राज्य के नीति-निदेशक सिद्धन्तों की सम्पूर्ण जानकारी
- भारत के संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद-36-51 तक राज्य के नीति-निदेशक सिद्धन्तों का उल्लेख किया गया है।
- अनुच्छेद-36 में कहा गया है राज्य का वही अर्थ है, जो संविधान के भाग-3 में है।
- अनुच्छेद-37 में कहा गया है कि यह सिद्धान्त न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है, फिर भी देश के शासन में मूलभूत/आधारभूत है और विधि बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।
- अनुच्छेद-38(1) में प्रावधान किया गया है कि राज्य लोककल्याण की अभिवृद्धि के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय द्वारा सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करेगी।
- अनुच्छेद-38(2) को 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 के द्वारा जोड़ा गया, जिसमें प्रावधान किया गया है कि राज्य आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा तथा प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।
- समान न्याय एवं निःशुल्क विधि सहायता का प्रावधान अनुच्छेद-39(क) में है, जिसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा जोड़ा गया है।
- उद्योगों के प्रबंधन में कर्मकारों की भागीदारी का प्रावधान अनुच्छेद-43(क) में किया गया है, जिसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा जोड़ा गया है।
- सहकारी समितियों का उन्नयन का प्रावधान अनुच्छेद-43(ख) में किया गया है, जिसे 97वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2011 के द्वारा जोड़ा गया है।
- पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्द्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा संबंधी प्रावधान अनुच्छेद-48(क) में किया गया है, जिसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा जोड़ा गया है।
- काम की न्याय संगत और मानवोचित दशाओं तथा प्रसूति सहायता उपलब्ध करना -अनुच्छेद-42
- कुछ दशाओं में काम पाने, शिक्षा पाने और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता आदि की दशाओं में लोक सहायता पाने का अधिकार -अनुच्छेद-41
- लोक स्वास्थ्य का सुधार करना तथा मादक पेयों तथा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक औषधियों के उपभोग का प्रतिषेध -अनुच्छेद-47
- प्रारंभिक शैशवावस्था की देखरेख और सभी बालकों को छःवर्ष की आयु तक शिक्षा -अनुच्छेद-45
- एतिहासिक अभिरुचि तथा राष्ट्रीय महत्त्व के सभी संस्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण- अनुच्छेद-49
- अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा संबंधी प्रावधानः अनुच्छेद-51
- कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथकरण संबंधी प्रावधान : अनुच्छेद-50
- देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्द्धन संबंधी प्रावधानः अनुच्छेद-48(क)
- पोषाहार और जीवन स्तर को ऊँचा करने संबंधी प्रावधान : अनुच्छेद-47
- अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के लिये शिक्षा और अर्थ संबंधी प्रावधान : अनुच्छेद-46
- संविधान के अनुच्छेद-49 में प्रावधान है कि संसद द्वारा बनाई गई विधि या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्त्व वाले घोषित किये गए कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले प्रत्येक संस्मारक या स्थान या वस्तु का संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी।
- अनुच्छेद-46 में प्रावधान है कि अनूसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के लिये शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि तथा सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से राज्य संरक्षा करेगा।
राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है:
1. समाजवादी सिद्धान्त
2. गाँधीवादी सिद्धान्त
3. उदार बौद्धिक सिद्धान्त
गाँधीवादी सिद्धान्तः इसके अन्तर्गत नीति-निदेशक सिद्धान्तों के निम्नलिखित अनुच्छेदों को शामिल किया जा सकता है;
