गुलाम वंश सामन्तवर्ग बनाम राजतंत्र
सामन्तवर्ग बनाम राजतंत्र (Nobility Vs. Monarchy):
➽ गुलाम वंश के शासनकाल के दौरान एक और सामंतों और दूसरी ओर राजतंत्र के बीच संघर्ष का विस्तारपूर्वक वर्णन करना वांछनीय प्रतीत होता है। मुहम्मद गौरी ने अपने पीछे किसी लड़के को नहीं छोड़ा जो उसके बाद उत्तराधिकारी बनता। परिणाम यह हुआ कि जिन विभिन्न सेनापतियों ने देश के विभिन्न भागों को जीतने में उसकी सहायता की थी। उनके बीच सत्ता के लिए संघर्ष होने लगा।
➽ ऐबक उन सब में अग्रणी था। निस्संदेह वह उन सब में सर्वाधिक समर्थ था और भारतीय क्षेत्रों का प्रशासन चलाने में मुहम्मद गौरी मुख्य रूप से उसी पर निर्भर करता था। ताजुद्दीन यल्दौज ऐबक का घोर प्रतिद्वन्द्वी था। दूसरे प्रतिद्वन्द्वी थे नासिरुद्दीन कबाचा और बहाउद्दीन तुगरिल । इन सभी ने सर्वोच्च सत्ता के लिए कई बार ऐबक से प्रतिस्पर्द्धा की, परन्तु असफल रहे। तथापि, दिल्ली सल्तनत की नींव रखे जाने के समय से ही तख्त के लिए प्रतिस्पर्धा करने अथवा कम-से-कम तख्तनशीन को काबू करने के लिए सत्ता हथियाने की परम्परा स्थापित हो चुकी थी । इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में यह अधिकाधिक उभरती गई।
➽ ऐबक की मृत्यु के बाद लाहौर के सामंतों ने आराम शाह को अपना सरदार घोषित कर दिया तथापि दिल्ली के सामंतों ने इल्तुतमिश का समर्थन किया। दिल्ली के निकट एक लड़ाई लड़ी गयी, जिसमें आराम शाह मारा गया और इल्तुतमिश गद्दी पर बैठा।
➽ इल्तुतमिश के शासनकाल में यल्दौज कबाचा तथा अली मर्दान खाँ ने विद्रोह कर दिया और बहुत उत्पात किया, परन्तु इल्तुतमिश ने उन सबको पूरी तरह दबा दिया। इल्तुतमिश ने अपनी सल्तनत के प्रमुख सामंतों की एक परिषद् अथवा समिति गठित की ताकि उन्हें राजगद्दी के प्रति वफादारी की भावना से प्रेरित किया जा सके। इसका परिणाम यह हुआ कि जब इल्तुतमिश मरने लगा तो उसने अनुरोध किया कि वे उसकी बेटी रजिया को उसके उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार कर लें। उन्होंने इसे अस्वीकार करने का हौसला नहीं किया हालांकि वे जानते थे कि इसके लिए कोई पूर्वोदाहरण नहीं है।
➽ तथापि, इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद प्रतिद्वन्द्वी दलों ने फिर सिर उठाया। एक ओर लोग रजिया और दूसरी ओर रुक्नुद्दीन का समर्थन करने लगे। रुक्नुद्दीन का समर्थन करने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री मुहम्मद जुनैदी स्वयं था । उसने इल्तुतमिश की अन्तिम इच्छा की अवहेलना करने में कोई संकोच नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि रुक्नुद्दीन को गद्दी पर बिठा दिया गया। दुर्भाग्यवश वह बिल्कुल अयोग्य सिद्ध हुआ और प्रदेशों के शासक तथा स्वयं वजीर जुनैदी भी उसके विरोधी बन गए। उन्होंने इकट्ठे होकर अवध के शासक रियाजुद्दीन, जो रुक्नुद्दीन का छोटा भाई था, की कमान में अपनी संयुक्त सेनाओं के साथ दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। रुक्नुद्दीन की सेना में विद्रोह हो गया और उसके अधिकारियों को कत्ल कर दिया गया। रुक्नुद्दीन को पकड़ लिया गया और सन् 1236 ई. में उसे फाँसी दे दी गई।
