दास वंश, गुलाम वंश (The Slave Dynasty Details in Hindi)
दास वंश, गुलाम वंश
1 कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-10) (Qutab-ud-Din Aibaq)
2 इल्तुतमिश ( 1211-36 ) ( Iltutmish)
3 गयासुद्दीन बलबन ( 1266-86 ) ( Gayas-ud-Din Balban)
कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-10 ) (Qutab-ud-Din Aibaq)
➤ भारत में तुर्की साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक था। उसके माता-पिता तुर्की थे और उसका जन्म भी तुर्किस्तान में हुआ था। जब वह केवल एक बालक था, उसे एक व्यापारी निशापुर ले गया और वहाँ एक काजी ने उसे दास के रूप में खरीद लिया। काजी ने उसे अपने पुत्रों के साथ धार्मिक व सैनिक प्रशिक्षण दिया। जब काजी की मृत्यु हो गई तो उसके पुत्रों ने उसे एक व्यापारी के हाथ बेच दिया जो उसे गजनी ले गया जहाँ उसे मुहम्मद गौरी ने खरीद लिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक का उत्कर्ष (His Rise ) :
➤ कुतुबुद्दीन ऐबक में " समस्त प्रशंसनीय गुण व प्रभावित करने वाले तत्व विद्यमान थे" तथापि उसमें बाह्य तड़क-भड़क नहीं थी। उसने अपने साहस, उदारता व पौरुष से अपने स्वामी का ध्यान आकृष्ट कर लिया। वह अपने स्वामी के प्रति इतना भक्तिपरायण निकाला कि उसके स्वामी ने उसे सेना के एक भाग का अधिकारी बना दिया। उसे अमीर-ए-अखूर (अस्तबलों का अधिकारी) भी नियुक्त किया गया। भारतीय अभियानों में उसने अपने स्वामी की इतनी प्रशंसनीय सेवा की कि 1192 ई. में तरायण की दूसरी लड़ाई के बाद उसे भारतीय विजयों का प्रबन्धक बना दिया गया। इस प्रकार "केवल शासन-प्रबन्ध के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् अपनी विजयों के क्षेत्र को और भी विस्तृत करने में अपने विवेक का प्रयोग करने में उसे पूरी छूट मिल गई।" ऐबक ने दिल्ली के निकट इन्द्रप्रस्थ को अपना केन्द्र बनाया।
➤ अपनी स्थिति को
सुदृढ़ बनाने के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक ने महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ अपने
वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। उसने स्वयं ताजुद्दीन यल्दौज की पुत्री से विवाह
किया। उसने अपनी बहन का विवाह नासिरुद्दीन कुबाचा के साथ किया । इल्तुतमिश के साथ
उसने अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
➤ 1192 ई. में उसने अजमेर और मेरठ में एक विद्रोह का दमन किया। 1194 ई. में उसने अजमेर में दूसरे विद्रोह का दमन किया। उसी वर्ष उसने चन्दवार युद्ध में कन्नौज के शासक जयचन्द्र को परास्त करने में अपने स्वामी की सहायता की। 1197 ई. में उसने गुजरात के भीमदेव को दण्डित किया, उसकी राजधानी में लूटमार की और इसी के मार्ग से दिल्ली लौट आया। 1202 ई. में उसने बुन्देलखण्ड में कालिंजर के किले का घेरा डाला और उस पर अधिकार कर लिया। लूट में उसे बहुत सामान प्राप्त हुआ। सहस्त्रों मनुष्यों को बन्दी बना लिया गया। वह महोबा नगर की ओर बढ़ा और उस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने बदायूँ पर कब्जा किया जो उस समय भारत के धनी नगरों में से एक था। उसके एक सेनानी इख्तियारुद्दीन ने बिहार व बंगाल के कुछ भाग को जीत लिया। इस प्रकार 1206 ई. में अपने सिंहासनारोहण के पहले कुतुबुद्दीन ऐबक अपनी स्वामी के सेनानी व भारत में उसके प्रतिनिधि के रूप में लगभग सारे उत्तरी भारत पर अधिकार कर चुका था।
