भारतीय संसद महवपूर्ण जानकारी
भारतीय संसद महवपूर्ण जानकारी
- संविधान के अनुच्छेद 101(2) में उपबंध है कि कोई भी व्यक्ति संसद और किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य एक साथ नहीं हो सकता। यदि एक साथ निर्वाचित हो जाता है और 14 दिनों के अंदर राज्य विधानमंडल की सदस्यता का त्याग नहीं करता है तो इस अवधि की समाप्ति के पश्चात् वह संसद का सदस्य नहीं रहेगा।
- संविधान के अनुच्छेद-101(1) में उपबंध है कि कोई एक व्यक्ति संसद के दोनों सदनों का सदस्य नहीं हो सकता। यदि कोई व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य निर्वाचित हो जाता है और 10 दिनों के अंदर इसकी सूचना नहीं देता है कि उसे किस सदन का सदस्य रहना है तो उस अवधि की समाप्ति के पश्चात् उसकी सदस्यता राज्यसभा से रिक्त मानी जाएगी।
- अनुच्छेद 101(4) में उपबंध किया गया है कि संसद के किसी भी सदन का कोई सदस्य 60 दिनों की अवधि तक सदन की आज्ञा के बिना उसके सभी अधिवेशनों में अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा, किंतु इस दौरान सदन का सत्रावसान या सदन लगातार चार से अधिक दिनों के लिये स्थगित रहता है तो इस अवधि को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा।
- अनुच्छेद-101(3) में उपबंध है कि राज्यसभा का सदस्य सभापति को और लोकसभा का सदस्य अध्यक्ष को अपना त्यागपत्र सौंप सकता है। सभापति/अध्यक्ष द्वारा त्यागपत्र स्वीकार कर लिया जाता है तो उसका स्थान रिक्त हो जाएगा।
- कोई अयोग्य व्यक्ति संसद सदस्य निर्वाचित हो जाता है तो लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत उच्च न्यायालय चुनाव को अमान्य या शून्य घोषित कर सकता है। असंतुष्ट व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है।
- संसद सदस्य राष्ट्रपति या उसके द्वारा नियुक्ति व्यक्ति के समक्ष संविधान की तीसरी अनुसूची (न कि दूसरी अनुसूची) के तहत शपथ या प्रतिज्ञान लेगा (अनुच्छेद-99)
- संसद का कोई सदस्य बिना शपथ या प्रतिज्ञान लिये सदन की बैठक में भाग लेता है तो ₹500 प्रतिदिन जुर्माना भरना पड़ेगा (अनुच्छेद-104)
- जब तक संसद सदस्य शपथ या प्रतिज्ञान नहीं लेता सदन की किसी बैठक में भाग नहीं ले सकता और न ही मत दे सकता है।
- संविधान के अनुच्छेद-100(3) में उपबंध है कि संसद के प्रत्येक सदन का अधिवेशन गठित करने के लिये गणपूर्ति/कोरम सदन के सदस्यों की कुल संख्या का 1/10 भाग होना चाहिये। अतः लोकसभा के लिये कम-से-कम 55 सदस्य और राज्यसभा के लिये कम-से-कम 25 सदस्य उपस्थित होने चाहिये।
- अनुच्छेद-100(1) में उपबंध है कि प्रत्येक सदन की बैठक में या सदनों के संयुक्त बैठक में निर्णय, उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जाएगा। जिसमें अध्यक्ष या सभापति को शामिल नहीं किया जाता है। अध्यक्ष/सभापति केवल मत बराबर की स्थिति में निर्णायक मत देता है।
- राष्ट्रपति राज्यसभा का विघटन नहीं कर सकता, क्योंकि राज्यसभा एक स्थायी सदन है। राष्ट्रपति केवल लोकसभा को विघटित कर सकता है। अनुच्छेद-85(2)(ख)
- लोकसभा के अध्यक्ष/राज्यसभा के सभापति संसद की बैठक को कुछ घंटों के लिये, कुछ दिन के लिये, कुछ सप्ताह के लिये या अनिश्चित काल के लिये स्थगित कर सकता है।
- संविधान के अनुच्छेद-85(2)(क) में उपबंध है कि राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों या किसी एक सदन का सत्रावसान कर सकता है।
- अनुच्छेद-85(1) में उपबंध है कि संसद के दो सत्रों के बीच अधिकतम अंतराल छः माह से अधिक नहीं हो सकता है।
- राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसे कभी भंग नहीं किया जा सकता है। इसके सदस्यों का कार्यकाल छः वर्ष का होता है।
- इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष पर निवृत्त होते हैं।
- राज्यसभा सदस्य बनने के लिये न्यूनतम आयु 30 वर्ष होनी चाहिये।
52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 के द्वारा संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसे दल-बदल कानून के नाम से जाना जाता है। इस कानून में दल-बदल से उत्पन्न संसद सदस्य की अयोग्यता के संबंध में प्रावधान है।
- यदि उसने स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ दी है।
- यदि वह अपने राजनीतिक दल के निर्देशों के विरुद्ध सदन के मतदान में भाग लेता है या अनुपस्थित रहता है।
- कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लेता है।
- कोई नाम निर्देशित सदस्य अपनी सदस्यता ग्रहण करने के छः माह बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लेता है।
- 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा दल-बदल कानून में परिवर्तन किया गया और इसे और अधिक सशक्त बनाया गया। 52वें संविधान संशोधन के तहत संसद के किसी सदस्य को दल में टूट (Split) के कारण बाहर होने पर अयोग्य नहीं माना जाता था। अर्थात यदि किसी राजनीतिक दल के 1/3 सदस्य सदन में एक नए दल का गठन कर लेते हैं तो उसे अयोग्य नहीं माना जाएगा, किंतु 91वें संविधान संशोधन के द्वारा इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया।
- संविधान के अनुच्छेद-103 में उपबंध है कि यदि यह प्रश्न उठता है कि संसद के किसी सदन का कोई सदस्य अनुच्छेद-102(1) के तहत अयोग्यता से ग्रस्त हो गया है या नहीं, इसका निर्णय राष्ट्रपति करेगा, और उसका निर्णय अंतिम होगा। किंतु ऐसा करने से पहले राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की राय लेगा और उसकी राय के अनुसार कार्य करेगा।
- यदि दल परिवर्तन के आधार पर संसद सदस्यों की अयोग्यता का प्रश्न उठता है तो इसका निर्णय सदन का अध्यक्ष करता है किंतु अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा और उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है (किहोतो होलोहन वाद, 1993)
- संविधान के अनुच्छेद 85(1) में उपबंध है कि राष्ट्रपति समय-समय पर संसद के प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो ठीक समझे, अधिवेशन के लिये आहुत करेगा किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिये नियत तारीख के बीच छः माह से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिये।
- संविधान के अनुच्छेद-80(4) में उपबंध है कि राज्यसभा में प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य के विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाएगा। मतदान की इस प्रणाली को ‘हेयर योजना’ कहते हैं। भारत में राष्ट्रपति और राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचन में इसे अपनाया जाता है।
- संविधान के अनुच्छेद-80(5) में उपबंध है कि राज्यसभा में संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि ऐसी रीति से चुने जाएंगे जो संसद विधि द्वारा व्यवस्था करे। संसद द्वारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 में निर्वाचन के रीति के संबंध में उपबंध किया गया है कि निर्वाचक-मंडल के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय मत के द्वारा चुने जाएंगे।
- अनुच्छेद-80(2) में उपबंध है कि राज्यसभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों द्वारा भरे जाने वाले स्थानों का आवंटन संविधान की चौथी अनुसूची में निर्धारित उपबंधों के अनुसार होगा।
लोकसभा का अध्यक्ष
- संविधान के अनुच्छेद-93 में उपबंध है कि लोकसभा अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी। जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होगा तब लोकसभा किसी अन्य सदस्य को अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी।
