समाज में विविधता, असमानता एवं सीमान्तता
भारतीय समाज का स्वरुप
भारत विश्व की सबसे बड़ी बहुलवादी सामाजिक वयवस्था है जिसमें विभिन्न नृजातीयता के लोग भिन्न- भिन्न क्षेत्रों में एवं भिन्न-भिन्न धर्मों का अनुपालन करते हुए विभिन्न जातियों एवं उपजातियों में विभक्त होकर समाज में अपनी-अपनी अस्मिता बनाए रखते है। भारत की विवधता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में लगभग 5000 भिन्न-भिन्न समुदाय 325 से भी अधिक भाषाओं एवं विभिन्न बोलियों तथा लिपियों का उपयोग करते है। विविधता से युक्त इस भारतीय समाज का नियमन एक लम्बे समय से असमानता पर आधारित रहा है। यह असमानता प्रकृति जनित एवं समाज जनित दोनों ही रही है। समाज के भीतर उपजी असमानता का मुख्य कारण रहा है प्राकृतिक संसाधनों का असमान वितरण व क्षेत्र - विशेष का उन पर प्रभुत्व । इनके अतिरिक्त अनेकों असमानताएं मानवीय उपज है । जाति व वर्ग आधारित असमानता इनमें से सर्वमुख है । विविधता एवं असमानता के कारण समाज में कई वर्गों का जन्म हुआ जिसमे से कुछ वर्ग एवं व्यक्ति समाज की मुख्य धारा में रह समाज के संसाधनों का उपयोग करने में सफल रहे वहीं कुछ वर्ग एवं व्यक्ति समाज की मुख्य धारा से कट कर हाशिए पर चले गए।
स्वतन्त्रता के
पश्चात् भारतीय संविधान द्वारा सभी वर्गों के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करते
हुए राष्ट्र को एक धर्मनिरपेक्ष सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र के रूप में विकसित
करने का प्रयास किया गया जिसमें विविधता संरक्षण एवं असमानता के निषेध का पूरा
उपबंध किय गया है, साथ ही हाशिए पर चले उपेक्षित गए एवं वंचित वर्गों
के हितों के संरक्षण व संवर्धन का पूरा प्रयास किया गया है।
संविधान द्वारा
भारतीय समाज को एक समतामूलक लोकतांत्रिक समाज के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए
चार आधारभूत मूल्यों पर बल दिया गया है-
i. न्यायः- सामीजिक, आर्थिक, और राजनैतिक ।
ii. स्वतन्त्रताः- विचार, अभिव्यक्ति, विश्वाश, धर्म और उपासना की ।
iii. समानता: प्रतिष्ठा एवं अवसरों की।
iv. बन्धुत्व:- व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की बन्धुता।
यह आधारभूत मूल्य
ही हमारी शिक्षा के मुख्य उद्देश्य है और यही उद्देश्य भारतीय समाज के लक्ष्य है
जिन्हें प्राप्त करना राज्य का प्रमुख दायित्व है और इनकी सम्प्राप्ति के द्वारा
ही विविधता से युक्त भारतीय समाज में असमानता एवं सीमांतता की समस्या को सुलझाया
जा सकता है। सामाजिक न्याय एवं समानता के संवैधानिक मूल्यों पर आधारित
धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक और बहुलवादी समाज हमारा संवैधानिक आदर्श है जिसके
संरक्षण एवं संवर्धन का दायित्व शिक्षा पर भी है। संविधान द्वारा इन मूल्यों की
प्राप्ति हेतु एवं व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास हेतु मौलिक अधिकारों तथा
नीति-निदेशक तत्वों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 12-35 में मूल अधिकारों
का उल्लेख है जो हर नागरिक को समानता एवं स्वतन्त्रता का अधिकार देता है तथा धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या
जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव से रक्षा करता है साथ ही शोषण के विरूद्ध अधिकार देकर