- अनुच्छेद-40: ग्राम पंचायतों को संगठित करना।
- अनुच्छेद-43: ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना।
- अनुच्छेद-43(ख): सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त संचालन, लोकतांत्रिक नियंत्रण आदि।
- अनुच्छेद-46: अनुसूचित जातियों/जनजातियों एवं अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि।
- अनुच्छेद-47: स्वास्थ्य के लिये नुकसानदायक नशीली दवाओं, मदिरा एवं उद्देश्य से भिन्न औषधियों पर प्रतिबंध।
- अुनच्छेद-48: गाय, बछड़ा तथा अन्य दुधारू पशुओं की बली पर रोक और उसकी नस्लों में सुधार को प्रोत्साहन।
- सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद-32 एवं उच्च न्यायालय अनुच्छेद-226 के द्वारा यह रिट निकाल सकता है।
- उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद-32 के तहत केवल मूल अधिकारों के उल्लंघन पर यह रिट निकाल सकता है, जबकि उच्च न्यायालय मूल अधिकारों के अतिरिक्त अन्य मामले में बन्दी बनाए गए व्यक्ति के लिये भी जारी कर सकता है।
- इस रिट को व्यक्ति की स्वतंत्रता का महानतम रक्षक माना जाता है, क्योंकि यह रिट बन्दीकरण अधिकारी को एक निश्चित समय सीमा (24 घंटे के अन्दर) के अन्दर बन्दी व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का आदेश देती है।
- प्रत्यक्ष बन्दीकरण अधिनियम के अन्तर्गत एक व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए 3 माह के लिये बन्दी बनाया जा सकता है। 3 माह से अधिक के लिये सलाहकार बोर्ड की राय आवश्यक है।
- बन्दी प्रत्यक्षीकरण लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘को प्रस्तुत किया जाए’।
- उत्प्रेषण (Certiorari): इसे किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक निकाय को तब जारी किया जाता है, जब अधीनस्थ न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर निर्णय दे दिया है।
- प्रतिषेध (Prohibition): किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक निकाय को तब जारी किया जाता है, जब अधीनस्थ न्यायायल/न्यायिक निकाय ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर मामले को अपने पास रखा हुआ है, किन्तु अभी अन्तिम निर्णय नहीं दिया है।
- परमादेश (Mandamus): न्यायालय द्वारा यह रिट सार्वजनिक अधिकारियों को जारी किया जाता है, यदि कोई अधिकारी अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करता है।
- अधिकारपृच्छा (Qua warranto): न्यायालय द्वारा यह रिट उस व्यक्ति के विरुद्ध जारी की जाती है, जिसने अवैध रूप से सार्वजनिक पद को ग्रहण कर लिया है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘आपकी नियुक्ति का आधार क्या है?’
- सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद-32 के तहत केवल मूल अधिकारों के संबंध में रिट जारी करने का अधिकार है।
- उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद-226 के तहत मूल अधिकार के अतिरिक्त अन्य मामलों में भी रिट निकालने की शक्ति है।
- अनुच्छेद-32 अपने-आप में एक मूल अधिकार है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय अपने रिट न्याय क्षेत्र को नकार नहीं सकता, जबकि अनुच्छेद-226 के तहत उच्च न्यायालय रिट निकालने से मना कर सकता है, क्योंकि रिट निकालना उच्च न्यायालयों का विवेकाधिकार है।
- परमादेश केवल सार्वजनिक अधिकारियों, इकाईयों, निगमों, अधीनस्थ न्यायालयों, प्राधिकरणों आदि के विरुद्ध जारी की जा सकती है। निजी व्यक्तियों या इकाईयों, गैर-संवैधानिक विभाग, विवेकानुसार वाला कर्त्तव्य, संविदात्मक दायित्व के विरुद्ध इसे जारी नहीं किया जा सकता है।
- परमादेश का शाब्दिक अर्थ है; ‘हम आदेश देते हैं’।
- प्रतिषेध रिट का शाब्दिक अर्थ ‘रोकना’ है। इसे प्रशासनिक अधिकरणों, विधायी निकायों एवं निजी व्यक्तियों या निकायों के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है।
बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट निम्नलिखित दशाओं में नहीं निकाली जा सकती हैः