- भारत का राष्ट्रपति लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव की तारीख निर्धारित करता है। लोकसभा की पहली बैठक के पश्चात् उपस्थित सदस्यों के बीच से अध्यक्ष का चुनाव किया जाता है।
- अनुच्छेद-94(ग) में उपबंध है कि अध्यक्ष लोकसभा विघटन के पश्चात् नई लोकसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक पद पर बना रहेगा।
- लोकसभा का अध्यक्ष आमतौर पर लोकसभा के जीवन काल तक पद धारण करता है। वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण नहीं करता है।
- लोकसभा अध्यक्ष बनने के लिये यह आवश्यक है कि वह लोकसभा का सदस्य हो। यदि वह लोकसभा का सदस्य नहीं है तो अध्यक्ष नहीं रहेगा। [अनुच्छेद 94(क)]
- लोकसभा के विघटन के पश्चात् भी अध्यक्ष नई लोकसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक पद धारण करता रहेगा। [अनुच्छेद 94(ग)]
- अध्यक्ष अपना त्याग पत्र देना चाहे तो उपाध्यक्ष को सौंपेगा, न कि राष्ट्रपति को। [अनुच्छेद 94(ख)]
- संविधान के अनुच्छेद 94(ग) में उपबंध है कि लोकसभा के अध्यक्ष को पद से लोकसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से (न कि दो-तिहाई बहुमत) पारित संकल्प द्वारा हटा सकते हैं और यह संकल्प प्रस्तुत करने के आशय की सूचना कम से कम 14 दिन पहले देना आवश्यक है।
- संविधान के अनुच्छेद-96 में उपबंध है कि जब लोकसभा अध्यक्ष को उसके पद से हटाने संबंधी संकल्प विचाराधीन हो तब अध्यक्ष पीठासीन नहीं होगा, किंतु उसे लोकसभा में बोलने और कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार होगा। उसे किसी संकल्प या कार्यवाहियों के दौरान किसी विषय पर प्रथमतः मतदान करने का अधिकार होगा, परंतु मत बराबर होने की स्थिति में वह निर्णायक मत नहीं दे सकता है।
- लोकसभा का संरक्षक/अभिरक्षक/अभिभावक लोकसभा अध्यक्ष होता है न कि भारत का राष्ट्रपति। वह लोकसभा और उसके प्रतिनिधियों का मुखिया होता है। वह सदस्यों की शक्तियों और विशेषाधिकारों का अभिभावक होता है। वह सदन का मुख्य प्रवक्ता होता है और सभी संसदीय मामलों में उसका निर्णय अंतिम होता है।
- लोकसभा के उपाध्यक्ष के चुनाव की तारीख लोकसभा अध्यक्ष निर्धारित करता है, न कि भारत का राष्ट्रपति।
- लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त होने पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति अध्यक्ष के कर्त्तव्यों का निर्वहन करेगा।
- लोकसभा अध्यक्ष सदस्यों में से 10 को सभापति तालिका के लिये नामांकित करता है। इनमें से कोई भी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में अध्यक्ष के कर्त्तव्यों का निर्वहन कर सकेगा।
- लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा की सभी संसदीय समितियों के सभापति नियुक्त करता है और उनके कार्यों का पर्यवेक्षण करता है। वह संसदीय समिति का अध्यक्ष हो सकता है, जैसे- कार्य मंत्रणा-समिति, नियम समिति और सामान्य प्रयोजन समिति का अध्यक्ष लोकसभा का अध्यक्ष होता है।
- संविधान के अनुच्छेद 108 के तहत संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक राष्ट्रपति द्वारा आहुत की जाती है किंतु संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है।
- संविधान के अनुच्छेद 110(3) में उपबंध है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता है।
- जब कभी लोकसभा उपाध्यक्ष को किसी संसदीय समिति का सदस्य बनाया जाता है तो स्वाभाविक रूप से उसका सभापति बन जाता है।
- 11वीं लोकसभा से एक सहमति बनी कि लोकसभा अध्यक्ष सत्ताधारी दल से जबकि उपाध्यक्ष विपक्षी दल से होगा। इससे पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों सत्ताधारी दल से ही होते थे।
- संविधान के अनुच्छेद 102(2) में दसवीं अनुसूची के तहत दल-बदल उपबंध के आधार पर संसद सदस्य को अयोग्य घोषित करने के संबंध में उपबंध है। इस संबंध में निर्णय लोकसभा अध्यक्ष द्वारा किया जाता है
- संविधान में यह व्यवस्था है कि पहली लोकसभा का अध्यक्ष नई लोकसभा की पहली बैठक के ठीक पहले तक अपने पद पर रहता है। इसलिये राष्ट्रपति सामान्यतः लोकसभा के वरिष्ठ सदस्य को प्रो-टेम स्पीकर (सामायिक अध्यक्ष) चुनता है और उसे शपथ दिलाता है।
- इसका पद अल्पकालिक होता है। नए अध्यक्ष चुने जाने के बाद यह पद स्वतः समाप्त हो जाता है।
- वह नई लोकसभा की पहली बैठक में पीठासीन अधिकारी होता है।
- इसका मुख्य कर्त्तव्य नई लोकसभा के सदस्यों को शपथ दिलवाना है।
- लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर एवं उपाध्यक्ष अयंगर थे।
- अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष पद का उद्भव भारत शासन अधिनियम 1919 के उपबंध के तहत सन् 1921 में हुआ था। उस समय अध्यक्ष को प्रेसीडेन्ट और उपाध्यक्ष को डिप्टी प्रेसीडेन्ट कहते थे।
- 1921 में गवर्नर जनरल, जो स्वयं पीठासीन अधिकारी था, ने फ्रेडरिक व्हाइट को केंद्रीय विधान परिषद का अध्यक्ष एवं डॉ. सच्चिदानन्द सिंहा को उपाध्यक्ष नियुक्त किया। डॉ. सच्चिदान्नद सिन्हा इसके उपाध्यक्ष नियुक्त होने वाले प्रथम भारतीय थे।
- सन 1925 में विट्ठलभाई जे.पटेल केंद्रीय विधान परिषद के अध्यक्ष निर्वाचित होने वाले प्रथम भारतीय थे।
- लोकसभा की प्रथम महिला अध्यक्ष मीरा कुमार बनी।
- लोकसभा के प्रथम जनजातीय अध्यक्ष पी.ए. संगमा थे।
- प्रथम लोकसभा अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर के विरुद्ध लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था किंतु लोकसभा द्वारा इसे अस्वीकृत कर दिया गया।
राज्यसभा
- राज्यसभा का सभापति उसका सदस्य नहीं होता है, क्योंकि भारत का उप-राष्ट्रपति ही राज्यसभा का सभापति होता है और उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन होता है।
- राज्यसभा अपने सदस्यों के बीच से उप-सभापति को चुनती है। इसलिये उप-सभापति राज्यसभा का सदस्य होता है। राज्यसभा का सदस्य नहीं रहने पर वह उप-सभापति नहीं रहेगा।
- राज्यसभा के सभापति/उप-सभापति को पद से हटाने संबंधी कोई संकल्प राज्यसभा में विचाराधीन है तो वह सदन की बैठक में उपस्थित रहने पर भी पीठासीन नहीं रहेगा।
- जब उपराष्ट्रपति (सभापति) को उसके पद से हटाने संबंधी संकल्प राज्यसभा में विचाराधीन है तब वह राज्यसभा में बोल सकता है, कार्यवाही में भाग ले सकता है, किंतु मत नहीं दे सकता है। लोकसभा अध्यक्ष को प्रथमतः मत देने का अधिकार है, किन्तु निर्णायक मत नही दे सकता है।
- राज्यसभा के सभापति/उपसभापति का वेतन व भत्ते भारत के संचित निधि पर भारित होते हैं और सदन में उस पर मतदान नहीं होता है। इसका वेतन संसद द्वारा निर्धारित होता है और संविधान की दूसरी अनुसूची में इसके लिये उपबंध है।
- राज्यसभा का उपसभापति अपना त्याग-पत्र सभापति को सौंपता है।
- राज्यसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प के द्वारा उपसभापति को पद से हटा सकते हैं। इस संकल्प के आशय की सूचना 14 दिन पहले देना आवश्यक है।
- संविधान में उपराष्ट्रपति के वेतन व भत्ते के संबंध में उपबंध नहीं है। उसे राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में वेतन व भत्ते मिलते हैं।
संसद के लिये पृथक सचिवालय
- संविधान के अनुच्छेद 98 में उपबंध है कि संसद के लिये पृथक सचिवालय होगा।
