इल्तुतमिश गुलाम वंश का महान शासक कार्य शासन प्रणाली अभियान मूल्यांकन
इल्तुतमिश (1211 -36 ) गुलाम वंश का महान शासक
➽ दास वंश के सुल्तानों में सबसे महान इल्तुतमिश हुआ। वह एक दास था जो केवल अपनी योग्यता के बल पर इतने उच्च पद तक पहुँच सका। वह तुर्कीस्तान की इलबारी जाति से संबंधित था। वह एक उच्च परिवार का था। अपने बाल्यकाल में वह बहुत सुन्दर था और उसने सभी बुद्धिमत्ता व साधुता के लक्षण स्पष्ट किए थे। उसने इस प्रकार अपने उन भ्राताओं की ईर्ष्या को जाग्रत किया था जिन्होंने उसे पैतृक निवास व संरक्षण से वंचित करने का प्रयत्न उसे बुखारा के एक व्यापारी के हाथ बेच दिया गया जिससे एक अन्य व्यक्ति ने मोल लेकर कुतुबुद्दीन के हाथ बेच दिया। इल्तुतमिश ने धीरे-धीरे प्रगति की, यहाँ तक कि वह बदायूँ का सूवेदार बन गया। कुतुबुद्दीन ऐबक की कन्या के साथ उसका विवाह हो गया। उसने खोखरों के विरुद्ध संग्राम करके अपनी ख्याति बढ़ा ली। अपनी सेवाओं की मान्यता के उपलक्ष्य में मुहम्मद गौरी के आदेश से इल्तुतमिश को दासता से मुक्ति मिल गई और साथ ही अमीर-उल-उमरा की उपाधि मिल गई।
➽ जब 1210 ई. में कुतुबुद्दीन का देहान्त हो गया, तो आराम शाह उसका उत्तराधिकारी बना। उसे अयोग्य पाकर सरदारों सिंहासन के लिए इल्तुतमिश को आमंत्रित करने का निश्चय किया और उनकी पसन्द एक छोटे से साम्राज्य के हित में ठीक सिद्ध हुई।
➽ कुतुबुद्दीन के संरक्षकों के नायक (Commander of the Guards ) ने उसका विरोध किया, किन्तु पीछे कोई सहायता न होने के कारण उसका विरोध निष्फल रहा। काजी वजीह-उद-दीन के नेतृत्व में कुछ विधि ज्ञाताओं ने इल्तुतमिश का इस आधार पर विरोध किया कि वह एक स्वतन्त्र मनुष्य नहीं और उन्होंने अपनी दलील तभी वापस ली जबकि इल्तुतमिश ने उन्हें अपना मुक्तिपत्र दिखाया ।
अपहरणकर्ता नहीं (Not Usurper ) :
➽ इल्तुतमिश कोई अपहरणकर्ता नहीं था क्योंकि अपहरण के लिए कोई वस्तु नहीं थी। उस समय भारत में कोई भी सार्वभौम शासक नहीं था। इल्तुतमिश की सार्वभौम शक्ति तीन बातों पर निर्भर थी । प्रथम, वह अधिकारियों द्वारा निर्वाचित किया गया था। दूसरे, वह विजय के अधिकार का दावा करके अपने आदेश लागू कर सकता था । तृतीय, उसे बगदाद के खलीफा द्वारा मान्यता मिल गई थी। यह स्पष्ट नहीं है कि इल्तुतमिश ने खलीफा से 'सम्मान का चोगा' प्राप्त करने की कोई प्रार्थना की या खलीफा ने स्वयं अपनी इच्छा से उसे वह चोगा प्रदान किया था। खलीफा ने इल्तुतमिश की पुष्टि उस सारे क्षेत्र में कर दी " जो उसने विजित किया था" और उसे सुल्तान-ए-आजम (महान् शासक) की उपाधि प्रदान की। इस कार्य ने " दिल्ली की सल्तनत के ऊपर खिलाफत की छाप को दृढ़ कर दिया और भारत की भौगोलिक सीमाओं के बाहर खलीफा के अन्तिम अधिकार को वैधानिक रूप से पुष्ट कर दिया जो इस्लाम के वास्तविक भ्रातृभाव से अधिक स्पष्ट हो गया।" अपने सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपने लिए खलीफा का दूत प्रदर्शित किया।
उसकी कठिनाइयाँ ( His Difficulties):
