इल्तुतमिश के बाद गुलाम वंश के शासक (Gulam Vansh Ke Shasak after Iltutmis )
रुक्नुद्दीन फिरोजशाह (1236 ) ( Rukn-ud-Din Firoz Shah) :
इल्तुतमिश के कई पुत्र थे, किन्तु सभी अयोग्य निकले। इसलिए उसने अपनी पुत्री रजिया को अपनी उत्तराधिकारिणी नियुक्त किया। उसकी इस पसंद के विरुद्ध प्रतिवाद उपस्थित हुए और उसने इन शब्दों में उत्तर दिया, "मेरे पुत्र युवावस्था के आनंदों में लीन हैं और उनमें कोई भी सुल्तान बनने योग्य नहीं है। वे इस योग्य नहीं कि उन्हें राज्य का कार्य दिया जाये। मेरी मृत्यु के बाद आप लोग यह देखेंगे कि मेरी पुत्री की अपेक्षा मेरा कोई भी पुत्र राज्य के कार्य के संचालन के योग्य न होगा। "
ऐसा होते हुए भी इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके सबसे बड़े पुत्र रुक्नुद्दीन फिरोजशाह को गद्दी पर बिठाया क्योंकि वे अहं भाव में चूर होने के कारण एक स्त्री के समक्ष सिर झुकाने में अपना अपमान समझते थे। सुल्तान बनने से पहले रुक्नुद्दीन बदायूँ व लाहौर की सरकार का प्रबंध संभाल चुका था।
अनुभव ने सिद्ध किया कि रुक्नुद्दीन अत्यन्त अयोग्य शासक है। उसने अपने समय का बड़ा भाग अपने विषयों की तृप्ति में व्यय किया और वह शासनकार्य की ओर अपना कोई ध्यान न दे सका। उसने हाथी पर बैठकर दिल्ली की सड़कों की सैर करने व लोगों में धन बाँटने में भी आनंद लिया। मसखरे व जोकर उसके साथी बन चुके थे और इसीलिए उसको विलास प्रेमी जीव कहा गया है।
रुक्नुद्दीन ने शासन का कार्य अपनी महत्त्वाकांक्षी माता शाह तुर्कन के हाथों में सौंप दिया। मूलतः वह एक तुर्की दासी थी। उसने उन सब लोगों से बदला लिया जिन्होंने युवावस्था में उसका अपमान किया था। कुछ का पद घटा दिया गया और कुछ की हत्या की गई। इल्तुतमिश के एक पुत्र कुतुबुद्दीन की हत्या कर दी गई। इन सब बातों का यह फल निकला कि चारों ओर विद्रोह उठ खड़े हुए। मुल्तान, हाँसी, बदायूँ व लाहौर के प्रान्ताध्यक्षों ने रुक्नुद्दीन की सत्ता मानने से इंकार कर दिया। यह ठीक है कि नए सुल्तान ने उनके विरुद्ध अभियान किये परन्तु उसने यह देखा कि वजीर मुहम्मद जुनैदी ने उसका साथ छोड़कर विश्वासघात किया है। रजिया की हत्या का एक षड्यंत्र रचा गया जो किसी प्रकार से खुल गया। समस्त मुस्लिम सरदार इस अव्यवस्था से तंग आ गए और इसलिए उन्होंने शाह तुर्कन की हत्या कर दी। जब रुक्नुद्दीन अपनी माता की सहायता के लिए आया तो उसको भी हार के साथ अपने प्राणों का दान देना पड़ा। इस प्रकार 6 महीने व 7 दिन बाद रुक्नुद्दीन के शासन काल का अन्त हो गया।
रजिया सुल्तान (1236-40 ) ( Raziya Sultana ) :
रुक्नुद्दीन फिरोजशाह की मृत्यु के बाद रजिया सुल्तान का सिंहासनारोहण हुआ। डा. आर.पी. त्रिपाठी का विचार है कि " समय और मुस्लिम जाति का सामान्य दृष्टिकोण विचार में रखते हुए, विशेषकर सैनिक व धार्मिक वर्गों का रजिया का चुना जाना एक अद्वितीय व साहसी कदम था। यद्यपि उसका शासन काल साढ़े तीन वर्ष तक रहा, परन्तु उसके द्वारा इसका महत्त्व नहीं आंका जा सकता। यह तेरहवीं शताब्दी में कम-से-कम तुर्की मस्तिष्क की नवीनता व दृढ़ता का प्रतीक है, जो उस समय ऐसा साहसी कदम उठाने और ऐसे अनुभव का परीक्षण करने के योग्य निकला। लगभग तीन शताब्दियों के बाद एक विद्याचार्य ने यह पता लगाया कि रजिया का चुनाव अत्यन्त विचित्र वस्तु है और उसी ने उन शेखों व समसामयिक विद्याचार्यों के इस कार्य पर आश्चर्य प्रकट किया जिन्होंने उसकी पुष्टि की। वह एक संकेत करके अपनी व्याख्या समाप्त करता है कि इसका कारण मलिकों की सामूहिक सहायता व शक्ति होगी.
