मुसलमानों के आक्रमणों से पूर्व भारत की दशा
मुसलमानों के आक्रमणों से पूर्व भारत की दशा एक परिचय
ग्यारहवीं
शताब्दी में जब मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण करने शुरू किये तब भारत विभिन्न
राज्यों में बंटा हुआ था। इन राज्यों के शासक आपस में सर्वोच्च शक्ति स्थापित करने
के लिए लड़ रहे थे। आपसी ईर्ष्या और द्वेष के कारण वे विदेशी आक्रमणकारियों का
संगठित होकर सामना न कर सके। उनकी पराजय का यह एक मुख्य कारण था।
मुलतान और सिंध :
612 ई. में अरबों ने
सिन्ध और मुलतान दोनों राज्यों को विजय कर लिया। ये दोनों हिन्दू राज्य संगठित
होकर विदेशियों द्वारा विजय किये जाने का विरोध करते तो सफल होते। परस्पर शत्रुता
के कारण ये राज्य मुसलमानों की अधीनता में रहे। 871 ई. में इन राज्यों ने खलीफा के आधिपत्य का
अन्त कर दिया और स्वतंत्र हो गये। ये राज्य अपनी विशेष स्थिति के कारण समय-समय पर
खलीफा के प्रति नाम मात्र की स्वामि भक्ति प्रदर्शित करते रहे। कई राजवंश आये और
चले गये। ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में मुलतान में कारमाथियन जाति का शासक फतेह
दाऊद राज्य करता था। वह अपनी योग्यता के लिए लोकप्रिय था। सिंध में अरब के मुसलमान
राज्य करते थे।
हिन्दूशाही साम्राज्य :
इस राज्य की सीमाएँ चनाब नदी से लेकर हिन्दूकुश पर्वत तक थीं। काबुल इस राज्य के अन्तर्गत था । अरब के शासक इस राज्य को 200 साल के भरसक प्रयत्नों से भी विजय न कर सके। अन्त में इन्हें अफगानिस्तान, काबुलसहित छोड़ना पड़ा। नई राजधानी उदभंदपुर (Udbhandpur) अथवा Okbgan (Waihand) बनाई गई। जयपाल दसवीं शताब्दी के अन्त में यहाँ का शासक था। वह अपनी वीरता और योग्यता के लिए प्रसिद्ध था । किन्तु विदेशी विजेताओं का सामना करने में असफल रहा।
कश्मीर:
कश्मीर
का राज्य मुख्य राज्यों में से एक था। इसके शासक को हिन्दुस्तानी साम्राज्य और
कन्नौज के साथ युद्ध लड़ना पड़ा। कश्मीर का एक प्रसिद्ध शासक शंकरवर्मन था। उसकी
अधीनता में राज्य की सीमा का अनेक दिशाओं में विस्तार हुआ। ऐसा कहा जाता है कि
उसने आधुनिक हजारा जिले व प्राचीन उरासा के लोगों के साथ युद्ध करते हुए वीरगति
प्राप्त की। उसका स्थान कुछ संघर्ष के बाद यशसकारा ने लिया। उसके उपरान्त
पर्वगुप्त और क्षेमगुप्त शासक बने । क्षेमगुप्त की पत्नी दीदा वास्तव में राज्य की
संचालक थी। कुछ समय के बाद उसने क्षेमगुप्त को उतार कर स्वयं सिंहासन संभाल लिया।
दीदा के राज्य का अन्त 1003 ई. में हुआ।
लोहारा वंश के शासक संग्रामराजा ने नये वंश की नींव डाली। मुसलमानों के पंजाब पर
आक्रमण के समय कश्मीर का शासन एक नारी के अधीन था।
कन्नौज :
नौवीं
शताब्दी के मध्य से कन्नौज में प्रतिहार वंश राज्य कर रहा था। वे श्रीराम के
भ्राता लक्ष्मण को अपने वंश का संस्थापक मानते थे। कई विद्वानों का मत हैं कि वे
गुर्जर जाति की सन्तान हैं। उनके राजा वत्स को सम्राट की उपाधि से सुशोभित किया
गया था। उसका उत्तराधिकारी राजा नागभट्ट द्वितीय था। धर्मपाल, बंगाल के शासक को
नागभट्ट से पराजय स्वीकार करनी पड़ी परन्तु राष्ट्रकूटों से वह स्वयं हार गया।
अपने पड़ोसी राज्यों से कन्नौज को निरन्तर युद्ध लड़ने पड़े। राष्ट्रकूटों के शासक, इन्द्र तृतीय ने
कन्नौज के प्रतिहार राजा महिपाल को युद्ध में इतनी बुरी तरह से खदेड़ा कि उसकी
राजधानी कन्नौज भी छिन गई। प्रतिहार राज्य क्षीण हो गया और उसकी सीमा संकुचित हो
गई। उत्तरी गंगा घाटी राजस्थान का कुछ अंश और मालवा उनके अधीन रह गये। उनके
अधीनस्थ राज्य, बुन्देलखंड के
चन्देल, गुजरात के
चालुक्य और मालवा के परमार सब स्वतंत्र हो गये। राज्यपाल प्रतिहार वंश का अन्तिम
शासक था जिसके शासनकाल में 1018 ई. में महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। तदुपरान्त
गहड़वाल कन्नौज के नये शासक बने जिनका संस्थापक चन्द्रदेव था। उसने काशी, कन्नौज, अयोध्या और
इन्द्रस्था आदि धार्मिक स्थानों की रक्षा की सम्भव है कि उसने उरुशदंड नामक कर
लगाकर उस धन से सीमा की रक्षा के लिए स्थायी सेना बनाई। चन्द्रदेव का पौत्र, गोविंद चन्द्र
अपने पड़ोसी राज्यों के साथ निरन्तर युद्ध लड़ता रहा और उसने अपने राज्य की पूर्वी
सीमा मुंधेर तक बढ़ा ली।
ऐसा अनुमान किया
जाता है कि उसे मुसलमानों का सामना करने में अधिक सफलता नहीं मिली। विजय चन्द्र ने
गोविन्द चन्द्र का स्थान लिया। मुसलमानों से फिर युद्ध छिड़ गया। उसका स्थान
जयचन्द्र ने लिया। जयचन्द्र को पूर्व में सेन वंश और पश्चिम में अजमेर और साम्भर
के चौहान वंशों के साथ संघर्ष करना पड़ा। उसने 'उरुशदंड' नामक कर बन्द कर दिया। जयचन्द्र और पृथ्वीराज का परस्पर
द्वेष दोनों के पतन का कारण बना।
चन्देल :
खजुराहो
में चन्देलों का राज्य कन्नौज के दक्षिण में था। उसके शासक विद्याधर ने महमूद
गजनवी का सामना किया। उसके उपरांत इस राज्य को कई कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं। मदन
वर्मन (1129-1163 ई.) ने विदेशी
शत्रुओं का सामना करने के साथ-साथ अपनी सीमा का विस्तार भी किया। 1165 से 1201 ईसवी तक उसके
पौत्र परमार्दिन ने शासन किया। 1182 ई. के लगभग पृथ्वीराज चौहान ने उसे हराया। परमार्दिन साहसी
