गयासुद्दीन बलबन Gayas-ud-Din Balban
गयासुद्दीन बलबन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी
प्रारम्भिक जीवन:
➽ बलबन दास वंश में सबसे बड़ा सुल्तान था। उसका वास्तविक नाम बहाउद्दीन था। वह एक इलबारी तुर्क था। छोटी आयु में उसे मंगोलों ने पकड़ लिया था और गजनी में उसे एक विद्वान व धार्मिक मनुष्य बसरा निवासी ख्वाजा जमालुद्दीन के हाथों बेच दिया गया। 1232 ई. में ख्वाजा उसे अन्य दासों के साथ दिल्ली लाया जहाँ इल्तुतमिश ने उसे खरीद लिया। बलबन इल्तुतमिश के उन तुर्की दासों में से एक था जिन्हें चालीस (चहेलगन ) कहते थे। अपने प्रयत्नों से वह रजिया सुल्ताना के समय में अमीर-ए-शिकार (लॉर्ड ऑफ दि हंट) हो गया। उसने रजिया के विरुद्ध षड्यंत्र में तुर्की सरदारों की सहायता की। बहराम शाह ने पंजाब में उसे रेवाड़ी की जागीर समर्पित की। उसे हाँसी का जिला भी दिया गया। 1246 ई. में उसने मंगोलों को उच्छ का घेरा उठाने पर विवश किया। दिल्ली के सिंहासन से मसूद शाह को उलट फेंकने व उसका स्थान नासिरुद्दीन को देने में भी उसने योगदान दिया। उसके छोटे भाई किशलू खाँ को अमीर-ए-हाजिब या 'लॉर्ड चेम्बरलेन' नियुक्त किया गया। उसके चचेरे भाई शेर खाँ को लाहौर व भटिंडा का प्रांताध्यक्ष नियुक्त कर दिया। 1249 ई. में बलबन को 'नाइब-ए-मुमलिकत' नियुक्त किया गया। उसी वर्ष उसने अपनी पुत्री का सुल्तान नासिरुद्दीन के साथ विवाह कर दिया। इस प्रकार शासन की सारी शक्ति बलबन के हाथों में केन्द्रित हो गई।
➽ 1253 ई. में कुछ समय के लिए बलबन की शक्ति का ह्रास हो गया। बहुत से ऐसे तुर्की सरदार थे जो बलबन से घृणा करते थे क्योंकि उसने शासन सत्ता पर अपना एकाधिकार जमा लिया था। बलबन के समस्त विरोधियों का नेतृत्व इमादुद्दीन रैहान ने किया। सुल्तान भी उन्हीं की ओर झुका। इसका फल यह हुआ कि 1253 ई. में बलबन व उसके भाई का निष्कासन कर दिया गया। रैहान प्रधानमंत्री बन गया। इसी रैहान को एक गद्दार हिन्दू, सहसा ऊँचे पद पर पहुँचने वाला, अपहरणकर्ता व षड्यंत्रकारी बताया गया है। सत्य यह है कि वह ऐसे प्रकार का जीव नहीं था। वह इतना अच्छा मुस्लिम था जितना कोई तुर्क हो सकता है। वह न एक बर्बर था न एक दुष्ट । वह केवल एक चतुर शासक था जिसने सरदारों के विरुद्ध असंतोष से लाभ उठाया और सुल्तान की सहायता से शक्ति का अपहरण करने में सफल हुआ। वह काफी समय तक सत्ताधारी न रह सका। तुर्की सरदारों ने एक बार फिर बलबन का साथ दिया और 1254 ई. में रैहान का निष्कासन हो जाने पर बलबन को नाइब के पद पर पुनः नियुक्त कर दिया गया।
➽ पुनः पदारूढ़ हो जाने के बाद बलबन ने अपने हाथों में सत्ता केन्द्रित करने वाली नीति जारी रखी। बंगाल के प्रांताध्यक्ष तुगन खाँ ने दिल्ली की सत्ता को मानने से इंकार कर दिया था और उसने अवध तक पर चढ़ाई कर दी, किन्तु जब उड़ीसा में जाजनगर के राजा ने उसे पराजित किया तो उसने बलबन से सहायता की याचना की। बलबन ने तैमूर खाँ को इस आदेश के साथ भेजा कि वह बंगाल पर भी अधिकार कर ले और उसने सफलतापूर्वक यह कार्य पूरा किया । तुगन खाँ को क्षतिपूर्ति का लाभ तो मिला, परन्तु शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई। बंगाल बलबन के लिए एक बार फिर परेशानी का कारण बन गया। तुगन खाँ के एक उत्तराधिकारी ने शाही उपाधि ग्रहण की, अपने नाम के सिक्के खुदवाये और लगभग 1255 ई. में अपने नाम का खुतबा भी पढ़वाया। 