इस्लाम का उदय (The Rise of Islam )
इस्लाम का उदय प्रस्तावना ( Introduction)
ईसा पश्चात्
सातवीं शताब्दी की पहली चौथाई में पैगम्बर मुहम्मद साहिब ने इस्लाम की नींव डाली
और उनकी मृत्यु के बाद 80 वर्ष के
थोड़े-से काल के अन्दर ही यह नया धर्म संसार के कई देशों, जैसे ईरान, सीरीया, पश्चिमी
तुर्किस्तान, सिन्ध, मिस्र और दक्षिणी
स्पेन में फैल गया। डाक्टर वी. ए. स्मिथ का कहना है कि 'मुहम्मद साहिब का
धर्म इस्लाम जिस विद्युत से फैला और जिस नाटकीय आकस्मिकता से उनके अनुयायी एक
प्रभुत्वशाली प्रभुसत्ता की स्थिति को प्राप्त हुए यह एक आश्चर्य की बात है, इसे इतिहास का एक
चमत्कार कहा जा सकता है। '
पैगम्बर मुहम्मद साहिब का जीवन तथा शिक्षाएँ
(Life and Teachings of Prophet Mohammad Sahib)
पैगम्बर मुहम्मद
साहिब को संसार की एक महानतम पूज्य आत्मा समझा जाता है और उनकी गिनती भगवान कृष्ण, महात्मा बुद्ध, भगवान मसीह तथा
गुरु नानक जैसी सुख वर्षा करने वाली महान आत्माओं में होती है। उनके जीवन का
संक्षेप में निम्नलिखित शीर्षकों के अधीन अध्ययन किया जा सकता है।
पैगम्बर मुहम्मद साहिब का प्रारम्भिक जीवन (Early Life)
मुहम्मद साहिब का
जन्म 570 ई. में धरती के
सबसे कम आतिथ्यकारी प्रदेश अरब में मक्का नामक स्थान पर हुआ। मक्का एक भौतिकवादी
व्यापारिक नगर था, “जहाँ लाभ-लोलुपता
तथा सूदखोरी का राज्य था,
जहाँ अपने अवकाश
काल में लोग स्त्री, मदिरा तथा जुआ
सेवन में रत रहते थे, जहाँ 'जिसकी लाठी उसकी
भैंस का नियम लागू था, जहाँ विधवाओं, अनाथ तथा बूढ़ों
को एक व्यर्थ का बोझ समझा जाता था।" मुहम्मद एक ऐसा बच्चा था जो अपने पिता की
मृत्यु के बाद पैदा हुआ था और जिसकी माँ भी चल बसी जबकि यह केवल छः वर्ष का था। इस
अनाथ को इसके चचा अबू तालिब ने पाला। इसने अपना बचपन घोर निर्धनता तथा कठिनाइयों
के हालात के बीच बिताया और वह बिना किसी शिक्षा तथा देखभाल के बड़ा हुआ। डाक्टर
ताराचन्द का कहना है कि. "व्यक्तिगत दुःख के दबाव तथा अपने लोगों की अपमानजनक
दशा से उत्पन्न दीनता की उसकी अनुभूति ने उसके भावुक हृदय पर गहरा प्रभाव
डाला।"
पैगम्बर मुहम्मद साहिब का विवाह (Marriage) :
25 वर्ष की आयु में
मुहम्मद साहिब खदीजा नामक एक 40 वर्ष की अमीर विधवा के सम्पर्क में आये और उसी के यहाँ
उसके व्यापार में मुनीम बन गए। वह उनके व्यक्तित्व से बड़ी प्रभावित हुई। यहाँ तक
कि उसने उनसे विवाह कर लेने का प्रस्ताव रखा। मुहम्मद साहिब का विवाहित जीवन बहुत
सुखी तथा शान्तिपूर्ण सिद्ध हुआ परन्तु यह उन्हें धार्मिक मार्ग पर जाने से न रोक
सका।
पैगम्बर मुहम्मद साहिब का दिव्य ज्ञान (The Revelation):
मुहम्मद साहिब
में लड़कपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति थी । बहुधा यह माउण्ट हीर पर चढ़ जाते और
घण्टों समाधि में बैठ रहते। जब वह 40 वर्ष के हुए तो उनके जीवन में एक महत्त्वपूर्ण घटना घटी।