नहीं था। वह चौहानों से शत्रुता रखता था और सम्भवतः गहड़वालों से मित्रता चाहता
था।
दिल्ली के तोमर :
गंगा घाटी के द्वार पर दिल्ली के तोमर वंश ने अनेक बार सफलतापूर्वक रक्षा का
अधिकार प्राप्त किया। महिपाल तोमर ने हांसी, थानेश्वर, नगरकोट आदि किलों को विजय किया। परन्तु वे लाहौर न ले सके।
उनके पड़ोसी शत्रु राजपूतों ने उन्हें शान्ति से न बैठने दिया। परिस्थितियों से
विवश होकर अपनी रक्षा के लिए तोमरों ने मुसलमानों से राजपूतों के विरुद्ध सन्धि कर
ली।
चौहान :
चौहान
तोमर वंश के शत्रु थे। 11वीं और 12वीं सदी में
उन्होंने अपनी शक्ति बढ़ा ली। 1079 ई. में दुर्लभ राजा तृतीय मुसलमानों से युद्ध लड़ता हुआ
अमर हो गया। उसका कार्य पृथ्वीराज प्रथम ने जारी रखा। अजयराज को गजनी के मुसलमानों
को हराने का श्रेय दिया जाता है। अरुणोराजा, अजयराज के पुत्र ने अजमेर के निकट न केवल मुसलमानों को
पराजित किया अपितु उनके राज्य पर भी आक्रमण किये। उसके पुत्र विशाल व विग्रहराज
चतुर्थ के अधीन मुसलमानों के आक्रमण को रोका गया और साथ ही हांसी तथा दिल्ली को भी
अपने राज्य में मिला लिया। तोमर वंश ने चौहान वंश की अधीनता स्वीकार कर ली।
विग्रहराज को एक सतर्क शासक माना जाता है क्योंकि उसने अपने राज्य की विदेशी
शत्रुओं से रक्षा की। आर्यावर्त को केवल आर्यों का निवास स्थान बनाना और हिन्दुओं
के मन्दिरों की मुसलमानों से रक्षा करना विग्रहराज ने अपने जीवन का ध्येय बनाया
था। यह प्रमाण हमें शिवालिक स्तम्भ प्रशस्ति और ललित-विग्रह राज नाटक से मिलता है।
चालुक्यों और
चौहानों की शत्रुता का वर्णन किये बिना यह गाथा अधूरी रह जाती है। चालुक्य राजा
मूलराज को 'विग्रहराज
द्वितीय ने पराजित किया। गुजरात के राजा जयसिंह सिद्धार्थ ने अपनी पुत्री का विवाह
अरुणोराजा से कर के शत्रुता को मित्रता में बदलने का प्रयास किया। कुमारपाल
चालुक्य के राज्य में एक बार फिर युद्ध की दुन्दुभी बज उठी। उसने अजमेर के पास
अरुणोराजा को हराकर अपमानजनक शर्तें मानने के लिए बाध्य किया । विग्रहराज चतुर्थ
ने चालुक्यों से उनके राज्य को रौंद कर और चित्तौड़ को विजय करके अपने पूर्वज के
अपमान का बदला लिया। संघर्ष चलता रहा। 1187 ई. में दोनों पक्षों ने थक कर सन्धि कर ली। दुर्भाग्य की
बात है कि इतना सहन करने पर भी दोनों वंश मुसलमान आक्रमणकारियों का सामना करने के
लिए संगठित न हो सके।
उत्तरी भारत में
सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता हथियाने के उद्देश्य से चौहान वंश ने महोबा खजुराहो के
चन्देलों, बयाना के भडनका
वंश (Bhadanaka) मालवा और आबू के
परमार और बनारस तथा कन्नौज के गहड़वालों के राज्यों पर आक्रमण किये। मालवा के
परमार वंश के साथ भी उनकी शत्रुता थी। चालुक्य और चौहान प्रभुत्व के लिए शत्रुता
रखते थे। जयचन्द्र गहड़वाल और पृथ्वीराज तृतीय चौहानों के वंशज शत्रु थे।
पृथ्वीराज ने जयचन्द्र की पुत्री का अपहरण कर लिया। इससे शत्रुता ने और भी भीषण
रूप ले लिया।
गुजरात चालुक्य :
दसवीं सदी के मध्य में मूलराज ने गुजरात में चालुक्य वंश का राज्य स्थापित किया।
जयसिंह सिद्धार्थ और कुमारपाल के प्रयत्नों से यह राज्य पश्चिमी भारत का एक महान
शक्तिशाली राज्य बन गया। इस राज्य की सीमा के अन्दर गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा, आबू, नदौल और कोनकण
स्थित थे। इस राज्य के शासकों का क्रम इस प्रकार था - कुमारपाल, अजयराज, मूलराज द्वितीय, भीम द्वितीय।
मूलराज द्वितीय की माता ने अपने अधीनस्थ राजाओं के सहयोग से मुहम्मद गौरी के
आक्रमण को पछाड़ दिया। भीम द्वितीय के शासन काल में उसके अधीन राजाओं ने अपनी
स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और उसे सिंहासन से उतार दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि
भीम द्वितीय एक साहसी वीर शासक था परन्तु वह और उसके पड़ोसी राजा मुहम्मद गौरी की
असीम और भयंकर सैनिक शक्ति का अनुमान न लगा सके। जब तक शत्रु उसकी सीमा पर न आ
पहुँचा भीम द्वितीय और उसकी सेनाएँ टस से मस न हुई। उन्होंने एक शुभ अवसर हाथ से
खो दिया ।
मालवा के परमार :
दक्षिणी और उत्तरी भारत के लगभग सभी राज्यों के साथ परमार वंश को अपनी स्थिति के
कारण युद्ध करने पड़े। भोज महान ने हिन्दू जाति में एक नयी जीवन ज्योति प्रेरित कर
दी। उसने मुसलमानों का विरोध किया। 1028 ई. में जब महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण किया
तो सम्भवत: वह भोज की शक्ति के भय से पहला मार्ग छोड़कर दूसरे रास्ते से वापिस
गया। भोज के शत्रुओं की मुसलमानों के प्रति क्या नीति थी. कुछ ऐसे प्रमाण नहीं
मिलते। 12वीं सदी में
मालवा की स्थिति अच्छी न रह सकी।
कलचुरि :
गोरखपुर
में कलचुरि की दो शाखाएँ राज्य करती थीं। एक शाखा त्रिपुरी में थी। त्रिपुरी के
राजा कोकल ने त्रुषका (Turushkas)
राज्य में लूट
मचा दी। 1034 ई. में बनारस के
राजा गांगेयदेव विक्रमादित्य ने नयालतगीन के आक्रमण के समय मुसलमानों के साथ भीषण
युद्ध लड़ा। इसके उपरांत कलचुरि वंश, चन्देल और परमार वंशों के विरुद्ध प्रभुसत्ता के लिए लड़ता
रहा। 1139 ई. में जयसिंह
कलचुरि सिंहासन उसने गजनवी के शासक खुसरो मलिक के आक्रमण को खदेड़ दिया। जयसिंह ने
1177 से 1180 ई. तक राज्य