1257 ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर दिल्ली का शासन बंगाल पर पुनः स्थापित हो गया। जब लखनौती पर कड़ा के प्रांताध्यक्ष अरसलन खाँ ने अधिकार कर लिया और बंगाल का प्रबंध एक स्वतंत्र शासक के समान करना शुरू कर दिया तो एक बार फिर परेशानी उठ खड़ी हुई। नासिरुद्दीन के समय के अंत तक यही स्थिति चलती रही ।
➽ बलबन ने दोआब के हिन्दुओं को कुचलने का प्रयत्न किया। एक घोर संग्राम में बहुत से हिन्दुओं का हत्याकांड हुआ और उनकी स्त्रियों व बच्चों को दास होना पड़ा। अपनी पुरानी क्रूरता के बल पर बलबन ने मेवात के लोगों को भी दंड दिया। कई अभियानों के बाद रणथम्बौर पर विजय कर ली गई। 1247 ई. में बलबन ने कालिंजर के चन्देल सरदार के विद्रोह का दमन किया। 1251 ई. में उसने ग्वालियर के राजा के विरुद्ध एक अभियान का नेतृत्व किया।
बलबन सुल्तान के रूप में (Balban as King):
➽ जब 1266 ई. में नासिरुद्दीन महमूद का देहावसान हो गया, तो बलबन स्वयं सुल्तान बन गया। अपने सिंहासनारोहण के समय बलबन को बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता के कारण राज्य के विषय अव्यवस्थता में पड़ चुके थे। राजसी कोष व्यवहृत रूप से रिक्त हो चुका था। राज्य की मर्यादा गिर चुकी थी। तुर्की सरदारों की उद्दंडता में वृद्धि हो चुकी थी। बरनी के शब्दों में, “शासन सत्ता का आतंक, जो समस्त अच्छे शासन का आधार है और जो राज्य के वैभव व ऐश्वर्य का स्रोत है, सब मनुष्यों के हृदयों से निकल चुका था और देश नीच दशा में गिर चुका था । " दिल्ली सल्तनत पर मंगोलों के छापे भी होने लगे थे। ऐसे संकट का सामना करने के लिए बलबन ने अपने को अन्य प्रत्येक सुल्तान से अधिक योग्य सिद्ध किया।
दोआब (The Doab):
➽ एक दृढ़ व कुशल सेना संगठित करने के बाद उसने दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों में व्यवस्था सुधारने का प्रयत्न किया। मेवाड़ के राजपूतों व डाकुओं के अन्य गिरोहों द्वारा अपहरणात्मक कार्यों के कारण जीवन, सम्पत्ति व व्यवसाय अरक्षित हो चुका था । सुल्तान के अधिकारियों के लिए भूमिकर एकत्र करना एक कठिन कार्य बन चुका था। अपने सिंहासनारोहण के थोड़े ही समय बाद बलबन ने दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों को डाकुओं व विद्रोहियों से साफ कर दिया। उनके साथ बड़ी कठोरता का व्यवहार किया गया। उनको बड़ी निर्दयता के साथ खदेड़ दिया गया। जंगलों की सफाई कर दी गई। दोआब व अवध में विद्रोहियों का दमन करने में उसने स्वयं भाग लिया। भोजपुर, पटियाली कम्पली व जलाली में सेना की चौकियाँ बनाई गईं और उनमें भयानक अफगान सेनाओं को रखा गया। कटेहर (रुहेलखंड ) में बलबन ने अपनी सेनाओं को गाँवों पर आक्रमण करने का आदेश दिया। वहाँ के लोगों के मकानों में आग लगा गई और वहाँ की समस्त प्रौढ़ जनता को मार देने का आदेश दिया गया। वहाँ की स्त्रियों और बच्चों को दास बना लिया गया। प्रत्येक गाँव व जंगल में लाशों के ढेर लग गए। इससे आतंक इतना बढ़ा था कि बहुत समय बाद तक कटेहर के लोगों ने अपना सिर उठाने का साहस न किया।