- जनवरी 1926 में सरकार से स्वतंत्र और असंबद्ध सचिवालय अस्तित्व में आया और स्वतंत्रता पश्चात् इसे अपना लिया गया और अनुच्छेद 98 में इसके लिये उपबंध किया गया। संसद का सचिवालय सरकार से स्वतंत्र है।
- संविधान के अनुच्छेद 98(1) में उपबंध है कि संसद के प्रत्येक सदन के पृथक सचिवीय कर्मचारीवृन्द होंगें।
- अनुच्छेद 98(2) में उपबंध है कि संसद विधि द्वारा संसद के प्रत्येक सदन के सचिवीय कर्मचारीवृंद में भर्ती का और नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का विनियमन कर सकेगी।
- अनुच्छेद 98(3) में उपबंध है कि जब तक संसद ऐसा उपबंध नहीं करती तब तक राष्ट्रपति लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति के परामर्श के पश्चात् ऐसा कर सकेगा।
- लोकसभा सचिवालय लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सचिवालय राज्यसभा के सभापति के प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण में रहते हैं।
- दोनों सदनों के सचिवालयों का मुखिया महासचिव होता है जो एक स्थायी अधिकारी होता है और उसकी नियुक्ति सदन का अधिकारी करता है।
- बैठ जाना (Yielding the floor): अध्यक्ष किसी भी सदस्य को बोलने से रोक कर अन्य को बोलने के लिये कह सकता है।
- मर्यादा (Decorum): विनम्र एवं स्वीकार्य व्यवहार बनाए रखना।
- पक्षत्याग (Crossing the Floor): सदन के किसी सदस्य द्वारा वह जिस दल से चुनकर आया है, उसका त्याग कर दूसरे दल में शामिल होना।
- अंतर्प्रदन (Inter Pellation): किसी सरकारी अधिकारी से किसी नीति या कार्य के विवरण की मांग हेतु संसदीय प्रक्रिया।
सदन की कार्यवाही
- राज्यसभा का सभापति उस सदन का सदस्य नहीं होता, जबकि उप-सभापति उस सदन का सदस्य होता है। राज्यसभा का सभापति उप-राष्ट्रपति होता है और उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन होता है।
- राष्ट्रपति के निर्वाचन में संसद के मनोनीत सदस्य भाग नहीं लेते, जबकि उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन में संसद के सभी सदस्य भाग लेते हैं।
- संसद में विचाराधीन प्रस्ताव, संकल्प नोटिस या याचिका सदनों के सत्रावसान के पश्चात व्यपगत हो जाते हैं, किंतु संसद में लंबित विधेयक पर सत्रावसान के पश्चात् कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- संसद में लंबित विधेयक, विचाराधीन प्रस्ताव, संकल्प नोटिस या याचिका पर सदनों के स्थगन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- ब्रिटेन में सदनों के सत्रावसान के कारण विधेयक या अन्य लंबित कार्य व्यपगत/समाप्त हो जाते हैं।
- लोकसभा में लंबित सभी विधेयक, प्रस्ताव, संकल्प, याचिका आदि लोकसभा के विघटन के पश्चात् समाप्त हो जाते हैं। किंतु लंबित विधेयकों और सभी लंबित आश्वासनों जिनकी जाँच सरकारी आश्वासन संबंधी समिति द्वारा की जानी होती है लोकसभा के विघटन पर समाप्त नहीं होते।
- संविधान में उपबंध है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। राजभाषा अधिनियम,1963 उपबंध करता है की सदन की कार्यवाही अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में होगी।
- राजभाषा अधिनियम, 1963 हिंदी के साथ अंग्रेज़ी की निरंतरता की अनुमति देता है।
- संसद में पीठासीन अधिकारी किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में बोलने का अधिकार दे सकता है।
- अल्प-सूचना के प्रश्न पूछने के लिये कम से कम 10 दिन का नोटिस देना आवश्यक है।
- संसद का पहला घंटा ‘प्रश्नकाल’ के लिये होता है। इस दौरान संसद सदस्य प्रश्न पूछ सकते हैं और इसका उत्तर सामान्यतः मंत्री देते हैं, किंतु कोई ऐसा प्रश्न जिसकी विषय वस्तु किसी प्राइवेट सदस्य (जो मंत्री नहीं है) से संबंधित है तो उससे भी प्रश्न पूछ सकते हैं।
प्रश्न तीन प्रकार के होते हैं;
- तारांकित प्रश्नः- इसका उत्तर मौखिक दिया जाता है और इसके बाद पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं।
- अतारांकित प्रश्नः- इसका उत्तर लिखित होता है और इसके बाद पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते हैं।
- अल्प-सूचना के प्रश्नः- कम से कम 10 दिन का नोटिस देकर ऐसे प्रश्न पूछ सकते हैं।
- तारांकित, अतारांकित, अल्प-सूचना के प्रश्न और प्राइवेट सदस्यों से पूछे जाने वाले प्रश्नों की सूची अलग-अलग रंगों की छपी होती है, ताकि वे एक-दूसरे से अलग दिखें।
- तारांकित प्रश्नों की सूची- हरा रंग
- अतारांकित प्रश्नों की सूची- सफेद रंग
- अल्प-सूचना के प्रश्नों की सूची- हल्के गुलाबी रंग
- प्राइवेट सदस्यों से पूछे जाने वाले प्रश्नों की सूची- पीला रंग
- शून्यकाल भारतीय संसदीय व्यवस्था की देन है न कि ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था की। इसका जन्म भारत में हुआ है। प्रश्नकाल भारत में वर्ष 1962 से जारी है।
- इसकी अवधि अधिक से अधिक 1 घंटे की होती है। प्रश्नकाल के तुरंत बाद शून्यकाल प्रारंभ होता है जिसकी अवधि दोपहर 12 बजे से 1: 00 तक की होती है।
- शून्यकाल का संसदीय प्रक्रिया में कहीं उल्लेख नहीं है। संसदीय कार्यवाही का यह एक अनौपचारिक साधन है,जिसमें संसद सदस्य बिना पूर्व सूचना के मामले उठा सकते हैं।
- प्रश्नकाल और सभापटल पर पत्र रखे जाने के तत्काल पश्चात् तथा किसी सूचीबद्ध कार्य को सभा द्वारा शुरू करने से पहले की अवधि का लोकप्रिय नाम ‘शून्यकाल’ है। इसकी अधिकतम अवधि एक घंटे (12 - 1:00 PM) की होती है।
- शून्यकाल में किसी मामले को उठाने के लिये सदस्य प्रतिदिन 10:00 AM से पूर्व अध्यक्ष को सूचना देते हैं। किसी मामले को उठाने या न उठाने या मामलों के क्रम का निर्णय अध्यक्ष करता है। वर्तमान में शून्यकाल के दौरान 20 मामले उठाये जाने की अनुमति है।
- राजनीतिक शब्दावली में शून्यकाल को प्रश्न-उत्तर का सत्र कहते हैं।
- यह एक निन्दा प्रस्ताव है। इसके द्वारा सरकार की किसी विशिष्ट नीति की आलोचना की जाती है। यह प्रस्ताव मंत्रिमंडल पर नियंत्रण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।
- इस प्रस्ताव को लाने के लिये 50 सदस्यों का समर्थन आवश्यक है। इसे लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों में पेश किया जा सकता है। सदन का कोई भी सदस्य इस प्रस्ताव को पेश कर सकता है।
स्थगन प्रस्ताव
- स्थगन प्रस्ताव किसी अविलंबनीय लोक महत्त्व के मामले पर सदन में चर्चा करने के लिये सदन को स्थगित करने का प्रस्ताव है।
- इसके द्वारा निम्नलिखित लोक महत्त्व के मामलों को उठाये जा सकते हैं-
- जो निश्चित, तथ्यात्मक, अत्यंत ज़रूरी एवं लोक महत्त्व का हो।
- इसमें एक से अधिक मुद्दों को शामिल नहीं किया जा सकता।
- वर्तमान घटनाओं के किसी महत्त्वपूर्ण विषय को उठा सकते हैं।
- विशेषाधिकार के प्रश्न को नहीं उठा सकते।
- न्यायालय में विचाराधीन मामलों पर चर्चा नहीं की जा सकती।
- उस विषय पर चर्चा नहीं की जा सकती जिस पर उसी सत्र में चर्चा हो चुकी है।
- कटौती प्रस्तावः- बजट प्रस्तावों पर व्यय कम करने का प्रस्ताव प्रस्तावित करना।
- ध्यानाकर्षण प्रस्तावः- संसद का कोई सदस्य सदन के पीठासीन अधिकारी की अग्रिम अनुमति से किसी मंत्री का ध्यान अविलंबनीय लोक महत्त्व के मामले पर आकर्षित कर सकता है। यह भारत की देन है और यह 1954 में अस्तित्व में आया। संसदीय प्रक्रिया के नियमों में इसका उल्लेख है।
- विशेषाधिकार प्रस्तावः- इसे संसद का कोई भी सदस्य पेश कर सकता है। इसमें मंत्रियों द्वारा दिये गए गलत या अपूर्ण उत्तर की ओर लोकसभा अध्यक्ष का ध्यान आकर्षित करना होता है। इसका उद्देश्य संबंधित मंत्रियों की निंदा करना है।