सम्मानित नागरिक के रूप में जीवन जीने का अवसर प्रदान करता है। संविधान का
अनुच्छेद 46 स्पष्ट रूप से प्रावधान करता है कि राज्य कमजोर वर्गों, विशेष रूप से
अनुसूचित जाति, जनजाति के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों का विशेष ध्यान रखेगा
एवं हर प्रकार से सामाजिक अन्याय एवं किसी भी प्रकार के शोषण से रक्षा करेगा।
अनुच्छेद 330, 332. 335, 338 से लेकर 342 एवं संविधान की 5वीं तथा 6वीं अनुसूची, अनुच्छेद 46 में ि
उद्देश्यों के अनुपालन के लिए विशेष प्रावधान की व्यवस्था करती है। इसके साथ ही
अनुच्छेद 29 तथा 30 के हितों का संरक्षण व संवर्धन करता है जो
क्रमशः उन्हे अपनी भाषा, लिपि, व संस्कृति के
संरक्षण तथा धर्म व भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यकों को अपनी रूचि की शिक्षा
संस्था की स्थापना व प्रशासन का अधिकार देकर उन्हे राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने
का प्रावधान करती है। इस प्रकार भारतीय संविधान सभी नागरिकों को विशेष रूप से
असमानता एवं उपेक्षा के शिकार लोगों के हितों का विशेष संवर्धन कर उन्हें समुचित
अवसर उपलब्ध कराने का उपबंध करता है।
1 भारतीय समाज में विविधता
समाज में विविधता
से आशय है- किसी भौगोलिक-राजनैतिक क्षेत्र के अन्तर्गत रहने वाले विभिन्न सामाजिक
समूहों का अपनी विशिष्टता के साथ सह-अस्तित्व। भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह विविधता
विभिन्न रूपो में पायी जाती है। भारत जो कि एक समृद्ध संयुक्त एवं बहुल संस्कृति
का केन्द्र है जहाँ विभिन्न शारीरिक संरचना, क्षेत्र, बोली, भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति के लोग
अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता के साथ जीवन यापन करते है। इस विविधता के विविध रूप हैं, आईए हम देखें कि
भारतीय समाज में यह विविधता किस प्रकार है एवं उसका स्वरुप तथा स्रोत क्या है
2 सामाजिक विविधता के विविध रूप
i. संरचनात्मक
विविधता - शारीरक बनावट व संरचना के आधार पर पायी जाने वाली विविधता प्राकृतिक
विविधता है। लिंग भेद आधारित विविधता इसका उदाहरण है।
ii. पर्यावरणिक विविधता- यह दो प्रकार की है- भौगोलिक विविधता एवं मनो-सामाजिक विविधता। भौगोलिक विविधता में शहरी-ग्रामीण, मैदान-पहाड़ी आदि विविधता आती है जबकि मनो-सामाजिक विविधता में जाति, धर्म, भाषा, आदि आधारित विविधता आती है।
iii. प्राकृतिक एवं मानवजनित विविधता - भौगोलिक विविधता, जैव-विविधता, लिंग विविधता, आदि जहां प्राकृतिक विविधता है वहीं राजनैतिक विविधता (किसी विशेष विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता), सांस्कृतिक विविधता, धार्मिक विविधता, आर्थिक एवं सामाजिक विविधता जैसे- अमीर-गरीब, शहरी -ग्रामीण, उच्च -निम्न आदि मानव जनित विविधता के उदाहरण है। प्राकृतिक विविधता जहां एक ओर प्रकृति की देन है वहीं मानव जनित विविधता समाज के लोगो द्वारा लाभ विशेष के लिए जनित विविधता है जो प्रायः शोषण के अस्त्र के रूप में कुछ प्रयुक्त होती है। चाहे वह प्राकृतिक विविधता हो या मानव जनित सामाजिक- सांस्कृतिक एवं आर्थिक विविधता, विविधता का संरक्षण एवं उसका पूर्ण दोहन राष्ट्र के विकास के लिए करना तथा विविधता को शोषण का अस्त्र न बनने देना राष्ट्र व समाज की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है जो शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है। जैसा की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा 2005 में भी इसे इंगित करते हुए कहा गया है कि “विशिष्टताओं से फर्क पड़ता है; बच्चों को उनके अपने ज्ञान सृजन में सक्षम बनाने में सामाजिक, आर्थिक और जातीय पृष्ठभूमि का महत्वपूर्ण स्थान होता है”। इसे और स्पष्ट करते हुए यह अभिलेख कहता है कि “ सभी समुदायों को सह-अस्तित्व व समान रूप से समृद्ध होने का अधिकार है और शिक्षा व्यवस्था को भी हमारे समाज में निहित इस सांस्कृतिक विविधता के अनुरूप होना चाहिए"
आईए हम समझने का
प्रयास करें की भारतीय समाज में व्याप्त इस विविधता के विविध रूप क्या हैं तथा किस
प्रकार यह असमानता एवं सीमांतता के जन्म के लिए उत्तरदायी है तथा शिक्षा के द्वारा
किस प्रकार विविधता को समस्या के रूप में नहीं अपितु एक संसाधन के रूप में
प्रयुक्त किया जा सकता है तथा उसका सरंक्षण किया जा सकता है।
भारतीय समाज में विविधता के स्वरुप एवं स्रोत
1. नृजातीय विवधता -
भारतीय समाज की विविधता का सबसे प्रमुख स्रोत है नृजातीयता । भारतीय समाज में
विभिन्न प्रकार के नृजातीय समूह अपनी अपनी अस्मिता एवं पहचान के साथ-साथ
सह-अस्तित्व में निवास करते है । हरबर्ड रिसले ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में नृजातीय
जनसंख्या को सात वर्गों में विभाजित किया है-
a. टर्कों-इरानियन मुख्यतः बलूचिस्तान एवं अफगानिस्तान में पायी जाने वाली नृजातीय जनसंख्या ।
b. इण्डो-आर्यन-मुख्यतः पूर्वी पंजाब, राजस्थान एवं कश्मीर में पायी जाने वाली नृजातीय जनसंख्या |
c. साइथो-द्रविणियन- मुख्यतः सौराष्ट्र, कुर्ग एवं मध्य प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में पाये जाने वाली नृजातीय जनसंख्या ।
d. आर्य-द्रविणियन - मुख्यतः इण्डो-आर्यन एवं द्रविणियन का मिश्रण है जो एवं बिहार में पायी जाती है। मुख्यतः उ. प्र.
e मंगोलियन द्रविणियन जो द्रविणियन एवं मंगोलियन प्रजाति का मिश्रण है और बंगाल तथा उड़ीसा में पाये जाते है।
f. मंगोलायड - उत्तर पूर्व क्षेत्र एवं आसाम की आदिवासी जनसंख्या में पाये जाने वाले नृजातीय समूह |
g. द्रविणियन -
दक्षिण भारत एवं मध्य प्रदेश में पाये जाने वाले नृजातीय समूह
इन सातों वर्गों
को मुख्यतः तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- 1- द्रविणियन 2- मंगोलियन 3 - इण्डो-आर्यन ।
इस प्रकार आप
स्वयं देख सकते हैं कि भारतीय भूमि विभिन्न नृजातीय समूहों को पल्लवित व पुष्पित
करके विशाल विषमता की धरोहर को सजोये हुए है। इतनी विषमतापूर्ण विविधता से युक्त
जटिल एवं संशलिस्ट भारतीय समाज में कुछ नृजातीय समूह विकास कि पंक्ति में आगे बढ़
गए तथा कुछ अभी भी सीमान्त रह गए हैं। भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र के अनेक
नृजातीय समूह सीमांतता के ज्वलंत उदहारण हैं। ये सीमान्त वर्ग एवं इनके व्यक्ति
शिक्षा के द्वारा समानता एवं समता की मांग करते हैं। शिक्षा का प्रमुख दायित्व है
कि इन विविधताओं में निहित शक्तियों का समाज के उत्थान के लिए विकास करे तथा यह
विविधतायें समाज की रचनात्मक शक्ति बनें न कि अवरोध। शिक्षा के द्वारा समाज के
विभिन्न नृजातीय समूहों को समानता का अवसर मिले तथा समाज के सभी वर्ग समाज के
विकास में अपनी भूमिका निभा सकें इसकी सामर्थ्य हो सके। समाज के सभी संस्कृतियों