➽ रजिया, जिसने दिल्ली के लोगों के समर्थन से विजय प्राप्त की थी, को गद्दी पर बिठाया गया तथापि उसे गद्दी पर बिठाने के लिए प्रांतों के जिन शासकों की सहमति प्राप्त नहीं की गई थी, उन्हें वह स्वीकार्य नहीं थी। शासकों का विचार था कि सुल्तान को चुनने के लिए उनके अधिकार की अवहेलना की गई है। कई महत्त्वाकांक्षी सामन्त भी रजिया के विरोधी थे। परिणाम यह हुआ कि प्रधानमंत्री जुनैदी और कई अन्य प्रमुख सामंतों ने अपनी सेनाओं के साथ दिल्ली पर घेरा डाल लिया। अवध का शासक मलिक तायासी ही एक ऐसा सांमत था जिसने रजिया का पक्ष लिया, पराजित हो गया और मारा गया।
➽ रजिया ने अपने विरोधियों के साथ युद्ध करने का हौसला किया। उसने दो प्रमुख मलिकों अथवा सामंतों को अपनी और करके, अपनी सेनाओं में मतभेद पैदा कर दिया। उसने उन्हें यह आश्वासन दिया कि वजीर और उसके अन्य मित्रों को कैद कर लिया जाएगा। इसके बाद यह रहस्य उन व्यक्तियों को प्रकट कर दिया जिन्हें कैद किया जाता था। नतीजा यह हुआ कि वे भाग खड़े हुए हालांकि शाही सेना ने उनका पीछा किया। वजीर का भाई फखरुद्दीन और उसके दल के कुछ अन्य लोग मारे गए। वजीर ने स्वयं भी उत्तर की पहाड़ियों में शरण ली, जहाँ थोड़ी देर बाद हो गई।
➽ रजिया की विजय से सामंतों में अपमान की भावना पैदा हो गयी और उन्होंने बदला लेने का निश्चय किया। उन्हें विद्रोह करने का अवसर उस समय प्राप्त हुआ जब रजिया ने जमालुद्दीन याकूत, जो एबिसीनिया का निवासी और एक गैर तुर्क था, को अस्तबलों का प्रबंधक नियुक्त किया। सामंतों को संदेह था कि तुर्क सामंतों की बढ़ रही शक्ति के विरुद्ध अपना एक दल खड़ा करने के लिए रजिया की यह एक कोशिश थी। इसके अलावा वे एक गैर-तुर्क को सरकार में इतना ऊँचा पद दिए जाने को भी सहन नहीं कर सकते थे। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने विद्रोह कर
➽ दिया परन्तु इस विद्रोह को दबा दिया गया। रजिया ने मर्दाना लिबास में जनता के सामने आने का निश्चय किया। रजिया के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए सामंतों ने इसे एक बहाना बना लिया। उन्होंने नेतृत्व करने के लिए भटिंडा के शासक अल्तूनिया को भड़काया। याकूत को कत्ल कर दिया गया और रजिया को बंदी बना लिया गया। विद्रोहियों ने बहराम को 1240 ई. में गद्दी पर बिठा दिया।
➽ बहराम को गद्दी पर बिठाते समय सामंतों ने उसके अधिकार पर कई प्रतिबंध लगा दिए। यह तय हुआ कि वजीर मलिक इख्तियारुद्दीन एतिगिन को नाइबे ममलिकत अर्थात् उप बादशाह बनाया जाएगा। यह एक नया पद था जो वजीर के पद से ऊँचा था । यद्यपि बहराम ने गद्दी पर बैठते समय अपने ऊपर लगाए गए सभी प्रतिबंधों को स्वीकार कर लिया था, तथापि वह उनसे बहुत शीघ्र ऊब गया। उसने यह महसूस किया कि वह नाइब तथा वजीर के रूखेपन के साथ निर्वाह नहीं कर सकता। उसने उन्हें कत्ल करने के लिए तर्क दल के दो सदस्यों को गुप्त रूप में भड़काया । नतीजा यह हुआ कि एतिगिन तो मारा गया परन्तु वजीर बच निकला। बादशाह ने नाइबे ममलिकत के पद को भरना नामंजूर कर दिया। बदरुद्दीन, साकर, अमीर