- स्थगन प्रस्तावः- किसी अविलंबनीय लोक महत्त्व के मामले पर सदन में चर्चा करने के लिये, सदन की कार्यवाही को स्थगित करने का प्रस्ताव है। इसके द्वारा समय से पूर्व सदन का स्थगन हो जाता है।
- शून्यकाल में समान ध्यानाकर्षण प्रस्ताव भारतीय संसदीय प्रक्रिया की देन है और यह 1954 से अस्तित्व में आया।
- इसने स्थगन प्रस्ताव के क्षेत्र को सीमित किया है।
- यह स्थगन प्रस्ताव के सदृश है किंतु इसमें निंदा का पक्ष शामिल नहीं रहता। इसलिये इसे मंत्रिमंडल को उत्तरदायी बनाने का उपाय नहीं माना जाता है।
- निंदा प्रस्ताव संसदीय कार्यवाही का एक साधन है।इसे किसी एक मंत्री या मंत्रियों के समूह या संपूर्ण मंत्रिपरिषद के विरुद्ध लाया जा सकता है।
- इसे पारित होने पर मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना आवश्यक नहीं है। इससे केवल मंत्रिपरिषद की कुछ नीतियों एवं कार्यों की आलोचना होती है।
- इसे लोकसभा में स्वीकार करने का कारण बताना अनिवार्य होता है।
- संविधान के अनुच्छेद- 75 (3) में उपबंध है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। मंत्रिपरिषद तभी तक बनी रहती है जब तक लोकसभा में उसे बहुमत प्राप्त है। अतः इसे सिर्फ संपूर्ण मंत्रिपरिषद के विरुद्ध लोकसभा के विश्वास में निर्धारण हेतु लाया जाता है। अविश्वास प्रस्ताव को लोकसभा में स्वीकार करने का कारण बताना आवश्यक नहीं होता।
- अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में 50 सदस्यों की सहमति अनिवार्य है, न कि 100 सदस्यों की।
- धन्यवाद प्रस्ताव के द्वारा भारत का राष्ट्रपति प्रत्येक आम चुनाव के पहले सत्र और वित्तीय वर्ष के पहले सत्र में सदन को संबोधित करता है। अपने संबोधन में राष्ट्रपति पूर्ववर्ती वर्ष और आने वाले वर्ष में सरकार की नीतियों एवं योजनाओं का खाका खींचता है।
- यह प्रस्ताव सदन में सदस्यों (लोकसभा या राज्यसभा) को चर्चा एवं वाद-विवाद के मुद्दे उठाने और त्रुटियों एवं कमियों हेतु सरकार एवं प्रशासन की आलोचना का अवसर उपलब्ध कराता है।
- राष्ट्रपति के इस संबोधन को ब्रिटेन के राजा के अभिभाषण से लिया गया है।
- संसद के दोनों सदनों में इस प्रस्ताव पर चर्चा होती है। बहस के बाद प्रस्ताव को मत-विभाजन के लिये रखा जाता है। इस प्रस्ताव का सदन में पारित होना आवश्यक है, नहीं तो इसका अर्थ सरकार की पराजय मानी जाएगी।
- संसद में बजट पारित होने की प्रक्रिया के दौरान कार्य मंत्रणा समिति किसी विशेष मांग को और बजट सहित अनुदानों की सब मांगों को स्वीकृत करने के लिये समय सीमा निर्धारित करती है, जैसे ही समय सीमा समाप्त हो जाती है, उस पर चर्चा के समापन की प्रक्रिया लागू की जाती है और मांग मतदान के लिये रख दी जाती है, चाहे उस पर चर्चा हुई हो या न हुई हो। इसी प्रक्रिया को ‘गिलोटिन’ कहते हैं
संसदीय कार्यवाही के कुछ अन्य साधन निम्नलिखित हैं:
- आधे धंटे की बहसः अध्यक्ष ऐसी बहस के लिये सप्ताह में तीन दिन निर्धारित कर सकता है। इसके लिये सदन में कोई औपचारिक प्रस्ताव या मतदान नहीं होता। यह चर्चा पर्याप्त लोक महत्त्व के मामलों आदि के लिये है।
- अल्पकालिक चर्चाः इसे 2 घंटे की चर्चा भी कहते हैं। अध्यक्ष एक सप्ताह में तीन दिन उपलब्ध करा सकता है। इसे संसद सदस्य ज़रूरी सार्वजनिक महत्त्व के मामलों पर बहस के लिये रख सकते हैं।
- औचित्य प्रश्नः यह सदन का ध्यान आकर्षित करने की एक युक्ति है। जब सदन के संचालन में सामान्य नियमों का पालन नहीं होता तो कोई भी सदस्य इसके माध्यम से सदन का ध्यान आकर्षित कर सकता है। यह सदन की कार्यवाही को समाप्त करती है। इसमें किसी तरह के बहस की अनुमति नहीं है।
- युवा संसद योजना चौथे अखिल भारतीय व्हिप सम्मेलन की अनुशंसा पर प्रारंभ की गई।
- इस योजना को बढ़ावा एवं प्रोत्साहन संसदीय कार्य मंत्रालय के द्वारा दिया जा रहा है।
- संसद द्वारा पारित किसी साधारण विधेयक का अनुक्रम इस प्रकार है;
- पुरः स्थापना (प्रस्तुतीकरण/पेश करना): यह विधेयक का प्रथम चरण है। साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। प्रथम चरण में विधेयक पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं होती है।
- पुरःस्थापनोत्तर प्रस्तावः विधेयक के प्रस्तुतीकरण के पश्चात् विधेयक का प्रभारी सदस्य विधेयक के संबंध में प्रस्ताव पेश करता है।
- सैद्धान्तिक चर्चाः पुरःस्थापनोत्तर प्रस्ताव के पश्चात् विधेयक के सिद्धान्तों एवं उपबंधों पर चर्चा होती है, परन्तु विधेयक पर विस्तार से विचार-विमर्श नहीं होता। इस प्रक्रम में विधेयक में कोई संशोधन प्रस्तुत नहीं किया जाता। इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स में इसे प्रथम वाचन (First Reading) कहते हैं।
- समिति की अवस्थाः यदि कोई सदस्य यह प्रस्ताव पेश करता है कि विधेयक को प्रवर समिति या संयुक्त समिति को निर्दिष्ट किया जाए और यह प्रस्ताव पारित हो जाता है तो समिति विधेयक पर खण्डशः विचार करती है, किन्तु इसके मूल विषय में परिवर्तन नहीं कर सकती है।
- खण्डशः विचारः समिति से विधेयक प्राप्त करने के पश्चात् सदन विधेयक के समस्त उपबंधों की समीक्षा करता है। विधेयक के प्रत्येक उपबंध पर खण्डवार चर्चा एवं मतदान होता है। इस अवस्था में सदस्य संशोधन प्रस्तुत करते हैं और अगर संशोधन स्वीकार हो जाते हैं तो वे विधेयक का हिस्सा बन जाते हैं। इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स में इसे द्वितीय वाचन (Second Reading) कहते हैं।
- द्वितीय वाचन के बाद प्रभारी सदस्य यह प्रस्ताव पेश करता है कि विधेयक पारित किया जाए या संशोधित रूप में पारित किया जाए। इसे इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स में तृतीय वाचन (Third Reading) कहते हैं। जब विधेयक एक सदन द्वारा पारित कर दिया जाता है तो विधेयक पर विचार एवं स्वीकृति के लिये दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।
- प्रमाणीकरणः जब विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है तो पीठासीन अधिकारी (अध्यक्ष या सभापति) विधेयक पर हस्ताक्षर करता है। इसे ही प्रमाणीकरण कहते हैं।
- सहमति/अनुमतिः अध्यक्ष या सभापित द्वारा प्रमाणित विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिये भेजा जाता है और राष्ट्रपति की सहमति के पश्चात् विधेयक अधिनियम का रूप ले लेता है।
- साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। जिस विधेयक को किसी मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है उसे सरकारी विधेयक कहते हैं और मंत्री से भिन्न किसी अन्य सदस्य द्वारा प्रस्तुत किया गया विधेयक, गैर-सरकारी विधेयक कहलाता है।
- मंत्री से भिन्न कोई सदस्य (गैर-सरकारी सदस्य) विधेयक प्रस्तुत करना चाहता है तो सदन को इसकी अग्रिम सूचना देनी पड़ती है। सूचना की विहित अवधि एक मास है।
- यदि विधेयक प्रस्तुतीकरण से पूर्व राजपत्र में प्रकाशित हो गया है तो प्रस्तुतीकरण के लिये अनुमति के प्रस्ताव की आवश्यकता नहीं पड़ती और जो विधेयक प्रस्तुतीकरण के पूर्व राजपत्र में प्रकाशित नहीं हुआ है उसे प्रस्तुतीकरण के पश्चात् प्रकाशित किया जाता है।
- विधेयक पर खण्डशः विचार अथवा आम बहस द्वितीय वाचन में होती है। विधेयक पर खण्डवार चर्चा एवं मतदान होता है। सदस्य संशोधन प्रस्तुत कर सकते हैं और संशोधन स्वीकार हो जाते हैं तो विधेयक का हिस्सा बन जाते हैं।
एक सदन द्वारा पारित कोई साधारण विधेयक जब दूसरे सदन में जाता है, तो दूसरा सदन निम्नलिखित में से कोई भी कदम उठा सकता हैः-
- ⇒ विधेयक को बिना संशोधन के पारित कर दे।