बंगाल (Bengal):
➽ बंगाल की तुगरिल खाँ बलबन का सहायक था। वह एक चुस्त साहसी व उदार स्वभाव वाला तुर्क था और उसका शासन प्रबंध अत्यन्त कुशल था । बलबन की वृद्धावस्था व मंगोलों के आक्रमणों ने उसे अपनी स्वतंत्रता घोषित करने की प्रेरणा दी। जब बलबन ने तुगरिल खाँ के आक्रमण का समाचार सुना तो वह गड़बड़ में पड़ गया। उसने अलप्तगीन (जिसकी उपाधि अमीर खाँ थी) के नेतृत्व में एक बड़ी सेना बंगाल के लिए रवाना की । इस संग्राम में अमीर खाँ हार गया और उसकी सेना भी तुगरिल खाँ से जा मिली। इस पर बलबन को इतना रोष आया कि उसने अमीर खाँ का वध करके उसके शरीर को दिल्ली के द्वार पर लटका देने का आदेश दिया। 1280 ई. में मलिक तरगी के नेतृत्व में एक दूसरी सेना बंगाल के लिए रवाना की गई। उसका यह अभियान भी निष्फल रहा। बलबन ने अब अपनी सारी शक्ति व ध्यान तुगरिल को पराजित करने में लगाया और स्वयं बंगाल जाने का निश्चय किया। उसके साथ उसका पुत्र बुगरा खाँ भी था। जब तुगरिल खाँ को बलबन के आगमन का समाचार मिला, वह लखनौती छोड़कर जाजनगर के जंगलों में भाग गया। बलबन तुगरिल खाँ व उसके साथियों की खोज में पूर्वी बंगाल की ओर बढ़ा और उसके एक साथी शेर अन्दाज ने उन सबका पता लगा लिया। मलिक मुकद्दर ने एक तीर के निशाने से पेड़ पर छिपे तुगरिल खाँ को नीचे गिरा दिया। उसका सिर काटकर उसका शरीर नदी में फेंक दिया गया। उसके सम्बन्धियों और बहुत से सैनिकों को कैद कर लिया गया। तुगरिल खाँ के सहयोगियों व साथियों को बलबन ने बहुत कड़ा दण्ड दिया। बरनी के शब्दों में, “लखनौती के मुख्य बाजार के दोनों ओर दो मील से अधिक लम्बी सड़क पर, सूलियों की एक पंक्ति बनाई गई और तुगरिल के साथियों को उन पर चढ़ा दिया गया। किसी भी देखने वाले ने ऐसा भयानक दृश्य कभी नहीं देखा था, बहुत से लोग तो घृणा व भय के कारण मूच्छित हो गए। " सुल्तान ने बुगरा खाँ को बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया। बंगाल छोड़ने से पूर्व बलबन ने अपने पुत्र से ये शब्द कहे, “मुझे समझ लो और यह न भूलना कि यदि हिन्द या सिन्ध, मालवा या गुजरात, लखनौती या सोनार गाँव के राज्यपाल ने तलवार खींची और दिल्ली के सिंहासन के विरुद्ध विद्रोह किया तो यही दण्ड मिलेगा जो तुगरिल व उसके साथियों, उनकी स्त्रियों व बच्चों और उनके सारे सहयोगियों को मिला है। " 1339 ई. तक बुगरा खाँ व उसके उत्तराधिकारी बंगाल पर शासन करते रहे।
मंगोल (The Mongols) :
➽ बलबन के शासन काल में मंगोलों का भय बहुत बढ़ गया। उनके छापे अधिक तेजी के साथ बार-बार होने लगे। बलबन ने सीमाओं पर उनका सामना करने के लिए अपने को सदा तैयार रखा। उसने दिल्ली से बहुत दूर तक जाने का कभी विचार नहीं किया। वह सुरक्षा के विषय में नकारात्मक नीति से असंतुष्ट था और इसलिए उसने खोखरों व अन्य जातियों, जो निरन्तर रूप से दिल्ली सल्तनत के सीमांत भागों पर लूटमार करती रहती थीं का दमन करने व कुचलने में एक अभियानात्मक नीति का अनुसरण किया। उसका विचार उन प्रदेशों को दिल्ली सल्तनत के अधीन लाना था जिससे वह आक्रमणकारियों को उन जातियों के प्रदेश से होकर सुरक्षित मार्ग प्राप्त करने के लाभ से वंचित कर सके। बलबन ने साल्ट रेंज पर अभियान का नेतृत्व किया और खोखरों को दण्डित किया। यह स्मरण रखने योग्य है कि बलबन उस क्षेत्र पर स्थायी अधिकार रखने में असफल रहा। वह खोखरों से मित्रता रखने में भी असफल रहा।
