सीमान्त समुदाय के व्यक्ति एवं वर्ग तथा शिक्षा
सीमान्त समुदाय के व्यक्ति एवं वर्ग तथा शिक्षा
शिक्षा समाज में व्यक्ति को बेहतर जीवन जीने की कला सिखाती है। मनुष्य को समाज में 'उपलब्ध संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों जैसे न्याय समता, स्वतन्त्रता, एवं बन्धुत्व का उपभोग करते हुए - जीवन को आगे बढ़ाना होता है जहां उसे एक तरफ संविधान प्रदत्त सुरक्षा प्राप्त है तो दूसरी तरफ भिन्न- भिन्न समुदायों के साथ तालमेल रखते हुए कर्तव्यों का पालन करना भी सुनिश्चित करता होता है। भारत जैसे बहुलवादी देश में जहां विभिन्न धर्मों, भाषाओं एवं संस्कृतियों तथा विभिन्न प्रकार की विविधता से युक्त क्षेत्रीय भिन्नता को रखने वाले भिन्न-भिन्न समुदाय निवास करते है; सामाजिक समरसता एवं भाईचारा की भावना के साथ राष्ट्र को एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में संगठित रखना अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है।
अनेक संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद समाज के कुछ वर्ग मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है। वर्तमान भारतीय समाज में शैक्षिक एवं सामाजिक विकास के बावजूद कतिपय बाधक तत्वों के कारण समाज के कुछ वर्ग विषमता के शिकार हैं तथा अभी भी विकास के मापदण्डों पर हाशिये पर है। इनमें प्रमुख है- जाति, नृजातीयता, वर्ग, धर्म, क्षेत्रवाद इत्यादि आधारित विषमता से उत्पन्न विसंगतियां जो समाज एवं व्यक्ति के विकास में बहुत बड़ी बाधा है, जिनका अभी हमने अवलोकन एवं विश्लेषण किया है । समाज की ये विषंगतियां ही असमानता एवं सीमांतता को जन्म देकर असन्तोष व अराजकता का वातावरण बनाती है जो कई बार कुछ व्यक्तियों एवं समुदायों को समाज का असामाजिक तत्व बना देती है।
अतः इन विसंगतियों को दूर करना तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व का समग्र विकास करना ही शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है। आईए यह समझने का प्रयास करें कि इन विभिन्न विविधता एवं असमानता से क् एवं सीमांतता के शिकार विभिन समुदायों एवं उनके व्यक्तियों की शिक्षा से अपेक्षा एवं मांग क्या है।
शिक्षा से इन समुदायों और व्यक्तियों की विभिन्न मांगों को समझना
समाज के हर व्यक्ति का सर्वांगीण विकास ही शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है। समाज का वह समुदाय जो किन्ही कारणों, चाहे वह प्राकृतिक कारण हो या मानव जनित कारण, से विकास की प्रक्रिया में मुख्यधारा से पीछे रह गया है, शिक्षा से अपेक्षा रखता है कि उसे सामर्थवान बनाकर राष्ट्र के विकास की मुख्य धारा में शामिल होने में सहायक हो। जब हम भारतीय समाज के स्वरुप, उसकी विविधता, सर्वैधानिक एवं शैक्षिक उपबंध पर दृष्टिपात करते हैं तो हम पाते हैं कि शिक्षा को समाज के हर व्यक्ति कि क्षमता का विकास करके समाज कि मुख्य धारा में लाने का प्रमुख साधन स्वीकार किया गया है जो विभिन प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वहन करती है।
आईए देखें कि शिक्षा अपनी इस भूमिका का किस प्रकार एवं किन क्षेत्रों में निर्वहन करती है।
1. प्राकृतिक क्षमताओं का विकास
हर व्यक्ति जन्म से कुछ प्राकृतिक शक्तियों एवं क्षमताओं को लेकर जन्म लेता है जो उपयुक्त वातावरण में पल्लवित - पुष्पित होती है। समाज जनित वातावरणीय कारणों से उपयुक्त अवसर न मिलने के कारण समाज के अनेक वर्ग विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक एवं महिलाएं विकास की दौड़ में हाशिये पर चले गये। शिक्षा ही वह साधन है जो इन हाशिये पर चले गये वर्गों की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास कर उन्हे राष्ट्र के उत्थान में अपना योगदान देने में समर्थ बना सकती है।