किया। उसका उत्तराधिकारी विजयसिंह 1195 ई. तक शासक रहा। उसने अपने पूर्वजों की नीति के अनुसार
पड़ोसी राज्यों से युद्ध किये।
बंगाल का पाल वंश :
पाल वंश के राजा देवपाल ने बहुत समय तक राज्य किया। चूंकि उसके उत्तराधिकारी
कमजोर थे इसलिए उसके राज्य की अवनति हो गई। पाल वंश के राजाओं को कन्नौज के
प्रतिहारों से युद्ध करना पड़ा और उनकी प्रजा की दुर्दशा हुई। 11वीं शताब्दी के
प्रारम्भ में महिपाल प्रथम ने बंगाल पर राज्य किया, वह महमूद का समकालीन था। वह अपने वंश के नाम को
ऊँचा उठा सका। ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल का कुछ भाग स्वतन्त्र हो गया था और
उसके राजा नाम मात्र ही अधीन थे। जिस समय महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण किया, उसी समय
राजेन्द्र चोल ने बंगाल पर आक्रमण किया। इस कारण बंगाल के लोगों की बहुत हानि हुई
।।
दक्खिन के राज्य (The Deccan Kingdoms )
उत्तर भारत की
तरह, दक्षिण भारत में
भी कल्याणी के चालुक्य, कांची के चोल और
मदुरा के पांड्य वंशों के लोग प्रभुत्व के लिए संघर्ष कर रहे थे। प्रभुत्व के
संघर्ष में दक्खिन में सन् 753 ई. में पूर्व चालुक्य वंशज राष्ट्रकूटों से पराजित हो गए
थे और राष्ट्रकूट परवर्ती चालुक्य वंशजों से सन् 973 ई. में हार गए थे। इसी प्रकार नौवीं शताब्दी
के अन्त तक महान पल्लव वंश का पतन हो चुका था। परवर्ती चालुक्य वंश का प्रवर्तक
तैला द्वितीय था जो अपने को वातापी के प्रारम्भिक चालुक्य वंश का वंशज मानता था।
उसने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। उसके उत्तराधिकारियों को चोल लोगों के साथ
निरन्तर संघर्ष करना पड़ा,
जो महान शासक
राजाराज के शासनकाल में उत्कर्ष को प्राप्त हुए थे। राजाराज ने सन् 985 से 1014 ई. तक राज्य
किया। उसके उत्तराधिकारी राजेन्द्र चोल ने 1044 ई. तक राज्य किया। राजेन्द्र चोल एक महान योद्धा और विजेता
था। उसने दक्षिणी तथा उत्तरी भारत में विस्तृत विजय प्राप्त की और उसकी गणना देश
के महत्तम शासकों में होती थी। जिस समय दक्षिण में चोल और चालुक्य वंश के लोगों के
बीच घोर संघर्ष चल रहा था,
मुसलमानों ने
भारत पर आक्रमण कर दिया।
यह कहना सही नहीं
है कि भारत की जनता में देशभक्ति की भावना का अभाव था। यह सर्वविदित है कि
मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध में सहायता देने के लिए स्त्रियों ने अपने आभूषण तक
बेच दिए और विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध लड़ाई में सहायता करने हेतु गरीब
लोगों ने भी बहुत कठिन परिश्रम किया। हिन्दुओं में शूरवीरता की बिल्कुल कमी नहीं
थी । वस्तुतः स्त्रियों को यह गर्व था कि उनके पति पराजित होने की अपेक्षा
युद्धस्थल में प्राण त्याग कर देते हैं। माताएं अपनी उन संतानों से लज्जित अनुभव
करती थीं जो अपनी मातृभूमि की रक्षा नहीं कर सकती थीं। फिर भी पारस्परिक शत्रुता
तथा कलह के कारण देशभक्ति की इस भावना का कोई लाभ नहीं था। प्रतिहार वंश के लोग
मुसलमानों के शत्रु थे, परन्तु
राष्ट्रकूट वंशज उनके मित्र थे। प्रतिहार वंशजों ने मुसलमान आक्रमणकारियों का घोर
विरोध किया, परन्तु प्रतिहार, राष्ट्रकूट और
पाल वंशों के त्रिपक्षीय परस्परिक संघर्ष के परिणाम स्वरूप प्रतिहार राज्य का पतन
हुआ और इससे मुसलमानों का काम आसान हो गया। जयपाल एक महान देशभक्त था, परन्तु अनंगपाल
स्वार्थी था और इस प्रकार विदेशी आक्रमणकारियों का कोई जोरदार विरोध नहीं हो सका।
यह कहा जाता है कि जब तराई के युद्ध (ठंजजसम व िज्तपद) में पृथ्वीराज चौहान की हार
हुई तो कन्नौज के राजकुमार जयचन्द्र ने “उत्सव और रंगरलियां मनानी शुरू कर दी हर घर में मिठाइयाँ
बँटी और दुन्दुभियां बजायी गयीं।" ऐसा वातावरण विदेशी आक्रमणकारियों के बहुत
अनकूल था।
मुसलमानों के आक्रमणों से पूर्व भारत सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक दशा
यह ठीक ही कहा गया है कि भारत के राजनीतिक तथा प्रशासनिक ढाँचे में प्रान्तीयता, अस्थिरता तथा अव्यवस्था विद्यमान थी, जिसका मुख्य कारण उस समय प्रचलित भूमि-प्रणाली ही थी। सैनिक अथवा प्रशासनिक अधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले में भूमि प्रदान की जाती थी। राजा भूमि प्रदान किया करता था और बदले में भूमि प्राप्त करने वाले सामन्त को राजा के लिए सैनिकों और धन की व्यवस्था करनी पड़ती थी। जिन लोगों को भूमि दी जाती थी, उन्हें अपने मामलों के प्रशासन में स्वतंत्रता होती थी। वे भूमि में दास, गरीब लोगों और बेगार श्रमिकों से खेती करवाते थे। उन्हें जो कुछ भी प्राप्त होता था, वह सारा उनकी जेब में जाता था। उन्हें राजा को सैनिक सेवा तथा एक नियत धनराशि ही देनी होती थी। महासामन्त और सामन्त सरकार का मुख्य आधार होते थे। इससे सरकार कमजोर होती गयी। आर्नल्ड हौजर के अनुसार, “राजा युद्ध तो करता था, परन्तु वह शासन नहीं करता था। उसके नाम पर बड़े-बड़े जमींदार शासन करते थे परन्तु वे अधिकारियों और सैनिकों के रूप में नहीं, बल्कि स्वतंत्र सामंतों के रूप में शासन करते थे। वे शासक वर्ग के लोग थे जिनके हाथ में सरकार के सभी विशेषाधिकार, समस्त प्रशासन तंत्र तथा सेना के सभी महत्त्वपूर्ण पद होते थे। "
इन सामन्तों के
