मूल अधिकार से संबन्धित अनुच्छेद एवं महत्वपूर्ण जानकारी
भारतीय संविधान के पाँच मूल अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त हैं। ये मूल अधिकार, विदेशी नागरिकों को नहीं दिये गए हैं, जो निम्नलिखित हैं:
- अनुच्छेद-15: धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।
- अनुच्छेद-16: लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।
- अनुच्छेद-19: विचार एवं अभिव्यक्ति, शान्तिपूर्ण सम्मेलन, निर्बाध विचरण, निवास एवं संघ बनाने की स्वतंत्रता।
- अनुच्छेद-29: अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण।
- अनुच्छेद-30: शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार।
- अनुच्छेद-21: प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण भारतीय एवं विदेशी दोनों नागरिकों को प्राप्त है।
- भारतीय संविधान के भाग-2 (अनुच्छेद 5-11) में नागरिकता संबंधी प्रावधान किया गया। इसमें नागरिकता संबंधी कानून बनाने की शक्ति केवल संसद को दी गई है।
- अमेरिका में केवल जन्मजात नागरिक ही राष्ट्रपति बन सकता है, परन्तु भारत में जन्मजात या प्राकृतिक रूप से नागरिकता प्राप्त व्यक्ति भी राष्ट्रपति बनने की योग्यता रखता है।
- भारत एवं ब्रिटेन में एकल नागरिकता, जबकि अमेरिका एवं स्विट्ज़रलैंड में दोहरी नागरिकता संबंधी प्रावधान है।
- भारत में नागरिकता के संबंध में एक संवैधानिक प्रावधान है, जिसकी चर्चा अनुच्छेद-5 से 11 तक की गई है इसमें नागरिकता की प्राप्ति, समाप्ति एवं संसद द्वारा विधि बनाने संबंधी प्रावधान शामिल हैं एवं दूसरी संसद द्वारा नागरिकता अधिनियम, 1955 पारित किया गया है।
- अनुच्छेद-5 में प्रावधान किया गया है कि संविधान के प्रारंभ होने पर जिस व्यक्ति का अधिवास (domicile) भारत के राज्य क्षेत्र में है एवं कुछ शर्तों का पालन करता है अर्थात् वह व्यक्ति जो भारत का मूल निवासी हो।
- अनुच्छेद-6 में उस व्यक्ति की चर्चा है, जिसका पाकिस्तान से भारत में प्रव्रजन/स्थानांतरण हुआ है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है;
- (a) जो 19 जुलाई, 1948 से पहले भारत आए थे।
- (a) जो 19 जुलाई, 1948 को या उसके बाद भारत आए है ।
- अनुच्छेद-7 में उस व्यक्ति की चर्चा की गई है, जो भारत से पाकिस्तान स्थानान्तरण/प्रव्रजन कर गए थे, परन्तु बाद में भारत लौट आए।
- अनुच्छेद-8 में उस व्यक्ति के संबंध में चर्चा की गई है, जो भारतीय मूल/उद्भव के हैं, परंतु वह भारत के बाहर रहते हैं।
- अनुच्छेद-9 में प्रावधान किया गया है कि कोई भारतीय नागरिक स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता अर्जित कर लेता है, तो वह व्यक्ति अनुच्छेद-5, 6 या 8 के आधार पर भारत का नागरिक नहीं समझा जाएगा।
- अनुच्छेद-10 संसद को नागरिकता संबंधी विधि बनाने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद-11 में प्रावधान किया गया है कि नागरिकता के अर्जन या समाप्ति या नागरिकता संबंधी अन्य विषयों के संबंध में संसद की शक्ति कम नहीं होगी।
- जन्म के द्वारा - जिस व्यक्ति का जन्म 26 जनवरी, 1950 को या उसके बाद, परन्तु 1 जुलाई, 1947 से पूर्व भारत में हुआ हो।
- वंश के आधार पर - जिस व्यक्ति का जन्म 26 जनवरी, 1950 को या उसके बाद, परन्तु 10 दिसम्बर, 1992 से पूर्व भारत के बाहर हुआ हो।
- देशीयकरण के आधार पर - संविधान की 8वीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं में से किसी एक का अच्छा ज्ञाता हो।
- पंजीकरण के द्वारा - भारतीय मूल का व्यक्ति जो नागरिकता प्राप्ति के लिये आवेदन देने से ठीक पहले 7 वर्ष तक भारत में रह चुका हो।
- भारतीय मूल के व्यक्तियों को दोहरी नागरिकता प्रदान करने के लिये सितम्बर 2000 में एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया इस समिति द्वारा जनवरी 2002 में अपनी रिपोर्ट सौपी गई एवं नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2003 में 16 निर्दिष्ट देशों में (पाकिस्तान एवं बांग्लादेश को छोड़कर) भारतीय मूल के व्यक्तियों के लिये विदेशी भारतीय नागरिकता का प्रावधान किया गया।
- नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2005 में सभी देशों में (पाकिस्तान एवं बांग्लादेश को छोड़कर) भारतीय मूल के व्यक्तियों के लिये विदेशी भारतीय नागरिकता का प्रावधान किया गया।
- मूल अधिकार वाद-योग्य हैं, जबकि राज्य के नीति निदेशक तत्त्व अवाद-योग्य हैं।
- मूल अधिकार न्याय-योग्य/न्यायोचित हैं, क्योंकि इनके उल्लंघन पर व्यक्ति उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जा सकता है।
- संसद, संविधान के अनुच्छेद-368 के तहत मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है,परंतु साधारण विधि से नहीं।
- मूल अधिकार के उल्लंघन पर कोई व्यक्ति सीधे उच्चतम न्यायालय में जा सकता है, परंतु यह उच्चतम न्यायालय के मूल (Original) क्षेत्राधिकार के अंतर्गत नहीं आता है। उच्चतम न्यायालय के मूल (Original) क्षेत्राधिकार को अनन्य क्षेत्राधिकार भी कहते हैं।
- मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं। राज्य इन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है।
- आपातकाल के समय मूल अधिकार को निलंबित किया जा सकता है, अनुच्छेद-20 एवं 21 को छोड़कर।
- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद-19(1) (क) में वर्णित है। यह मूल अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है।
- धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद-15 में वर्णित है। यह अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है।
- प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण संविधान के अनुच्छेद-21 में वर्णित है। यह मूल अधिकार भारतीय नागरिकों एवं विदेशियों दोनों को प्राप्त है।
- नेहरू रिपोर्ट, 1928 में मूल अधिकारों को संविधान में शामिल करने का समर्थन किया गया था।
- भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद-12 से 35 तक मूल अधिकारों की चर्चा की गई है। अनुच्छेद-12 में राज्य की विस्तृत परिभाषा दी गई है।
- मूल अधिकार राज्य के कार्यों के विरुद्ध गारंटी प्रदान करते हैं। मूल अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्ति राज्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकता है।
- भारत में मूल अधिकार अमेरिका में ‘बिल ऑफ राइट्स’ के समान है।
- आपातकालीन स्थिति में अनुच्छेद-20 एवं 21 को छोड़कर अतिरिक्त मूल अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 13 में यह प्रावधान किया गया है कि संसद या राज्य के विधानमंडलों द्वारा ऐसी कोई विधि/कानून नहीं बनाई जाएगी, जो भाग-3 में प्रदत्त मूल अधिकारों को छीनता या न्यून करता हो। यदि कोई विधि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो उस सीमा तक विधि शून्य/अवैध होगी।
- भारत में केवल उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को मूल अधिकारों को प्रवर्तन करने की शक्ति प्राप्त है। वे संविधान के अनुच्छेद-32 एवं 226 के तहत रिट निकाल सकते हैं।
- संविधान के अनुच्छेद-14 में कहा गया है कि राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
- विधि के समक्ष समता ब्रिटेन के संविधान से लिया गया है। यह एक नकारात्मक अधिकार है, जबकि विधियों का समान संरक्षण अमेरिका के संविधान से लिया गया है। यह एक सकारात्मक अधिकार है।
- अनुच्छेद 15(3) स्त्रियों एवं बच्चों के लिये विशेष प्रावधान की व्यवस्था करता है।
- 85वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2001 के द्वारा पदोन्नति में आरक्षण के साथ पारिमाणिक ज्येष्ठता (Consequential Seniority) जोड़ा गया और इसे भूतलक्षी प्रभाव (retrospective effect) से लागू किया गया।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15 में विभेद का प्रतिषेध के अंतर्गत पाँच आधारों को शामिल किया गया है:
- 1. धर्म
- 2. मूलवंश
- 3. जाति
- 4. लिंग
- 5. जन्मस्थान
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-16 में राज्य के नियोजन या पद से संबंधित विभेद नहीं दिये जाने संबंधी सात आधार हैं:
- 1. धर्म
- 2. मूलवंश
- 3. जाति
- 4. लिंग
- 5. उद्भव (descent)
- 6. जन्मस्थान (place of birth)
- 7. निवास (residence)