- ⇒ विधेयक को संशोधन के साथ पारित करे।
- ⇒ विधेयक को अस्वीकार कर दे।
- ⇒ विधेयक को पड़ा रहने दे और कोई कार्यवाही न करे।
- ऐसी स्थिति में एक सदन द्वारा पारित विधेयक को दूसरा सदन अधिकतम छः माह तक (न कि एक वर्ष तक) रोककर रख सकता है।
- छः माह बीत जाने के पश्चात् राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद-108 (न कि अनुच्छेद-110) के तहत संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाता है।
- संसद के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष (न कि राष्ट्रपति द्वारा या राज्यसभा के सभापति द्वारा) द्वारा की जाती है।
कोई साधारण विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित होने के पश्चात् राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो राष्ट्रपति निम्नलिखित कदम उठा सकता हैः-
- विधेयक को अनुमति दे दे। ऐसी स्थिति में विधेयक अधिनियम बन जाता है।
- विधेयक को अपनी अनुमति न दे। ऐसी स्थिति में विधेयक समाप्त हो जाता है और वह अधिनियम नहीं बन पाता।
- विधेयक को पुनर्विचार के लिये लौटा सकता है, लेकिन दोनों सदनों द्वारा संशोधन या बिना संशोधन के विधेयक को राष्ट्रपति के पास वापस भेजा जाता है तो राष्ट्रपति अनुमति देने के लिये बाध्य है।
धन विधेयक
- संविधान के अनुच्छेद-109 में धन-विधेयक के संबंध में विशेष प्रक्रिया का उपबंध किया गया है।
- अनुच्छेद-109(1) में उपबंध किया गया है कि धन विधेयक राज्यसभा में पुरःस्थापित (Introduced) नहीं किया जाएगा। अर्थात धन विधेयक को केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत कर सकते हैं।
- संविधान के अनुच्छेद-110(3) में उपबंध किया गया है कि यदि प्रश्न उठता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, तो उस पर लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होगा।
- अनुच्छेद-109(2) में उपबंध है कि लोकसभा द्वारा पारित किसी धन विधेयक को राज्यसभा द्वारा 14 दिनों के अन्दर लौटाया जाना आवश्यक है। अनुच्छेद-109(5) में उपबंध है कि उक्त 14 दिन की अवधि के भीतर लोकसभा को नहीं लौटाया जाता है तो उक्त अवधि की समाप्ति पर वह दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा, जिस रूप में लोकसभा द्वारा पारित किया गया था।
- धन विधेयक को जब राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो राष्ट्रपति या तो स्वीकृति दे देता है या रोककर रख सकता है, किन्तु पुनर्विचार के लिये लोकसभा को नहीं लौटा सकता है। धन विधेयक को लोकसभा में प्रस्तुत करने से पहले राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति ली जाती है।
संविधान के अनुच्छेद-110 के तहत धन विधेयक के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों को शामिल किया गया है-
- किसी कर का अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन।
- भारत सरकार द्वारा धन उधार लेने या कोई प्रतिभूति देने का विनियमन।
- भारत की संचित निधि या आकस्मिक निधि की अभिरक्षा तथा ऐसी किसी निधि में धन जमा करना या उसमें से धन निकालना।
- भारत की संचित निधि से धन का विनियोग।
- किसी व्यय को भारत की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना या ऐसे व्यय की रकम को बढ़ाना।
- भारत की संचित निधि या लोक लेखों में किसी प्रकार की धन की प्राप्ति या अभिरक्षा या इनमें व्यय या संघ या राज्य के लेखाओं का परीक्षण आदि।
- जुर्माने या अर्थदण्ड संबंधी विषय इसकी परिभाषा में शामिल नहीं हैं।
- संविधान के अनुच्छेद-109 के तहत राज्यसभा को या अनुच्छेद-111 के तहत राष्ट्रपति को जब किसी धन विधेयक को पारेषित किया जाता है तो उस पर लोकसभा अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित प्रमाणित रहता है, जबकि साधारण विधेयक में अध्यक्ष/सभापति के प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती। जब साधारण विधेयक को किसी मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है और लोकसभा में अस्वीकृत हो जाता है तो सरकार को त्याग-पत्र देना पड़ सकता है। इसी तरह धन-विधेयक को लोकसभा द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है तो सरकार को त्याग-पत्र देना पड़ता है। धन विधेयक को केवल मंत्री द्वारा ही प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रकार सभी धन विधेयक सरकारी विधेयक होते हैं।
- संविधान के अनुच्छेद-110(3) में उपबंध है कि धन विधेयक के संबंध में लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होगा और उसके निर्णय को किसी न्यायालय, संसद या राष्ट्रपति द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- धन विधेयक संविधान के अनुच्छेद-109 के तहत राज्यसभा को और अनुच्छेद-111 के तहत राष्ट्रपति के समक्ष पारेषित या प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक धन विधेयक पर लोकसभा अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण पृष्ठांकित रहता है कि यह धन विधेयक है।
- संविधान के अनुच्छेद-110 में धन विधेयक की परिभाषा दी गई है, जबकि अनुच्छेद-109 में धन विधेयक के संबंध में विशेष प्रक्रिया का उपबंध है।
- सभी धन विधेयक, वित्त विधेयक होते हैं, किन्तु सभी वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होते।
- संविधान के अनुच्छेद-117 में वित्त विधेयक के संबंध में विशेष उपबंध है।
वित्त विधेयक तीन प्रकार के होते हैं-
- धन विधेयक- अनुच्छेद-110
- वित्त विधेयक-I अनुच्छेद-117(1)
- वित्त विधेयक II- अनुच्छेद-117(3)
- राज्यसभा वित्त विधेयक को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है या इसमें सारभूत संशोधन कर सकती है, किन्तु लोकसभा, राज्यसभा की अनुशंसाओं को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये स्वतंत्र है, और विधेयक को आगे भेज सकती है। यद्यपि किसी भी सदन द्वारा विधेयक में प्रस्तावित कर (Tax) आदि को तब तक कम या समाप्त नहीं किया जा सकता, जब तक की राष्ट्रपति इसकी सहमति न दे दें।
- वित्त विधेयक दो मामलों में धन विधेयक के समान है।
- इसे केवल लोकसभा में ही पुरःस्थापित किया जा सकता है।
- लोकसभा में पुरः स्थापित करने से पहले राष्ट्रपति की सिफारिश आवश्यक है। अर्थात् राष्ट्रपति की सिफारिश से ही इसे पुरः स्थापित या प्रस्तावित किया जा सकता है।
- दोनों सदनों के बीच गतिरोध होने पर राष्ट्रपति अनुच्छेद-108 के तहत संयुक्त बैठक बुला सकता है, जिसकी अध्यक्षता लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा की जाती है।
- उपर्युक्त दो मामलों के अतिरिक्त वित्त विधेयक के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाता है, जैसा कि किसी साधारण विधयेक के संबंध में किया जाता है।
- संविधान के अनुच्छेद-117(3) में उपबंध है कि जिस विधेयक को अधिनियमित और प्रवर्तित किये जाने पर भारत की संचित निधि में से व्यय करना पड़ेगा, वह विधेयक संसद के किसी भी सदन द्वारा तब तक पारित नहीं किया जाएगा, जब तक ऐसे विधयेक पर विचार करने के लिये उस सदन से राष्ट्रपति ने सिफारिश न की हो।
- वित्त विधेयक केवल दो मामलों में धन विधेयक के समान हैः- (i) वित्त विधेयक केवल लोकसभा में ही पुरःस्थापित किया जा सकता है। और (ii) राष्ट्रपति की सिफारिश से ही विधेयक को पुरःस्थापित या प्रस्तावित किया जा सकता है।
- उपर्युक्त दो मामलों को छोड़कर वित्त विधेयक के साथ साधारण विधयेक जैसा व्यवहार किया जाता है। अतः संसद के दोनों सदनों से पारित होने के पश्चात् अनुच्छेद-111 के तहत विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे सकता है या अपनी स्वीकृति रोक सकता है या पुनर्विचार के लिये विधेयक को सदन के पास वापस भेज सकता है।