को समुन्नत एवं स्वावलम्बी बनाना शिक्षा का मुख्य दायित्व है।
2.भारत में जाति आधारित विविधता
भारत में जाति व्यवस्था काफी प्राचीन समय से अपनी जड़े जमाएं रही है जो कि
प्रारम्भ में समाज में निष्पादित कार्य या व्यवसाय पर आधारित थी। समाज निभायें
जाने वाली भूमिका व श्रम विभाजन के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्गों का गठन किया गया
था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय समाज चार वर्गों में विभक्त था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एवं शूद्र ।
ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन, क्षत्रिय - शासन तथा सुरक्षा, वैश्य-वाणिज्य
एवं व्यापार तथा शूद्र-सेवाकार्य के आधार पर विभाजित थे कालान्तर में यह व्यवस्था
कर्मगत न होकर जन्म आधारित हो गयी तथा उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग के शोषण के रूप
में समाज में भीषण समस्या के रूप में स्थापित हो गयी। जातीय विभाजन तथा जाति के
भीतर उपजाति तथा वर्ग तथा उनके आधार पर भेदभाव सभी धर्मों के अन्दर पाया जाने लगा।
ऐसा माना जाता है कि लगभग 300 से भी अधिक जातियां भारत में विद्यमान है जो
विशाल जातीय विविधता का बोध कराती है। इन जातियों में कुछ जातियां विकास के पथ पर
अग्रसर हो कर उच्च जाति के रूप में स्थापित हो
गयीं तथा कुछ
समाज में सीमान्त रह कर निम्न जातिवर्ग के रूप में दमित एवं शोषित होती रहीं जिसकी
परिणति अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुप्रथा के रूप में हुई जिसका एक लंबे समय तक समाज
पर कुप्रभाव रहा । उच्च जातियों द्वारा निम्न जाति के लोगों का शोषण एवं असमान
व्यवहार समाज में सीमांत वर्ग के रूप में एक नए वर्ग को जन्म देकर एक विशाल
सामाजिक समस्या के रूप में पनपने लगा। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जाति के लोग इसी
जाति आधारित विविधता से उपजी असमानता के कारण समाज में सीमान्त वर्ग के रूप में एक
लंबे समय तक उपेक्षित रहे समाज का यह सीमान्त वर्ग समाज की मुख्य धारा में अपनी
जगह बनाने के लिए शिक्षा की ओर देखता है।
3. भारत में वर्ग आधारित विविधता -
सामाजिक स्तरीकरण के आधार पर विभाजित समूह को सामाजिक वर्ग कहा जाता है जिसमें सामाजिक स्तर के अनुरूप पदानुक्रमिक क्रम में समाज को विभाजित किया जाता है। सबसे प्रचलित विभाजन है - उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग एवं निम्न वर्ग जो समाज में सामाजिक-आर्थिक स्तर के आधार पर निर्धारित होता है। मुख्यतः उद्योगपति नीति निर्माता, शासक वर्ग, राजनेता एवं अधिकारी, आदि उच्च वर्ग में आते है। मध्यम वर्ग, जो संख्याबल में काफी अधिक है दो वर्गों में विभाजित है- उच्च मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग। उच्च मध्यम वर्ग के अन्तर्गत उच्च पदस्थ कर्मचारी वर्ग तथा मझोले स्तर के व्यापारी व उद्यमी आते है तथा निम्न मध्यम वर्ग में दैनिक भोगी कर्मचारी, लघु स्तर के व्यापारी व व्यवसायी आते है जो प्रतिदिन अपनी जीविका निर्वाह के लिए अर्जित व खर्च करते है। समाज के ये निचले वर्ग सामाजिक चिन्ता के विषय हैं तथा सरकारी योजनाओं का सबसे कम लाभ प्राप्त कर पाने वाले वर्ग हैं जिन पर सरकार व समाज को अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। समाज के ये निचले वर्ग प्रायः असंगठित होने के कारण राज्य व समाज का ध्यान कम आकर्षित कर पाते है। समाज के यह उपेक्षित वर्ग सामाजिक विषमता के कारण विकास के मार्ग में हाशिये पर चले जाते हैं। शिक्षा का दायित्व है कि वह ऐसे वर्ग को स्वावलम्बी बनाये तथा सामाजिक विषमता को दूर करने में सहायक हो।