अपने गुणावगुण थे। वे अपने शत्रुओं के प्रति उदारचरित होते थे। स्त्रियों का वे
सम्मान करते थे । चारणों तथा याचकों के प्रति वे उदार होते थे। वीरता में वे निडर
होते थे। वे इतने बहादुर थे कि युद्ध करते समय अपने जीवन की परवाह नहीं करते थे, युद्धक्षेत्र में
वे बेतहाशा लड़ते थे। वे युद्धक्षेत्र में दुःसाहसी बनकर लड़ते थे और अपना शेष समय
जनानखानों में गंवाते थे। उन्हें अपनी पोशाक का बहुत ध्यान होता था और वे शान की
जिन्दगी बिताना पसंद करते थे। वे विभिन्न क्षेत्रों और देशों की स्त्रियों से अपने
हरम को भरकर रखते थे और अपने हरम की सुन्दरता तथा भोगविलास का बहुत ध्यान रखते थे।
सामन्त अपनी स्त्रियों के साथ अपने निजी कक्षों और तैरने के तालाबों में रंगरलियाँ
मनाया करते थे। वे वेश्यालयों में भी जाया करते थे। संस्कृत के कई ग्रंथों में
शराबखानों और वेश्यालयों के जीवन का उल्लेख मिलता है। सामन्त लोग स्त्रियों के
बिना नहीं रह सकते थे और स्वभावतः वे युद्धक्षेत्र में भी उन्हें अपने साथ ले जाया
करते थे। हेमचन्द्र ने एक सैनिक शिविर का वर्णन इन शब्दों में किया है- "
शिविर गन्धवों के नगर की भाँति सुखद और सुन्दर था, जिसमें लोग नींद में सुन्दर स्वप्नों का आनंद
लेते थे, जिसमें अत्यधिक
कामातुर पुरुष सतर्क रहते थे; जिनमें अत्यधिक मैथुन के कारण उन पुरुषों की कमर थक जाती
थी। थकावट के कारण उनकी आंखें धंस जाती थीं। स्त्रियाँ अपनी क्रीड़ाओं द्वारा
सुन्दरता का वातावरण पैदा करती थीं। जहाँ दुकानें लगी होती थीं, जिनमें सैनिक
अच्छी और बुरी निद्रा के विचारों से मुक्त होते थे।" उनके कक्ष सोने, जवाहरात तथा
कशीदाकारी से सजे होते थे। वे बहुत बड़ी संख्या में नर्तकों, संगीतज्ञों, चारणों तथा
कवियों आदि को इकट्ठा कर लेते थे और उनकी संगति में अपना बहुत-सा समय नष्ट कर देते
थे। इसके फलस्वरूप क्षेत्रीय शत्रुता और संघर्ष होने लगे, जिसके कारण देश
के लोगों का मनोबल और शक्ति कमजोर होती गयी। प्रत्येक युद्ध में भयंकर विनाश होता
था। नगरों तथा गाँवों को आग लगा दी जाती थी और कंकड़-पत्थर के सिवाय सभी कुछ आग
में जलकर राख हो जाता था। पृथ्वी मांसरहित अस्थि-पंजरों और टूटी खोपड़ियों से ढक
जाती थी। दुःख और भूख से त्रस्त तथा क्षीण हुए लोग वृक्षों के अधजले तनों की तरह
दिखाई देते थे और बड़ी कठिनाई से चल पाते थे। हर एक राज्य युद्ध क्षेत्र बना हुआ
था और लोगों की सारी शक्ति तथा साधनों का युद्ध में ही अपव्यय हो रहा था। लोगों को
प्रारंभ से ही लड़ाई के लिए प्रशिक्षित किया जाता था और वस्तुतः लोगों में युद्ध
की मनोवृत्ति पैदा कर दी गयी थी। हर बात पर कलह और संघर्ष होता था । यहाँ तक कि
विवाहोत्सव भी युद्ध स्थल का रूप धारण कर लेता था । सामान्य बातचीत और उपहार में
भी संघर्ष और मृत्यु का अवसर उपस्थित हो जाता था। ऐसे वातावरण में कोई राजनीतिक
स्थिरता सम्भव नहीं हो सकती थी । आपसी ईर्ष्या, शत्रुता और संघर्ष के कारण सामन्तों ने अपने देश का विनाश
किया। उनके वर्गीकरण, जोड़-तोड़ और
संघर्षों के परिणामस्वरूप सर्वत्र विनाश छा गया। सामन्तों ने मन्दिरों को लूटा और
लोगों से लूटपाट करवायी। उन्होंने देश में लूटपाट मचा दी। उन्होंने अत्यन्त
बर्बरता तथा निर्दयता का व्यवहार किया।
सामन्त लोग हठी, तानाशाह और
भ्रष्ट थे, क्योंकि सरकार की
सारी शक्ति का युद्धों और कूटनीति पर ही अपव्यय हो रहा था। असैनिक अपनी मनमानी
करने में पूरी तरह स्वतंत्र थे। कल्हन लिखता है कि असैनिक कर्मचारी भ्रष्ट हो गए
थे और वे राक्षसों की तरह व्यवहार करते थे। वे लोगों की भलाई की अपेक्षा पैसा
बनाने का अधिक ध्यान रखते थे। क्षेमेन्द्र ने असैनिक कर्मचारियों की बर्बरता, निरंकुशता तथा
निर्दयता का उल्लेख किया है। लोग असैनिक कर्मचारियों के अधीन दुःख से कराहते थे और
वे उनसे छुटकारा पाने के लिए मौत का आलिंगन करने के लिए तैयार थे।
व्यापारियों और
सौदागरों का व्यवहार बहुत आपत्तिजनक था। उनका केवल एक ही लक्ष्य था - लाभ कमाना और
अधिक धन बनाना। कल्हन ने उनके चन्दन युक्त ललाट, भौंहों, कर्णमूल और वक्ष स्थल, सूई के समान उनके संकीर्ण मुखों, उनके भारी-भरकम
पेट और उनके शोषण का वर्णन किया है। क्षेमेन्द्र ने उनके द्वारा जनता के शोषण के
लिए अपनाए गए तरीकों, जैसे झूठे बाट-
तोल, ब्याज की ऊँची
दरों आदि का उल्लेख किया है। वे अपने आप को धार्मिक व्यक्ति जाहिर करते थे, धर्म का प्रवचन
सुनते थे, ग्रहण के अवसर पर
तथा अन्य पवित्र दिनों पर बहुत देर तक स्नान करते थे, परन्तु दान के
रूप में कुछ भी नहीं देते थे। ऐसे सौदागरों का उल्लेख मिलता है जो खाद्य पदार्थों, रूई, नमक और ईंधन का
संचय करते थे और अपने ग्राहकों से ऊँचे दाम वसूल करते थे और झूठे नाप-तोल के
प्रयोग द्वारा उन्हें धोखा देते थे।
निर्धन लोगों की
दशा बहुत दयनीय थी। उनकी आय बहुत कम थी और हर कोई उनका शोषण करता था। उनके लिए
अपना जीवन निर्वाह करना कठिन था। व्यापारी उन्हें धोखा देते थे और अधिकारी उन्हें
मार-पीट कर उनसे धन बटोर लेते थे। क्षेमेन्द्र लिखता है कि निर्धन लोग बिना किसी
वस्त्र के धरती पर सोते थे और उन्हें वायु तथा मौसम के कष्ट झेलने पड़ते थे।
उन्हें भूख की यातना सहनी पड़ती थी ।
ग्यारहवीं
शताब्दी के कवि बब्बर ने लिखा है कि शीत ऋतु की ठण्डी वायु तथा वर्षा के कारण गरीब