रजिया सुल्तान रजिया में अद्भुत गुण थे। मिन्हाज उस सिराज के शब्दों में, “रजिया एक महान शासक, कुशाग्र बुद्धि वाली, न्यायप्रिय, हितकारी, विद्वानों को आश्रय देने वाली न्यायकर्ता, अपनी प्रजा का कल्याण करने वाली और सामरिक गुण को रखने वाली थी, उसमें वे समस्त प्रशंसनीय गुण एवं योग्यताएँ थीं जो एक शासक के लिए आवश्यक हैं। वह स्वयं अपने शत्रुओं के विरुद्ध आगे बढ़ी। उसने अपनी वेष भूषा त्याग दी। उसने पर्दा फेंक दिया। चोगा ग्रहण करके पुरुषों जैसी मुख्य वेष भूषा धारणा की। उसने अत्यन्त योग्यता के साथ खुले दरबार में राज्य के विषयों का प्रबंध किया। उसने सारी सम्भव रीतियों से अपने को सुल्ताना प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया। ऐसा होते हुए भी उसका शासन साढ़े तीन वर्ष बाद समाप्त हो गया और इसका एकमात्र कारण उसका स्त्री होना है।
जिस सिंहासन पर सुल्ताना रजिया आरूढ़ हुई, वह अपार सुख की सेज नहीं था। मुल्तान, बदायूँ, हाँसी व लाहौर के प्रान्ताध्यक्षों ने उसके विरुद्ध खुलेआम विद्रोह कर दिया। वजीर मुहम्मद जुनैदी व कुछ अन्य सरदारों ने यह स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि एक स्त्री उन पर शासन करे। कुछ समय के लिए अपनी कूटनीति या षड्यंत्रकारी विधियों से रजिया विद्रोही सरदारों व प्रान्ताध्यक्षों में फूट डालने में सफल रही। वजीर मुहम्मद जुनैदी की पराजय से लौटने के कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। वह कुछ मुस्लिम सरदारों को अपनी और मिलाने में भी सफल हुई।
उसके शासन काल में मुसलमानों के कुछ वर्गों ने विद्रोह किया। नूरुद्दीन उनका नेता था। उन्होंने दिल्ली की जामा मस्जिद में प्रवेश करके अपनी प्रार्थनाओं द्वारा कट्टर लोगों को भयभीत करने का प्रयास किया। उनके विरुद्ध सेनाएँ भेजने में रजिया ने विलम्ब न किया और उनका दमन हो जाने के बाद राजधानी में शान्ति हो गई। यह कहा जाता है कि यदि रजिया स्त्री न होती, तो वह भारत में एक अत्यधिक सफल मुस्लिम शासक सिद्ध होती । उसकी सबसे बड़ी कमजोरी उसका स्त्री होना था। एल्फिस्टन का कहना था कि उसकी "विशेषताएँ व गुण उसको इस कमजोरी से बचाने में अपर्याप्त रहे।" वह एक ऐबेसीनिया निवासी दास जलालुद्दीन याकूत पर अनुचित कृपाओं की वर्षा करने लगी। याकूत को अस्तबलों का स्वामी बना दिया गया। इब्नबतूता का कहना है कि उसका एक ऐबेसीनिया वाले के प्रति चाव उसके लिए अपराध के समान था, किन्तु एक समकालीन लेखक मिन्हाज उस सिराज ने ऐसा कोई संकेत नहीं किया है। वह केवल इतना बताता है कि ऐबेसीनिया निवासी ने सुल्ताना की सेवा में रह कर उसकी कृपाएँ प्राप्त कर लीं। फरिश्ता ने उस पर मर्यादा भंग करने का सबसे बड़ा यह आरोप लगाया है कि जो " वह घनिष्ठता है जो ऐबेसीनियाई (याकूत) एवं रानी के बीच इस बात में प्रकट होती थी कि जब रानी घोड़े पर सवार होती थी, तो