2. जीविकोपार्जन की क्षमता का विकास
इन सीमान्त एवं उपेक्षित व्यक्तियों एवं वर्गों की - शिक्षा से दूसरी महत्वपूर्ण मांग है - जीविकोपार्जन की क्षमता का विकास। समाज के सीमान्त वर्ग के समक्ष सबसे बड़ी समस्या जीविकोपार्जन की है। समाज में उत्पादन के साधनों पर समाज के उच्च व मध्यम वर्ग का आधिपत्य होने के कारण सीमान्त वर्ग उपेक्षा एवं शोषण के शिकार बन कर रह गये जिसके कारण उन्हें जीविकोपार्जन हेतु संसाधनों व जीविकोपार्जन के साधनों के ज्ञान का अभाव रहा है। शिक्षा ही वह साधन है जो समाज के सीमान्त वर्ग को जीविकोपार्जन की कला में प्रवीण बनाकर उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बना सकती है। शिक्षा से इन व्यक्तियों तथा वर्गों कि यह मांग है कि वह उन्हें जीविकोपार्जन के साधनों एवं कौशलों का विकास कर आर्थिक विकास में योगदान देने में सक्षम बनाये।
3. नागरिक जीवन का प्रशिक्षण-
समाज के सीमान्त वर्ग शोषण व दमन के कारण समाज में प्राप्त संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करने में भी असमर्थ रहते हैं। बहुध देखा गया है कि समाज के पिछड़े व दलित वर्ग अपनी नियति को ईश्वर की देन मानकर एक नागरिक के रूप में प्राप्त संवैधानिक व कानूनी अधिकारों का भी उपयोग नहीं कर पाते। अतः इन समुदायों की शिक्षा से यह अपेक्षा है कि शिक्षा द्वारा उन्हें नागरिकता का प्रशिक्षण मिले जिससे वह समाज के सक्रिय नागरिक के रूप में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भागीदारी लेकर नई स्थितियों का सामना करने में सक्षम हो सकें तथा स्वयं के एवं राष्ट्र के विकास में अपना योगदा दे सकें।
4. चरित्र निर्माण
समाज के सीमान्त वर्ग अपनी उपेक्षा से त्रस्त होकर अनेक बार असमाजिक - कार्यों में लिप्त हो जाते हैं या कई बार सक्रिय सामाजिक जीवन से पलायन कर एकाकी जीवन जीने लगते है। समाज के सीमान्त वर्ग शिक्षा से आशा करते हैं कि वह समाज में व्याप्त असमानता व भेदभाव की दीवार को गिराने में सहायक हो तथा उनके आत्मबल का इस प्रकार विकास करे कि वह समाज में सम्मान पूर्वक जीवनयापन करने में समर्थ हो सके। इस प्रकार शिक्षा से अपेक्षा है कि वह चारित्रिक विकास में सहायक हो सके तथा समाज के सीमान्त वर्ग को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल कर सके।
5. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास
समाज का सीमान्त वर्ग, समाज के शक्तिशाली वर्ग द्वारा - दमित व उत्पीड़ित होने के कारण व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास से उपेक्षित रहा है। अतः समाज का सीमान्त वर्ग शिक्षा से शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं अध्यात्मिक विकास की अपेक्षा रखता है। शिक्षा का दायित्व है कि वह समाज के उपेक्षित वर्ग के व्यक्तित्व विकास में मुख्य भूमिका निभाये। इस के लिए पाठ्यचर्या में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। पाठ्यचर्या में परिवर्तन के साथ-साथ शिक्षण पद्धति में भी बदलाव जरूरी है।
शिक्षण पद्धति सहभागिता तथा जनतांत्रिक मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए तभी सीमान्त वर्ग के व्यक्तियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास सम्भव होगा।
6. सामाजिक कौशलों का विकास