एक दिव्य दूत ने उन्हें भगवान का सन्देश दिया कि तुम्हें तो संसार में अल्लाह ने
धर्म प्रसार के लिए भेजा है। इस दिव्य ज्ञान ने उनके अज्ञान तथा मोहमाया के पर्दे
को हटा दिया और अब वे भगवान के सन्देशवाहक तथा दूत बन गये। अन्य पक्के धार्मिक
सूफियों की तरह मुहम्मद साहिब के अन्दर भी धार्मिक उत्साह और घोर व्यावहारिक समझ
का सम्मिश्रण था। अन्त में वह एक नये धर्म के पैगम्बर बन गये।
मक्का में मुहम्मद की अलोकप्रियता (Unpopularity of Mohammad in Mecca ) :
अरबी लोगों का धर्म तीन बातों का जोड़ था - निरर्थक संस्कारवाद, नक्षत्र पूजा तथा मूर्तिपूजा। अच्छाई-बुराई की उनकी समझ अत्यन्त साधारण स्तर की थी। हत्या को वह कोई बुराई नहीं समझते थे और विवाह को कोई पवित्रता का स्थान नहीं देते थे। स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं थे। स्वामिभक्ति तथा सच्चरित्रता की अवहेलना की जाती थी और कामुकता का दौर- दौरा था । मुहम्मद साहिब ने प्रचार किया कि जीवन को पवित्र बनाओ, सच बोलो, अल्लाह पर विश्वास रखो। साथ ही उन्होंने मूर्तिपूजा तथा अन्धविश्वासों की घोर निन्दा की परन्तु दुर्भाग्यवश उनकी अपनी कुरैश जाति के लोग काया के मालिक थे जहाँ 360 मूर्तियाँ लगी हुई थी और वे मूर्तिपूजकों के चढ़ावे की कमाई खाते थे। अतः ये मुहम्मद साहिब के विरोधी हो गये और उन्हें गालियाँ देने लगे। उन पर पथराव हुआ और उन्हें जान से मार डालने का प्रयत्न किया गया। अपने लोगों के व्यवहार से निराश होकर तथा ऊबकर मुहम्मद साहिब ने अपनी जन्मभूमि को छोड़ने और किसी पास के नगर में आश्रय लेने का निर्णय कर लिया।
हिजरत, 622 ई. (Migration, 622 A.D.):
ईस्वी 622 में मुहम्मद
साहिब अपने कुछ अनुयायियों को लेकर मक्का से याथ्रि चले आये। बाद में यार्थिव
मेदीनातुन्नवी अर्थात् नवी साहिब का नगर कहलाने लगा। यह घटना हिजरत के नाम से
प्रसिद्ध हुई और यहीं से इस्लामी संवत् आरम्भ होता है जिसका उदय जुलाई ईस्वी 622 के अनुसार बैठता
है । यहीं मदीना में लोगों ने मुहम्मद साहिब तथा उनके सन्देश का स्वागत किया और
हजारों लोग उनके अनुयायी बन गए। यहीं उन्होंने अपने पवित्र ग्रन्थ कुरान की रचना
की और इस प्रकार अपनी शिक्षाओं को एक निश्चित रूप दिया।
इस्लाम संदेश - प्रचार (Spread of Message ) :
इस्लाम की
स्थापना करने के बाद मुहम्मद साहिब ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष इसी के प्रसार में
लगाए। उन्हें भारी सफलता मिली। शीघ्र ही वह क्या देखते हैं कि वह मौलिक रूप से अरब
देश के सम्राट और अरब लोगों के माने हुए पैगम्बर बन गए हैं। वे मक्का भी गए और इस
बार अपने स्थान के लोगों पर उनका एक चमत्कारपूर्ण प्रभाव पड़ा।
पैगम्बर मुहम्मद साहिब की मृत्यु
632 ईस्वी (Death, 632 A.D.) : 632 ईसवी में
मुहम्मद साहिब की मदीना में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु की कहानी कुछ इस प्रकार है:
8 जून को जब
पैगम्बर साहिब नमाज पढ़ चुके तो उनकी आत्मा आकाश की ओर चढ़ती गई और अन्त में ईश्वर
(खुदा) तक जा पहुँची। उनके शिष्य कुछ देर तक यह विश्वास न कर सके कि उनका पैगम्बर
परलोक सिधार चुका है। अन्त में अबुबक ने लोगों को समझाया कि मुहम्मद साहिब एक
इन्सान ही थे जो उन्हें सच्चा मार्ग दर्शाने संसार में आए थे और अपना कार्य समाप्त
करके मृत्यु की गोद में चले गए।
मुहम्मद साहिब की शिक्षाएँ (Teachings of Mohammad)
पैगम्बर मुहम्मद
ने किसी गहरे दार्शनिक मत का प्रचार नहीं किया। डा. ताराचन्द का कहना है कि उनका
धर्म अत्यन्त ही सरल था। इसमें सिद्धान्त तथा संस्कार की बात बहुत ही थोड़ी थी, क्योंकि कुरान के
अनुसार ईश्वर चाहता है कि मैं लोगों का बोझ हल्का करूँ और उनका जीवन सुगम बनाऊँ
मुहम्मद साहिब ने केवल तीन बातों का प्रचार किया - सच्चाई, पवित्र जीवन और
ईश्वर में अडिग विश्वास उनकी शिक्षाओं के मुख्य नियम दो भागों में बांटे जा सकते
हैं- (क) धनात्मक नियम (ख) नकारात्मक नियम ।
पैगम्बर मुहम्मद साहिब की धनात्मक (निश्चित
) शिक्षाएँ (Positive
Teachings)
1. अल्लाह पर विश्वास (Belief in Allah ):
पैगम्बर साहिब का केन्द्रीय धर्म सिद्धान्त यह है कि संसार में केवल एक ही
अल्लाह है। इसका अभिप्राय यह है कि देवी देवताओं की पूजा पूर्णरूप से बन्द | अल्लाह संसार का
सर्वोच्च तथा एकाकी सम्राट है। उसके अनुयायियों को उसके अन्दर अडिग विश्वास रखना
चाहिए और उसकी इच्छा के उल्लंघन के भयानक परिणामों से डरना चाहिए और लोगों के
अन्दर यह गहरी भावना होनी चाहिए कि हम उसकी दया और कृपा के अधीन हैं तथा उस पर
पूर्णतः निर्भर हैं।
2. कर्म तथा स्वर्ग-नरक के सिद्धान्त में विश्वास (Belief in Theory of Karma and Heaven and Hell):
भगवान कृष्ण और
भगवान बुद्ध की तरह पैगम्बर मुहम्मद ने कर्म के सिद्धान्त में अपना विश्वास प्रकट
किया। उनका विश्वास था कि किसी व्यक्ति के कामकाज का बड़ा महत्त्व होता है। उनके
कथनानुसार प्रलय और न्याय का एक दिन आयेगा जब हर कोई नष्ट हो जायेगा अथवा उसे अपने
कर्मानुसार दण्ड या फल मिलेगा। एक अच्छे सदाचारी व्यक्ति को तो स्वर्ग मिलेगा
परन्तु पापी को नरक में फेंका जाएगा।
3. प्रार्थना पर विश्वास (Belief in Prayers):
भगवान बुद्ध और भगवान महावीर से भिन्न ढंग अपनाते हुए
मुहम्मद साहिब ने प्रार्थना की क्षमता पर विश्वास रखा। उन्होंने अपने अनुयायियों
को आदेश दिया कि दिन में पाँच बार प्रार्थना करो - प्रातः मध्यकालीन भारत का
इतिहास पहले पहर, दूसरे पहर, सायं तथा रात को
क्योंकि किसी व्यक्ति के पाप प्रार्थना द्वारा ही क्षमा किया जा सकते हैं।
4. विश्वव्यापी भ्रातृभाव में विश्वास (Belief in Universal Brotherhood ):
मुहम्मद साहिब की शिक्षाओं में एक प्रमुख नियम
मुसलमानों में समानता तथा भ्रातृत्व का सिद्धान्त है। पैगम्बर साहिब के अनुयायी