- गिरफ्तारी किसी विधानमंडल का न्यायालय की अवमानना के तहत हुई है।
- न्यायालय के द्वारा हिरासत में लिया गया है।
- गिरफ्तारी न्यायालय के न्यायक्षेत्र से बाहर हुई हो।
- हिरासत कानून सम्मत है अर्थात गिरफ्तारी विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हुई है।
- उत्प्रेषण रिट पहले केवल न्यायिक या अर्ध-न्यायिक प्राधिकरणों के विरुद्ध जारी की जा सकती थी, परन्तु सन् 1991 में न्यायालय ने व्यवस्था दी की उत्प्रेषण प्रशासनिक पदाधिकारियों के विरुद्ध भी जारी की जा सकती है।
- उत्प्रेषण का शाब्दिक अर्थ है ‘प्रमाणित होना या सूचना देना’।
संसद ने अनुच्छेद-23 के तहत मानव दुर्व्यापार एवं बलात्श्रम पर रोक लगाने के लिये निम्नलिखित कानून बनाए हैं:
- बंधुआ मज़दूरी (उन्मूलन) अधिनियम, 1976
- न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948
- ठेका श्रमिक अधिनियम, 1970
- समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976
- अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 । इस अधिनियम को मूलतः स्त्री तथा बालिका अनैतिक व्यापार दमन (संशोधन) अधिनियम, 1956 के रूप में जाना जाता है।
- संविधान के अनुच्छेद-24 में यह प्रावधान है कि 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक का किसी कारखाने या खान में काम करने के लिये नियोजन नहीं किया जाएगा या किसी अन्य जोखिम भरे उद्योग में नहीं लगाया जाएगा।
- एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य, 1996 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को किसी जोखिम भरे उद्योग में नियोजित नहीं किया जाएगा।
- संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में भी बाल श्रम का निषेध किया गया है।
- - बाल नियोजन अधिनियम, 1938
- - बालक श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986
- - कारखाना अधिनियम, 1948
- - खान अधिनियम, 1952
- - शिशु अधिनियम, 1960 आदि।
- भारत के संविधान का अनुच्छेद-35 संसद को यह शक्ति देता है कि वह अनुच्छेद-17 में अस्पृश्यता के अंत के संबंध में कानून बना सकती हैं।
- संसद द्वारा अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 पारित किया गया। 1976 में इसका संशोधन किया गया एवं नाम बदलकर सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 कर दिया गया।
- इस संबंध में 1989 में अनुसूचित जातियाँ एवं अनुसूचित जनजातियाँ (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया। इस अधिनियम को निम्नलिखित मूल अधिकारों को प्रभावी बनाने के रूप में देखा जा सकता है;
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-20 एवं 21 राष्ट्रीय आपातकाल में भी न तो सीमित किया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है।
- अनुच्छेद-20: अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में व्यक्ति को संरक्षण प्रदान करता है। इसका संबंध व्यक्तिगत स्वतंत्रता से है।
- अनुच्छेद-21: व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण प्रदान करता है। इसका संबंध जीवन के अधिकार से है। सिर्फ विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के द्वारा ही किसी व्यक्ति को जीवन से वंचित किया जा सकता है।
- व्यापार और व्यवसाय की स्वतंत्रता का अधिकार गैर-नागरिकों/विदेशियों को प्राप्त नहीं है, क्योंकि यह अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(i)(छ) में दिया गया है।
- विधि के समक्ष समता - अनुच्छेद-14
- जीवन का अधिकार - अनुच्छेद-21
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता - अनुच्छेद-20
- धर्म की स्वतंत्रता - अनुच्छेद-25 से 28
संविधान में पाँच मूल अधिकार गैर-नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं: अनुच्छेद-15, 16, 19, 29 और 30
- अनुच्छेद-15: विभेद के विरुद्ध अधिकार।
- अनुच्छेद-16: लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता।
- अनुच्छेद-19(i)
- (क): विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
- (ख): शांतिपूर्ण और निरायुध सम्मेलन का अधिकार।