संविधान संशोधन
- संविधान के भाग 20 के अनुच्छेद-368 में संविधान संशोधन के संबंध में उपबंध है।
- संविधान संशोधन विधेयक पुरः स्थापित करने के लिये राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक नहीं है।
- संविधान संशोधन की प्रक्रिया केवल संसद में ही प्रारंभ हो सकती है, राज्य के विधानमंडल को यह शक्ति प्राप्त नहीं है।
- संविधान संशोधन विधेयक मंत्री (सरकारी सदस्य) या गैर-मंत्री (गैर-सरकारी सदस्य) पुरः स्थापित कर सकता है।
- भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया न तो ब्रिटेन के समान लचीली और न अमेरिका के समान कठोर है। यह दोनों का मिश्रण है।
- संविधान संशोधन विधयेक को संसद के सरकारी या गैर-सरकारी सदस्य द्वारा किसी भी सदन (लोकसभा या राज्यसभा) में पुरः स्थापित किया जा सकता है।
- दोनों सदनों के बीच गतिरोध होने पर संविधान के अनुच्छेद-108 के तहत संयुक्त बैठक बुलाने का उपबंध नहीं है।
- विधेयक को संसद के प्रत्येक सदन में अलग-अलग पारित कराना अनिवार्य है, अन्यथा विधेयक समाप्त हो जाएगा।
- दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक जब राष्ट्रपति के पास अनुमति के लिये जाता है तो राष्ट्रपति अनुच्छेद-111 के तहत विधेयक को अपने पास नहीं रख सकता और न विधेयक को पुनर्विचार के लिये वापस लौटा सकता है। अर्थात् विधेयक पर राष्ट्रपति को अनुमति देना अनिवार्य हो जाता है।
- 24वें संविधान संशोधन 1971 से पूर्व राष्ट्रपति विधेयक पर अनुमति देने के बदले यह कह सकते थे कि ‘अनुमति विद्यारित’ करता है। ऐसा होने पर वह अधिनियम नहीं बन पाता था, किन्तु इस संशोधन के द्वारा विधेयक पर अनुमति देने के लिये अनिवार्य कर दिया गया।
संविधान में संशोधन तीन प्रकार से किया जाता हैः
- 1. संसद में साधारण बहुमत द्वारा
- 2. संसद में विशेष बहुमत द्वारा
- 3. संसद में विशेष बहुमत और कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों के अनुसमर्थन से।
संसद में विशेष बहुमत और कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों के अनुसमर्थन द्वारा निम्न विषयों में संशोधन किया जा सकता हैः
- राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि (अनुच्छेद-54, 55)
- राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व (अनुच्छेद-80, 81 चौथी अनुसूची)
- सातवीं अनुसूची की कोई सूची।
- संघ एवं राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनुच्छेद- 73, 162)।
- संघ एवं राज्यों के बीच विधायी शक्ति का वितरण (भाग-11 का अध्याय-1)।
- उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय (अनुच्छेद-241, भाग-5 का अध्याय-4, भाग-6 का अध्याय-5)
- संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति (अनुच्छेद-368)
- संविधान के अनुच्छेद-368(2) में उपबंध है कि संविधान के अनुच्छेद-368 के किसी उपबंध में संशोधन करने के लिये विधेयक को संसद के प्रत्येक सदन के द्वारा अलग-अलग, उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत (50% से अधिक) द्वारा तथा उस सदन में उपस्थित मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो -तिहाई (2/3) बहुमत द्वारा पारित होना अनिवार्य है। इसे ही विशेष बहुमत से पारित होना कहते हैं।
- इस विधेयक को राष्ट्रपति से समक्ष प्रस्तुत करने से पहले कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों का अनुसमर्थन अनिवार्य है, जबकि अमेरिका में तीन चौथाई (3/4) राज्यों के अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है।
- अनुच्छेद-368(3) में उपबंध है कि अनुच्छेद-13 की कोई बात इस अनुच्छेद के अधीन किये गए किसी संशोधन पर लागू नहीं होगी। इसे 24वें संविधान संशोधन, 1971 द्वारा जोड़ा गया।
- संविधान के कुछ उपबंधों में परिवर्तन संविधान का संशोधन नहीं समझा जाता है। संसद संविधान के ऐसे उपबंधों में सादे बहुमत/साधारण बहुमत (साधारण विधायी प्रक्रिया) से परिवर्तन कर सकती है। साधारण बहुमत प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले का बहुमत होता है।
इसके द्वारा संसद संविधान के निम्नलिखित उपबंधों को बदल सकती है-
- नए राज्यों का प्रवेश या गठन।
- नए राज्यों का निर्माण, उसके क्षेत्रों, सीमाओं या संबंधित राज्यों के नामों में परिवर्तन।
- किसी राज्य में विधान परिषद का निर्माण या उसकी समाप्ति।
- अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन (पांचवीं अनुसूची)।
- जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन (छठी अनुसूची)।
- नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति।
- निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निधारण।
- संसद एवं राज्य विधानमंडल के लिये निर्वाचन।
- राष्ट्रपति, राज्यपाल, लोकसभा अध्यक्ष, न्यायाधीश आदि के लिये परिलाब्धियां, भत्ते, विशेषाधिकार आदि (दूसरी अनुसूची)।
- संसद, उसके सदस्यों और उसकी समितियों के विशेषाधिकार।
- उच्चतम न्यायालयों में अवर न्यायाधीशों की संख्या।
- संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्ते।
- केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, 1973 और उसके बाद न्यायालय द्वारा लिये गए विभिन्न निर्णयों से यह निष्कर्ष निकला कि-
- संसद संविधान के अनुच्छेद-368 में विहित प्रक्रिया का अनुसरण कर संविधान के किसी भाग को संशोधित कर सकती है, किन्तु संविधान के आधारभूत ढाँचे/आधारिक लक्षण/मूल ढाँचे में परिवर्तन/संशोधन नहीं कर सकती।
- 24वें संविधान संशोधन 1971 के द्वारा संविधान में अनुच्छेद -368(3) और अनुच्छेद 13(4) जोड़े गए, जिसमें उपबंध किया गया कि संविधान संशोधन संविधान के अनुच्छेद-13 के तहत विधि नहीं है। अर्थात अनुच्छेद-13 की कोई बात अनुच्छेद-368 के अधीन किये गए संविधान के किसी संशोधन पर लागू नहीं होगी।
- 42वें संविधान संशोधन, 1976 के द्वारा अनुच्छेद-368 (4) एवं (5) जोड़े गए। अनुच्छेद 368(4) में उपबंध किया गया है कि संविधान संशोधन अधिनियम की विधिमान्यता को किसी न्यायालय में किसी आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जा सकेगा और अनुच्छेद-368(5) में उपबंध किया गया कि अनुच्छेद-368 के अधीन संविधान के उपबंधों का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन करने के लिये संसद की संविधायी शक्ति पर किसी प्रकार का निर्बंधन नहीं होगा। हालाँकि मिनर्वा मिल्स वाद, 1980 में उपर्युक्त दोनों का खण्डन किया गया और न्यायिक पुनर्विलोकन को संविधान का आधारिक लक्षण माना गया।
- भारत के संविधान में उपबंध है कि कुछ विषयों पर विधान पुरःस्थापित करने के लिये राष्ट्रपति की पूर्व मंज़ूरी या सिफारिश आवश्यक है। इसमें शामिल विषय हैं-
- नए राज्यों का निर्माण या वर्तमान राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन। (अनुच्छेद 3)
- धन विधेयक। [अनुच्छेद-117 (1)]
- व्यापार की स्वतंत्रता पर रोक लगाने वाले राज्य विधेयक। (अनुच्छेद-304)
- कोई विधेयक जो सही अर्थों में धन विधेयक नहीं है,किन्तु जिसमें भारत की संचित निधि में से व्यय करना पड़ेगा। [अनुच्छेद-117 (3)]
- ऐसा कर विधेयक जिसमें राज्यों का हित निहित हो। [अनुच्छेद-274 (1)]
