सिन्ध पर अरबों की विजय (Arab Conquest on Sindh)
सिन्ध पर अरबों की विजय के कारण :
आठवीं शताब्दी की पहली चौथाई में मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने सिन्ध और मुलतान को जीत लिया। जिन बातों से उन्हें हमारे देश पर चढ़ाई करने की प्रेरणा मिली वे निम्नलिखित हैं-
1. अरबों की राजनैतिक तथा भूमि अधिकार की लालसा
मूल कारण जिसने अरबों को सिन्ध और हिन्द पर चढ़ाई करने को बाध्य किया, यह था कि वे तीव्र लालसा रखने वाले थे और अपनी विजय को भारतीय भूमि तक फैला देना चाहते थे। सीरिया, फिलिस्तीन, मिस्र और ईरान को वे पहले ही जीत चुके थे इसलिए उन्होंने अपना मुँह भारत की ओर कर लिया। 636 ई. तक उन्होंने अपनी पहली चढ़ाई आरंभ कर दी जिसका विशेष उद्देश्य बम्बई के निकट थाणे नामक स्थान को जीत लेना था परन्तु यह चढ़ाई व्यर्थ गई। 643 44 ई. में खलीफा उस्मान ने आदुल-बिन-अमर के नेतृत्व में एक भारी अभियान सेना भेजी जिसने सीस्तान पर अधिकार कर लिया और तब वह मकरान की ओर बढ़ा। उसने सिन्ध के एक भाग को जीत लिया परन्तु उसे जिस किसी तरह यह महसूस हुआ कि सिन्ध की ऊसर भूमि को हथिया लेने से कोई लाभ नहीं। उसने खलीफा को इस प्रकार का पत्र लिखा, "यहाँ पानी की कमी है। घटिया और बहुत कम फल उगता है और यहाँ के डाकू बड़े साहसी हैं। यदि थोड़ी सी सेना भेजी गई तो सैनिक मार डाले जाएँगे। यदि अधिक सेना भेजी गई तो सैनिक भूख से मर जाएँगे। " चाहे ये प्रारम्भिक अभियान असफल हुए तो भी इतना तो अवश्य दर्शाते हैं कि मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से बहुत पहले अरब लोगों में भारत की भूमि जीतने की बड़ी लालसा थी।
2. भारत की दौलत :
भारत की दौलत ने भी अरब लोगों को हमारे देश पर चढ़ाई करने के लिए बहुत लालायित किया। प्राचीन काल से अरबों के भारत से व्यापारिक सम्बन्ध थे और इस नाते वे भारत के धन-धान्य से पूरी तरह परिचित थे। भारत में उन्हें एक बहुत ही लुभाने वाली भूमि दिखाई दी जो उनकी आवश्यकता तथा लालच को संतुष्ट कर सकती थी।
3. इस्लाम का विस्तार
राजनैतिक तथा आर्थिक कारणों के साथ-साथ इस्लाम को फैलाने का अरबों का धार्मिक : जनून भी काम कर रहा था। पैगम्बर साहिब और खलीफे अपने अनुयायियों को सदैव यह शिक्षा देते थे कि जाओ, दूर देशों में इस्लाम को फैलाओ। क्योंकि भारत मूर्तिपूजकों की भूमि थी इसलिए स्वाभाविक रूप से अरब लोगों को यह प्रेरणा मिली कि मूर्तिपूजा को समाप्त करने और इस्लाम को फैलाने की खातिर ऐसे देश पर चढ़ाई की जाए।
4. तत्कालीन कारण :