- (ग): संगम या संघ या सहकारी समिति बनाने का अधिकार।
- (घ): भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध घूमने का अधिकार।
- (ङ): भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने और बस जाने का अधिकार।
- (च): 44वें संविधान संशोधन के द्वारा लोप कर दिया गया है।
- (छ): कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार (संपत्ति अर्जन करने का अधिकार)।
- अनुच्छेद-29: अल्संख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण।
- अनुच्छेद-30: शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार।
- अनुच्छेद-21 संबंधी अधिकार नागरिकों एवं गैर-नागरिकों को प्राप्त है। केवल पाँच ऐसे मूल अधिकार हैं, जो केवल नागरिकों को प्राप्त हैं-अनुच्छेद-15, 16, 19, 29 और 30।
- राष्ट्रीय आपातकाल में इसे न तो सीमित किया जा सकता है और न ही समाप्त। अतः इस अधिकार को स्वेच्छाचारी कार्यपालिका एवं विधायी कार्यवायी से संरक्षण प्राप्त है। अनुच्छेद-20 को भी राष्ट्रीय आपातकाल में न तो सीमित किया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है।
- इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार सम्मिलित है। विभिन्न न्यायिक निर्णयों के द्वारा इसमें गरिमापूर्ण जीवन जीने संबंधी अधिकारों को शामिल किया गया है।
- जीवन के अधिकार से केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के आधार पर ही वंचित किया जा सकता है। यह युक्तियुक्त, ऋजु एवं न्यायपूर्ण होनी चाहिये। इस अनुच्छेद में विधि की सम्यक् प्रक्रिया को शामिल किया गया है।
- अमेरिकी संविधान में ‘विधि की सम्यक् प्रक्रिया’ का प्रावधान किया गया है, जो व्यक्ति को कार्यपालिका एवं विधानमंडल से संरक्षण प्रदान करता है।
- मेनिका गांधी बनाम भारत संघ, 1978 मामले में ‘विधि की सम्यक् प्रक्रिया’ को भारत में अपनाया गया।
- मनरेगा एक रोजगार गारन्टी योजना है और यह काम/रोज़गार पाने का अधिकार के अन्तर्गत आता है।
- यह मूल अधिकार नहीं है, बल्कि राज्य का नीति निदेशक सिद्धान्त है और इसकी चर्चा संविधान के भाग-4 में की गई है।
- संविधान के अनुच्छेद-41 में इसकी चर्चा की गई है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 में (क) से (च) तक कुल छः प्रावधान किये गए हैं।
- 25वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 के द्वारा संविधान का अनुच्छेद-31(ग) जोड़ा गया, जो कुछ मूल अधिकारों का अपवाद है।
- अनुच्छेद-31(ग) में कहा गया है कि अनुच्छेद-39(ख) और (ग) संबंधी कोई कानून लागू करते समय अनुच्छेद-14 और 19 का उल्लंघन होता है तो ऐसे कानून को अमान्य घोषित नहीं किया जा सकता अर्थात यह अनुच्छेद कुछ नीति निदेशक तत्त्वों (अनुच्छेद-39 (ख) और (ग)) को कुछ मूल अधिकारों (अनुच्छेद 14 और 19) पर वरीयता देता है।
- संविधान के अनुच्छेद 31(ग) के द्वारा अनुच्छेद 39(ख) और (ग) को कुछ मूल अधिकारों (अनुच्छेद-14 एवं 19) पर प्राथमिकता दी गई है।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, 1980 मामले में न्यायालय ने मूल अधिकार एवं राज्य नीति-निदेशक तत्त्वों को एक-दूसरे का पूरक माना है।
- संविधान के अनुच्छेद-44 भारत के समस्त राज्य-क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्रावधान करता है।
- एक समान सिविल संहिता संबंधी प्रावधान लागू करने के लिये राज्य के लिए बाध्यकारी स्थिति नहीं है।
- वर्तमान में भारत में केवल गोवा राज्य में सभी नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता/कोड लागू है।
- संविधान के अनुच्छेद-41 बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता के स्थिति में लोक सहायता का प्रावधान करता है।
- संविधान के भाग-4 में शिक्षा संबंधी प्रावधान कई स्थानों पर किया गया है, जैसे अनुच्छेद-41, 45 और 46, किन्तु प्रौढ़ शिक्षा के संबंध में संविधान मौन है।