कुतुबुद्दीन ऐबक का सिंहासनारोहण ( Succession ) :
➤ जब 1206 ई. में मुहम्मद
गौरी की मृत्यु हो गई, उसने अपना कोई भी
उत्तराधिकारी नहीं छोड़ा। किरमान का राज्यपाल ताजुद्दीन यल्दौज गजनी का शासक बना।
ऐसा प्रतीत होता है कि मुहम्मद गौरी की इच्छा थी कि कुतुबुद्दीन उसका भारत में
उत्तराधिकारी बने। शायद यही कारण था जिससे मुहम्मद गौरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को
उपराजसी शक्तियाँ प्रदान की और उसे मलिक की उपाधि से सुशोभित किया। मुहम्मद गौरी
की मृत्यु के बाद लाहौर के नागरिकों ने कुतुबुद्दीन ऐवक को सार्वभौम शक्तियाँ
ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित किया। अतः उसने लाहौर जाकर सार्वभौम शक्तियाँ ग्रहण
की और इस भाँति 26 जून, 1206 को उसका औपचारिक
रूप से सिंहासनारोहण हुआ ।
➤ कुतुबुद्दीन ऐबक
के उत्कर्ष ने गजनी के ताजुद्दीन यल्दौज की ईर्ष्या को जाग्रत कर दिया। ऐबक ने उस
पर यह आरोप लगया कि वह फीरोज कोह के महमूद पर अनुचित प्रभाव डाल रहा है और इसलिए
वह उसके विरुद्ध बढ़ा। उसने 1208 ई. में गजनी पर कब्जा कर लिया और सुल्तान महमूद को अपनी ओर
कर लिया। उसने राजपद या 'छत्र' और 'दुबेश' के साथ क्तिपत्र
तथा गजनी व हिंदुस्तान पर शासन करने की शक्ति प्राप्त की । यल्दौज ने ऐबक को गजनी
से निकाल दिया और ऐबक लाहौर वापस आ गया।
➤ जहाँ तक बिहार व
बंगाल का सम्बन्ध है इख्तियारुद्दीन खिलजी की मृत्यु ने दिल्ली के बंगाल व बिहार
से सम्बन्ध टूटने की धमकी दी। लखनौती में अली मरदान खाँ ने अपने को स्वतन्त्र
घोषित कर दिया, किन्तु स्थानीय
खिलजी सरदारों ने उसे हटाकर उसका स्थान मुहम्मद शेरन को दे दिया और उसे बन्दीगृह
में डाल दिया परन्तु अली मरदान खाँ ने जेल से निकल भागने का प्रबन्ध कर लिया और वह
दिल्ली पहुँचा । वहाँ उसने ऐबक को बंगाल के विषयों में हस्तक्षेप करने का प्रलोभन
दिया। खिलजी लोग ऐबक को अपना सर्वोच्च स्वामी मानने पर उद्यत हो गए। वे दिल्ली के
शासन को अपना वार्षिक कर देने पर तैयार हो गए। बहुत कार्यव्यस्त होने के कारण ऐबक
राजपूतों के विरुद्ध आक्रमण की नीति ग्रहण न कर सका। पोलो खेलते समय घोड़े से गिर
जाने के कारण ऐबक को बहुत चोट आयी और 1210 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। कुछ लेखकों का यह विचार है कि
ऐबक भारत का एक स्वतन्त्र सुल्तान नहीं था। यह सम्भव है कि उसने अपने नाम का कोई
सिक्का नहीं खुदवाया। चौदहवीं शताब्दी का एक मूरिश यात्री इब्नबतूता भारत के
मुस्लिम शासकों की सूची में ऐबक को कोई स्थान नहीं देता । उसका नाम उन सुल्तानों
की सूची में भी नहीं मिलता जिनके नाम शुक्रवार के खुतबे में आदेशानुसार कहे जाना
आवश्यक थे।
➤ ऐबक ने भारत में
इस्लाम के प्रसार में महान् सेवा की। पिछली दो शताब्दियों में भारत गजनी साम्राज्य
का एक भाग रहा था और गजनी की राजनीति के कारण ही भारत के हितों की बहुत हानि हुई
थी। मुस्लिम भारत को गजनी से मुक्त करके ऐबक ने “भारत में सत्ता के प्रसार के लिए काफी सहायता प्रदान
की।" हसन उन निजामी का यह - विचार है, “उसके आदेशों से इस्लाम के निर्देशों को खूब लागू किया गया
और ईश्वर की सहायता से सच्चाई के सूर्य ने हिन्द के प्रदेशों पर अपनी छाया
की।" उसने एक मस्जिद दिल्ली में और दूसरी अजमेर में बनवाई।
➤ ऐबक एक महान
सेनानी भी था। अपने स्वामी के जीवन काल में उसने समरभूमियों में बहुत-सी विजय