जिस चीज ने अरब लोगों को 711 ई. में तत्काल सिन्ध पर चढ़ाई करने के लिए सचमुच उकसाया, वह यह थी कि सिन्ध के कुछ समुद्री डाकुओं ने देवल के तट पर कुछ अरब जहाजों को लूट लिया। घटना इस प्रकार हुई - अरब व्यापारियों के कुछ जहाज लंका के राजा से जिसने, कहते हैं, इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था कुछ मूल्यवान उपहार ले जा रहे थे। उन्हें देबल की बंदरगाह के निकट लूट लिया गया। बसरा का अलहजाज जो खलीफा के पूर्वी प्रांतों का राज्यपाल था, इस लूटपाट से बड़ा दुःखी हुआ। उसने सिन्ध के राजा दाहिर को लिखा कि अपराधियों को दण्ड दिया जाए और हमारी क्षति की पूर्ति की जाए। दाहिर ने जवाब दिया कि देवल के समुद्री डाकू मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं और इसलिए मैं उन्हें दण्ड देने में असमर्थ हूँ। इस जवाब पर खिन्न होकर हजाज ने दाहिर के विरुद्ध चढ़ाई करने की खलीफा वालिद से आज्ञा माँगी। 711 ई. में इस आज्ञा के अनुसार उबैदुल्ला के नेतृत्व में एक सेना भेजी गई। परन्तु वह हार गया और राजा दाहिर ने उसे युद्धभूमि में मार डाला। अगले वर्ष 712 ई. में बुन्देल के नेतृत्व में एक और चढ़ाई की गई। इस बार भी अरब सेनापति हार गया और मार डाला गया। अब हजाज ने अपने चचेरे भाई तथा दामाद बिन कासिम को, जो एक 17 वर्ष का नवयुवक था, आज्ञा दी कि सिन्ध पर चढ़ाई करे।
1 सिन्ध पर मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण
(Mohammad Bin Qasim's Invasion of Sindh)
डा. ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि “सिन्ध पर मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण की कहानी इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है। उसकी खिलती जवानी उसका साहस और शौर्य, चढ़ाई के बीच उसका उत्तम आचरण और उसका घातक पतन - इन सब बातों ने उसके जीवन को शहादत की क्रांति से प्रज्वलित कर दिया है। "
मुहम्मद बिन कासिम 15000 सैनिक लेकर चला था जिनमें 6000 सीरियाई घुड़सवार थे और 1000 ऊँट सवार मार्ग में मरकान के निकट मुहम्मद हारूँ के नेतृत्व में कुछ और सेनाएँ उसके साथ आ मिलीं। सिन्ध पर उसके आक्रमण के समय उसके पास लगभग 35000 सैनिक थे। जब अरब नेता देवल की ओर बढ़ा तब बहुत से जाट और मेव लोग जो अधिकतर बुद्ध धर्म को मानने वाले थे और जो अपने ब्राह्मण राजा दाहिर के व्यवहार से खिन्न थे उसके साथ मिल गये और उसकी सेना की संख्या को और भी अधिक बढ़ा दिया ।
देबल की विजय जब मुहम्मद की सेना देवल की ओर बढ़ी तो राजा ने निष्क्रिय रहने की घातक गलती की। : उसने आक्रमणकारी सेना की प्रगति को रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि 25000 से अधिक आक्रमणकारियों का केवल 4000 सैनिकों ने सामना किया। निस्संदेह भारतीय सेना बड़ी वीरता से लड़ी परन्तु वह शत्रु के हजारों सैनिकों के सामने टिक न सकी। देवल के ब्राह्मणों ने एक बड़े मन्दिर की चोटी पर लहरा रहे लाल