लोगों में थरथराहट पैदा हो जाती थी। वे न केवल कड़ाके की सर्दी से बल्कि भूख से भी
पीड़ित थे। खाली पेट और दुःखी दिल वाले ये लोग अपने हाथ-पांव समेटकर जड़वत् हो
जाते थे। पुष्पदन्त नाम के एक अन्य कवि लिखते हैं कि निर्धन लोगों के लिए मौत के
हर्ष अथवा रोष का कोई महत्त्व नहीं होता था क्योंकि उनके अधिकांश मालिक उनके प्रति
कठोरता और निर्दयता का व्यवहार करते थे। मालाधारी हेमचन्द्र सूरी ने सन् 1123 ई. में निर्धन
लोगों की दशा का इन शब्दों में वर्णन किया है-"मेरे पास कोई पैसा नहीं है
जबकि लोग खुशियाँ मना रहे हैं। मेरे बच्चे बिलखते हैं। मैं अपने पत्नी को क्या दूँ? (अधिकारियों को)
भेंट देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। मेरे सम्बन्धी अपने धन-दौलत के मद में
मस्त हैं। अन्य धनवान लोग मुझसे घृणा करते हैं और मुझे पास भी नहीं बैठने देते। आज
मेरे घर में घी, तेल, नमक, ईंधन, कपड़ा कुछ भी
नहीं है। मिट्टी का बर्तन खाली पड़ा है। कल मेरे परिवार का क्या होगा? लड़की सयानी हो
रही है। लड़का बहुत युवा है और धन नहीं कमा सकता। परिवार के लोग बीमार हैं और मेरे
पास दवाई के लिए पैसा नहीं है। धर्मपत्नी नाराज है. कई मेहमान घर में आए हैं। क्या
मैं कहीं और चला जाऊँ? मैं क्या करूँ? मैं किस समुद्र
में डूब मरूँ? क्या में इस धरती
के दूसरे छोर पर चला जाऊँ ?
मैं क्या उपाय
करूँ ?
मैं किस पूजा
पद्धति अथवा साधन का प्रयोग करूँ अथवा मैं किस देवता की आराधना करूँ ? मेरा शत्रु अभी
जीवित है, मेरा भगवान मेरे
विरुद्ध है, धनी लोग अपना
कर्ज लौटाने के लिए कहते हैं, मैं कहाँ जाऊँ?"
आठवीं शताब्दी के
अन्त में एक बौद्ध भिक्षु राहुलभ्रद ने एक नया धार्मिक आंदोलन प्रारंभ किया। बाद
में वे सरहपाद के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे लोगों में ऊँच-नीच के भेदभाव के विरुद्ध
थे। उनका विचार था कि दलित वर्ग के लोगों में सम्पन्न और ऊँचे वर्ग के लोगों के
बराबर ही पवित्रता है। उन्होंने निर्धन लोगों के पक्ष का समर्थन किया और दूसरे
लोगों के साथ उनकी आध्यात्मिक क्षमता तथा समानता पर बल दिया। सरहपाद द्वारा
प्रारंभ किए गए आंदोलन ने जनसाधारण पर प्रभाव डाला। बहुत बड़ी संख्या में शिक्षक
तथा साधु जिन्हें सिद्ध कहा जाता था, आगे आए। उनमें से कुछ विद्वान लेखक और प्रभावी वक्ता थे।
सभी जातियों, वर्गों और मतों
के लोग सिद्धों के अनुयायी हो गए। तथापि, वे निम्नतर जातियों के लोगों में अधिक लोकप्रिय थे।
सिद्ध सरहपाद
अथवा सरोहवज्र बुद्धमत में सहजयान विचारधारा के संस्थापक थे। उनके मतानुसार संसार
को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और व्यक्ति विवाहित जीवन व्यतीत कर सकता है। जीवन
में पूर्णता खाते पीते और मौज . मनाते भी प्राप्त की जा सकती है। मनुष्य को हृदय
से नाचना गाना और आनंद मनाना चाहिए। सरहपाद लिखते हैं. "ए मानव, सीधे मार्ग को मत
छोड़ और टेढे मार्ग को मत ग्रहण कर प्रकाश तुम्हारे निकट ही है। अपने को दूर
"लंका में मत ले जाओ।" तदाकपाद लिखते हैं, ऐ योगिन अपने विश्वास के अनुसार कार्य करो और
सरल मार्ग के • बारे में किसी
भ्रम को अपने मन में आश्रय मत दो। लक्ष्मिणकर का मत था, “दुःख उठाने, उपवास करने और
धार्मिक कृत्य करने अथवा स्नान करने व शुद्धीकरण तथा अन्य सामाजिक नियमों का पालन
करने की कोई आवश्यकता नहीं है। न ही तुम्हें लकड़ी, पत्थर अथवा मिट्टी की बनी भगवान की मूर्तियों
के सामने नत मस्तक होने की जरूरत है। परन्तु एकाग्रचित्त होकर तुम केवल अपने शरीर की
पूजा करो, जिसमें सभी देवता
निवास करते हैं।" सिद्ध लोग आनंद और प्रसन्नता से भरपूर विवाहित जीवन का
समर्थन करते थे और वे कष्ट सहने, तपस्या अथवा त्याग में विश्वास नहीं करते थे। वे धार्मिक
औपचारिकताओं तथा मिथ्याभिमान का भी विरोध करते थे। उनका कहना था कि मुक्ति के लिए
उपवास, स्नान और
प्रार्थना की आवश्यकता नहीं है। मुक्ति तो मन के आंतरिक अनुशासन की एक स्थिति है।
सिद्ध लोग जाति तथा सम्प्रदाय के भेदभाव में विश्वास नहीं करते थे। वे ब्राह्मणों
तथा चांडालों को बराबर समझते थे। वे शिक्षित और अशिक्षित के बीच भी कोई भेद नहीं
करते थे। वे सभी प्रकार की औपचारिकताओं से मुक्त जीवन का समर्थन करते थे। वे
इन्द्रियों के आत्यन्तिक निग्रह में विश्वास नहीं करते थे। उनके मतानुसार कोई भी
व्यक्ति इन्द्रियों के भोगों में आसक्त हुए बिना उनका आनंद ले सकता है। बुद्धमत के
सहजीय सम्प्रदाय ने पूर्वी भारत के वैष्णव सहजीय आंदोलन पर गहरा प्रभाव डाला।
दसवीं सदी के प्रसिद्ध कवि राजशेखर की कर्पूरमंजरी में शैव योगी भैरवानंद के सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है। वह मदोन्मत्त है और कहता है-
" पाप कर्म और - पूजा, सभी भाड़ में जाएँ।
मेरे गुरुओं ने मुझे समाधि के अभ्यास
से मुक्त कर दिया है।
मदिरा और नारी के सेवन से हम बलवान बनते हैं।
मुक्ति के लिए हम मस्ती से नाचते हैं।
मैं एक उग्र युवा तरुणी को वेदी पर ले आया हूँ।
मुझे खाने के लिए काफी मांस और पीने के
लिए तेज शराब चाहिए और
यह सब मुझे भिक्षा के रूप में तथा मेरे बिस्तर के लिए
एक खाल मुझे मिल जाती है।
इससे उत्तम धर्म और क्या हो सकता है?