- साधारण विधेयक दोनों सदनों में अलग-अलग उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के बहुमत से पारित किया जाता है। इसके बाद स्वीकृति के लिये राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है। चूँकि राज्यसभा में उपस्थित 120 सदस्यों में से 75 सदस्यों ने विधेयक के पक्ष में मतदान किया है, जबकि बहुमत के लिये मात्र 61 सदस्यों की सहमति आवश्यक थी। अतः विधयेक पारित घोषित किया जाएगा और इसे स्वीकृति के लिये राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाएगा।
- राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद-108 के तहत संसद के दोनों सदनों के बीच गतिरोध की स्थिति में संयुक्त बैठक बुलाता है। राष्ट्रपति निम्न स्थितियों में संयुक्त बैठक बुला सकता है:
- साधारण विधेयक
- वित्त विधेयक (Financial Bill)
- धन विधेयक एवं संविधान संशोधन की स्थिति में संयुक्त बैठक का प्रावधान नहीं है।
संसद का संयुक्त अधिवेशन निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में बुलाया जा सकता है-
- जब एक सदन द्वारा पारित विधेयक दूसरे सदन द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है।
- यदि एक सदन दूसरे सदन द्वारा विधेयक में किये गए संशोधनों को मानने से इनकार कर दे।
- एक सदन द्वारा पारित विधेयक को दूसरे सदन द्वारा बिना पारित किये छः माह (न कि एक वर्ष) से ज़्यादा समय हो जाए।
- संयुक्त बैठक में विधेयक को दोनों सदनों में उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की कुल संख्या के बहुमत द्वारा (न कि 2/3 बहुमत द्वारा पारित) पारित कर दिया जाता है, तो माना जाता है कि विधयेक को दोनों सदनों ने पारित कर दिया है।
- संसद की संयुक्त बैठक का कोरम/गणपूर्ति दोनों सदनों की कुल सदस्य संख्या का 1/10 भाग (न कि 1/6 भाग) होता है।
संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक अभी तक तीन बार बुलाई जा चुकी हैः
- दहेज़ प्रतिषेध विधेयक
- बैंक सेवा आयोग निरसन विधेयक
- आतंकवाद निवारण विधेयक (POTA)
- संयुक्त बैठक की कार्यवाही लोकसभा के प्रक्रिया नियमों के अनुसार संचालित होती है न कि राज्यसभा के नियमों के अनुसार।
- संविधान के अनुच्छेद-108 (5) में उपबंध है कि यदि राष्ट्रपति ने लोकसभा के विघटन से पूर्व संयुक्त बैठक बुलाने की नोटिस जारी कर दी है तो लोकसभा विघटन के पश्चात् भी इस अनुच्छेद के अधीन संयुक्त बैठक होगी, और विधेयक पारित हो सकेगा।
- संविधान के अनुच्छेद-108 के तहत, यदि संसद के दोनों सदनों के बीच गतिरोध उत्पन्न हो जाता है तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाता है और उसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है। यदि लोकसभा अध्यक्ष अनुपस्थित है तो लोकसभा के उपाध्यक्ष के द्वारा और उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में राज्यसभा के उपसभापति के द्वारा और उपसभापति की अनुपस्थिति में संयुक्त बैठक में उपस्थित सदस्यों द्वारा इस बात का निर्णय किया जाता है कि इस संयुक्त बैठक की अध्यक्षता कौन करेगा।
- राज्यसभा के सभापति (उप-राष्ट्रपति) संयुक्त बैठक की अध्यक्षता नहीं करता, क्योंकि वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता है।
- संविधान के अनुच्छेद-112 में ‘वार्षिक वित्तीय विवरण’ शब्द का प्रयोग है न कि ‘बजट’ शब्द का। वार्षिक वित्तीय विवरण को ही साधारण बोलचाल की भाषा में ‘बजट’ कहते हैं।
- वर्ष 1921 में एकवर्थ समिति की सिफारिश पर रेल बजट को आम बजट से अलग किया गया।
- अगस्त 2016 में पुनः रेल बजट को आम बजट में समाहित करने का निर्णय लिया गया और इसके लिये वित्त मंत्रालय ने पाँच सदस्यीय समिति का गठन किया, जिसकी अनुशंसाओं पर वर्ष 2017 में इसे आम बजट में समाहित कर दिया गया।
- वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) में वित्तीय वर्ष के दौरान भारत सरकार की अनुमानित प्राप्तियों और खर्चों का विवरण होता है, जिसकी समय अवधि 1 अप्रैल से 31 मार्च तक की होती है।
- राजस्व विभाग वित्त मंत्रालय के अन्तर्गत आता है, किन्तु संघीय बजट की तैयारी और उसे संसद में पेश करने के लिये वित्त मंत्रालय का ‘आर्थिक कार्य विभाग’ (Department of Economic Affairs) उत्तरदायी है न की राजस्व विभाग।
- संविधान के अनुच्छेद-112 में उपबंध है कि राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में संसद के दोनों सदनों के समक्ष भारत सरकार की उस वर्ष के लिये अनुमानित प्राप्तियों और व्यय का विवरण रखवाएगा, जिसे इस भाग में वार्षिक वित्तीय विवरण कहा गया है।
- संविधान के अनुच्छेद-113 में ‘अनुदान की मांग’ के संबंध में चर्चा की गई है।
- अनुदान की मांग पर चर्चा राज्यसभा में की जाती है, किन्तु अनुदान की मांग पर मतदान करने की शक्ति राज्यसभा को नहीं है।
- लोकसभा में अनुदान की मांग पर चर्चा होती है और उस पर मतदान भी होता है। लोकसभा को यह शक्ति है कि किसी मांग को अनुमति दे या अनुमति देने से इनकार कर दे।
- संविधान के अनुच्छेद-113(3) में उपबंध है कि किसी अनुदान की मांग राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही की जाएगी, अन्यथा नहीं।
- वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) में दिये गए व्यय के अनुमानों में भारत की संचित निधि पर भारित व्यय एवं भारत की संचित निधि से किये जाने वाले अन्य व्ययों की राशि अलग-अलग दिखाई जाती है। भारत की संचित निधि पर अनुमानित अन्य व्ययों को लोकसभा के समक्ष अनुदानों की मांग के रूप में रखा जाता है।
- वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) प्रस्तुत किये जाने के पश्चात् संसद के दोनों सदनों में साधारण चर्चा होती है। इसके पश्चात् भारत की संचित निधि पर भारित व्यय को छोड़कर व्यय के अन्य अनुमान लोकसभा के समक्ष अनुदान की मांग के रूप में रखे जाते हैं।
- भारत की संचित निधि पर भारित व्यय को संसद में मतदान के लिये नहीं रखा जाता है। केवल संसद में इस पर चर्चा होती है। इसलिये संसद को भारित व्ययों (Charged Expenditures) में कोई परिवर्तन करने की शक्ति नहीं है।
- संसद राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना न कोई कर आरोपित कर सकती है और न किसी कर में वृद्धि कर सकती है।
संसद में बजट निम्नलिखित चरणों से गुजरता हैः
- बजट का प्रस्तुतीकरणः इसे दो रूपों में प्रस्तुत किया जाता हैः रेल बजट और आम बजट। रेल बजट, आम बजट से पहले प्रस्तुत किया जाता है। वित्त मंत्री संसद में आम बजट पेश करता है। वर्ष 2017 से रेल बजट को आम बजट में समायोजित कर दिया गया है। अतः अब बजट को एक की रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
- आम बहसः दोनों सदनों में आम बहस होती है।
- विभागीय समिति द्वारा जाँचः बजट पर आम बहस के पश्चात् संसद की स्थायी समिति अनुदान की विस्तार से जाँच करती है और रिपोर्ट तैयार कर दोनों सदनों के समक्ष रखी जाती है। स्थायी समिति की यह व्यवस्था वर्ष 1993 से शुरू की गई। यह व्यवस्था विभिन्न मंत्रालयों पर संसदीय वित्तीय नियंत्रण के उद्देश्य से प्रारंभ की गई थी। वर्ष 2004 में इसका विस्तार किया गया।
- अनुदान की मांगों पर मतदानः अनुदान की मांगों पर मतदान केवल लोकसभा में ही होता है, राज्यसभा को इसकी शक्ति नहीं है। राज्यसभा में केवल चर्चा होती है।
- कटौती प्रस्तावः प्रत्येक मांग पर लोकसभा में अलग से मतदान होता है। इस दौरान संसद सदस्य बहस करते हैं। सदस्य अनुदान मांगों पर कटौती के लिये प्रस्ताव ला सकते हैं।
ये कटौती प्रस्ताव तीन प्रकार के होते हैं-
- नीतिगत कटौती प्रस्ताव
- सांकेतिक कटौती प्रस्ताव