सदैव वही अपने हाथों से उसे घोड़े पर चढ़ाता था।" टामस के विचार में, "ऐसी बात नहीं थी कि अविवाहित रानियों को प्रेम करने की आज्ञा न रही हो। वह किसी विनम्र राजपुत्र पर आसक्त हो सकती थी या हरम के अंधेरे भागों में निर्बाध रूप से विलास कर सकती थी. परन्तु उसकी उच्छृंखलता उसको गलत दिशा की ओर ले चली और वह अपनी राजसभा के बर्बर सेवक के प्रेम में मग्न हो गई। साथ यह स्नेह जिस व्यक्ति के प्रति प्रदर्शित किया जा रहा था, उसको सभी तुर्क सरकार घृणा की दृष्टि से देखते थे। (Chronicles of the Pathan Kings, p. 106 ) । परन्तु मेजर रावर्टी ने इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया है और उसका यह कथन है कि टामस की विवेचना के पीछे कोई न्यायसंगत कारण नहीं।
सरदार लोग याकूत से डाह रखने लगे और रजिया के विरुद्ध उठ खड़े हुए। इसी के साथ राज्य के विभिन्न भागों में उपद्रव उठ खड़े हुए। सबसे पहले लाहौर के प्रांताध्यक्ष ने उपद्रव खड़ा किया, परन्तु रजिया ने उसका दमन कर दिया । भटिंडा में एक गंभीर उपद्रव उठ खड़ा हुआ। वहाँ के प्रांताध्यक्ष मलिक इख्तियार उद्दीन अल्तूनिया ने रजिया का आधिपत्य स्वीकार करने से इंकार कर दिया। याकूत के साथ रजिया ने उसके विरुद्ध प्रयाण किया। मार्ग में अल्तूनिया के तुर्की साथियों ने याकूत की हत्या कर दी और रजिया को बंद कर दिया। उसे अल्तूनिया ने अपने निरीक्षण में रख लिया और रजिया के भाई बहराम शाह को गद्दी पर बिठा दिया गया। रजिया ने सोचा कि मुक्ति का एकमात्र उपाय अल्तूनिया से विवाह कर लेना है और उसने ऐसा ही किया। इसके बाद नव विवाहितों ने दिल्ली के विरुद्ध प्रयाण किया। जब वह कैथल के निकट पहुँची तो अल्तूनिया के साथियों ने उसका साथ छोड़ दिया। 13 अक्टूबर, 1240 ई. को बहराम ने उसे परास्त किया। अगले दिन उसका व उसके पति का वध कर दिया गया। इस प्रकार एक देदीप्यमान चरित्र वाली स्त्री का अन्त हो गया। वह अपनी महत्ता सिद्ध करने में असफल न रही।
बहराम शाह, (1240-42 ) ( Bahram Shah )
मुईजुद्दीन बहराम शाह इल्तुतमिश का तीसरा पुत्र था। उसे इस निश्चित विमर्श के साथ गद्दी पर बिठाया गया था कि वह तुर्की मलिकों व अमीरों को उनके कार्यों में बिना कोई हस्तक्षेप किए उनके क्षेत्रों का प्रबंध करने देगा। एक नए पद 'नाइब-ए-मुमलिकत' का निर्माण किया गया और इस पर इख्तियार उद्दीन आइतिगिन की नियुक्ति की गई। यद्यपि मुहाजिबुद्दीन वजीर बना रहा, परन्तु उसकी स्थिति द्वितीय श्रेणी की हो गई। सारी शक्ति सरदारों व उनके मनोनीत किये गये व्यक्तियों के हाथ में आ गई।
इख्तियार उद्दीन आइतिगिन उन समस्त शक्तियों का प्रयोग करने लगा जिनका प्रयोग पहले सुल्तानों द्वारा किया जाता था। उसने सुल्तान के विशेषाधिकारों तक का प्रयोग किया। उसने सुल्तान की एक बहन के साथ विवाह कर लिया और फिर अपने आप को सुल्तान से भी अधिक शक्तिशाली समझने लगा। सुल्तान के लिए यह व्यवहार सहन करना कठिन हो गया और उसकी हत्या कर दी गई।