भगवान विष्णु और ब्रह्मा तथा अन्य देवता समाधि, पवित्र कर्म और वेदियों द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रचार चाहे करते फिरें ।
परन्तु हमें तो केवल
उमापति शंकर ने ही मदिरा तथा स्त्री-सेवन द्वारा मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा दी है।
"
कौल सम्प्रदाय के
अनुयायी बिना किसी प्रतिबंध के मांस, मदिरा और नारी का आनंद लेने में विश्वास रखते थे।
सोमसिद्धांत ने मैथुन के आनंद पर बल दिया जिसे वह शाश्वत सुख कहता था जो कि किसी
भी कष्ट से कम नहीं होता। वह मनुष्यों की अस्थियों के वस्त्र पहनता था और मनुष्य
को खोपड़ी में भोजन करता था। वह भैरव देवता की पूजा करता था जिसमें नरमांस, चरबी, आंत और भेजा का
नैवेद्य अर्पण करता था और नए कटे सिर से निकलते हुए मानव रक्त से तर्पण करता था।
वह सदा एक कपाल- स्त्री के साथ रहता था और शराब को आत्मा के फन्दे काटने वाली
वस्तु मानता था।
नाथ-योगियों के
बारे में पुष्पदन्त लिखता है कि उनके सिरों पर बहुरंगी टोपियाँ होती थीं। उनके
कानों में बड़े-बड़े छेद होते थे जिनमें हाथी दांत अथवा धातु के बने कुंडल लटके
रहते थे। उनके हाथों में लम्बी छड़ें होती थीं। उनके गलों में भिन्न-भिन्न रंगों
की कपड़े की चादरें लटकती थीं। वे खड़ाऊ पहनते थे। वे तुरही तथा भेरी बजाते हुए
घर-घर जाया करते थे। मदिरा,
गांजा तथा धतूरा
जैसी नशीली वस्तुओं का प्रयोग वे सामान्य रूप से करते थे।
नीलपट अथवा नील
वस्त्र का भी एक सम्प्रदाय था। वे सदा स्त्रियों के साथ आलिंगन किए रहते थे और
खुलेआम उनके साथ मैथुन करते थे। यदि उनसे कोई पूछता था कि क्या वे स्वस्थ और
प्रसन्न हैं, तो वे उत्तर देते
थे, “कि जब तक संसार
के सभी प्राणी स्त्रियाँ न बन जाएँ, सभी पर्वत मांस का ढेर न बन जाएँ और सभी नदियाँ शराब की
नदियों का रूप धारण न कर लें, नीलपट कैसे सुखी हो सकता है।"
वैष्णव सम्प्रदाय
के लोगों में आचरण की शिथिलता आ गयी थी। राधा और कृष्ण के प्रेम का अत्यन्त
आपत्तिजनक ढंग से वर्णन किया जाता था। जयदेव ने अपने 'गीत गोविन्द' में राधा और
कृष्ण की यौन प्रेम क्रीड़ाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। ऐसा माना जाता था कि
मनुष्य का अपनी कानूनन विवाहिता पत्नी की अपेक्षा किसी और स्त्री से प्रेम करना
अच्छा है।
विषयासक्ति के उन्माद का कला पर गहरा प्रभाव छाया हुआ था। भोज का कहना था कि वास्तुकारों और मूर्तिकारों को मैथुन कर रही स्त्रियों और पतली तरुणियों के साथ काम-क्रीड़ा करने के इच्छुक वीरों के चित्रों द्वारा कतिस्तम्भों की सजावट करनी चाहिए। यू.एन. घोषाल का कहना है कि गुजरात के चार हजार मन्दिरों में बीस हजार से अधिक नर्तकियाँ थीं। अल्बरूनी लिखता है कि वेश्यालयों से होने वाली आमदनी राजाओं की सेनाओं के खर्च के लिए काफी थी। गोइट्ज ने लिखा है कि राजदरबारों का जीवन विलासमय था और इसे विभिन्न फैशनों में दिखाया गया है। राजदरबारों की तरह मंदिरों को भी फैशनेबुल बनाया जाता था। बड़े देवताओं अथवा देवियों को अगम्य मानते हुए भी स्वर्गीय परियों ( अप्सराओं, सुरसुन्दरियों) के दल और उनके साथी छोटे देवताओं (गंधर्वों) को राजदरबार में कुलीन स्त्रियों तथा पुरुषों के रूप में चित्रित किया जा सकता है। उत्तर मध्यकाल में राज-धर्म अधिक छिछोरा हो गया और सुन्दर वेश्याकुमारियाँ देवदासियों के रूप में एक फैशन बन गयीं और वे गुप्त तांत्रिक कर्मकाण्ड में साझेदार बन गयीं और इस प्रकार फैशनेबुल कामुक स्त्रियों की मूर्तियों से मन्दिरों की दीवारों, स्तम्भों तथा छतों की सजावट होने लगी। मुसलमानों के आक्रमण से पूर्व पिछली कुछ शताब्दियों में ये आकृतियाँ चित्रों के रूप में मिलती थीं (कुछ स्थितियों में उन्हें पहचाना भी जा सकता है), और अन्तिम चरण में खुले अश्लील चित्र भी सामान्य रूप से मिलते थे। (भारतीय कला के पाँच हजार वर्ष पृष्ठ 134 ) (Five Thousand Years of Indian Art, p. 134 ) उच्च वर्ग के लोगों के बारे में जो बात सत्य थी वह निम्नतर वर्ग के लोगों के बारे में भी सही थी। ऐसा उल्लेख है कि उदक सेवा महोत्सव के अवसर पर लोग अपने शरीरों पर कीचड़ का लेप कर लेते थे और घर-घर घूमते थे। पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे बहुत शराब पी लेते थे और अश्लील क्रीड़ाएँ करते थे। उत्सव का मुखिया भैरव की तरह अपना रूप बनाकर गधे पर चढ़कर घूमता था। दूसरे लोग मेहतरों, ग्वालों आदि का वेश बनाकर उसके पीछे चलते थे। ऐसा विश्वास था कि जो इस उत्सव में शामिल नहीं होगा उस पर भूत और पिशाच क्रुद्ध हो जाएँगे। विजयदशमी के दिन आयोजित होने वाले उत्सव के अवसर पर लोग आदिवासियों की भांति अपने शरीरों को पत्तों और कीचड़ से ढक लेते थे। वे स्त्रियों के बारे में सभी प्रकार के गंदे गीत गाया करते थे। डा. आर. के. मुकर्जी लिखते हैं, "कौल धर्म में न केवल मोक्ष, बल्कि शराब और कामवासना का बड़े बुरे ढंग से प्रवेश हो चुका था। लोग देवी (गौरी अथवा लक्ष्मी) का उत्सव मनाते थे जो एक मास तक चलता था और जो दसवीं से तेरहवीं शताब्दी तक सामान्य रूप से मनाया जाता रहा, जिसने कामुक आमोद-प्रमोद तथा शरारतों का रूप धारण कर लिया था, हीरे-जवाहरात लगी शिखर वेदियों और चित्र-वीथियों की भाँति सार्वजनिक उद्यान भी जहाँ धार्मिक गीतोत्सव मनाया जाता था, प्रेमियों के लिए मिलन स्थानों का काम देते थे जो अपनी प्रेयसियों को देवी की प्रतिमा के सामने अपने शरीर के अंगों को ऊँचा उठा कर लहराते हुए, चकाचौंध कर देने वाली शुभ्र और आकर्षक पताकाओं को फहराते हुए, ऊपर-नीचे बजती घंटियों के साथ गाते हुए देखते थे।
