाएं किया करते थे। इनकी रचनाएं आध्यात्मिक तथा दार्शनिक भावनाओं से परिपूर्ण हैं।
- उनकी रचनाओं में जटिलता, परिपक्वता और प्रौढ़ता से प्राप्त तरलता परिलक्षित होती है। सदारंग तथा अदारंग दोनों ने अपने शिष्यों को ख्याल गायन की शिक्षा प्रचुर मात्रा में दी तथा उसका अत्यधिक प्रचार किया। परिणाम स्वरूप तत्कालीन गायक-गायिकाओं ने ख्याल गायन को अधिक अपनाया। यथापि इन्होंने सैंकड़ों ख्यालों की रचना की परन्तु स्वयं ये धुप्रद ही गाते रहे। उनकी रचनाएं आज भी प्रत्येक घराने में बहुत आदर के साथ गाई जाती हैं।
- इस प्रकार ख्याल गायन के उत्कर्ष का श्रेय सदारंग तथा अदारंग इन दोनों को जाता है।
सदारंग - अदारंग का संगीत के क्षेत्र में योगदान
- नेमत खां की ख्याति मोहम्मद शाह रंगीले के दरबार में अपनी चरम सीमा पर थी।मोहम्मद शाह स्वयं एक अच्छे संगीतकार थे। मुरक्क-ए-देहली में नेमत खां को अद्वितीय बीन नवाज़ बताया गया है जिसका कोई सानी नहीं था। नेमत खां ने बहुत से ख्यालों की रचना की थी। अपनी इन रचनाओं को दरबार की गायिकायों को प्रशिक्षण देने में भी उनका योगदान रहा। संगीत जगत में नेमत खां का नाम सदारंग के नाम से जाना जाता है। दरगाह कुली खां को स्वयं उनकी महफिलों के सुनने का अवसर प्राप्त हुआ था।
- नेमत अथवा नियामत खां अपनी बनाई हुई रचनाओं में बादशाह मोहम्मद शाह का नाम उनकी प्रशंसा स्वरूप डाल दिया करते थे। वे अपने उपनाम सदारंग के साथ कभी पहले या कभी बाद में बादशाह का नाम जोड़ दिया करते थे। इस प्रकार उनकी रचनाओं में 'सदारंगीले मोमदसा' अथवा 'मोमदसा रंगीले' लिखा पाया जाता है।
- कहा जाता है कि आगे चलकर अन्य कलाकारों ने भी नए-नए ख्याल की रचनाएं बनाकर उनमें 'सदारंगीले' नाम जोड़ दिया। इस प्रकार बहुत से ख्याल 'सदारंग' के नाम पर बन गए।
- सदारंग के साथ-साथ कुछ रचनाओं में अदारंग का नाम भी पाया जाता है। मुरक्क ए देहली' के अनुसार ये सदारंग के भतीजे थे।
- अदारंग का असली नाम फिरोज़ खां था। यानि फिरोज़ खां का उपनाम 'अदारंग' था। अदारंग भी एक उच्च कोटि के गायक एवं एक प्रतिष्ठित बीनकार थे। अदारंग का विवाह सदारंग की पुत्री से हुआ था, इस प्रकार वे सदारंग के भतीजे, शिष्य एवं दामाद थे। सदारंग एवं अदारंग ने श्रेष्ठतम ख्याल रचनाएं की जो आज भी उतनी ही प्रसिद्ध है, जितनी उस काल में थी।
- उनके द्वारा रचित कुछ ख्याल रचनाएं पंजाबी भाषा में भी उपलब्ध हैं। इस प्रकार 'सदारंग', अदारंग संगीत जगत के अपने नाम के साथ बादशाह का नाम भी अमर कर गए।