➽ जब 1211 ई. में इल्तुतमिश सुल्तान बना तो उसके सामने अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हुईं। उन कठिनाइयों के कारण साहसहीन होने की अपेक्षा उसने उनका साहसपूर्वक सामना किया और उन पर विजय प्राप्त की। उसने कुतबी और मुइज्जी मलिकों के विरुद्ध तत्काल कदम उठाया और दिल्ली के पास के क्षेत्रों में उन्हें दमनकारी पराजय दी। दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों में उसने अपनी शक्ति सुदृढ़ बना ली। उसने यल्दौज से 'मुक्तिपत्र' भी प्राप्त कर लिया।
यदौज (Yildoz):
➽ ताजुद्दीन यल्दौज इल्तुतमिश का एक शत्रु था। उसने अपने को मुहम्मद गौरी का उत्तराधिकारी समझा और वह यह सहन नहीं कर सकता था कि भारत में इस्लामी राज्य स्वाधीन हो जाए। 1214 ई. में यल्दौज ने लाहौर पर अपना अधिकार जमा लिया। इल्तुतमिश के लिए यह एक बड़ी असह्य बात थी। वह यल्दौज़ के विरुद्ध बढ़ा और थानेसर के निकट तरायण के युद्ध में उसे परास्त कर दिया । यल्दौज को बन्दी बनाकर बदायूँ के एक दुर्ग में भेज दिया गया, जहाँ बाद में उसकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार इल्तुतमिश ने अपने मार्ग से एक महान् शत्रु का सफाया कर दिया।
कुबाचा ( Qabacha) -
➽ उच्छ व मुल्तान के प्रांताध्यक्ष नासिरुद्दीन कुबाचा का दमन करने में भी इल्तुतमिश सफल हुआ । कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद कुबाचा ने पंजाब के एक भाग पर अधिकार कर लिया। इस पर इल्तुतमिश ने कुबाचा के विरुद्ध चढ़ाई कर दी। 1217 ई. में वह उद्दण्ड कुबाचा को पंजाब से खदेड़ने में सफल हुआ। चूँकि कुबाचा का पूर्ण रूप से दमन न हो सका था, इसलिए उसने अगले दशक में पुनः स्वाधीन रहने की क्षमता ग्रहण कर ली। 1227 ई. में इल्तुतमिश ने फिर कुबाचा के विरुद्ध चढ़ाई की और बिना अधिक विरोध के उच्छ पर अधिकार कर लिया। उच्छ से भागकर कुबाचा ने भक्कर में शरण ली। जब इल्तुतमिश ने भक्कर का घेरा डाल दिया, तो कुबाचा ने साहसहीन होकर सन्धि की याचना की। सन्धि की शर्तों पर समझौता करने के लिए उसने अपने पुत्र बहराम मसूद को भेजा परन्तु उसको बन्दी बना लिया गया। कुबाचा इतना घबरा गया कि उसने भक्कर से भागने का निश्चय किया, किन्तु सिन्ध नदी में डूब जाने से उसकी मृत्यु हो गयी। एक विचार यह भी है कि दुर्घटना में उसकी हत्या हो गई। एक मत यह भी है कि उसने आत्महत्या कर ली। चाहे कुछ भी सत्य हो, इल्तुतमिश ने भक्कर पर कब्जा कर लिया और निचले सिन्ध की विजय को पूरा करने के लिए वजीर मुहम्मद जुनैद को नियुक्त किया।
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद बंगाल ( Bengal) :
➽ कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अली मरदान ने बंगाल में अपने को स्वाधीन बना लिया और अलाउद्दीन की उपाधि ग्रहण कर ली। परन्तु दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र हिसाम-उद-दीन इवाज़ उत्तराधिकारी बना। उसने गयासुद्दीन आज़िम की उपाधि ग्रहण करके अपने नाम का सिक्का निकाला। उसके नाम का खुतबा भी पढ़ा गया। ऐसी उद्दण्डता सहन करना इल्तुतमिश के लिए एक असम्भव वस्तु थी । इस कारण 1225 ई. में उसने उसके विरुद्ध