➽ पश्चिमी सीमाओं की सुरक्षा के लिए बलबन ने दूसरी नीति ग्रहण की। उसने पूर्ण तैयारी के साथ आक्रमणकारियों के मार्ग में पड़ने वाले दुर्गा की मरम्मत कराई और वहाँ पूर्ण रूप से सेना का प्रबंध किया गया। जहाँ आवश्यक समझा गया वहाँ नए दुर्ग व पहरे वाली चौकियाँ बनाई गई। उसने मार्गों पर कड़ी चौकसी रखी। उसने अभियानों के नायकों की नियुक्ति की और ये पद ऐसे योग्य व अनुभवी सैनिक सरदारों को दिए गए जैसे शेर खाँ सनकार आदि । शेर खाँ उस समय का अत्यन्त सुप्रसिद्ध सैनिक योद्धा था। वह भटिंडा, भटनेर, सुनाम व समाना का प्रांताध्यक्ष रह चुका था। सीमाओं पर उसकी उपस्थिति सुरक्षा की गारंटी थी। मंगोल व खोखर दोनों ही उससे डरते थे। दुर्भाग्यवश, बलबन उससे डाह रखने लगा और उसने विष द्वारा उसकी हत्या करा दी।
➽ शेर खाँ की मृत्यु का परिणाम यह हुआ कि 1272 ई. में मंगोलों, खोखरों व अन्य जातियों ने एक बार फिर चढ़ाइयाँ शुरू कर दीं। बलबन ने तैमूर खाँ को सुनाम व समाना का प्रबंधक नियुक्त किया। अन्य इक्ताओं व दुर्गों का प्रबंध अन्य अमीरों व सरदारों को सौंपा गया। ये प्रबंध सफल सिद्ध न हो सके। ऐसी परिस्थितियों के कारण बलबन ने अपने पुत्र मुहम्मद को दक्षिणी सीमाओं का प्रबंधक नियुक्त किया। मुहम्मद ने मुल्तान को अपना मुख्य केन्द्र बनाया। 1279 व 1285 ई. में मंगोलों ने पुनः आक्रमण किए। ये आक्रमण इतने बड़े थे कि सुल्तान को अपनी सारी शक्ति और सारे साधनों का प्रयोग करना पड़ा। मंगोलों को पराजय के साथ भागना पड़ा। 1256 ई. में मंगोल पुनः प्रकट हुए और इस समय राजकुमार मुहम्मद की हत्या हो गई। कवि अमीर खुसरो को भी पकड़ लिया गया। यह सच है। कि बलबन ने लाहौर पर पुनः अधिकार कर लिया, किन्तु उसकी शक्ति उससे अधिक न बढ़ सकी। रावी नदी से आगे का सारा क्षेत्र मंगोलों के नियंत्रण में ही रहा।
गयासुद्दीन बलबन की मृत्यु (His Death) :
➽ यह उल्लेखनीय है कि अपने पुत्र मुहम्मद की 1286 ई. में मंगोलों द्वारा हत्या के बाद काफी समय तक बलबन जीवित न रह सका। उस पर इतनी गहरी चोट पड़ी कि वह उससे अपने को फिर बचा न सका । जब बलवन ने अपना अन्त निकट पाया, तो उसने अपने पुत्र बुगरा खाँ को अपने साथ रहने के लिए बंगाल से बुलाया, परन्तु वह अपने पिता के कठोर स्वभाव से इतना डर गया कि शीघ्र ही वह बंगाल भाग गया। इसका फल यह हुआ कि बलबन ने मुहम्मद के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और कुछ ही समय बाद 1286 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
गयासुद्दीन बलबन प्रसाशनिक व्यवस्था
'चालीसियों' का संहार (Destruction of 'The Forty'):