- पिछड़े वर्गों में क्रीमीलेयर की पहचान के लिये रामनंदन समिति का गठन किया गया, जिसने वर्ष 1993 में अपनी रिपोर्ट पेश की जिसे स्वीकार कर लिया गया।
- जिनके पास एक छूट सीमा से अधिक की संपत्ति है, वे क्रीमीलेयर के अंतर्गत आएंगे। छूट की सीमा का निर्धारण राज्य करतें हैं।
- लोक नियोजन (निवास संबंधी शर्त) अधिनियम, 1957 भारतीय संविधान के अनुच्छेद-16 (2) का अपवाद है।
- प्रस्तावना में प्रयुक्त समाजवादी शब्द एवं अनुच्छेद-14, 16 एवं 39(d) ने एक साथ मिलकर समान कार्य के लिये समान वेतन को मौलिक अधिकार बनाने हेतु भारतीय सर्वोच्च न्यायालय को आधार मिलता है।
- अस्पृश्यता का अंत’ भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 17 (समता का अधिकार) में वर्णित है तथा इस संबध में केवल संसद ही संविधान के अनुच्छेद-35 के तहत विधि बना सकती है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-18 के अंतर्गत ‘उपाधियों का अंत’ (समता के अधिकार) संबंधी प्रावधान किया गया है।
- वर्ष 1954 में भारत सरकार ने चार अलंकार देने की व्यवस्था शुरू की, ये अलंकार हैं: भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण एवं पद्मश्री। न्यायालय के अनुसार ये पुरस्कार/उपाधियाँ नहीं हैं। वर्ष 1977 में जनता दल की सरकार ने इन पुरस्कारों पर प्रतिबंध लगा दिया था। पुनः 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार ने इसे लागू कर दिया।
- विदेश यात्रा करने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 एवं शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद-21(क) में प्रावधान किये गए हैं
2. शान्तिपूर्वक एवं निरायुद्ध सम्मेलन का अधिकार।
3. संगम या संघ या सहकारी समिति बनाने का अधिकार।
4. भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण (घूमने) का अधिकार।
5. भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने एवं बस जाने का अधिकार।
6. कोई वृत्ति (Profession), उपजीविका (Occupation), व्यापार (Trade) या कारोबार (Business) करने का अधिकार।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19(i) (क) के अन्तर्गत प्रदर्शन एवं विरोध करने का अधिकार तो अंतर्निहित है, परन्तु हड़ताल करने का अधिकार अंतर्निहित नहीं है।
- सहकारी समिति बनाने का अधिकार अनुच्छेद-19(i) (ग) में मूल रूप से नहीं था, जिसे बाद में 97वाँ संविधान संशोधन 2011 के द्वारा जोड़ दिया गया।
- प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद-21) में विधि की सम्यक प्रक्रिया के सिद्धान्त को अपनाया गया है। मेनिका गाँधी बनाम भारत संघ, 1978 में न्यायालय ने निर्णय दिया कि उचित एवं न्यायपूर्ण आधार पर ही इससे वंचित किया जा सकता है। यह मूल अधिकार सभी व्यक्तियों (नागरिकों एवं विदेशियों) को प्राप्त है।
- केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के आधार पर ही किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है। अनुच्छेद-20 एवं 21 दो ऐसे मूल अधिकार हैं, जिन्हें आपातकाल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।
- शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद-21(क) के साथ जोड़ा गया है।
- शिक्षा के अधिकार में 6-14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है न कि 8-14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के लिये।
- 86वें संविधान संशोधन 2002 के द्वारा इसे मौलिक अधिकार घोषित किया गया न कि 93वें संविधान संशोधन के द्वारा।
- शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम 1 अप्रैल 2010 से प्रभावी हुआ है. 6-14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिये शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 संसद द्वारा पारित किया गया है। शिक्षा का अधिकार एक मानव अधिकार भी है।
- माता-पिता या संरक्षक 6-14 वर्ष की आयु वर्ग के अपने बच्चे को शिक्षा के अवसर प्रदान करेगा। 86वें संविधान संशोधन के द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद-51(क) (मूल कर्त्तव्य में) में 11वें मूल कर्त्तव्य के रूप में जोड़ा गया है।