ऊँच-नीच के भेदभाव के बिना एक समान हैं। वे सब अल्लाह के बेटे हैं और परस्पर भाई
हैं। ये सिद्धान्त मुसलमानों को एक जातीय रूप में संगठित करने में बड़ा लाभकारी
सिद्ध हुआ, क्योंकि उन्होंने
उनके अन्दर एकता की भावना कूट-कूटकर भर दी और उन्हें दूसरे धर्मों के अनुयायियों
के विरुद्ध सदैव के लिए संगठित किए रखा।
5. नैतिकता में विश्वास (Belief in Morality):
सभी बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की तरह मुहम्मद साहिब ने भी लोगों को यह सिखाया कि ऊँचा, नैतिक तथा सच्चाईपूर्ण जीवन व्यतीत करो। झूठ बोलना या चोरी करना पाप है। मनुष्य को ईमानदार और सच्चा बनना चाहिए और अपनी कमाई का एक चौथाई दान ( जकात) में देना चाहिए।
6. व्रतों, तीर्थयात्राओं इत्यादि में विश्वास (Belief in Fast, Pilgrimage etc.):
पैगम्बर साहिब का कहना है कि इस्लाम का एक आवश्यक नियम कुछ रीतियों का पालन करना है। मुसलमानों का यह कर्तव्य है कि रमजान के महीने के कुछ विशेष दिनों में व्रत (रोजा) रखें। दूसरी बात, मुहम्मद साहिब के जन्म स्थान मक्का की तीर्थयात्रा अथवा हज जीवन में कम-से-कम एक बार अवश्य करें।
7. कुरान में दी हुई बातों पर विश्वास (Belief in Contents of Quoran ) :
पैगम्बर साहिब ने अपनी सब शिक्षाओं को अपने एक
ग्रन्थ कुरान को रचकर उसमें भर दिया और उन्होंने अपने अनुयायियों को यह आदेश दिया
कि न केवल कुरान की बातों (आयतों) पर विश्वास करो अपितु अपना जीवन भी उन्हीं के
अनुसार व्यतीत करो। सभी विषयों पर क्या व्यक्तिगत, क्या धार्मिक, क्या सामाजिक और क्या राजनैतिक कुरान सर्वप्रथम
तथा अन्तिम - प्रमाण समझा गया और निर्धन से निर्धन व्यक्ति से लेकर धनी से धनी
व्यक्ति तक तथा भिखारी से लेकर राजा तक प्रत्येक मुसलमान को यह आदेश दिया कि कुरान
को जीवन का सबसे बड़ा तथा सबसे अमूल्य मार्गदर्शक समझा जाए।
पैगम्बर मुहम्मद साहिब की नकारात्मक
शिक्षाएँ (Negative
Teachings)
1. मूर्ति पूजा की निन्दा (Disbelief in Idol Worship):
मुहम्मद साहिब की शिक्षाओं में एक महानतम नियम यह था कि उन्होंने मूर्तिपूजा की तीव्र निन्दा की। अरब देश में उनसे पहले मूर्तिपूजा एक बहुत ही लोकप्रिय रिवाज के रूप में प्रचलित थी। परन्तु पैगम्बर साहिब के सन्देश के कारण यह काफी घट गई। इसके बाद ऐसा समझा जाने लगा कि हर मुसलमान का यह धार्मिक कर्तव्य है कि वह तलवार के बल पर भी मूर्तिपूजा को मिटाए। यह बात बड़ी अर्थपूर्ण है कि भारत पर मुसलमानों के जो आक्रमण हुए उनके पीछे मूर्तिपूजकों की धरती पर मूर्तिपूजा को मिटाने का उत्साह ही तो था।
2. तपस्यावाद का विरोध (Disbelief in Asceticism):
मुहम्मद साहिब की शिक्षाओं में तपस्यावाद को कोई स्थान नहीं, जो कि जैन धर्म तथा हिन्दू का प्रमुख नियम है। वास्तव में उन्होंने इस पक्ष को ही नहीं अपनाया कि आत्मा की मुक्ति के लिए शरीर को भूखा रखा जाए। उनका तो विश्वास यह था कि मनुष्य विवाह और पारिवारिक जीवन व्यतीत करे। कुरान का आदेश है कि एक मुसलमान पुरुष चार विवाह कर सकता है।