➽ 'चालीसियों' के संहार का उत्तरदायित्व बलवन पर ही है। वह यह अच्छी तरह जानता था कि वे उसे सुल्तान की शक्तियों का स्वेच्छापूर्वक प्रयोग कभी नहीं करने देंगे। वह यह भी जानता था कि उन्होंने सुल्तान की समस्त शक्तियों का अपहरण करके उसे केवल नामधारी शासक बना छोड़ा है। बलबन ने छोटे तुर्कों को अधिक महत्त्वपूर्ण पद देने शुरू किए और उन्हें 'चालीसियों' के समान बनाने का प्रयत्न किया। जब कभी चालीसियों का कोई सदस्य कोई गलती करता तो उसको कठोर दण्ड दिया जाता। यह कहा जाता है कि जब बदायूँ के प्रांताध्यक्ष मलिक बकबक ने अपने नौकर की मार-पीटकर हत्या कर दी, तो बलबन ने आदेश दिया कि बकबक को सार्वजनिक रूप से सजा दी जाए। हैबत खाँ अवध का प्रांताध्यक्ष था, उसने मंदिरा के नशे में आकर एक मनुष्य की हत्या कर दी। बलबन ने उसे 500 कोड़ों द्वारा पीटे जाने का आदेश दिया और उसका शरीर उस मृतक की विधवा की दया पर छोड़ दिया। हैबत खाँ को उस विधवा के लिए 2000 टंके देने पड़े और उस समय से अपनी मृत्यु तक के समय तक उसने अपना मकान कभी न छोड़ा। बलबन ने अवध के प्रांताध्यक्ष अमीन खाँ को अयोध्या नगर के द्वार पर लटकवा दिया। शेर खाँ सनकार को विष दे दिया गया क्योंकि वह उसकी शक्ति से ईर्ष्या रखता था। इस प्रकार बलबन 'चालीसियों' का संहार करने में सफल हुआ। जो सरदार मृत्यु या निष्कासन से बच गए. वे आतंक के कारण दब गए।
जासूस व्यवस्था (Spy System):
➽ बलबन ने एक अत्यन्त कुशल जासूस व्यवस्था का संगठन किया। प्रत्येक विभाग में गुप्त समाचारदाता रखे गए। प्रत्येक प्रांत व प्रत्येक जिले में गुप्त समाचार लिखने वालों की नियुक्ति की गई। समाचारदाताओं को अच्छा वेतन प्रदान किया गया, उन्हें नायकों व प्रांताध्यक्षों के नियंत्रणों से मुक्त रखा गया और ऐसी व्यवस्था की गयी कि वे प्रत्येक व्यक्ति की निश्चिन्त होकर सूचना दे सकें। अपने कर्त्तव्य का उचित पालन न कर सकने में उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था। ऐसा कहा जाता है कि बदायूँ के समाचार प्रेषक ने मलिक बकबक के व्यवहार के विषय में कोई सूचना न भेजी जिसके फलस्वरूप उसे नगर के द्वार पर लटका दिया गया। इसी जासूस व्यवस्था की मदद से बलबन अपनी शक्ति को सुदृढ़ बनाने में सफल हुआ।
अनुदानों का उन्मूलन (Cancellation of Grants ):
➽ अपनी सेना का पुनर्गठन करके बलबन ने उसे एक कुशल यंत्र बना दिया। इल्तुतमिश के काल में सैनिक सेवा के उपलक्ष्य में कुछ भूमियों का अनुदान दिया गया। अनुदान पाने वाले उन भूमियों का आनंद लेते रहे हालांकि उनमें से कुछ की मृत्यु हो चुकी थी और कुछ वृद्ध हो चुके थे। उनके उत्तराधिकारियों ने उन भूमियों पर अपनी सम्पत्ति की भांति अधिकार कर रखा था और आरिज (Muster- master) के अभिलेखों में उन्होंने अपने नाम लिखवा लिये थे। रणक्षेत्र कार्य से बचना उनका सामान्य स्वभाव बन चुका था । बलबन ने पुराने अनुदानों को फिर से शुरू करा दिया परन्तु उनके धारकों की अवस्था के अनुकूल कुछ वृत्तियों का प्रबंध किया। इससे बहुत असंतोष फैल गया और अन्ततः बलबन ने उन भूमियों के पुनर्वितरण का आदेश ही काट दिया। इसके फलस्वरूप यह दोष चलता ही रहा ।