- संसद द्वारा निवारक निरोध अधिनियम के तहत आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA), 2002 पारित किया, परन्तु 2004 में इसे समाप्त कर दिया गया।
- संविधान के अनुच्छेद-22 के तहत गिरफ्तार किये गए किसी व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा, जिसमें यात्रा में लगे आवश्यक समय को शामिल नहीं किया जाता है।
- निवारक निरोध विषय संबंधी विधेयक संसद एवं राज्य के विधानमंडल दोनों बना सकते हैं, परन्तु दोनों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है।
- निवारक निरोध विधेयक के तहत गिरफ्तार किये गए किसी व्यक्ति को अधिकतम तीन माह हिरासत में रखा जा सकता है। इससे अधिक के लिये ‘सलाहकार बोर्ड’ का निर्णय आवश्यक है। सलाहकार बोर्ड में एक अध्यक्ष एवं दो सदस्य होंगे। अध्यक्ष उच्च न्यायालय का सेवारत न्यायाधीश होगा एवं सदस्य उच्च न्यायालय के सेवारत या सेवानिवृत न्यायाधीश होंगे।
- खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश एवं गोविन्द बनाम मध्य प्रदेश मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि अनुच्छेद-19(i) (घ) (भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का अधिकार) को अनुच्छेद-21 (जीवन का अधिकार) से मिलाकर पढ़ने पर एकांतता/निजता का अधिकार (Right of privacy) प्राप्त होता है।
- इण्डियन एक्सप्रेस बनाम भारत संघ मामले में न्यायमूर्ति वेंकटचेलैया ने स्वीकार किया था कि विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता [अनुच्छेद-19(i) (क)] में सूचना प्राप्ति का अधिकार शामिल है।
- सूचना अधिकार अधिनियम-2005 के अन्तर्गत कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक का यह विधिक अधिकार है कि वह सार्वजनिक संस्थानों से आवश्यक सूचना मांग सके।
- मानव दुर्व्यापार एवं बलात्श्रम की चर्चा भारतीय संविधान के अनुच्छेद-23 के अंतर्गत की गई है
- शोषण के विरुद्ध अधिकार एक मूल अधिकार है, जिसकी चर्चा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23-24 में की गई है।
- - बंधुआ मज़दूरी व्यवस्था (निरसन) अधिनियम, 1976
- - न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948
- - ठेका श्रमिक अधिनियम, 1970
- - समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976
- अनुच्छेद- 24 में कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध किया गया है, जबकि अनुच्छेद-23 में मानव दुर्व्यापार एवं बलात्श्रम का निषेध है।
- बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 पारित किया गया। इसके द्वारा बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 में संशोधन किया गया। इस संशोधन द्वारा इसका नाम बदलकर बाल एवं किशोर श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 कर दिया गया है।
- इसमें प्रावधान किया गया है कि 14 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों का सभी व्यवसायों एवं प्रक्रियाओं में रोज़गार निषेध है। इसके पहले यह निषेध 18 व्यवसायों एवं 65 प्रक्रियाओं पर लागू था।
- 14-18 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों को खतरनाक व्यवसायों एवं प्रक्रियाओं में रोज़गार निषेध का प्रावधान किया गया है।
- इसका उल्लंघन करने पर 6 माह से 2 वर्ष तक की कैद अथवा 20,000 से 50,000 तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है। अपराध दोहराने पर कैद की अवधि 1-3 वर्ष की हो सकती है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25 के अन्तर्गत प्रयुक्त ‘हिन्दू’ शब्द के अन्तर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म को शामिल किया गया है। इसके अन्तर्गत पारसी को शामिल नहीं किया गया है।
- संविधान के अनुच्छेद-25 में कहा गया है कि लोक व्यवस्था, सदाचार एवं स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने एवं प्रचार करने का समान अधिकार होगा। मानववाद इसमें शामिल नहीं है।
- धार्मिक संस्थाओं की स्थापना एवं पोषण।
- अपने धर्म विषय कार्यों का प्रबंधन।
- जंगम एवं स्थावर सम्पत्ति का अर्जन एवं स्वामित्व।