3. अहिंसा में अविश्वास (Disbelief in Non-Violence ) :
बुद्ध तथा जैन के अहिंसा के नियम को भी इस्लाम में कोई
स्थान नहीं मुहम्मद साहिब ने माँसाहार की निन्दा नहीं की और न ही उन्होंने ऐसा
प्रचार किया कि मनुष्यों तथा जीवों को दुःख न दो। तो भी इसका अर्थ यह नहीं कि
उन्होंने युद्ध, हिंसा तथा
सम्पत्ति विनाश का समर्थन किया। इसका तो केवल इतना ही अर्थ है कि वे किसी
न्यायपूर्ण युद्ध के विरुद्ध नहीं थे।
इस्लाम की प्रगति और विस्तार (Progress and Expansion of Islam )
632 ई. में मुहम्मद
साहिब की मृत्यु के पश्चात् इस्लाम संसार के भिन्न-भिन्न देशों में फैलने लगा।
इस्लाम को फैलाने का काम खलीफाओं ने अपने ऊपर ले लिया। 632 ई. से 749 ई. तक उमैयद
खलीफाओं का प्रमुख रहा । परन्तु 749 ई. से 1256 ई. तक अबासीद खलीफा बने रहे और वे ही इस्लाम के वास्तविक
नेता भी थे।
उमैयद खलीफे (The Omayyads)
अबुबक, 632-34 ई. ( Abu Bakr):
पैगम्बर साहिब की मौत के बाद अरब लोगों ने अबुबक्र को अपना खलीफा चुना। वह पैगम्बर साहिब के परिवार के एक मुख्य सदस्य थे तथा ससुर भी। पैगम्बर साहिब के जमाता अली साहिब को इस अधिकार से वंचित रखा गया। इस प्रकार यह स्पष्ट तथा स्थापित कर दिया गया कि खिलाफत लोकमत के अनुसार ही मानी जायेगी। अबुबक बहुत ही नेक मनुष्य थे जो बहुत सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करते थे और जिन्होंने इस्लाम का प्रचार तथा प्रसार के लिये बहुत कुछ किया। उनके दो वर्ष के अवधिकाल में इस्लाम धर्म इराक तथा सीरिया तक फैला गया। 634 ई.में उनकी मृत्यु हो गई।
उमर साहिब, 634-44 ई. (Omar):
अबुबक़ की मृत्यु
के बाद खिलाफत उमर साहिब के हाथों में आ गई जो पैगम्बर साहिब के बहनोई तथा परिवार
के सबसे बड़े सदस्य थे। उमर साहिब के अधीन ही खिलाफत की पदवी का महत्त्व बढ़ा।
उन्होंने इस्लाम के साम्राज्य को बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया। उन्हीं के नेतृत्व
में ईरान के सम्राट की हार हुई। उनकी सेनाएँ उत्तरी अफ्रीका की ओर त्रिपोली तक जा
पहुँचीं। संक्षेप में, उमर साहिब की
मृत्यु 644 ई. में हुई
परन्तु उससे पहले इराक, बेबीलोन, ईरान, मिस्र और अफ्रीका
के कुछ भाग जीत लिए गये थे और वहाँ इस्लाम का झंडा गाड़ दिया गया था।
उस्मान, 644-656 ई. (Osman):
उमर के बाद
उस्मान साहिब 644 ई. में गद्दी पर
बैठे। उनके अधीन मुसलमान सेनाओं ने काबुल, गजनी, बल्ख और हैरात को जीत लिया और तुर्की को मुसलमान बना दिया।
परन्तु 656 ई. में इस खलीफा
के विरुद्ध एक षड्यंत्र हुआ और उनकी हत्या कर दी गई।
अली, 656-661 ई. (Ali):
उस्मान साहिब की
हत्या के पश्चात् पैगम्बर साहिब के जमाता तथा चचेरे भाई अली साहिब को खलीफा बना