4.भारत में धार्मिक विविधता -
भारत धार्मिक दृष्टि से भी विविधता से परिपूर्ण है जहाँ विश्व के विभिन्न धर्मों
के अनुयायी निवास करते है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के कारण सभी धर्मों
का आदर करता है। यहाँ हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी आदि
विभिन्न धर्मों के मतावलम्बी अपन-अपने धर्म के अनुरूप आचार, विचार एवं
व्यवहार करते है जो भारत की सांस्कृतिक एवं अध्यात्मिक विविधता का एक बहुत बड़
कारण है । यद्यपि धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव या असमानता भारतीय
सविंधान द्वारा पूर्णतया निषिद्ध है फिर भी कुछ धार्मिक समूह अपने कम संख्या बल
एवं समाज में अपनी सूक्ष्म भूमिका के कारण अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में अपनी पहचान
एवं अस्मिता के लिए समाज में संघर्षरत हैं। ये समूह भी शिक्षा के द्वारा अपनी
संस्कृति एवं धर्म के सरंक्षण एवं संवर्धन की मांग करते हैं।
5. भारत में भाषायी विविधता -
भारत देश भाषायी दृष्टि से अत्यन्त विविधता से परिपूर्ण है। भारत में 122 भाषाएँ तथा 234 मातृ भाषाएँ हैं
जो देशभर में बोलने वालों की संख्या 10,00000 या अधिक के आधार
पर संगठित की गयी है जिनमेंसे 22 भाषाएँ - 8वीं अनुसूची
सूचीबद्ध की गयी है। इतने विशाल भाषा भण्डार की विविधता को संजोए हुए भारतीय समाज
भाषा के प्रश्न पर उलझा हुआ दिखायी देता है। हर क्षेत्र विशेष के लोग अपनी
क्षेत्रीय भाषा के प्रति विशेष लगाव रखते हैं। जो कि उनकी मातृभाषा व संवाद की
भाषा होती है जिसके कारण वे दूसरी भाषा को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते दूसरी
तरफ वह भाषा है जो सामाजिक एवं राजनैतिक कारणों से समाज में अपनी जगह बनाये हुए है, तीसरी तरफ वह
भाषा है जो पूरे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांध कर राष्ट्रीयता अस्मिता का बोध
कराती है। इस भाषायी विविधता के कारण देश भर में भाषायी आधार पर विभाजन एवं मातृभाषा
के रूप में भाषा का चयन, शिक्षण के माध्यम के रूप में भाषा का चयन एक
बहुत बड़ी समस्या रही है।
यदि आप
व्यावहारिक दृष्टि से देखे तो पाएंगे कि भारत के विद्यालयों की सबसे बड़ी समस्या
यह भाषिक विविधता ही है। बच्चा जब स्कूल में प्रवेश करता है तो वह किसी अन्य भाषिक
पृष्ठभूमि के साथ विद्यालय आता है और विद्यालयी परिवेश किसी अन्य दूसरी भाषिक
पृष्ठभूमि को पोषित करता है जबकि पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधि किसी दूसरे भाषिक
पृष्ठभूमि को । इस प्रकार बालक की समस्या यह होती है कि वह अपने को अपनी निजी भाषा
तथा स्कूल की भाषा एवं पाठ्य पुस्तक की भाषा से अलग-थलग पाता है जो उसकी कल्पना
शक्ति एवं सृजन शक्ति के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। जैसा की
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा २००५ इसे रेखांकित करते हुए कहती है कि "
बहुभाषिकतावाद भारतीय अस्मिता का अभिन्न अंग है हमारी शिक्षा व्यवस्था को इसे