- ऐसी सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद-27 प्रावधान करता है कि किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय करने के लिये करों के संदाय (Payment of taxes) हेतु बाध्य नहीं किया जाएगा।
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार का वर्णन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-28 तक किया गया है।
- अनुच्छेद-25 के अन्तर्गत धर्म प्रचार करने, सिक्खों को कृपाण धारण करने एवं रखने एवं राज्यों को समाज-सुधारक विधि निर्माण का अधिकार शामिल है। यह अनुच्छेद किसी भी धार्मिक निकाय को लोगों का धर्म परिवर्तन कराने का अधिकार नहीं देता है।
- मूलवंश जाति धर्म भाषा इसमें लिंग शामिल नहीं है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-30 में भाषायी एवं धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों की चर्चा की गई है, हालांकि अल्पसंख्यक शब्द को संविधान में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है।
- राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता प्राप्त शिक्षा संस्था में किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति भाषा या उनमें से किसी एक के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।- अनुच्छेद 29(2)
- राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान निवास या उनमें से किसी एक के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा।-अनुच्छेद 16(2)
- राज्य, सार्वजिनक उद्देश्य के लिए अनिवार्य सेवा आरोपित करते समय केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी एक के आधार पर विभेद नहीं करेगा।- अनुच्छेद 23(2)
- राज्य, किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।- अनुच्छेद 15(1)
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद-29 अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण संबंधी प्रावधान करता है। अनुच्छेद 29(1) में प्रावधान है कि इसे अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा।
- अनुच्छेद-30 अल्पसंख्यक-वर्गों को शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं प्रशासन करने का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद-30(i) में प्रावधान है कि धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं प्रशासन का अधिकार होगा।
- अनुच्छेद 30(2) में प्रावधान है कि राज्य शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में कोई विभेद नहीं करेगा।
- अनुच्छेद-33 संसद को यह अधिकार देता है कि वह सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों आदि के मूल अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकेगा।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29-30 तक संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार दिये गए हैं। यह अधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त हैं, गैर-नागरिकों को नहीं। यह अनुच्छेद अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण करता है।
- अनुच्छेद-35 के अधीन केवल संसद विधि बना सकता है। राज्य के विधानमंडलों को यह अधिकार प्राप्त नहीं है।
- अनुच्छेद-33 के अन्तर्गत संसद द्वारा बनाए गए अधिनियम को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। यह अनुच्छेद मूल अधिकारों का अपवाद है।
- अनुच्छेद-34 के अन्तर्गत संसद द्वारा बनाए गए क्षतिपूर्ति अधिनियम को किसी न्यायालय में केवल इस अवसर पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह किसी मूल अधिकारों का उल्लंघन है।
- अनुच्छेद-32 के अन्तर्गत निर्मित संसदीय विधि कोर्ट मार्शल को उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के रिट क्षेत्राधिकार से अपवर्जित करती है।
- उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद-32 एवं उच्च न्यायालय अनुच्छेद-226 के द्वारा रिट निकालते हैं।
- प्रस्तावना/उद्देशिका को भारतीय संविधान की आत्मा/हृदय कहा जाता है।