एक अभियान भेजा और बाद में एक अभियान का स्वयं नेतृत्व किया। जब गयासुद्दीन ने इल्तुतमिश के आने का समाचार सुना तो उसने तुरन्त आधीनता स्वीकार कर ली और कर देने पर सहमत हो गया। गयासुद्दीन की आधीनता एक स्थायी वस्तु न रह सकी और कुछ समय बाद उसने विद्रोह का स्वर पुनः उठा दिया । इल्तुतमिश ने उसके विरुद्ध एक दूसरा अभियान भेजा। गयासुद्दीन की पराजय के साथ हत्या भी हो गई और बंगाल पूर्णतया दिल्ली के सिंहासन के आधीन हो गया। जब 1229 ई. में बंगाल के विजेता नासिरुद्दीन का स्वर्गवास हो गया, तो बलका के नेतृत्व में खिलजी मलिकों ने पुनः विद्रोह कर दिया। तब इल्तुतमिश स्वयं एक बड़ी सेना लेकर बंगाल पहुँचा और बलका को परास्त करके अलाउद्दीन जानी को बंगाल का प्रबंधक बना दिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद राजपूत (Rajputs) :
➽ कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद राजपूतों ने तुर्कों को बाहर निकालने का घोर प्रयत्न किया। चन्देलों ने कालिंजर व अजयगढ़ पर पुनः अधिकार कर लिया। प्रतिहारों ने मुसलमानों की सेना को ग्वालियर से निकाल दिया और नगर पर पुनः अधिकार कर लिया। उन्होंने नखार व झाँसी पर भी अधिकार कर लिया। रणथम्बौर के चौहान शासक ने तुर्की सेनाओं को बाहर निकाल दिया और जोधपुर व उसके निकटवर्ती क्षेत्रों को अपने आधीन कर लिया। जेलौर के चौहानों ने एक बार फिर नादोल, मंडोर, भरमेर, रतनपुर, सांचोर, राधाधार, खेरा, रामासेन व भीनामल पर अधिकार कर लिया। जादों भट्टियों ने उत्तरी अलवर में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। अजमेर, थानगिर व बियाना में उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया और तुर्की सत्ता को धमका कर वे स्वतन्त्र हो गए।
➽ इल्तुतमिश अधिक समय तक राजपूतों की ऐसी स्वाधीनता सहन नहीं कर सकता था। 1226 ई. में उसने घेरा डालकर रणथम्बौर जीत लिया और उसमें अपनी सेनाएँ डाल दीं। इसके बाद उसने जेलौर का घेरा डाला। वहाँ के शासक उदयसिंह ने उसका विरोध किया, किन्तु अन्त में उसे आत्मसमर्पण करने पर विवश होना पड़ा। कर चुकाने की शर्त स्वीकार कर लेने पर उसे शासक बने रहने की अनुमति मिल गई। उसने बियाना व थानगिर पर भी अधिकार कर लिया। कठोर विरोध के बाद अजमेर पर भी उसने अधिकार कर लिया। जोधपुर में नागेर पर भी पुनः अधिकार कर लिया गया। 1231 ई. में ग्वालियर का भी घेरा डाल दिया गया। वहाँ के शासक मलाय वम्र्म्मदेव ने वीरता के साथ संग्राम किया किन्तु आत्मसमर्पण करने पर वह विवश हो गया। कालिंजर के शासक त्रिलोक्यवर्मा ने अपना राज्य त्याग दिया जिससे वहाँ लूटमार शुरू हो गई. किन्तु चन्देलों ने एक बार फिर मुसलमानों को निकाल दिया। इल्तुतमिश ने स्वयं नगाद के आक्रमण का नेतृत्व किया, परन्तु वहाँ के शासक क्षेत्रसिंह ने उसे परास्त किया जिसमें इल्तुतमिश को घोर हानि का सामना करना पड़ा। इल्तुतमिश ने गुजरात के चालुक्यों को दबाने का प्रयत्न किया, लेकिन उसे सफलता न मिल सकी। 1234-35 ई. में इल्तुतमिश ने मालवा के एक अभियान का नेतृत्व किया। उसने भेलसा व उज्जैन में लूटमार की। उसने उज्जैन में महाकाल के मन्दिर का संहार किया। सर वुल्जले हेग का यह विश्वास है कि इल्तुतमिश ने मालवा पर विजय करके उसका अपने प्रदेश में विलय कर लिया, परन्तु ऐसा ज्ञात होता है कि यह कोई विजय का संग्राम न होकर केवल एक छापा था।