- आर्थिक कटौती प्रस्ताव
- विनियोग विधेयकः संविधान के अनुच्छेद-114 में उपबंध है कि भारत की संचित निधि से बिना विनियोग विधेयक के धन की निकासी नहीं होगी।
- वित्त विधेयक/धन विधेयकः भारत सरकार के उस वर्ष के लिये वित्तीय प्रस्तावों को प्रभावी करने के लिये पुरःस्थापित/पेश किया जाता है।
- लेखानुदान (vote on account): इसे अग्रिम अनुदान भी कहते हैं। संविधान के अनुच्छेद-116 में इसके लिये प्रावधान है। विनियोग विधेयक के लागू होने तक भारत की संचित निधि से धन नहीं निकाल जा सकता है। इसमें काफी समय लगता है और अप्रैल तक चला जाता है, किन्तु 31 मार्च के बाद सरकार को विभिन्न कार्यों के लिये धन की आवश्यकता पड़ती है। अतः लोकसभा विशेष प्रयासों के माध्यम से धन की व्यवस्था करती है। जिसे लेखानुदान कहते हैं। इसे बजट पर आम बहस के उपरान्त या अनुदान की मांगों पर मतदान के उपरान्त पारित किया जाता है। यह कुल बजट का 1/6 भाग के बराबर होता है और इसे न्यूनतम दो माह और अधिकतम छः माह के व्यय हेतु स्वीकृति दी जाती है।
संचित निधि
संविधान के अनुच्छेद-112(3) में भारत की संचित निधि पर भारित व्यय के संबंध में उपबंध है, जो निम्नलिखित हैः-
- राष्ट्रपति की उपलब्धियाँ एवं भत्ते तथा उसके पद से संबंधित अन्य व्यय।
- ऐसे ऋण-भार जिसका दायित्व भारत सरकार पर है, जिसके अन्तर्गत ब्याज, निक्षेप-निधि भार (Sinking fund charges) और मोचन भार (Redemption charges) तथा उधार लेने और ऋण सेवा एवं ऋण मोचन से संबंधित अन्य व्यय।
- किसी न्यायालय या माध्यस्थम् अधिकरण के निर्णय, डिक्री या पंचाट की तुष्टि के लिये अपेक्षित राशियाँ।
- भारत, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को संदेय वेतन, भत्ते और पेंशन।
- राज्यसभा के सभापति (उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति होता है और उपराष्ट्रपति के रूप में उसे वेतन व भत्ते नहीं मिलते हैं।) और उप-सभापति तथा लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के वेतन एवं भत्ते।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को देय वेतन, भत्ते एवं पेंशन।
- फेडरल न्यायालय के न्यायाधीशों को देय पेंशन।
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को देय पेंशन।
- कोई अन्य व्यय जो इस संविधान द्वारा या संसद द्वारा इस प्रकार भारित घोषित किया जाता है।
- भारत की लोक लेखा निधि को कार्यकारी प्रक्रिया द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अर्थात् इस खाते से भुगतान संसदीय प्राधिकार के बिना भी कर सकते हैं।
- भारत की संचित निधि से कोई धन संसद के प्राधिकार के बिना नहीं निकाल सकते। इसके लिये संसद द्वारा विनियोग विधेयक पारित करना पड़ता है।
- भारत की लोक लेखा निधि के भाँति भारत की आकस्मिक निधि को भी कार्यकारी प्रक्रिया से संचालित किया जाता है। अर्थात् इस निधि से भुगतान भी संसद के प्राधिकार के बिना कर सकते हैं। भारत की आकस्मिक निधि की शुरुआत 1960 में हुई। यह राष्ट्रपति के अधिकार में रहती है।
भारत की लोक लेखा निधिः इसके अन्तर्गत भविष्य निधि जमा, न्यायिक जमा, बचत बैंक जमा, विभागीय जमा आदि को शामिल किया जाता है।
भारत की संचित निधि
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित को शामिल किया जाता हैः-
- भारत सरकार द्वारा प्राप्त सभी राजस्व/कर।
- राजकोषीय विधेयकों, ऋणों या अर्थोपाय अग्रिमों को जारी केन्द्र सरकार द्वारा लिये गए सभी ऋण।
- ऋणों की पुर्नादायगी में सरकार द्वारा प्राप्त धनराशि आदि।
भारत की आकस्मिक निधि
- संविधान संसद को भारत की आकस्मिक निधि के गठन की अनुमति देता है। इसकी शुरुआत भारत की आकस्मिक निधि अधिनियम, 1950 से हुई। निधि को राष्ट्रपति की ओर से वित्त सचिव द्वारा रखा जाता है। यह निधि राष्ट्रपति के अधिकार में रहती है। वह किसी अप्रत्याशित व्यय के लिये अग्रिम दे सकता है, जिसे बाद में संसद द्वारा प्राधिकृत करवाया जा सकता है।
- वित्त विधेयक भारत सरकार के उस वर्ष के लिये वित्तीय प्रस्तावों को प्रभावी करने के लिये पुरःस्थापित किया जाता है। इस पर धन विधेयक की शर्तें लागू होती हैं। अर्थात इसे राज्यसभा में पुरःस्थापित नहीं किया जा सकता है। वित्त विधेयक में करों को बढ़ाने या घटाने संबंधी संशोधन पेश किया जा सकता है।
- विनियोग विधेयक की रकम में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने या भारत की संचित निधि पर भारित व्यय की रकम में परिवर्तन करने वाला कोई संशोधन संसद के किसी भी सदन में पुरःस्थापित नहीं किया जा सकता। इस मामले में राष्ट्रपति की सहमति के बाद ही कोई अधिनियम बनाया जा सकता है।
- लेखानुदान (Vote on account): इसे अग्रिम अनुदान भी कहा जाता है। बजट 31 मार्च तक पारित न होने की स्थिति में संसद एक निश्चित अवधि के लिये (न्यूनतम 2 माह और अधिकतम छः माह) बजट का 1/6 भाग अग्रिम अनुदान के रूप में स्वीकृत करती है
- प्रत्ययानुदान (Vote of credit): इसका उपबंध संविधान के अनुच्छेद-116(ख) में किया गया है कि जब किसी सेवा की महत्ता या उसके अनिश्चित रूप के कारण इसे वार्षिक वित्तीय विवरण के साथ वर्णित नहीं किया जा सकता। अर्थात विस्तृत अनुमान के बिना ही स्वीकृत एक मुश्त राशि।
- अपवादानुदान (Exceptional grants): इसका वर्णन संविधान के अनुच्छेद-116(ग) में किया गया है। इसे विशेष उद्देश्य के लिये मंज़ूर किया जाता है और यह वर्तमान वित्तीय वर्ष या सेवा से संबंधित नहीं होता है।
- अनुपूरक अनुदान (Supplementary grants): इसका उपबंध संविधान के अनुच्छेद-115(क) में किया गया है। किसी विशिष्ट सेवा पर चालू वित्त वर्ष के लिये व्यय किये जाने के लिये प्राधिकृत कोई रकम उस वर्ष के उद्देश्य के लिये अपर्याप्त पाई जाती है या उस वर्ष के वार्षिक वित्तीय विवरण में शामिल न की गई हो।
- अधिक अनुदान (Excess grants): किसी वित्तीय वर्ष के दौरान किसी सेवा पर, उस वर्ष और उस सेवा के लिये अनुदान की गई रकम से अधिक कोई धन व्यय हो गया हो। संविधान के अनुच्छेद-115(ख) में इसका उपबंध किया गया है।
- विधान की अवशिष्ट शक्तियों के संबंध में उपबंध संविधान के अनुच्छेद-248 में किया गया है। यदि किसी विषय का उल्लेख संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची में नहीं है तो ऐसे विषय को अवशिष्ट सूची में डालते हैं। इसमें विधि बनाने का अधिकार अन्यन रूप से संसद को है।
- अंतर्राष्ट्रीय करारों/समझौतों को प्रभावी करने के लिये विधान बनाने के संबंध में उपबंध संविधान के अनुच्छेद-253 में किया गया है। संसद को किसी अन्य देश या देशों के साथ की गई किसी संधि, करार या अभिसमय अथवा किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, संगम या अन्य निकाय में किये गए किसी निर्णय के कार्यान्वयन के लिये भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिये विधि बनाने की शक्ति है।
- राज्य सूची के विषय के संबंध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने संबंधी उपबंध संविधान के अनुच्छेद-249 में किया गया है। राज्यसभा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम-से-कम 2/3 सदस्यों द्वारा समर्थित संकल्प द्वारा घोषित करती है कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक या समीचीन है, तो संसद, राज्य सूची में वर्णित विषय पर विधि बनाए, संसद भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकती है। यह विधि एक वर्ष के लिये होती है, किंतु संसद संकल्प पारित कर एक-एक वर्ष के लिये बढ़ा सकती है।