- डॉ. अम्बेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार को संविधान का हृदय/आत्मा कहा है। उसके अनुसार ‘‘एक अनुच्छेद जिसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह संविधान की आत्मा एवं हृदय है।’’
- उच्चतम न्यायालय की तुलना में उच्च न्यायालयों की रिट निकालने की शक्ति अधिक व्यापक है।
- उच्चतम न्यायालय केवल पाँच प्रकार के रिट निकाल सकते हैं, जबकि उच्च न्यायालय इन पाँच के अतिरिक्त अन्य रिट भी निकाल सकते हैं।
- संसद को यह शक्ति है कि वह विधि बनाकर किसी न्यायालय को रिट निकालने की शक्ति प्रदान कर सकती है, परन्तु संसद ने अभी तक ऐसी कोई विधि नहीं बनाई है।
- मूल अधिकार भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का अनन्य/मूल क्षेत्राधिकार नहीं है, परन्तु कोई व्यक्ति इसका उल्लंघन होने पर सीधे उच्चतम न्यायालय में जा सकता है।
- 44वें संविधान संशोधन, 1978 के द्वारा सम्पत्ति का अधिकार को मौलिक अधिकार से बाहर कर दिया गया।
- सम्पत्ति का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है; जिसकी चर्चा संविधान के अनुच्छेद-300(क) में की गई है। 44वें संविधान संशोधन, 1978 के द्वारा इसे एक वैधानिक अधिकार बना दिया गया।
- 44वें संविधान संशोधन, 1978 द्वारा मूल अधिकारों में से अनुच्छेद-19(i) (च), जिसमें प्रावधान किया गया था कि प्रत्येक नागरिक को सम्पत्ति को अधिग्रहण करने, उसे रखने एवं निपटाने का अधिकार होगा एवं अनुच्छेद-31 में सम्पत्ति का अधिकार था, हटा दिया गया है।
- 44वें संविधान संशोधन द्वारा भाग-XII में एक नया अध्याय-IV जोड़ा गया है। अतः संविधान के भाग-XIII के स्थान पर भाग-XII होगा।
- 44वें संविधान संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को अनुच्छेद-300(क) से संबद्ध किया गया एवं इसे एक वैधानिक अधिकार बना दिया गया है।
- 44वां संविधान संशोधन जनता पार्टी की सरकार द्वारा किया गया।
- 44वें संविधान संशोधन के बाद मूल अधिकारों की संख्या 7 से घटकर 6 हो गई है।
- अनुच्छेद 31(क) न्यायकि समीक्षा के अन्तर्गत आता है।
- आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु, 2007 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि 9वीं अनुसूची में सम्मिलित विधियों को न्यायिक समीक्षा से उन्मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है। इस निर्णय में कहा गया कि 24 अप्रैल 1973 के बाद 9वीं अनुसूची में सम्मिलित विधियों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।
- 24 अप्रैल, 1973 में ही उच्चतम न्यायालय ने पहली बार केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, 1973 मामले में संविधान के मौलिक ढ़ाँचे के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया।
- अनुच्छेद-31(ख) को पहले संविधान संशोधन अधिनियम 1951 के द्वारा संविधान में जोड़ा गया। 4थे, 17वें, 39वें, 42वें, 44वें, 66वें, 75वें एवं 78वें संशोधन द्वारा इसका विस्तार किया गया। इस अनुच्छेद को भूतलक्षी प्रभाव दिया गया।
- इस अनुच्छेद के साथ 9वीं अनुसूची जोड़ी गई और इसमें सम्मिलित सभी विधियों को सभी मूल अधिकारों से उन्मुक्ति प्रदान की गई।
- मूल रूप से (1951 में) नौवीं अनुसूची में 13 अधिनियमों एवं विनियमों को रखा गया था, परन्तु वर्तमान में (वर्ष 2016 तक) इसकी संख्या 282 हो गई है।
- 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा सरकार ने भाग-4 में वर्णित सभी निदेशक सिद्धांतों को मूल अधिकारों पर वरीयता दे दी गई, किन्तु मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, 1980 मामले में न्यायालय ने 42वें संविधान संशोधन अधिनियम को असंवैधानिक एवं अवैध माना, किन्तु केशवानन्द भारती मामले में दिये गए न्यायिक निर्णय को संवैधानिक एवं वैध माना।
- भारतीय संविधान के अन्तर्गत मूल अधिकारों का संरक्षक न्यायालय को बनाया गया है। अनुच्छेद-32 सर्वोच्च न्यायालय को केवल मूल अधिकारों के संबंध में रिट निकालने की शक्ति प्रदान करता है। अतः सर्वोच्च न्यायालय को मूल अधिकारों का संरक्षक एवं गारन्टर बनाया गया है।
- उच्च न्यायालय अनुच्छेद-226 के तहत मूल अधिकारों के साथ-साथ अन्य अधिकारों के लिये रिट निकाल सकता है।