भारत पर कुछ
शताब्दियों से कोई आक्रमण नहीं हुआ था, इसलिए लोगों में सुरक्षा की झूठी भावना बनी हुई थी। इसका
परिणाम यह हुआ कि विदेशी खतरों से देश की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गयी
थी। देश में भौतिक समृद्धि से भी लोग कमजोर हो गए थे। सेनाओं की व्यवस्था पर ध्यान
नहीं दिया गया और सुरक्षा के लिए कोई दुर्ग नहीं था। लोगों में अभिमान की मिथ्या
भावना विद्यमान थी। अल्बरूनी लिखते हैं कि "हिन्दुओं का विश्वास था कि उनके
देश जैसा कोई देश नहीं है,
उनके राष्ट्र
जैसा कोई राष्ट्र नहीं है,
उनके राजा जैसा
कोई राजा नहीं है, उनके धर्म जैसा
कोई धर्म नहीं है और उनके विज्ञान के बराबर कोई विज्ञान नहीं है। " ऐसी
मनोवृत्ति के परिणामस्वरूप हिन्दुओं का पराजित होना स्वाभाविक था ।
भारत के लोग बाकी
दुनिया से अलग-थलग बने हुए थे। वे अपने आप में इतने अधिक संतुष्ट थे कि उन्हें
अपनी सीमाओं के बाहर हो रही घटनाओं की कोई चिन्ता नहीं थी। अपने देश से बाहर हो
रही घटनाओं को अनदेखी करने से उनकी स्थिति बहुत निर्बल हो गई थी। इससे उनमें
निष्क्रियता की भावना पैदा हो गयी थी। चारों तरफ स्थिति बहुत बिगड़ गयी थी।
वास्तुकला, चित्रकला और
ललितकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। भारतीय समाज में गतिरोध पैदा हो गया और जात-पांत
की प्रथा कठोर हो गयी थी। विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता था। अछूतों को नगर से
बारह रहने के लिए मजबूर किया जाता था।
मठ जो पहले ज्ञान
प्राप्ति के स्थान थे, अब विलासिता और
निष्क्रियता के केन्द्र बन गए थे। अधिकांश मठवासी व्यभिचार का जीवन बिताते थे।
मन्दिरों में देवदासी की प्रथा व्याप्त थी। बहुत बड़ी संख्या में अविवाहित
लड़कियां मन्दिरों में देवता की सेवा के लिए समर्पित कर दी गयी थीं। इससे मन्दिरों
में भ्रष्टाचार और वेश्यावृत्ति का बोलबाला हो गया। महान लेखकों ने अश्लील साहित्य
लिखने में कोई झिझक महसूस नहीं की। कश्मीर के राजा के एक मंत्री ने कुट्टिनी मतम्
अथवा " मध्यस्थ के विचार" नाम की एक पुस्तक लिखी । क्षेमेन्द्र (सन् 990-1065 ई.) ने समय
मात्रका अथवा "एक वेश्या का जीवन चरित” नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में नायिका समाज के प्रत्येक
क्षेत्र में एक वेश्या. एक सामन्त की गृहिणी, एक बिचौलिया, एक झूठी मठवासिनी, युवकों को भ्रष्ट करने वाली और धार्मिक स्थानों पर प्रायः
जाने वाली स्त्री के रूप में अपने साहसिक कार्यों का उल्लेख करती है।
अधिकांश हिन्दू
दिव्य तनुधारियों अर्थात् देवता अथवा स्वर्गदूत, देव-दानव, गन्धर्व एवं अप्सरा, यक्ष, राक्षस किन्नर, नाग और विद्याधर के आठ वर्गों में विश्वास रखते थे। शिक्षित
और अशिक्षित लोगों के विश्वास भिन्न-भिन्न थे। शिक्षित लोग अमूर्त विचारों और
सामान्य सिद्धान्तों में विश्वास करते थे जबकि अशिक्षित लोग व्युत्पन्न नियमों से
ही संतुष्ट थे और वे उनके विस्तृत विवेचन की चिन्ता नहीं करते थे। अशिक्षित लोग
मूर्तियों की पूजा करते थे। इसी कारण बहुत अधिक सम्मानित व्यक्तियों, पुजारियों, संतों, देवदूतों के
सम्मानार्थ मूर्तियों और कीर्तिस्तम्भों का निर्माण प्रारम्भ हुआ, जो अपनी
अनुपस्थिति में अथवा मृत्यु के बाद अपनी स्मृति बनाए रखना चाहते थे ताकि उनकी
मृत्यु के पश्चात् लोगों के मन में उनके प्रति स्थायी रूप से कृतज्ञता और सम्मान
बना रहे।
तीर्थ यात्रा
हिन्दुओं के धार्मिक विश्वास का एक अंग बन गयी थी. वह अनिवार्य नहीं थी परन्तु उसे
पुण्यफल देने वाली माना जाता था। प्रत्येक ऐसे स्थान में, जिससे किसी
पवित्रात्मा का संबंध रहा हो, हिन्दुओं ने स्नान के लिए सरोवरों का निर्माण किया। इसमें
उन्होंने उच्च कोटि की कला का विकास किया।
उन दिनों सती
प्रथा प्रचलित थी । "जब कोई राजा मरता है उसकी सभी पत्नियाँ अपने आप को उसकी
चिता पर भस्म कर लेती हैं।”
अल्बरूनी का
विचार था कि सती प्रथा का केवल वैश्यों और शूद्रों द्वारा ही अनुपालन किया जाता था, विशेषकर उन अवसरों
पर जिन्हें पुनर्जन्म लेकर वर्तमान जन्म तथा जीवन से बेहतर स्थिति में जन्म लेने