झण्डे के नीचे एक तावीज बाँध रखा था। जब घेरा पड़ा हुआ था तो एक ब्राह्मण ने दाहिर से विश्वासघात किया और जाकर तावीज का रहस्य अरबों को बता दिया जिन्होंने झण्डे के बाँस को निशाना बनाकर झण्डे और तावीज को झट नष्ट कर दिया। इस बात ने अंधविश्वासी भारतीयों की निरुत्साहित और निराश कर दिया। आखिरकार अरब लोगों ने देबल पर अधिकार जमा लिया और वहाँ एक भयानक रक्तपात आरंभ हुआ जो तीन दिन तक चलता रहा। लोगों को कहा गया कि इस्लाम स्वीकार करो, नहीं तो मार डाले जाओगे और बहुतों ने मरना स्वीकार किया। कहा जाता है कि 17 वर्ष के ऊपर के सब पुरुष मौत के घाट उतार दिये गये और उनकी स्त्रियाँ और बच्चे दास बना लिये गये। लूटमार का बहुत-सा माल अरबों के हाथ लगा। जिसका पाँचवाँ हिस्सा हजाज़ के द्वारा खलीफा को भिजवा दिया गया।
2 निरुन, सेहवन और सीसम पर अधिकार (Capture of Nirun, Sehwan and Sisam)
देबल को जीतने और लूटने के बाद मुहम्मद बिन कासिम निरुन की ओर बढ़ा, जो कि उस समय देबल के उत्तर पूर्व में एक महानगर था। इस नगर के निवासियों को जब राजा दाहिर से किसी प्रकार की कोई सहायता न मिली तो वे विवश हो बिना किसी विरोध के झुक गये और उन्होंने हथियार डाल दिये। विदेशी अब सेहवन की ओर बढ़े जिस पर दाहिर के चचेरे भाई बाझरा का अधिकार था। वह कोई एक सप्ताह तक लड़ता रहा परन्तु अन्त में उसे किला छोड़ना पड़ा। सेहवन से अरब लोग सीसम की ओर बढ़े और वहाँ भी दो दिन लड़ाई के बाद जाट लोग हार गये।
रावड़ की लड़ाई (20 जून, 712 ई.)
अरबों की तीव्र गति से उन्नति और सफलता पर दाहिर चौंके बिना न : रह सका। उसने 50,000 सैनिक इकट्ठे किये और शत्रु का सामना करने के लिए ब्राह्मणावाद से चल पड़ा। मुहम्मद बिन कासिम भी अपनी सफलता से उत्साहित होकर और नशे में आकर सिन्धु नदी पार करके ब्राह्मणावाद की ओर बढ़ा। रावड़ पहुँचकर दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ और 20 जून, 712 ई. को एक निर्णायक लड़ाई हुई। दाहिर और उसके सैनिक बड़ी वीरता से लड़े और उन्होंने बहुत से अरबों को मार डाला। परन्तु दुर्भाग्यवश लड़ाई के बीच राजा दाहिर के हाथी पर एक तीर आकर लगा जिससे हौदे को आग लग गई और वह हाथी भागकर नदी में चला गया। इससे यह बात फैल गई कि राजा या तो मार डाला गया है या युद्धभूमि से भाग गया है। परिणाम यह हुआ कि सिन्ध के लोग निराश तथा निरुत्साहित हो गये। दाहिर जब अपने हाथी को लेकर युद्धक्षेत्र में लौटा तो क्या देखता है कि उसके बहुत से सैनिक भाग खड़े हुए वह बड़ा घबराया तो भी बड़ी वीरता से लड़ा परन्तु अन्त में हार खाई और वीरगति को प्राप्त हुआ।
दाहिर की विधवा पत्नी रवी बाई ने 15,000 सैनिक लेकर रावड़ के किले के अंदर से डटकर मुकाबला किया परन्तु आखिरकार यह महसूस करके कि शत्रुओं के विरुद्ध अधिक डटे रहना सम्भव रहीं, उसने दूसरी स्त्रियों के साथ जौहर की परम्परा को पूरा किया तथा अपमान की अपेक्षा मृत्यु को गले लगाया। इस प्रकार अरब लोगों को एक पूर्ण विजय प्राप्त हुई और वे ब्राह्मणावाद की ओर बढ़े।