दिया गया। परन्तु कुछ ऐसे बिगड़े हुए लोग निकल आये जिन्होंने उनकी सत्ता को चुनौती
दी, उनके चुनाव को
अवैध माना और उनके विरुद्ध षड्यंत्र करना आरंभ कर दिया। सीरिया के राज्यपाल
मुआविया ने उनकी सत्ता मानने से इंकार कर दिया। उसने अपनी सेनाएँ इकट्ठी कीं और
अली साहिब के विरुद्ध चढ़ाई कर दी। युद्ध में अली साहिब मार डाले गये और इस प्रकार
मुआविया खलीफा बन गया।
मुआविया (Muawiya) :
मुआविया के खलीफा बन जाने से बड़ा भारी परिवर्तन पैदा हो गया। उसने खुले रूप से घोषणा कर दी कि मैं ही इस्लाम का पहला सम्राट और इस्लाम के मानने वालों का पहला सेनापति हूँ। खिलाफत अब चुनाव की बात न रह गई और उनके स्थान पर पैतृक अधिकार का नियम लागू कर दिया गया। खलीफत का केन्द्र मदीना से हटाकर दमश्क बना दिया गया। मुआविया के अधीन मुसलमानों ने ट्यूनिस मोराको इत्यादि दूर-दूर स्थानों को जीत लिया और इस्लाम धर्म इन सब देशों में फैल गया। पूरा स्पेन और फ्रांस का भी एक भाग जीत लिए गये इतिहासकार गिब्बन का कहना है कि 'हिजरत की पहली शताब्दी के अन्त तक खलीफा लोग पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली और निरंकुश सम्राट बन चुके थे। ऐसा लगता था कि क्रिस्तानी साम्राज्य के स्थान पर इस्लामी साम्राज्य स्थापित होने वाला है।
उमैयद लोग मौलिक
रूप से अरबी विचारधारा के थे। उनके सेनापति व राज्यपाल अरब जाति के थे और उन्होंने
अरबी भाषा तथा अरबी मुद्रा का प्रयोग किया। उन्होंने एक बड़ा इस्लामी साम्राज्य
बना डाला। वे ठाट-बाट के बड़े प्रेमी थे और अपनी प्रतिष्ठा का बड़ा ध्यान रखते थे।
आठवीं शताब्दी की
दूसरी चौथाई में उमैयदों की शक्ति घटने लगी। कारण यह था कि उन्होंने उन लोगों के
साथ जो अरब जाति के नहीं थे घृणा व्यवहार किया और अन्तिम उमैयद उत्साही, सच्चे और दृढ़
लोग नहीं थे। अन्तिम उमैयद खलीफा को अब मुसलमानों ने हरा दिया और बगदाद में अब्बास
की सत्ता स्थापित कर दी। 749 ई. से उमैयदों
की जगह अबासिदों ने ले ली।
अबासीद खलीफे (The Abbasids):
अबासिदों ने 749 ई. से 1256 ई. तक राज्य
किया। उन्होंने दमश्क के स्थान पर बगदाद को अपनी राजधानी बनाया। अवासिदों के आने
से अरबी तत्व पिछड़ गये। अब ईरानी आगे आये ।। खलीफा के दरबार में ईरानी रीति-रिवाज
अपना लिए गये। अबासीद धर्म के शिया थे जबकि उमैयद सुन्नी थे। अबासीद खलीफाओं में
सबसे प्रसिद्ध हारू अल रशीद हुआ है जिसके राज्यकाल में बगदाद कला और ज्ञान का
केन्द्र बना। तुर्कों को सेना में नौकरियाँ मिलीं। समय पड़ने पर यही तुर्क पकड़े
गये और व्यावहारिक रूप से खलीफा उनके हाथ की कठपुतली बनकर रह गया।
1256 ई. में चंगेज के पोते हलाकू ने बगदाद पर चढ़ाई कर दी और अन्तिम खलीफा अल मुस्तसीम को मार डाला। इस प्रकार बगदाद में खिलाफत का अन्त हो गया। चाहे अल-मुस्तसीम के सगे-सम्बन्धी मिस्र के इस्लामी संसार के ऊपर अपना अधिकार जतलाते रहे।