के लिए बहुत उत्कृष्ट समझा जाता था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों द्वारा आत्मदाह एक
विशेष कानून द्वारा निषिद्ध था । यदि वे अपने आपको समाप्त करना चाहते थे तो ग्रहण
के अवसर पर ऐसा करते थे अथवा वे किराए पर किसी ऐसे आदमी को ले लेते थे जो उन्हें
गंगा में डुबो दे और तब तक उन्हें जल के नीचे रखे जब तक कि वे मर न जाएँ। मृतक का
अन्तिम संस्कार इन तीन तरीकों में से किसी एक द्वारा किया जाता था अग्नि द्वारा, मृतक शरीर को नदी
में बहाकर या शरीर को जंगली पशुओं के भोजन के लिए फेंक दिया जाता था। ब्राह्मण
अपने मृत व्यक्ति के लिए बहुत विलाप करते थे परन्तु बौद्ध लोग ऐसा नहीं करते थे।
अविनाशी आत्मा के परमात्मा में विलीन होने के बारे में हिन्दुओं का विचार है कि
आशिक रूप में यह सूर्य की किरणों द्वारा होता है। जिन पर आत्मा स्वयं को आरूढ़ कर
लेती है और अंशत: अग्निशिखा आत्मा को परमात्मा तक पहुँचा देती है ।
आत्मा को
पुरस्कार अथवा दण्ड मिलने का विचार भी हिन्दुओं में प्रचलित था। उनका विश्वास था
कि ऐसे तीन संसार हैं जहाँ आत्मा निवास करती है। " हिन्दू संसार को लोक कहते
थे। इनकी स्थिति ऊपर, नीचे तथा बीच में
है। ऊपर के लोक को स्वर्ग लोक अर्थात् परलोक निचले को नरकलोक अर्थात् सर्पलोक और
मध्यवर्ती, जिसमें हम रहते
हैं, को मध्यलोक अथवा
मनुष्यलोक कहते हैं। मध्यलोक में मनुष्य कर्म करता है, ऊपर के लोक में
अपना पुरस्कार प्राप्त करता है और नीचे के लोक में दण्ड भुगतता है... परन्तु इनमें
से प्रत्येक में आत्मा निवास करती है, जो शरीर के बंधन से मुक्त हैं। "
यह कहा जाता है
कि भारत में मुसलमानों के आक्रमणों के समय भारतीय समाज में शौर्य तथा अस्थिरता, वीरता और अराजकता, समृद्धि और निर्धनता, भोग-विलास तथा
ज्ञान और व्यभिचार एवं तपस्या की असाधारण विषमता देखने को मिलती थी। डा. आर.सी.
मजूमदार लिखते हैं- “ साहसिक प्रतिरोध
और वीरतापूर्ण आत्म-त्याग के साथ-साथ घृणित आत्मसमर्पण, राष्ट्रीय कार्य
के लिए देशभक्ति और अनियंत्रित उत्साह के साथ संकीर्ण स्वार्थ; मातृभूमि की
सुरक्षा की चिन्ता और राष्ट्रीय हित की उज्ज्वल भावना के व्यक्तिगत मिथ्याभिमान के
सामने समर्पण कर देने के उदाहरण मिलते हैं। परिवार के सम्मान तथा सुरक्षा की तीव्र
भावना के विरोध में कठोर निर्दयता, जिसे स्त्रियों के साथ किया गया असम्मान और इष्टतम
संबंधियों के साथ किया गया घोर अनादर भी प्रभावित नहीं कर सकता था ; असम्मान सहने की
अपेक्षा मर जाना अच्छा समझने वाले वीर पुरुषों का ऐसे घृणित विश्वासघातियों के साथ
मिलकर चलना जो उन्हीं लोगों के तलवों को चाटते थे जिन्होंने उन्हें रौंदा था
मातृभूमि की रक्षा हेतु महान आत्म-त्याग की भावना से प्रेरित सहयोग की अपूर्ण
धारणा के साथ-साथ छोटे-छोटे आंतरिक झगड़े जिनसे देश की स्थिरता और अखंडता को ठीक
उस समय आघात पहुँचा जब इसकी स्वतंत्रता खतरे में थी; केवल एक मन्दिर की पवित्रता को बचाने के लिए
हजारों मनुष्यों के वीरतापूर्ण एवं आत्मघाती आत्मोत्सर्ग के साथ सैकड़ों
पुण्यस्थानों के
अपमान के प्रति घोर उदासीनता के अत्यधिक वैषम्यपूर्ण उदाहरण देखने को मिलते हैं; और स्त्रियों के सम्मान तथा धार्मिक पवित्रता की अत्यन्त मान्य भावना का भी बहुत उग्रता से उल्लंघन किया गया जिसका राष्ट्र में कोई विरोध नहीं हुआ। "
दसवीं शताब्दी के
अंत में भारत की सामान्य दशा के बारे में डा. पणिक्कर लिखते हैं कि हिन्दुओं का
सामाजिक तंत्र दृढ़ था और उसमें विदेशी आक्रमण का प्रतिरोध करने की क्षमता
विद्यमान थी। बौद्ध धर्म के क्रमिक आत्मसात्करण और जनता की धार्मिक आकांक्षाओं को
संतुष्ट करने वाली नयी लोकप्रिय पद्धतियों को अपनाकर तथा उस तत्वज्ञान की
पृष्ठभूमि पर जो अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों के मनों को संतोष प्रदान करता था और
विभिन्न सम्प्रदायों को एक निष्ठा में एकत्रित करता थी, हिन्दू धर्म में
एक नयी तथा तेजस्वी प्रेरक शक्ति का संचार हो गया था। लोग समृद्ध थे। कुछ सदियों
तक शान्ति रहने, अच्छा व्यापार
होने और उपनिवेश बनाने से प्रचुर धन-सम्पत्ति एकत्रित हो गयी थी। तथापि, राजनीतिक
व्यवस्था क्षीण थी । एकता की भावना का अभाव था। भारतवर्ष के आदर्श को लोग पूरी तरह
भूल चुके थे। देशभक्ति की भावना का अभाव था । विदेशी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध
करने का कोई संकल्प नहीं था। एक भ्रष्ट सामन्तशाही का बोलबाला था । केवल राजवंशीय
हितों के कारण ही लोगों में संगठन देखने को मिलता था और मुसलमान आक्रमणकारियों के
प्रतिरोध हेतु भारतवासियों को तैयार करने के लिए यह पर्याप्त नहीं था। दक्षिण भारत
में स्थिति इससे भिन्न थी । वहाँ चोल, पल्लव तथा पांड्य वंशों के राष्ट्रीय राजतंत्र शासन कर रहे
थे। कुल मिलाकर, मुसलमान
आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक मुकाबला करने के लिए भारत तैयार नहीं था।