ब्राह्मणावाद की विजय
जब अरब ब्राह्मणावाद पहुँचे तब दाहिर के बेटे जयसिंह ने ब्राह्मणावाद की प्रतिरक्षा में : जुटाए और शत्रुओं का डटकर मुकाबला किया। कोई 8000 हिन्दू मारे गये परन्तु कम-से-कम उतने ही शत्रु सैनिक भी नष्ट हुए। जयसिंह किसी तरह बचकर निकल गया। मुहम्मद ने नगर पर अधिकार कर लिया और सारे धनकोष को अपने कब्जे में ले लिया। यहीं ब्राह्मणावाद में ही दाहिर की एक और विधवा रविलादी और उसकी दो सुन्दर लड़कियाँ सूर्यदेवी और परमलदेवी शत्रुओं के हाथ लगीं।
एलोर पर अधिकार :
अब मुहम्मद बिन कासिम एलोर जिसे एरोड़ भी कहते थे की ओर बढ़ा। वह उस समय सिन्ध की राजधानी था। यहाँ दाहिर के एक और बेटे फूजी ने शत्रु का सामना किया परन्तु उसकी हार हुई। एलोर की विजय के साथ सारे सिन्ध की विजय मुकम्मल हो गई।
मुलतान की विजय
713 ई. के आरंभ में मुहम्मद बिन कासिम मुलतान की ओर बढ़ा। राह में जिस किसी ने उसका विरोध किया उन सबको हराते हुए वह अन्त में मुलतान के द्वार पर जा पहुँचा। कहते हैं कि देवल की तरह इस महत्त्वपूर्ण नगर की भी हार इस कारण हुई कि एक गद्दार ने धोखा दिया और शत्रु को वह नदी बता दी जहाँ से मुलतान के लोग पानी पिया करते थे। मुहम्मद ने बड़ी चालाकी से जल-प्राप्ति का वह स्रोत काट डाला और लोग प्यासे मरने लगे। इस प्रकार उसे बड़ी सुगमता से नगर पर विजय प्राप्त हो गई और उसने खूब लूटमार मचाई, लोगों को मारा और कितनों को दास बना लिया। अरब लोगों को यहाँ से इतनी दौलत मिली कि वे मुलतान को सोने का नगर समझने लगे। मुलतान की विजय के बाद मुहम्मद बिन कासिम ने कन्नौज को जीतने की तैयारी आरंभ कर दी परन्तु उसकी अचानक दुःखदायी मौत ने भारत में अरबों की अधिक विजय पर रोक लगा दी।
मुहम्मद की मौत
मुहम्मद बिन कासिम की मौत की कहानी कुछ इस प्रकार है- ब्राह्मणावाद की विजय के बाद : मुहम्मद ने दाहिर की दोनों सुन्दर लड़कियाँ सूर्यदेवी और परमलदेवी खलीफा वालिद के पास भेज दीं। लड़कियों ने खलीफा को बताया कि हमें तो कासिम ने पहले ही अपमानित तथा दूषित कर दिया है। इस पर खलीफा क्रोध से भभक उठा और उसने आज्ञा दी कि मुहम्मद बिन कासिम को एक बैल की कच्ची खाल में मढ़वाकर मेरे पास भेज दिया जाए। जब ऐसा हो चुका और मुहम्मद को सता सताकर मार डाला गया तो दोनों लड़कियों ने खलीफा को बता दिया कि मुहम्मद बिन कासिम निर्दोष था और हमने यह कहानी अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए गढ़ी थी। खलीफा क्रोध से लाल-पीला हो गया और उसने आज्ञा दी कि दोनों राजकुमारियों को एक-एक घोड़े की दुम के साथ बाँधकर तब तक घसीटा जाए जब तक वे मर नहीं जातीं।