➽ बलबन ने इमाद उल-मुल्क को सेना का प्रबंधक बनाया। उसे सुरक्षा मंत्री या दीवान-ए-आरिज का पद प्राप्त हुआ। उसने सेना की भर्ती, वेतन व वस्तुओं के विषयों का प्रबंध सम्भालने में बहुत रुचि दिखाई। वह एक अत्यन्त कुशल अधिकारी सिद्ध हुआ। इसके अतिरिक्त उसे धन के वजीर के नियंत्रण से मुक्त रखा गया। इसका परिणाम यह हुआ कि सेना में कठोर अनुशासन आ गया, जिससे उसका संचालन और भी अधिक कुशल हो गया।
राजपद का सिद्धांत (Conception of Kingship) :
➽ राजपद के विषय में बलबन का विचार भी दैवी सिद्धांत के समान था। उसने राजपद के चारों ओर उत्तमता का तेज उत्पन्न कर दिया। उसने 'जिल्ली इल्लाह' या 'ईश्वर का प्रतिबिंब' की उपाधि ग्रहण की। यद्यपि बगदाद के खलीफा की मृत्यु हो चुकी थी फिर भी वह अपने सिक्कों पर मृतक खलीफा का नाम खुदवाता रहा। यह इसलिए था कि उसके विचार में इसी प्रकार सम्मान प्राप्त किया जा सकता था और वह इसी डर के कारण अपनी राजसी उपाधि को मुसलमानों के धार्मिक विश्वासों के अनुकूल रखना चाहता था। बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खाँ के समक्ष राजपद के विषय में अपने विचारों की इस प्रकार व्याख्या की- “राजा का हृदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और इस सम्बन्ध में मानव जाति में कोई भी उसके समान नहीं। "
➽ बलबन निरंकुश शासन में विश्वास करता था। उसका यह विश्वास था कि केवल एक निरंकुश शासक ही अपनी प्रजा का आज्ञापालन प्राप्त कर सकता है और वही राज्य में सुरक्षा की गारंटी कर सकता है। वह अपना वंश एक पौराणिक तुर्की नायक, तूरान के अफरासियाब से सम्बन्धित मानता था और इसीलिए वह अपने को सदा जनता से अलग रखता था। अपने सिंहासनारोहण के बाद ही उसने मदिरापान व हास्य-संगीत का त्याग कर दिया। उसने सुल्तान के लिए अपना सामान्य सम्मान प्रदर्शित करने के विषय में अपने दरबार में सिजदा (लेट कर नमस्कार करना) व पायबोस (पाँव का चुम्बन लेना) की प्रथा का प्रचलन किया। अपने दरबार का सम्मान बढ़ाने में उसने नौरोज प्रथा प्रचलित की। इन समस्त साधनों से बलबन ने सुल्तान की मर्यादा पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया।
गयासुद्दीन बलबन का मूल्यांकन (Estimate):
➽ लेनपूल महोदय के विचार में, “बलबन जो एक दास, आखेटकर्ता सेनानी, राजनीतिज्ञ व सुल्तान रहा, दिल्ली के सुल्तानों की लम्बी श्रेणी में अत्यधिक ख्याति प्राप्त मनुष्यों में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है। " डा. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, “महान योद्धा, शासक एवं नीति-निपुण बलबन, जिसने घोर संकटमय स्थिति में पड़े हुए अल्पवयस्क मुस्लिम राज्य को सुरक्षित रखा और नष्ट होने से बचाया, इसलिए मध्यकालीन भारतीय इतिहास में सदैव उच्च स्थान पाता रहेगा। उसने अलाउद्दीन के सफल शासन की भूमिका बना दी: यदि उसने भारत में संघर्षरत मुस्लिम शक्ति को दृढ़ एवं सुरक्षित न बना दिया होता तो अलाउद्दीन मंगोलों के आक्रमण का सफल प्रतिरोध करने तथा सुदूरवर्ती प्रदेशों को विजय करने में कभी सफल न होता जिनके कारण उसको मुसलमानों के इतिहास में ऐसा गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।"