समाज में हर व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वहन कर समाज का उपयोगी नागरिक बन सके यह शिक्षा की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। सामाजिक कौशलों के विकास के बिना यह सम्भव नही है। अतः शिक्षा के द्वारा सामाजिक कौशलों का विकास किया जाना चाहिए। समाज का उपेक्षित व वंचित वर्ग समाज के अन्य लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके तथा समाज में स्वस्थ सामाजिक वातावरण का विकास हो सके यह शिक्षा का एक महत्वपूर्ण दायित्व है। अतः सामाजिक कौशलों का विकास हमारी पाठ्यचर्या का मुख्य केन्द्र हो यह इन सीमान्त वर्ग के व्यक्तियों एवं समुदायों की शिक्षा से अपेक्षा है।
7. समाजोपयोगी नागरिक का निर्माण
मानव पूंजी किसी भी समाज के विकास का मुख्य - आधार होती है अतः शिक्षा के द्वारा समाज के लिए उपयोगी नागरिक का निर्माण हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। समाज का हर व्यक्ति मानव पूँजी है जिसके सम्यक विकास के बिना समाज का विकास सम्भव नहीं है। शिक्षा के द्वारा समाज की मांग के अनुरूप मानवीय शक्ति का विकास किया जाना चाहिए तभी हर नागरिक समाज के उत्थान में अपना योगदान दे सकेगा।
8. राष्ट्रीयता की भावना का विकास
समाज का सीमांत वर्ग एक लम्बे समय से उपेक्षित रहने के कारण अपने आप को की राष्ट्र मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करता है जिसके कारण अलगाववाद व परायेपन की भावना व कुण्ठा जन्म लेने लगती है। शिक्षा की यह जिम्मेदारी बनती है कि हर नागरिक अपने आपको राष्ट्र का समान नागरिक समझे तथा राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत होकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण में अपनी सहभागिता दे। हमारी पाठ्यचर्या में राष्ट्रीयता के तत्वों को और समृद्ध किया जाना चाहिए जिससे समाज का हर वर्ग अपने आप को राष्ट्र का अभिन्न एवं अनिवार्य अंग समझे।
9. विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास
केवल राष्ट्रीयता की भावना ही नहीं अपितु विश्व बन्धुत्व का भी बोध हर नागरिक को कराना शिक्षा का प्रमुख कार्य है। विश्व बन्धुत्व से ही शांति एवं प्रगति सम्भव है।
इस प्रकार आप देख सकते हैं कि शिक्षा ही वह अभिकरण है जिससे समाज का सीमान्त वर्ग बड़ी ही आशा भरी दृष्टि से देखता है तथा अपेक्षा रखता है कि शिक्षा उसे आत्मनिर्भर बनाकर उसे लोकतान्त्रिक तरीके से आर्थिक एवं सामाजिक विकास में योगदान देने में समर्थ बनाये।
मांगों की पूर्ति के लिए उचित सामाजिक शैक्षणिकरण
अब आप यह बात तो समझ ही गए होंगे कि समाज की विविधता से उत्पन्न जटिलताओं एवं समाज में प्रकृति या मानव जनित विषमताओं व विसंगतियों को दूर करने के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण साधन है। सामाजिक समता एवं समानता की स्थापना तथा समाज के हर वर्ग को राष्ट्र की विकास की मुख्य धारा में लाना ही राष्ट्र का मुख्य लक्ष्य है जिसकी सप्राप्ति शिक्षा द्वारा ही संभव है। समाज का सीमान्त वर्ग जो एक लंबे समय से राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग थलग रहा है बदली परिस्थितियों में अपनी भूमिका के निर्वहन के लिए विभिन मांगे रखता है जिसका आपने अभी अवलोकन किया। सीमान्त वर्ग की इन विभिन्न मांगों की पूर्ति के लिए उचित सामाजिक तथा शैक्षणिक रणनीतियों को तैयार करने की आवश्यकता है।
आईए यह जानने का प्रयास करें कि सीमान्त वर्ग के इन व्यक्तियों एवं समुदायों की मागों कि पूर्ति लिए विभिन्न सामाजिक एवं शैक्षिक रणनीतियां क्या हो सकती हैं ? सबसे पहले बात करते हैं सामाजिक रणनीतियों की।