दोआब (The Doab):
➽ राजपूतों की तरह वर्तमान उत्तर प्रदेश के बहुत से जिलों ने इल्तुतमिश के समय में स्वाधीनता ग्रहण कर ली थी। बदायूँ, कन्नौज, बनारस, कटेहर ( रोहेलखण्ड) इत्यादि ऐसे ही जिले थे। किन्तु जैसे ही इल्तुतमिश ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली, उसने उनके विरुद्ध कदम उठाया। एक-एक करके बदायूँ, कन्नौज व बनारस पर अधिकार कर लिया गया। कटेहर के साथ भी ऐसा ही किया गया। एक अभियान बहरायच भी भेजा गया जिसने वहाँ अधिकार कर लिया। काफी कठोर विरोध के बाद अवध पर भी अधिकार कर लिया गया। एक स्थानीय जाति जो अपने नेता बारतू या पिरथू के नेतृत्व में संग्राम कर रही थी, उसे परास्त करना कठिन प्रतीत हो रहा था। बहुत अवसरों पर उन्होंने तुर्कों को परास्त किया और उन्होंने एक लाख से अधिक की सेना का संहार किया। केवल पिरथू की मृत्यु के बाद ही स्थानीय जाति का दमन हुआ। चन्दवार और तिरहुत के विरुद्ध भी अभियान भेजे गए।
मंगोल (The Mongols):
➽ अपने शासन काल में इल्तुतमिश को बड़े संकट का मुकाबला करना पड़ा। मंगोल भयानक लोग थे जो लूटमार, संहार, हत्या आदि में आनंद लेते थे। वे बर्बर थे और उन्हें नगरों में आग लगाने व हत्याकांडों का संगठन करने में प्रसन्नता मिलती थी। प्रत्येक प्रकार की बर्बरता का उन पर उत्तरदायित्व था। वे सभ्यता के शत्रु थे। वे मन्दिरों, मस्जिदों व पूजा घरों का संहार करते थे। उन्हें धार्मिक पुस्तकों को जलाने में भी आनंद मिलता था। उन्होंने अमीर खुसरो जैसे कवि को पकड़ रखा था, जिसे उनके हाथों काफी हानि उठानी पड़ी। मंगोलों के विषय में उसका यह विचार व्यक्त हुआ "मंगोलों ने मुसलमानों को रेगिस्तान में उनके रक्त से लथपथ कर दिया और मुसलमान बन्दियों की गरदने आपस में हार में गुथे फूलों के गुच्छों की भाँति बांध दीं। मुझे भी बन्दी बना लिया गया था और इस भय से कि वे मेरा रक्त बहाएँगे, मेरी नसों में रक्त की एक बूँद न रही। उन्होंने मुझे इधर-उधर घुमाया जबकि मेरे तलवों में जल की धारा की सतह पर पड़े बुलबुलों की भाँति अगणित छाले पड़े हुए थे। अत्यधिक प्यास के कारण मेरी जीभ सूख गई थी व उसमें आग सी उठ रही थी; भोजन के अभाव के कारण मेरा पेट धँस गया था। उन्होंने मुझे ऐसी नग्नावस्था में छोड़ दिया जैसे जाड़ों में कोई पत्तियों रहित वृक्ष हो या कोई फूल हो. जिसे काँटों ने खूब घायल कर रखा हो। मेरा मंगोल स्वामी एक घोड़े पर सवार हुआ जैसे कोई शेर पहाड़ पर विराजमान हो, उसके मुँह से एक असह्य बदबू आ रही थी और एक राहुरत्न की भाँति उसकी ठोड़ी पर बालों का एक गुच्छा उगा हुआ था । यदि निर्बलता के कारण में कुछ पीछे रह जाता तो कभी-कभी मुझे अपने भाले और कभी-कभी गरम करने वाली चादर द्वारा दंडित करने की धमकी देता था। मैंने आह भरी और यह सोचा कि इस स्थिति से मुक्ति असंभव है, किन्तु यह मेरा अहोभाग्य है कि अपने शरीर में एक तीर भी बिना घुसे या उसके किसी भाग के तलवार द्वारा विच्छेद हुए बिना मुझे उनसे मुक्ति मिल गई। "