हजीब अथवा धर्मानुष्ठान अध्यक्ष ने लगभग सभी शाही अधिकार हथिया कर बहुत नाजायज ढंग से बर्ताव किया। उसने बादशाह को गद्दी से उतारने के लिए वजीर के साथ साजिश भी की। दुर्भाग्यवश वजीर ने साकर को धोखा दिया और बहराम पर इस साजिश का भांडा फोड़ दिया। बहराम शीघ्र ही षड्यंत्रकारियों के सभाघर में पहुँच गया और उसने उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। कुछ समय बाद साकर के बादशाह के खिलाफ एक और दल खड़ा किया परन्तु उसे फाँसी दे दी गयी। इससे तुर्क सामंतों में विद्वेष तथा भय की भावनाएँ पैदा हो गयीं। नतीजा यह हुआ कि सामंत इकट्ठे हो गए और उनकी सहायता की वजीर ने जिसने उलेमा का समर्थन भी प्राप्त कर लिया था। दिल्ली की बहुत देर तक घेराबंदी की गयी और अंत में सामंतों ने इस पर अधिकार कर लिया। बहराम को भी सन् 1242 ई. में कत्ल कर दिया गया। सामंतों ने अलाउद्दीन मसूद को तख्त पर बिठाया। उन्होंने उस पर भी वही प्रतिबंध लगा दिए जो बहराम पर लगाए थे। यह उल्लेख मिलता है कि मलिक किशलू खान सत्ता पर अधिकार करने के लिए इतना आतुर हो गया कि वह स्वयं गद्दी पर ही बैठ गया और उसने अपने को बादशाह घोषित कर दिया। परन्तु उसके अपने दल के लोगों ने ही उसे अस्वीकार कर दिया और इस प्रकार इसका कुछ परिणाम नहीं निकला। मसूद ने अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों में से अपने मंत्री और सलाहकार चुनने का प्रयत्न किया। इस समय बलबन आगे आया। वह उन चालीस गुलामों में से एक था जिन्हें इल्तुतमिश लाया था। उसने चालाकी से वजीर को समाप्त कर दिया। उसके बाद वह निर्विवाद रूप से तुर्क दल का नेता बन गया। इतिहासकार मिनहास के अनुसार वह अपने दल का एक बहुत वरिष्ठ और जोशीला सदस्य था। प्रारंभ में बलबन ने मसूद को अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न किया। इसके साथ ही उसने मसूद को इस आधार पर निकाल बाहर फेंकने का षड्यंत्र रचने का प्रयत्न किया कि उसने बलबन तथा उसकी पार्टी की इच्छानुसार अपने को अस्तित्व हीन मानने से इंकार किया। बलबन ने इल्तुतमिश के छोटे लड़के नसीरुद्दीन महमूद को बरगला कर मसूद को समाप्त करने के लिए तैयार कर लिया और उसे गद्दी पर बिठा दिया। यह सच है कि मसूद लोगों में बहुत लोकप्रिय था परन्तु उसके विरुद्ध षड्यंत्र इतना गुप्त था कि उसे अपने पकड़े जाने और जेल में डाल दिए जाने के समय तक इसका बिल्कुल पता नहीं चला। अंततः नसीरुद्दीन को गद्दी पर बिठा दिया गया।
➽ बलबन तुर्क पार्टी का नेता बन गया और उसने एक-एक करके अपने सभी विरोधियों का सफाया कर दिया। उसने कराकश के स्थान पर अपने को अमीर हाजिब नियुक्त करवा दिया। परिणाम यह हुआ कि बूढ़े वजीर निजामुल मलिक के नेतृत्व वाली पार्टी को भंग कर दिया गया और बलबन पार्टी का निर्विवाद नेता बन गया। ये सब घटनाएँ सन् 1246 ई. में हुई। इसके बाद बलबन ने धीरे-धीरे सल्तनत में सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर ली और जैसा कि बारानी ने वर्णन किया है- "सुल्तान की स्थिति केवल एक प्रतीक अथवा 'नमूने' की रह गयी। " ( The Sultan was reduced to the position of a mere symbol or "Namunah" as described by Barani)|