प्राप्त कीं और इस प्रकार यश प्राप्त किया। शायद ही किसी संग्राम में उसे पराजय
मिली।
➤ मिन्हाज के
शब्दों में ऐबक एक "उच्च साहस वाला और खुले हृदय का शासक था, वह बहुत उदार भी
था। " हजारों मनुष्य उससे उपहार प्राप्त करते थे। इसलिए उसे 'लाख बख्श' (या लाखों का दाता
) कहते थे। 'ताज-उल-मासिर' का लेखक हसन
निजामी यह बताता है कि ऐबक ने "लोगों को अपने हाथ से न्याय दिया और राज्य में
शक्ति व समृद्धि का संचार करने के लिए उसने और परिश्रम किया।" वह ज्ञान का
बड़ा प्रेमी था और उसने हसन- उन निजामी व फखरुद्दीन जैसे लेखकों को आश्रय दिया।
हसन-उन- निजामी ने ताज-उल-मासिर व फखरुद्दीन ने 'तारीख-ए-मुबारिकशाही' की रचना की।
➤ ऐबक सामरिक
कार्यों में इतना व्यस्त रहा कि उसे देश में एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था स्थापित करने
के लिए समय ही न मिला सका । सारी व्यवस्था का आधार सेना थी। उसने केवल राजधानी ही
में नही वरन् राज्य के समस्त महत्त्वपूर्ण नगरों में अपनी सेना रखी। स्थानीय
प्रबन्ध देश की प्रजा के हाथों में रहा। मुस्लिम अधिकारियों को केवल विभिन्न
विभागों का प्रबन्धक रखा गया। इनमें बहुत से लोग सैनिक होते थे। अतः व्यवस्था का
रूप परिष्कृत रहा होगा। यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण होगा कि उसके राज्य में शेर व
बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे। यह भी कथन ठीक नहीं हैं कि ऐबक हिन्दुओं के प्रति
दयालु रहा क्योंकि ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि उसने अपने अनहिलवाड़ा व कलिंजर के
विरुद्ध युद्धों में हिन्दुओं को दास बनाया व उनका उनका धर्म परिवर्तन किया और
हिन्दुओं के मन्दिरों की सामग्री से मस्जिदें बनाई। इतना अवश्य है कि शान्ति काल
में ऐबक वस्तुतः सहनशील रहा।
आराम शाह ( 1210-11) (Aram Shah ) :
➤ कुतुबुद्दीन ऐबक
की मृत्यु के साथ लाहौर में मलिकों व सरदारों ने अचानक " सैनिक वर्ग के
हृदयों को सन्तोष देने, साधारण जनता में
शान्ति रखने व उपद्रव रोकने के लिए" आराम शाह को गद्दी पर बिठा दिया। आराम
शाह के कुतुबुद्दीन से सम्बन्ध के विषय में मतभेद हैं। एक मत यह है कि इल्तुतमिश
कुतुबुद्दीन का पुत्र था। मिन्हाज उस सिराज इस मत का खण्डन करता है क्योंकि उसके
विचार में - कुतुबुद्दीन के कोई पुत्र नहीं केवल तीन कन्याएँ थीं। अबुल फजल का
विचार है कि आराम शाह कुतुबुद्दीन का कोई सम्बन्धी नहीं था, परन्तु उसे इसलिए
सत्तारूढ़ किया गया था क्योंकि उस समय स्थित्यानुसार उसी की उपलब्धि हो सकी। इस
विषय में कोई भी निश्चित प्रमाण नहीं मिलता।
➤ दुर्भाग्यवश आराम शाह एक कमजोर एवं अयोग्य शासक सिद्ध हुआ और इसलिए दिल्ली के लोगों ने उसे अपना शासक स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। विभिन्न प्रान्तों के शक्तिशाली अध्यक्षों ने, जैसे सुल्तान के कुबाचा व बंगाल के अली मरदान ने आराम शाह की सार्वभौमिकता मानने से इन्कार कर दिया। देश में गृह युद्ध का भय उठ गया और उसका निराकरण करने के उद्देश्य से बदायूँ के प्रान्ताध्यक्ष इल्तुतमिश को एक निमन्त्रण भेजा गया । शम्मसुद्दीन इल्तुतमिश ने निमन्त्रण स्वीकार किया और दिल्ली के निकट जड (Jud) के स्थान पर उसने आराम शाह को परास्त किया। शायद आराम शाह की हत्या कर दी गई। उसका शासन लगभग आठ महीनों तक रह कर समाप्त हुआ।