➽ 1221 ई. में सब से पहली बार मंगोल लोग अपने प्रसिद्ध नेता चंगेज खाँ की आधीनता में सिन्ध नदी के तट पर प्रकट हुए। विद्युत जैसी शीघ्रता के साथ चंगेज खाँ ने केन्द्रीय व पश्चिमी एशिया का दमन किया। जब उसने खिवा या ख्वाज्म के अन्तिम शासक जलालुद्दीन मंगाबारनी पर आक्रमण किया तो वह भय से भागकर पंजाब आ गया। उसने इल्तुतमिश से शरण प्राप्त करने की याचना की। इल्तुतमिश ने यह सोचा कि उसे शरण देकर वह एक संकट को निमंत्रण देगा। अतः उसने यह लिखित समाचार भेजा कि उसे शरण देने में तो कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु उसे भय है कि पंजाब की जलवायु उसके लिए उपयुक्त सिद्ध नहीं होगी। प्रार्थना अस्वीकार करने का यह सबसे अधिक विनम्र ढंग था। फलत: जलालुद्दीन ने खोखरों के साथ एक सन्धि कर ली। उसने मुल्तान के नासिरुद्दीन कुबाचा को परास्त किया व सिन्ध तथा उत्तरी गुजरात में लूटमार मचा दी। इसके बाद वह फारस लौट गया। मंगोल भी वापस लौट गए और इस प्रकार भारत का छोटा-सा मुस्लिम राज्य बच गया।
➽ इल्तुतमिश का अन्तिम अभियान बनियान के विरुद्ध हुआ। रावर्टी के शब्दों में यह क्षेत्र सिन्ध-सागर दोआब के पहाड़ी क्षेत्रों या साल्ट रेंज के ठीक पश्चिम में स्थित था। मार्ग ही में इल्तुतमिश पर ज्वर का इतना भारी आघात हुआ कि एक पालकी में उसे दिल्ली वापस लाना अनिवार्य हो गया। ज्वर बहुत घातक सिद्ध हुआ और 29 अप्रैल, 1236 ई. में उसका देहांत हो गया।
➽ 1231-32 ई. में इल्तुतमिश ने दिल्ली में महरौली के निकट सुप्रसिद्ध कुतुब मीनार का निर्माण पूरा कराया। यह इल्तुतमिश की महत्ता का एक प्रमाण है। कुतुब मीनार का नाम कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर नहीं है, वरन् यह बगदाद के निकट उच्छ के एक निवासी ख्वाजा कुतुबुद्दीन के नाम पर है, जो निवास के लिए भारत आया था व इल्तुतमिश और अन्य लोगों ने उसे बहुत सम्मान दिया था। उपकार के रूप में, इल्तुतमिश ने अपने आश्रयदाताओं, कुतुबुद्दीन ऐबक व सुल्तान मुइजुद्दीन के नाम उस पर खुदवाए । सुल्तान के आदेश से एक सुन्दर मस्जिद का भी निर्माण किया गया।
➽ मुहम्मद जुनैदी व फखरुल-मुल्क असमी की मदद से इल्तुतमिश ने शासन प्रबंध की व्यवस्था का पुनर्गठन किया व उसका रूप भी सुधारा । इब्नबतूता के मतानुसार, उसने अपने प्रासाद में एक घण्टी व जंजीर का प्रबंध कर रखा था जिससे पीड़ित व्यक्ति बिना अधिक कठिनाई के सुल्तान तक अपनी पहुँच कर सके। इल्तुतमिश ने दिल्ली में एक विद्यालय का निर्माण कराया। उसके समय में सड़कें बनवाई गईं और जंगलों की सफाई की गई। इल्तुतमिश ने अपनी राजधानी लाहौर से हटाकर दिल्ली कर ली। तत्पश्चात् अन्य सुल्तानों ने भी दिल्ली को अपनी राजधानी बनाए रखा।