➽ कुछ समय बाद सामंतों के बीच फूट पैदा हो गयी। ऐसे कई सामंत थे जो बलबन की प्रमुख स्थिति को सहन करने के लिए तैयार नहीं थे। सुल्तान यह महसूस कर रहा था कि उस पर बलबन का नियंत्रण बहुत अधिक है । इमादुद्दीन रैहान ने जो हिन्दुस्तानी पार्टी का नेता था (जिसमें भारतीय सामंत भी शामिल थे), सुल्तान को बलबन के विरुद्ध अपने पूर्ण समर्थन का विश्वास दिलाया। बलबन को बरखास्त करने के लिए सुल्तान को राजी कर लिया गया ताकि वह बलबन को बरखास्त कर दे और उसे अपने निरंकुश वजीर के चंगुल से छुटकारा मिल सके। बलबन को एक दूर स्थान पर भेज दिया गया ताकि वह सुल्तान के लिए खतरा पैदा न करे। रैहान को वजीर नियुक्त किया गया और उसने बलबन के समर्थक सभी लोगों को पार्टी से बरखास्त कर दिया तथा उनके स्थान पर हिन्दुस्तानी मुसलमानों को नियुक्त कर दिया ।
➽ बलबन ने भी बदला लिया। उसने तुर्क सामंतों को यह कह कर समर्थन का प्रयत्न किया कि आपसी मतभेदों के कारण उन्हें अपमान और तिरस्कार सहन करना पड़ा है। उसने अनुरोध किया कि वे अपने मतभेद भुला दें और अपने संयुक्त प्रयत्नों से सत्ता प्राप्त करें। कई सामंतों को बलबन पर संदेह था और उन्होंने उसका साथ देने से इंकार कर दिया । तथापि कुछ ऐसे सामंत थे जिन्हें बलबन ने अपनी ओर मिला लिया और उनकी सहायता से दिल्ली की तरफ कूच कर दिया। उसे उन सेनाओं के मुकाबले में अपनी विजय का विश्वास नहीं था, जिन्हें रैहान ने सुल्तान की रक्षा हेतु गठित किया था। अतः उसने बादशाह के पास एक प्रतिनिधि मंडल भेजने की चाल चली। प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने बादशाह को बताया कि यदि वह केवल रैहान तथा उसके दल के लोगों को बरखास्त कर दे तो बलबन और अन्य सामंत उसका ईमानदारी से समर्थन करेंगे। सुल्तान एक बहुत स्वार्थी व्यक्ति था। वह इस बात को बिल्कुल भूल गया कि यदि बलबन सत्ता में आ गया तो वह उसे अपने हाथों का खिलौना बना लेगा। उसने रैहान के प्रति कोई कृतज्ञता की भावना भी नहीं दिखाई जिसने बलबन के चंगुल से उसे बचाया था। सुल्तान बिना किसी संदेह के इस जाल में फंस गया। रैहान को बरखास्त कर दिया गया और बलबन को उसके पूर्व पद पर बहाल कर दिया गया। पुनः सत्ता प्राप्त करने के बाद बलबन ने अपना पूरा बदला लिया। उसने रैहान तथा उसके दल के लोगों को समाप्त करवा दिया। सुल्तान की माँ को भी मरवा दिया गया। सामंतों के अधिकार तथा शक्ति को नष्ट करने के लिए बलबन ने कई और उपाय किए।
➽ उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि इस अवधि के दौरान सामंत बहुत बलवान थे। कोई भी शासक उनकी अपेक्षा नहीं कर सकता था। उत्तराधिकार के लिए तुर्कों का कोई निश्चय और सर्वमान्य कानून नहीं था और इससे तख्त के पीछे वास्तविक शक्ति पर कब्जा करने के लिए महत्त्वाकांक्षी सामंतों को महत्त्वाकांक्षा पूरी करने के लिए षड्यंत्र करने का काफी अवसर मिल जाता था। कुछ विशेष मामलों में सामंत बादशाह बन बैठे। अतः एक तरफ सामंतों तथा दूसरी तरफ राजतंत्र के बीच प्रभुता के लिए संघर्ष अवश्यंभावी था ।