दबाने के बजाए बनाये रखने और प्रोत्साहित करने का भरपूर प्रयास करना चाहिए जैसा कि
ईलिच (१९८१) ने कहा है कि हमें हाशिये पर अवस्थित, आदिवासी और
विलुप्त प्राय भाषाओं को बचाने और उनके शसक्तीकरण का भरपूर प्रयास करना होगा हमें
त्रिभाषा सूत्र को यथार्थ के धरातल पर क्रियान्वित करना होगा तभी हम भाषायी विवधता
की समस्या से न केवल समाधान प्राप्त कर सकेंगे अपितु भाषायी विविधता को अपनी ताकत
के रूप में प्रयुक्त कर सकेंगे। त्रिभाषा सूत्र का प्रयोग कर हिन्दी भाषी राज्यों
के लिए हिन्दी, अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं (विशेष रूप से दक्षिण भारतीय
भाषा) तथा हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी, अंग्रेजी व
क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान कर भाषायी विवधता का संरक्षण हमारी शिक्षा की प्रमुख
जिम्मेवारी होनी चाहिए।
6. भारत में क्षेत्रीय विविधता-
क्षेत्रीय विविधता भारतीय समाज का एक विशिष्ट तत्व है। भौगोलिक एवं
पर्यावरणीय दृष्टि से सम्पूर्ण भारत विभिन्न क्षेत्रीय इकाइयों में विभाजित है ।
ये भौगोलिक क्षेत्र अपनी सहअस्तित्व की भावना तथा राजनैतिक सामाजिक व सांस्कृतिक
कारणों से एक इकाई के रूप में संगठित होकर सामूहिक पहचान स्थापित कर अपने सामूहिक
हितों की रक्षा करतें है । भारत में क्षेत्रीयता की इस भावना के कारण जहां
इन क्षेत्रों में सह अस्तित्व व समरसता का भाव रहा है वही कतिपय राजनैतिक स्वार्थ
कारण इसका दुरूपयोग भी होता रहा है। कई बार कुछ क्षेत्र विकास के मार्ग में हाशिये
पर रह गये जिसके कारण क्षेत्रीय विषमता ने जन्म लिया जो राष्ट्र की बहुत बड़ी
समस्या है। शिक्षा के द्वारा क्षेत्रीय विकास को प्रोत्साहित कर क्षेत्र विशेष के
संसाधनों का उचित दोहन करके राष्ट्र के विकास में सभी क्षेत्रों की भागीदारी
सुनिश्चित करना मुख्य लक्ष्य है।
7. भारत में लिंग भेद आधारित विविधता-
लिंग भेद आधारित विषमता भारतीय समाज की एक प्रमुख समस्या रही है। तीव्र
सामाजिक विकास के इस दौर में जबकि महिलाओं का समानता का दर्जा दिये जाने की बात
विधिक एवं सामाजिक रूप से सार्वभौम रूप से स्वीकार कर लगी गयी है, महिलाएं आज भी
लिंगभेद का शिकार बन रही है। महिला सशक्तीतरण आज भी एक चुनौती है। यह बात केवल
सामाजिक जीवन में ही नहीं अपुत कक्षीय वातावरण में भी लागू होती है जहाँ अनुपयुक्त
पाठ्यक्रम एवं शिक्षण पद्धति न केवल नकारात्मक वातावरण उत्पन्न करती है अपितु उनके
आत्मप्रत्यय को भी नीचे गिरा देती है
महिलाओं की समानता के लिए शिक्षा की ओर इंगित करते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 शिक्षा को महिलाओं की स्थिति में आधारभूत परिवर्तन लाने के एक साधन के रूप में रेखांकित किया। अतीत की विसंगतियों को परिमार्जित करने के लिए एवं नवीन मूल्यों को स्थापित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है जो पाठ्यचर्चा, पाठ्य-पुस्तक एवं शिक्षण प्रविधि में आधारभूत परिवर्तन की मांग करती है। पूरी जन-शक्ति का लगभग आधा हिस्सा होते हुए भी अनेकों सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से महिलाएं एक लम्बे समय तक हाशिये पर रही है। महिलाओं का विकास न केवल उनके वैयक्तिक विकास अपितु राष्ट्रीय विकास में उनकी सक्रिय भागीदारी द्वारा सम्पूर्ण मानवीय शक्ति के उपयोग के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है।