सामाजिक रणनीतियाँ
1. समाज को मुख्य धारा में जोड़ना -
सामाजिक विविधता एवं विषमता के कारण समाज का वर्ग सीमान्त रह गया उसे समाज एवं राष्ट्र की मुख्य धारा में लाना समाज की प्रमुख सामाजिक रणनीति होनी चाहिए। समाज के सीमान्त वर्ग के हर व्यक्ति एवं समुदाय को समाज के नीति निर्माण से लेकर क्रियान्वयन, शासन-प्रशासन इत्यादि हर जगह समान अवसर मिलना चाहिए। सरकार की कल्याणकारी योजनाएं समाज के हर अंतिम व्यक्ति तक पहुँच सकें, इसका प्रयास होना चाहिए।
2. समान नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार उपलब्ध कराना-
सीमान्त वर्ग को राष्ट्र की मुख्या धारा में लाने के लिए दूसरी प्रमुख सामाजिक रणनीति है - समान नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों की उपलब्धता। समाज के उपेक्षित वर्ग को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, सुरक्षा, जीवन जीने का समान अधिकार मिल सके, सभी कानून के समक्ष समान हों तथा कानून का समान संरक्षण सभी को हो । इस प्रकार समाज के हर वर्ग एवं व्यक्ति को सभी प्रकार के नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों का बिना किसी भय के समान रूप से उपयोग करने का अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास होना चाहिए।
3. आर्थिक स्वावलम्बन-
समाज के सीमान्त वर्ग को आर्थिकरुप से स्वावलम्बी बनाकर शोषण के चक्र से मुक्ति दिलाना तथा राष्ट्र की आर्थिक विकास की मुख्या धारा में ले आना सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक रणनीति है जिसके द्वारा सीमांतता की विद्रूप समस्या को समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा द्वारा कौशलों का विकास किया जाए तथा तथा रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रम के द्वारा समाज के सीमान्त वर्ग को कुशल मानव पूंजी के रूप में स्थापित करके आर्थिक रूप से पूर्ण स्वावलंम्बी बनाया जाए।
4. सामाजिक सुरक्षा तथा सम्मान
समाज के सीमान्त वर्ग लम्बे समय तक उपेक्षित व वंचित होने के कारण समाज से जुड़ाव नहीं महसूस कर पाते। समाज का यह दायित्व हे कि वह समाज के सीमान्त वर्ग को सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराये तथा समाज में उन्हें सम्मानित स्थान प्रदान करे । अतः सामाजिक सुरक्षा तथा सम्मान सीमान्त वर्ग के व्यक्तियों एवं समुदायों को समाज की मुख्य धारा में लाने की एक महत्वपूर्ण सामाजिक रणनीति के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिए ।
5. समतामूलक समाज की स्थापना-
समाज के वंचित व उपेक्षित सीमान्त वर्ग को समता के आधार पर सरकारी सेवाओं तथा शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण प्रदान कर उन्हें राज्य की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जाये। भारत में इस आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी है किन्तु इसे हर सीमान्त व्यक्ति तक पहुचाने का प्रयास होना चाहिए।
उपर्युक्त सामाजिक रणनीतियों के साथ साथ इन सीमान्त वर्ग के व्यक्तियों समुदायों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के लिए शैक्षिक रणनीतियों की भी आवश्यकता है। आईए इनका भी एक विश्लेषण करें।
शैक्षिक रणनीतियाँ
1. शिक्षा के अवसरों की समानता