परन्तु अब कासिम की मौत की यह कहानी झूठी मानी जाती है। असली कारण यह था कि कासिम का महान संरक्षक खलीफा वालिद हजाज और उसका परिवार 715 ई. में मर चुके थे और नया खलीफा सुलेमान हजाज का बड़ा विरोधी था, मुहम्मद को जो हजाज का चचेरा भाई और दामाद था खलीफा की आज्ञा से सिन्ध से निकाल दिया गया और उसे कैदी बनाकर इराक भेज दिया गया, जहाँ उसे सता सताकर मार डाला गया।
सिन्ध का पतन अथवा राजा दाहिर की असफलता के कारण
(Causes of the fall of Sindh or failure of King Dahir)
सिन्ध की अपनी चढ़ाई में अरब लोग विजयी होकर निकले। वे बहुत से कारण जिनसे उन्हें अन्त में सफलता और दाहिर को असफलता मिली, निम्नलिखित हैं-
1. सामाजिक फूट :
सबसे पहले सिन्ध के पतन का कारण लोगों के अन्दर आपस की फूट थी। यहाँ कई प्रकार के परस्पर विरोधी तत्व थे-जैसे हिन्दू, बौद्ध और जैनी - जिनके अन्दर आपसी झगड़े, दुर्भावना तथा ईर्ष्या मची हुई थी। समाज के छोटे वर्गों को विशेष घृणा से देखा जाता और शासन की ओर से उन पर बहुत सी पाबंदियाँ लगाई जातीं। वे सुसज्जित घोड़े पर नहीं चढ़ सकते थे, न ही हथियार उठा सकते और न बढ़िया कपड़े पहन सकते थे। इसी कारण जब अरबों ने सिन्ध की भूमि पर आक्रमण किया तो इन्हीं पददलित और रूठे हुए लोगों ने विदेशियों का स्वागत किया और अपने राजा के विरुद्ध शत्रु से जा मिले।
2. शासकों के प्रति जन घृणा :
सिन्ध के शासक अयोग्य तथा अप्रिय थे। छाछा, जिसने सिन्ध के शूद्र राजाओं से राजगद्दी छीनी थी, एक ऐसा राजा था जिससे लोग बहुत नफरत करते थे। दाहिर को भी लोगों ने पसंद नहीं किया। ये राजा न ही बड़े योद्धा थे और न ही अच्छे हितैषी शासक उनके राज्यपाल अर्द्ध स्वतंत्र थे और उनसे सहयोग नहीं करते थे। लोग अपने शासक के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखते थे। ऐसे हालात में सिन्ध का पतन स्वाभाविक ही था।
3. सिन्ध की आर्थिक गरीबी :
सिन्ध कभी भी बहुत धनी प्रदेश न रहा है। इसके साधन बहुत सीमित थे जो एक बहुत बड़ी सेना का खर्च पूरा नहीं कर सकते थे अत: सिन्ध एक शक्तिशाली देश न बन सका और अरबों की शक्ति के आगे मात खा गया।
4. सिन्ध की पृथकता :
एक और बात जिसके कारण सिन्ध कमजोर हुआ और अन्त में हारा, वह यह थी कि सिन्ध व्यावहारिक रूप से बाकी देश से अलग रहा और इस दशा में उसे दूसरे राज्यों से समय पर कोई सहायता नहीं मिल सकी।
5. जनता का अन्धविश्वासी स्वभाव :
भारत के दूसरे भागों की तरह सिन्ध के लोग भी बहुत अन्धविश्वासी थे। जब अरबों ने लाल झंडे के साथ बँधे तावीज को नष्ट कर दिया तो उन्हें ऐसा लगा कि अब हमारी हार होकर रहेगी। इसलिए उन्होंने साहस और विश्वास के साथ शत्रु का सामना नहीं किया। यह उनका अन्धविश्वासी स्वभाव ही था. जिसने उन्हें भाग्यवादी तथा दुर्बल बना दिया। अत: सिन्धियों के अन्धविश्वास ने उनकी अन्तिम पराजय में कोई कसर नहीं छोड़ी।