बदरुद्दीन सुनकार अमीर-ए-हाजिब था और वह दरबार के चालीस सरदारों में से एक था। वह उस समस्त शक्ति का प्रयोग कर रहा था जिसका प्रयोग पहले नाइब-उल-मुमलिकत द्वारा होता था। बहराम शाह इसे सहन न कर सका और वजीर से मिलकर उसने सुनकार का निर्वासन कर दिया। ज्योंही सुनकार बिना आज्ञा के दरबार में वापस लौटा, उसे बन्दी बनाकर मौत के घाट उतार दिया गया।
बहराम शाह के शासन काल में 1241 ई. में तायर के नेतृत्व में मंगोलों ने भारत पर आक्रमण किया। उनका प्रथम निशाना मुल्तान था, किन्तु मुल्तान के प्रान्ताध्यक्ष कबीर खाँ अयाज ने उनका घोर विरोध किया। मुल्तान पर बिना अधिकार किये मंगोल लाहौर की ओर बढ़े और उन्होंने दिसम्बर 1241 ई. में उस पर अधिकार कर लिया। पारस्परिक फूट के कारण सेना सुसज्जित नहीं थी । लाहौर के लोग व व्यापारी जो मध्य एशिया के साथ व्यापार करते थे और जिन्हें मंगोलों से अनुमति पत्र व अन्य सुविधाएँ प्राप्त होती थीं, उन्हें मंगोलों का विरोध अरुचिकर प्रतीत हुआ। वजीर निजाम-उल-मुल्क के नेतृत्व में बहराम शाह ने एक सेना भेजी, परन्तु इससे कोई लाभ नहीं हुआ। लाहौर के प्रान्ताध्यक्ष मलिक कराकश ने कुछ समय तक नगर की रक्षा की किन्तु इस कार्य को व्यर्थ समझकर वह नगर छोड़कर भाग गया। नगर पर अधिकार करके उसे लूट लिया गया। लाहौर के निवासियों की हत्या की गई और उसके बाद मंगोल लोग लौट गये।
अलाउद्दीन मसूद शाह ( 1242-46 ) ( Ala-ud-Din Masud Shah) :
मसूद शाह ने चार वर्षों तक राज्य किया। वह सुल्तान रुक्नुद्दीन फिरोजशाह का पुत्र और इल्तुतमिश का पौत्र था। उसके समय में तुर्की सरदार सर्वोच्च बने रहे। यह नया सुल्तान चालीस सरदारों के पक्ष में अपनी सारी शक्ति त्यागने पर विवश हो गया। उसके पास केवल सुल्तान की उपाधि रह गई। एक बार फिर नाइब-ए-मुमलिकत का पद बना दिया गया और उस पद की पूर्ति मलिक कुतुबुद्दीन हसन द्वारा हुई। शासन व्यवस्था के अन्य महत्त्वपूर्ण पदों पर 'चालीसों' के अन्य सदस्यों का अधिकार हो गया। वजीर मुहाजिबुद्दीन ने वही पद ग्रहण किया जो पहले नाइब के पास था। सरदारों व वजीर के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए और अन्ततः वजीर का निष्कासन कर दिया गया। बलबन को अमीर-ए-हाजिब नियुक्त किया गया। धीरे-धीरे उसने सारी शक्ति अपने हाथों में एकत्र कर ली।
मसूद शाह के शासन काल में बंगाल का प्रांताध्यक्ष तुगर खाँ सुल्तान की सत्ता की अवहेलना कर स्वतंत्र बन गया। उसने बिहार को अपने प्रदेश में मिला लिया और अवध पर आक्रमण करने का प्रयास किया। मुल्तान और उच्छ भी स्वतंत्र बन गए 1245 ई. में सैफुद्दीन हसन कारलग ने मुल्तान पर आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर लिया। 1245 ई. में भारत में फिर मंगोल प्रकट हुए। उन्होंने मुल्तान पर आक्रमण करके हसन कारलग को निकाल दिया।
