गुलाम वंश का शासक कैकुबाद , दास वंश का अंत
कैकुबाद (1287-90) (Kaiqubad):
अपनी मृत्यु से पूर्व बलबन ने अपने पौत्र कायखुसरो ( राजकुमार मुहम्मद के पुत्र) को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था, किन्तु दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन ने उसके नामनिर्देशन को ठुकरा दिया और बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को गद्दी पर बिठा दिया। इस नए सुल्तान ने मुइजुद्दीन कैकुबाद की उपाधि ग्रहण की।
जब वह सुल्तान बना उस समय उसकी आयु केवल 19 वर्ष की थी। बलबन ने उसके जीवन पर कड़ा प्रतिबंध लगा रखा था। इसका नतीजा यह हुआ कि जब वह सुल्तान बन गया तो उसने अपनी पुरानी क्षति की पूर्ति के लिए मदिरा व स्त्रियों का खूब आनंद लेना शुरू किया। सुल्तान द्वारा स्थापित उदाहरण का अन्य दरबारियों ने अनुकरण किया। फलतः शासन प्रबंध की ओर सुल्तान पूर्णतया उदासीन हो गया। दिल्ली के सुल्तान फखरुद्दीन के दामाद निजामुद्दीन ने सारी शक्ति अपने हाथों में कर ली और सुल्तान उसके हाथों का एक खिलौना बन गया ।
मंगोल (The Mongols):
कैकुबाद के शासन काल में मंगोलों ने चढ़ाई कर दी। गजनी का तामर खाँ उनका सरदार था। उन्होंने समाना तक लूटमार की परन्तु बलबन द्वारा स्थापित सुरक्षा के उपाय अब भी काफी दृढ़ थे और इसलिए पराजित होने के बाद मंगोलों को वापस भागना पड़ा। उनके आक्रमण से भारी हानि अवश्य हुई। मंगोलों को पराजित करने में मलिक बकबक ने मुख्य कार्य सम्पन्न किया।
बुगरा खाँ का दिल्ली में प्रवेश (Bughra Khan in Delhi ) :
यह बताया जाता है कि कैकुबाद का पिता बुगरा खाँ एक बड़ी सेना के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा। उसका उद्देश्य अपने पुत्र का सिंहासन छीनना था। एक अन्य विचार यह है कि उसका उद्देश्य केवल अपने पुत्र को यह राय देना था कि वह आनंद व विलास के जीवन को छोड़कर शासन कार्य में एक सुल्तान की भांति ध्यान दे। 1288 ई. में बुगरा खाँ अयोध्या में घाघरा के तट तक आ पहुँचा। लगभग उतनी ही विशाल सेना के साथ कैकुबाद ने भी अपने पिता के विरुद्ध संग्राम के लिए प्रस्थान किया। रणक्षेत्र में संग्राम होने के जगह पिता व पुत्र के बीच एक समझौता हो गया। बुगरा खाँ दिल्ली के सुल्तान के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने पर सहमत हो गया और उसने वस्तुतः ऐसा ही किया। परन्तु सम्मान की रस्म के पूरे होने के साथ ही कैकुबाद आर्त्त होकर अपने पिता के पैरों पर गिर पड़ा और उसे सिंहासन पर शोभायमान किया। कुछ दिनों तक अपने पुत्र के साथ रहने के बाद बुगरा खाँ बंगाल वापस चला गया और विदा लेने से पहले उसने अपने को पुत्र भोग-विलास का जीवन त्यागने व शासन की ओर ध्यान देने का परामर्श दिया। कुछ समय तक कैकुबाद ने अपने पिता के परामर्श का पालन किया किन्तु उसके बाद वह फिर एक विलासप्रिय जीवन का शिकार बन गया।
निजामुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् जलालुद्दीन फिरोज को बुलन्दशहर की महत्त्वपूर्ण जागीर दी गई और उसे सुल्तान की सेना का नायक भी नियुक्त किया गया। सारे तुर्की सरदारों ने इस नई नियुक्ति का विरोध किया क्योंकि उनके विचार में जलालुद्दीन एक तुर्की नहीं था। कैकुबाद पर फालिज गिर गई। तुर्की सरदारों ने अवसर से लाभ उठाकर कैकुवाद के पुत्र को सिंहासन पर आरु कर दिया। इस नये सुल्तान को शम्मसुद्दीन कायूमार्स की उपाधि दी गई। जलालुद्दीन को उलट फेंकने के लिए एक प्रयास किया गया, किन्तु उस समय वह परिस्थिति से परिचित था। उसने दिल्ली पर अधिकार करके कैकुबाद की हत्या कर दी। वह उस अवयस्क सुलतान का संरक्षक बन गया, किन्तु कुछ समय बाद उस अवयस्क सुल्तान की हत्या हो जाने के बाद मार्च 1290 ई. में जलालुद्दीन फीरोज सिंहासनारूढ़ हुआ । इस प्रकार लगभग 84 वर्षों के लंबे शासन के बाद उस वंश का अंत हुआ जिसे दास वंश के नाम से पुकारा जाता है।
सर वुल्जले हेग के विचार में, दास सुल्तानों का शासन, यद्यपि असहनशीलता व असंतुष्ट लोगों के प्रति घोर अत्याचार से बदनाम हो गया, तथापि वह उतना ही न्यायसंगत व मानवीय था जितना इंग्लैण्ड में नारमन शासकों का ; और स्पेन व नीदरलैंड्स में फिलिप द्वितीय के शासन से कहीं अधिक सहनशील था ।