6. राजा दाहिर का अदृढ़ तथा अयोग्य नेतृत्व :
सिन्ध का राजा दाहिर एक बुरा नेता था और अपनी असफलता एवं सिन्ध के पतन के लिए स्वयं अधिक उत्तरदायी था। मैकरान की अरब विजय के बाद भी उसने अपने प्रदेश की प्रतिरक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। फिर जब अरब लोग देबल, निरुन, सहवान और सीसम इत्यादि नगरों पर चढ़ाई करके वहाँ लूटमार मचा रहे थे, वह मूर्खतापूर्ण ढंग से निष्क्रिय तथा हाथ पर हाथ धरकर बैठा रहा। उसने इन नगरों में न ही कोई सेना भेजी और न ही शत्रुओं की प्रगति को रोकने के लिए कोई पग उठाया। उसने आक्रमणकारियों को नदी पार करने की छूट दे दी और उनके मार्ग में कोई बाधा नहीं डाली और उसके बाद जब लड़ने लगा तो सब कुछ एक ही लड़ाई में झोंक दिया। लड़ाई में वह अपने सैनिकों को ठीक नेतृत्व न दे सका। इसलिए उसका और उसके राज्य का पतन हुआ।
7. मुसलमानों का धार्मिक जोश :
अरब लोग धार्मिक उत्साह और जोश से लड़े। राजनीति के कौटिल्य जैसे महान लेखकों का कहना है कि धार्मिक जुनूनी सबसे बढ़िया लड़ाई लड़ा करते हैं। उन्हें ऐसा लगता था कि मानो ईश्वर और मुहम्मद साहिब ने स्वयं उन्हें काफिरों के विरुद्ध लड़ने के लिए भेजा है। अतः वे बहुत जोश, बड़े क्रोध तथा बड़ी बहादुरी से लड़ते थे। इस बात ने उन्हें एक ऐसी जाति के विरुद्ध निश्चित सफलता दिलाने का काम किया जिसके पास ऐसी प्रेरणादायक विचारधारा नहीं थी जो उनके साहस को बनाये रखती ।
8. मुहम्मद बिन कासिम की बढ़िया सेना तथा उसका उत्तम सेनापतित्व :
आखिर में कहना पड़ेगा कि अरब सेना दाहिर की सेना से संख्या, सामान तथा तैयारी में कहीं बढ़िया थी । देबल, निरून और सहवान में शत्रुओं की संख्या यहाँ की सेना से हजारों की गिनती में अधिक थी। इसके अतिरिक्त मुहम्मद बिन कासिम जो कि केवल 17 वर्ष का नवयुवक था बहुत चुस्त, जोशीला और समझदार मुस्लिम नेता था। इसलिए राजा दाहिर और सिन्ध को उखाड़ फेंकने में अरबों की सफलता का श्रेय मुहम्मद के योग्य नेतृत्व को भी उतना ही मिलना चाहिए जितना औरों को।
सिंध पर अरबों का शासन प्रबंध ( Arab Administration on Sindh)
अरबों ने सिन्ध में कोई अच्छे शासन प्रबंध की स्थापना नहीं की। बहुत-सी पुरानी संस्थाओं और रिवाजों को बनाये रखा गया और कहीं कुछ-कुछ परिवर्तन भी किये गये। उनके शासन प्रबंध तथा राजकाज की मुख्य बातें नीचे दी जा रही हैं-
1. राज्य विभाग और उपविभाग :
मुहम्मद बिन कासिम ने जीते हुए प्रदेश को कई जिलों में बांट दिया और प्रत्येक जिले पर एक अरब अधिकारी को नियुक्त कर दिया। इन अधिकारियों का काम था- सैनिक जुटाना और राज्यपाल को सैनिक सेवा अर्पित करना । उपविभाग वास्तव में अपने स्थानीय हिन्दू अधिकारियों के नीचे ही रहने दिये गए। संतों और सैनिकों को भूसम्पत्ति दी गई।