उसके बाद उन्होंने उच्छ का घेरा डाला। सुल्तान महमूद ब्यास तक मंगोलों के विरुद्ध बढ़ा, किन्तु सुल्तान के आगमन का समाचार सुनकर मंगोलों ने घेरा हटा दिया और भारत छोड़कर चल दिए ।
एक षड्यंत्र ऐसा रच गया जिसमें बलबन नासिरुद्दीन महमूद और उसकी माता ने भाग लिया। नासिरुद्दीन महमूद ने एक रोगी पुरुष का भेष बनाकर और बाद में बुरका डालकर राजधानी में प्रवेश कर लिया और मसूद शाह को पदच्युत करके जून 1246 ई. में स्वयं सुल्तान बन गया।
नासिरुद्दीन महमूद ( 1246-66 ) ( Nasir-ud-Din Mahmud) :
अपने सिंहासनारोहण के लिए नासिरुद्दीन महमूद तुर्की सरदारों के प्रति ऋणी था और इसलिए उसके शासन में उनका अत्यधिक प्रभाव होना भी स्वाभाविक था। यह नया सुल्तान उन लोगों के भाग्य से भी परिचित था जिन्होंने शक्तिशाली सरदारों का विरोध किया था। यह बताया जाता है कि नासिरुद्दीन ने अपनी समस्त शक्ति तुर्की सरदारों के पक्ष में त्याग दी ( विशेष कर बलबन के पक्ष में) और केवल नाम मात्र के सुल्तान की भाँति 20 वर्ष तक राज्य कार्य करता रहा। यह भी बताया जाता है कि वह अत्यन्त सादा जीवन व्यतीत करता था और अपना बहुत समय पवित्र कुरान की नकलें बनाने में व्यय करता था। वह इतना सरल स्वभाव का था कि उसने अपनी रानी के लिए एक दासी रखने की अनुमति न दी। यह कहा जाता है कि एक बार भोजन पकाते समय उसकी रानी की उँगलियाँ जल गईं और रानी ने अपने लिए एक दासी रखने की प्रार्थना की। सुल्तान ने यह उत्तर दिया कि चूँकि वह राज्य का केवल एक संरक्षक मात्र है, इसलिए वह अपने वैयक्तिक सुखों पर कोई धन नहीं व्यय कर सकता। स्पष्टतया यह सब कुछ असत्य है, क्योंकि उसकी पत्नी बलबन की लड़की थी और इसलिए ऐसी स्त्री से स्वयं भोजन पकाने की आशा करना व्यर्थ था । इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि उसकी एक से अधिक पत्नियाँ व बहुत से दास थे। नासिरुद्दीन महमूद के चरित्र के विषय में डा. पी. सरन का मत अन्य लेखकों से भिन्न है। उनका यह कहना है कि इस सुल्तान ने अपना शासन अत्यन्त उत्साह के साथ शुरू किया परन्तु वह बलबन को पसंद नहीं था क्योंकि वह समस्त सत्ता अपने हाथों में रखना चाहता था। यह सुल्तान अत्यन्त दूरदर्शी था और वह बलबन को चुनौती देने के लिए किसी उपयुक्त अवसर की ताक में था। एक ऐसा समय आया कि बलबन तुर्की सरदारों तथा अपने सम्बन्धियों में अलोकप्रिय हो गया और इस अवसर से लाभ उठाकर उसने बलबन का निर्वासन कर दिया और उसका स्थान इमादुद्दीन रैहान को दे दिया। जिस छोटे काल में रैहान ने कार्य किया उसमें सुल्तान अवश्य सर्वोच्च शासक की भांति कार्य कर सका। जब बलबन पुनः शक्तिशाली हो गया और रैहान को निकाल दिया गया, तो उसने बलबन की इच्छा के अनुसार कार्य करने में कोई संकोच नहीं किया। उसने बलबन के आदेश पर अपनी माता मलिका-ए-जहाँ तक को निकाल