समाज का यह दायित्व है कि समाज में विशेष अधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान अवसर मिले। सभी व्यक्तियों को उनके शारीरिक, मानसिक, नैतिक विकास का समान अवसर मिले जिसके लिए आवश्यकता है कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के शैक्षक अवसरों की समानता मिले अर्थात सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक स्तर, शिक्षा के अवसरों की समानता में बाधक न हो।
2. छात्रवृत्ति की व्यवस्था
समाज के सीमान्त वर्ग के लोगों का शैक्षिक स्तर उठाने के लिए सरकार द्वारा छात्रवृत्ति की योजना क्रियान्वित की गई है। सरकार का प्रयास होना चाहिए कि धन के अभाव में कोई भी सीमान्त समुदाय का विद्यार्थी शिक्षा से वंचित न हो।
3. प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए निःशुल्क कोचिंग
सरकार द्वारा पिछड़े वर्ग एवं सीमान्त समुदाय के लोगों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में उनकी सहभागिता बढ़ाने तथा उन्हें प्रेरित एवं प्रशिक्षित करने के लिए निःशुल्क कोचिंग की व्यवस्था की जाती है। इसके द्वारा विभिन्न प्रशासकीय सेवाओं, बैंक, रेलवे, निगमों आदि सरकारी नौकरियों में अधिक से अधिक सहभागिता बढ़ाने के लिए पूर्व - प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की गयी है। ऐसे केन्द्रों के माध्यम से समाज के सीमान्त वर्ग के सदस्यों को अभिमुखीकरण एवं प्रशिक्षण देकर और अधि प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
4. व्यावसायिक एवं तकनीकी पाठ्यक्रमों में प्रवेश
सीमान्त वर्ग के विद्यार्थियों को व्यावसायिक एवं तकनीकी पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिससे वे स्वावलम्बी बनकर राष्ट्र के विकास में अपना योगदान दे सकें।
5. छात्रावास की सुविधा
सीमान्त वर्ग के विद्यार्थियों को निःशुल्क छात्रावास की सुविधा - उपलब्ध करायी जाये जिससे वह बिना किसी बाधा के अध्ययन कर सकें।
6. वित्तीय सहायता-
सीमान्त वर्ग के विद्यार्थियों को केवल अध्ययन हेतु ही वित्तीय सहायता नहीं मिलनी चाहिए अपितु कौशल विकास करके उन्हें उद्यम स्थापित करने हेतु भी आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जानी चाहिये जिससे वह अध्ययन के उपरान्त अपने कौशल का उपयोग स्वयं के तथा राष्ट्र के विकास के लिए कर सकें।
7. विद्यालयी पाठ्यचर्चा सुधार -
सीमान्त वर्ग के विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या का पुनर्निर्माण किया जाना चाहिए जिसमें इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि सीमान्त वर्ग के लोग अपनी क्षमताओं के विकास का पूरा अवसर पा सकें। पाठ्यचर्या का निर्धारण इस प्रकार होना चाहिए कि वह उनके व्यक्तित्व का विकास कर सके साथ ही रोजगार के अवसर भी उपलब्ध करा सके। पाठ्यचर्चा का निर्धारण इस प्रकार हो कि सीमान्त वर्ग के लोग पाठ्यचर्या से जुड़ाव महसूस कर सकें तथा उनके व्यक्तित्व एवं सामाजिक कौशलों का विकास हो सके जिससे वह समाजोपयोगी नागरिक बन कर राष्ट्र के विकास में योगदान दे सकें। पाठ्यचर्या में राष्ट्रीय एकता एवं विश्व बन्धुत्व की भावना का भी समावेश होना चाहिए।
इस प्रकार आप पाते हैं कि उपर्युक्त सामाजिक एवं शैक्षिक रणनीतियों का विकास कर समाज में व्याप्त विविधता को एक समस्या नहीं अपितु संसाधन के रूप देखा जा सकता है और इस विविधता का उपयोग सृजनात्मकता के विकास के लिए किया जा सकता है तथा विविधता जनित विषमता या असमानता को दूर करके समाज के द्वारा सबी व्यक्तियों, विशेष रूप से अब तक सीमान्त रहे व्यक्तियों एवं समुदायों को राष्ट्र के विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है।