➽ बरनी के कथानानुसार, "सुल्तान गयासुद्दीन बलबन शासन के विषय में एक अनुभवी व्यक्ति था। एक मलिक होते हुए भी वह खान हो गया और फिर सुल्तान बन गया। पहले और दूसरे वर्षों ही में उसने महान प्रतिभा प्राप्त कर ली और अपने वैभव व अपनी मर्यादा का बड़ा प्रदर्शन किया। उसके प्रबंध का ऐश्वर्य देखने के लिए सौ व दो सौ मील से हिन्दू व मुसलमान आते थे और देखने के बाद आश्चर्य में पड़ जाते थे। दिल्ली में उससे पहले किसी भी सुल्तान ने ऐसे वैभव व ऐश्वर्य का प्रदर्शन नहीं किया। अपने 22 वर्षों के शासन में उसने अपने सिंहासन की मर्यादा, सम्मान व वैभव को ऐसा रूप प्रदान किया कि फिर कोई भी उससे ऊपर न जा सका। उसके कुछ सेवकों ने जो उसकी निजी तौर से सेवा करते थे, मुझे इस बात का विश्वास दिलाया कि उन्होंने अपने स्वामी को सदा पूरे वस्त्र धारण किए पाया। लगभग उन 40 वर्षों से भी अधिक के समय में जिसमें वह एक शासक व सुल्तान रहा, उसने नीची जाति या निम्न व्यवसाय के किसी भी व्यक्ति से बात नहीं की और अपने मित्रों व अपरिचितों से कभी भी इस प्रकार की परिचितता नहीं बरती जिससे सुल्तान की मर्यादा में कमी आती। उसने कभी किसी के साथ हास्य नहीं किया; उसने कभी किसी को अपनी उपस्थिति में हास्य करने की आज्ञा नहीं दी। वह कभी जोर से नहीं हँसा और न उसने अपने दरबार में किसी को हँसने दिया। जब तक वह जीवित रहा, किसी भी मनुष्य ने यह साहस नहीं किया कि किसी सेवा के लिए किसी नीची जाति या वर्ग के व्यक्ति की सिफारिश करे। अपने न्याय प्रबंध में वह कठोर था और अपने भाइयों, बच्चों, सहयोगियों व सेवकों तक के साथ कोई छूट नहीं बरतता था और यदि उनमें कोई भी अन्याय का काम करता, तो वह पीड़ित व्यक्ति की क्षतिपूर्ति करने व उसको आराम देने में नहीं चूकता था। उसके दासों, सेवकों, अश्वारोहियों व नायकों की ओर कठोर बनने में कोई भी साहस नहीं कर सकता था । " यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि बलबन एक कठोर एवं निष्ठुर शासक था। अपने लक्ष्य की प्राप्ति में वह अपने साधनों की परवाह नहीं करता था। वह उन सबके प्रति अत्यन्त निर्दयी था जो किसी प्रकार से उसकी सत्ता को चुनौती देते या ऐसा प्रयत्न करते। दयालुता व क्षमा उसके स्वभाव से परे थे। वह अपने मस्तिष्क में केवल यही संतोष रखता था कि उसने इतने समय तक अपनी सत्ता के बल पर शासन कार्य किया और उसकी सत्ता को कोई चुनौती न दे सका। अपने निजी जीवन में बलबन करुण प्रिय व दयालु स्वभाव का था। उसके पुत्र राजकुमार मुहम्मद की हत्या ने व्यावहारिक रूप में उसकी हत्या कर दी। उसने मध्य एशिया में आने वाले सहस्रों शरणार्थियों को आश्रय दिया। मृतक संस्कार देखते समय उसकी आँखों से आँसू निकलते थे।
➽ बलबन एक महान विद्या प्रेमी भी था। उसने मध्य एशिया से आने वाले बहुत से ज्ञानियों का स्वागत किया। उनके निवास के लिए वृत्तियों व मकानों का प्रबंध किया गया। अमीर खुसरो, जो फारसी का महान कवि था, उसी के समय में चमका और उसके पुत्र राजकुमार मुहम्मद के दरबार में रहा। इसी भांति अमीर हसन को राजकुमार मुहम्मद का आश्रय प्राप्त हुआ।
➽ भारत के मुस्लिम इतिहास में बलबन को एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसने दिल्ली सल्तनत की मर्यादा ऊँची की और लोगों में शान्ति सद्भावना स्थापित की।