- नीति-निदेशक सिद्धान्तों की चर्चा मूल रूप से संविधान के कुल 16 अनुच्छेदों (अनुच्छेद 36-51) में की गई है ।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मूल अधिकार एवं निदेशक तत्त्वों के बीच किसी तरह की टकराव में मूल अधिकार प्रभावी होंगे, किन्तु संविधान संशोधन प्रक्रिया के द्वारा संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है। इसके परिणामस्वरूप संसद ने प्रथम संविधान संशोधन, 1951, चौथा संविधान संशोधन अधिनियम, 1955 और 17वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1964 पारित किया।
- इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि नीति निदेशक तत्त्वों को लागू करने के लिये मूल अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है।
- 24वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971: गोलकनाथ वाद के प्रतिक्रिया में संसद द्वारा यह संशोधन पारित किया गया और व्यवस्था दी गई कि संसद को शक्ति है कि संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा मूल अधिकारों को समाप्त या कम कर दे।
- 25वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971: इसके द्वारा संसद द्वारा एक नया अनुच्छेद-31(ग) जोड़ा गया एवं दो व्यवस्था दीः
- अनुच्छेद-39(ख) और (ग) संबंधी विधि को अनुच्छेद 14 एवं 19 पर वरीयता दी गई।
- इस संबंधी कानून को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि यह अनुच्छेद-39 (ख) और (ग) को प्रभावी नहीं करता।
- इस वाद में न्यायालय के उपरोक्त दूसरे प्रावधान को असंवैधानिक एवं अवैध घोषित कर दिया एवं प्रथम प्रावधान को संवैधानिक एवं वैध माना।
- इस वाद में व्यवस्था की गई कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है, परन्तु मूल ढाँचे को नहीं बदल सकती।
- 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976: इसके द्वारा सभी निदेशक तत्त्वों को मूल अधिकारों पर प्राथमिकता दी गई।
- इस वाद में न्यायालय ने 42वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक एवं अवैध घोषित कर दिया एवं केशवानन्द भारती वाद में दिये गए निर्णय को वैध ठहराया गया।
- इस वाद में न्यायालय ने मूल अधिकार और निदेशक तत्त्वों को एक-दूसरे का पूरक माना।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967 वाद ने संसद को 24वें और 25वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 अधिनियमित करने का अवसर दिया।
- ग्रेनविल ऑस्टिन ने प्रस्तावना, मूल अधिकारों और नीति-निदेशक सिद्धान्तों को भारत के संविधान की मूल आत्मा/अन्तःकरण कहा है।
- के.टी.शाह ने राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को ‘अतिरेक कर्मकाण्ड’ कहा और इसकी तुलना एक ऐसे चेक से की, जिसका भुगतान बैंकों के सुविधानुसार किया जाता है।
नीति निर्देशक तत्वके संबंध में विचारः
- टी.टी. कृष्णमचारीः भावनाओं का एक स्थायी कूड़ाघर।
- के.सी. ह्वेयरः लक्ष्य और आकांक्षाओं का घोषणा-पत्र एवं धार्मिक उपदेश।
- सर आइवर जोनिंग्सः कर्मकाण्डी आकांक्षा।
- नीति-निदेशक सिद्धान्तों का सार तत्त्व संविधान के अनुच्छेद-38 में दिया गया है। इसमें संविधान की प्रस्तावना की ध्वनि सुनाई देती है।
- अनुच्छेद-38 में कहा गया है कि राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय द्वारा सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करेगा।
- ये सिद्धान्त लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य का खाका खींचते हैं, जिसका लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना है तथा ये लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
- स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा इन्हें शामिल किया गया। इस समिति ने आठ मूल कर्त्तव्यों के जोड़े जाने का सुझाव दिया था, किंतु भारत के संविधान में दस मूल कर्त्तव्यों को मूल रूप में शामिल किया गया।
- 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के द्वारा भारत के संविधान में एक अन्य मूल कर्त्तव्य को जोड़ा गया। वर्तमान में मूल कर्त्तव्यों की कुल संख्या ग्यारह है।
- संसद इसके क्रियान्वयन के लिये विधि बना सकती है और इस संबंध में संसद ने कई विधियाँ बनाई हैं।