➽ इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर ये गर्वपूर्ण शब्द खुदवाए “शक्तिशाली सुल्तान, साम्राज्य व धर्म का सूर्य, विजय से युक्त इल्तुतमिश " और " धर्मनिष्ठों के नायक का सहायक"। इल्तुतमिश से पहले मुस्लिम शासकों ने करोड़ों छोटे सिक्के निर्गमित किए जिनका देशी रूप था और उनकी लिपि कभी नागरी होती थी और कभी-कभी अरबी । उनके सिक्कों पर कुछ हिन्दुओं के परिचित चिह्नों की भी आकृति बनी हुई थी जैसे शिव का बैल और चौहान अश्वारोही । इल्तुतमिश ही वह प्रथम मुस्लिम शासक हुआ जिसने सिक्कों में शुद्धतया अरबी लिपि का प्रयोग किया। उसने चाँदी के टंके को, जो रुपये का पूर्वज है, अपना मानक सिक्का (standard coin) स्वीकार किया जिसका भार 175 दानों के तुल्य था। बाद में बलबन ने उसी भार के सोने के सिक्के निर्गमित किए ।
➽ इल्तुतमिश एक पवित्र मुसलमान था। वह अपनी पाँचों दैनिक प्रार्थनाओं की ओर बहुत ध्यान देता था, किन्तु वह शियाओं के प्रति असहिष्णु था। इसलिए इस्माइल शियाओं ने उसके विरुद्ध उपद्रव कर दिया, परन्तु सुल्तान ने उनका दमन कर दिया। उनकी काफी संख्या में हत्याएँ कर दी गई। हिन्दुओं के प्रति भी उसका व्यवहार अधिक उत्तम नहीं था। वह उनको पीड़ित करता रहा । इल्तुतमिश को एक निर्माणकारी शासक नहीं कहा जा सकता। उसने अपनी वीरता व साहस से भारत में नवनिर्मित मुस्लिम साम्राज्य की रक्षा की। उसने केवल कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा शुरू किए गए कार्य को जारी रखा।
इल्तुतमिश का मूल्यांकन
➽ जहाँ तक इल्तुतमिश के शासन के मूल्यांकन का सम्बन्ध हैं, सर वुल्जले हेग का यह कथन है कि इल्तुतमिश ही दास सुल्तानों में सबसे उच्च पद ग्रहण करने का अधिकारी है। "उसकी सफलताएँ कदाचित् ही उसके स्वामी के तुल्य न थीं, किन्तु उसे ऐबक की भाँति कभी भी महान साम्राज्य की एक नैतिक व भौतिक सहायता न मिल सकी। उसने जो भी सफलता प्राप्त की, वह उसने स्वयं कभी-कभी बड़ी कठिनाइयों का सामना करते हुए भी अपने परिश्रम के आधार पर प्राप्त की। उसने ऐबक के साम्राज्य में सिंध व मालवा के उन प्रांतों को मिलाया जिन्हें उसने असंगठित व असम्बद्ध अवस्था में पाया। वह अपने स्वामी की अपेक्षा अधिक फिजूलखर्च था, यह कोई उसके लिए श्रेय की बात नहीं क्योंकि पूर्वी शासकों का व्यर्थ अपव्यय किसी उत्तम भावना की अपेक्षा घमण्ड का परिणाम होता है और ऐसे दरबार में जहाँ एक साफ अलंकार या एक चतुराई पूर्ण हाजिरजवाबी उतनी लाभदायक हो सकती है जितना एक सफल अभिमान वहाँ देश के साधनों को व्यर्थ उद्देश्यों पर खराब किया जाता है।"
➽ मिन्हाज -उस- सिराज के विचार में, "उस जैसा गुणवान्, दयालु, बुद्धिमानों व धर्मपरायण लोगों के प्रति सम्मान रखने वाला शासक कभी भी सिंहासनारूढ़ नहीं हुआ। कुछ समकालीन विवरणों में इल्तुतमिश को “अल्लाह के इलाकों का संरक्षक" व " ईश्वर के सेवकों का सहायक" भी बताया जाता है। यह बताया जाता है कि उसका दरबार एशिया के विभिन्न भागों से आने वाले विद्वानों व कवियों के लिए आश्रयगृह बन गया था। 'ताबात-ए-नासिरी' के लेखक मिन्हाज -उस- सिराज को इल्तुतमिश ने ही आश्रय दिया था। रूहानी और मलिक ताज उद्दीन रेजाब के साथ भी ऐसा ही हुआ। इल्तुतमिश के शासन काल में अवफी ने 'जवामी उल-हिकायत' की रचना की।