2. राजकर सम्बन्धी नीति :
हिन्दुओं की बहुत-सी भू-सम्पत्ति छीन ली गई जो मुसलमान संतों, नवाबों और सैनिकों को दी गई। ये लोग स्वयं खेतीबाड़ी नहीं करते थे। अधिकतर हिन्दुओं को ही किसान तथा अर्द्ध- दास बना डाला गया।
भूमि लगान भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न था। कहीं तो उपज का एक चौथाई और कहीं दो- पाँचवाँ भाग । अरब लोगों ने लगान - व्यवस्था को सुधारने के लिए कुछ भी नहीं किया। लगान का अनुमान लगाने तथा संचय के पुराने नियम ही बने रहे।
अरबों ने हिन्दुओं पर जजिया नामक एक नया कर भी लगा दिया जो बड़ी कठोरता से नियमित समय पर और फिर बार-बार अपमान करके बटोरा जाता। लगान और जजिया के अतिरिक्त और भी कई कर लगाये गये। इन करों को वसूल करने का अधिकार उसे दिया जाता जो सबसे अधिक धन चढ़ाने को तैयार होता ।
3. न्याय-व्यवस्था
अरबों की न्याय-व्यवस्था भी असंतोष जनक थी। वहाँ ऊपर से नीचे तक न्यायालयों का न : कोई क्रम था, न कोई एक समान कानून थे और न निर्णयों में निष्पक्षता । अरब नवाब अपने राज्यों में अपने पराश्रितों के मुकदमे बांट लेते। नगरों में न्याय करने के लिए काजी होते। ग्रामों में विवाह, सम्पत्ति अधिकार, सामाजिक तथा नैतिक मामलों से सम्बन्धित झगड़ों का निर्णय पंचायतें करतीं।
काजी लोग झगड़ों का निर्णय इस्लामी विधि के अनुसार करते, न कि हिन्दुओं के प्रचलित कानून के अनुसार, चाहे झगड़ने वाले हिन्दू ही क्यों न हों। यदि किसी मुसलमान और हिन्दू में झगड़ा हो जाता तो मुसलमान से पक्षपात किया जाता। मुसलमानों को बहुत कठोर दण्ड नहीं दिया जाता था। परन्तु हिन्दुओं को छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी मृत्यु दण्ड दिया जाता था । उदाहरणस्वरूप यदि कोई हिन्दू चोरी कर बैठता तो उसे अपने परिवार समेत जीवित जला दिया जाता।
4. निम्न वर्ग की दुर्दशा :
अरबों ने जाटों तथा मैंडों जैसी निम्न जातियों से वैसा ही घृणा का व्यवहार किया जैसा कि राजा दाहिर किया करता था। उन पर बहुत सी पाबंदियाँ लगाई जाती रहीं। उन्हें नंगे सिर व नंगे पाँव रहना पड़ता। वे अच्छे कपड़े नहीं पहन सकते थे और न ही सुसज्जित घोड़े पर चढ़ सकते। जब वे राज्यपाल को मिलने आते तो उन्हें साथ एक कुत्ता लाना पड़ता।
5. अरबों की धार्मिक नीति
आरंभ में अरबों ने हिन्दुओं पर बड़े-बड़े अत्याचार ढाये। उदाहरणस्वरूप देबल पर अधिकार कर लेने के बाद हिन्दुओं की खूब मारकाट हुई। उन्हें कहा गया कि मौत और इस्लाम के बीच कोई एक मार्ग चुन लो। जब उन्होंने इस्लाम को स्वीकार करने से इंकार कर दिया तो हजारों लोग निर्दयता से मौत के घाट उतार दिये गये। उनकी स्त्रियाँ और बच्चे दास बना लिये गये। उनके मन्दिर नष्ट कर दिये गये। उनकी मूर्तियों का अपमान किया गया और उन्हें तोड़ दिया गया।