दिया। सुल्तान ने अपनी सुरक्षा के सामने माता के जीवन की कोई परवाह न की। डा. पी. सरन ने यह भी बताया है कि जब नासिरुद्दीन महमूद सुल्तान बना, उस समय वह केवल 17 वर्ष का एक छोकरा था और ऐसी छोटी आयु में उससे विरागी होने की आशा नहीं की जा सकती। ऐसा कोई तत्व नहीं मिलता कि सांसारिक कार्यों में सुल्तान को कोई रुचि नहीं थी। इसके विपरीत पवित्र युद्ध' करने व काफिरों का दमन करने में सुल्तान ने बड़ी शक्ति व कुशलता का स्पष्ट प्रदर्शन किया। कहा जाता है कि आस-पास के क्षेत्रों में महमूद ने सात अभियानों का नेतृत्व किया। यह संकेत किया जाता है कि अपनी अत्यधिक प्रदर्शित धर्मान्धता के होते हुए भी सुल्तान लोकसत्ता व सुखों को भोगने की उतनी आकांक्षा रखता था जितनी कोई भी भौतिक वस्तुओं का प्रेमी व क्षीण बुद्धि वाला शासक रख सकता था। उसके सच्चे चरित्र का पता उस रीति से चल सकता है जिसे ग्रहण करके उसने मसूद शाह को सिंहासन से हटाया था।
नासिरुद्दीन के शासन काल में मंगोलों ने उपद्रव मचाया। उन्होंने मुल्तान व लाहौर पर कई छापे मारे और वहाँ के निवासियों को लूट कर बहुत-सा सोना, चांदी व अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ ले गए। वे इन नगरों से बहुत से मनुष्यों को भी बन्दी के रूप में अपने साथ ले गए। 1246 ई. में सुल्तान ने रावी नदी को पार किया और चनाब के तट की ओर अग्रसर हुआ । खोखरों को दण्डित करने के लिए उसने बलबन को जड़ की पहाड़ियों व साल्ट रेंज की ओर भेजा। बलबन ने उनका डटकर सामना किया। जिस समय बलबन झेलम नदी के तटों पर शिविर लगाए हुए था, मंगोल सेना पुनः प्रकट हुई, किन्तु वे लोग वापस लौट गए जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि बलबन उनका सामना करने के लिए तैयार है। इस प्रकार नासिरुद्दीन के समय में मंगोलों के भय का भी सामना किया गया।
किशलू खाँ बलबन का भाई था। रैहान ने उसे मुल्तान व उच्छ का प्रांताध्यक्ष नियुक्त किया था। जब बलबन ने पुनः शक्ति ग्रहण की तो किशलू खाँ ने विद्रोह कर दिया और उसने खुरासान के हलाकू खाँ का आधिपत्य स्वीकार कर लिया । अतः मुल्तान मंगोलों के राज्य का एक भाग बन गया। 1256 ई. में बयाना के अमीर कुतलग खाँ ने पंजाब में प्रवेश किया। वह ब्यास के तटों तक आ पहुँचा और किशलू खाँ के साम्राज्य में मिल गया। दोनों की मिली सेनाएँ समाना के दुर्ग की ओर बढ़ीं। यह सच है कि विद्रोहियों की पराजय हुई, परन्तु इसने बलबन के विरुद्ध ईर्ष्या को भी बढ़ा दिया। कुछ महीनों बाद नूईन सालेन के नेतृत्व में मंगोल सेना ने दक्षिणी सीमा पर आक्रमण किया और उच्छ से किशलू खाँ भी इसमें मिल गया। उन्होंने मुल्तान की प्रतिरक्षाओं को नष्ट कर दिया। लोगों पर अत्यन्त आतंक छा गया और बलबन ने मंगोलों के विरुद्ध अपनी तैयारियाँ शुरू कीं, परन्तु चूंकि उनका उद्देश्य केवल लूटमार करना था, इसलिए वे जल्द ही वापस लौट गए।