परन्तु जब अरब लोग सारे प्रदेश के स्वामी बन गये तो हिन्दुओं के प्रति उनके व्यवहार में बड़ा भारी परिवर्तन आ गया। घोर और निर्दयतापूर्ण अत्याचार की नीति त्याग दी गई और वहाँ के लोगों से काफी सहनशीलता का व्यवहार किया गया।
जहाँ कि उन्हें जजिया नामक एक विशेष धार्मिक कर चुकाना पड़ता था वहाँ उन्हें अपने देवताओं की अपने ढंग से पूजा करने की छूट दी गई। वास्तव में मुहम्मद बिन कासिम ने राजनीतिक बुद्धिमता पर चलकर मुस्लिम कानून का सहारा छोड़ दिया और हिन्दूओं की ओर सहनशीलता की नीति का अनुसरण किया। इस्लामी कानून के अनुसार गैर-मुस्लिमों को दो वर्गों में विभक्त कर दिया गया। ईसाई और यहूदी पहले वर्ग में रखे गये और उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने के लिये तंग या बाध्य नहीं किया गया। उनसे केवल एक ही आशा रखी गयी कि वे जजिया चुकाएँ। हिन्दू और अन्य गैर-मुसलमान दूसरे वर्ग में डाले गए जिन्हें इस्लाम और मौत के बीच किसी एक का चुनाव करना होता । परन्तु मुहम्मद बिन कासिम ने हिन्दुओं के साथ सहनशीलता का व्यवहार किया। उन्हें यदि मुसलमानों वाले अधिकार नहीं दिए तो कम-से-कम यहूदियों और ईसाइयों वाले अधिकार अवश्य दिए।
यह समझ लिया जाए कि ऐसी एक आंशिक सहनशीलता अरब लोगों ने किसी उदारता के कारण नहीं अपनाई बल्कि हालात के दवाब में आकर ऐसा किया। अरब लोग संख्या में थोड़े थे और भारतीय प्रशासन लगान इत्यादि नियमों के बारे में कुछ नहीं जानते थे। इसके अतिरिक्त वे यह जानते थे कि हिन्दू लोगों को अपने धर्म तथा संस्कृति के बढ़ियापन पर इतना विश्वास है कि वे मौत तो स्वीकार कर लेंगे परन्तु अपने धर्म को नहीं छोड़ेंगे। अतः यह राजनैतिक मजबूरियां थीं जिन्होंने उन्हें भारतीय लोगों के प्रति थोड़ी-सी सहनशीलता का व्यवहार अपनाने पर बाध्य किया।
अरबों का सिंध पर अधिकार तथा उनका प्रशासन
(Arab administration and Occupation of Sindh)
(i) विभाग दर विभाग:
प्रान्तों को जिलों में बाँट दिया। हर जिले पर एक अरब फौजी अधिकारी बिठा दिया। उपविभाग भारतीयों के हाथ में रहने दिए गए।
(ii) राज कर सम्बन्धी नीति :
हिन्दुओं की भूमि छीनकर अरबों को दे दी गई। लगान किसी स्थान पर एक-चौथाई था तो दूसरे स्थान पर दो पाँचवाँ भाग । पुरानी व्यवस्था चलती रही। प्रजा पर अन्य सभी कर और जजिया लगाए जाते रहे।
(iii) न्याय सम्बन्धी व्यवस्था
मुकदमों का फैसला काजी लोग करते और वह भी इस्लामी कानूनों के अनुसार । हिन्दुओं को कड़ा दण्ड दिया जाता।
(iv) निम्न वर्ग के लोगों की दुःखदायी दशा
निम्न वर्ग के लोगों से पहले जैसा दुर्व्यवहार होता रहा ।
(v) धार्मिक नीति :
आरम्भ में अरबों ने हिन्दुओं पर बड़ा अत्याचार किया परन्तु बाद में उन्होंने हिन्दुओं को अपने देवी-देवताओं की पूजा की आज्ञा दे दी साथ ही उनसे जजिया लेते रहे।