8वीं शताब्दी के आरंभ में भारत की प्रशासनिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक व्यवस्था
(Administrative, Social, Religious and Economical Conditions of India in the Beginning of the 8th Century)
समकालीन लेखकों तथा शिलालेखों के विवरण से हम, आठवीं शताब्दी के आरंभ में भारत की प्रशासनीय, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा कैसी थी. इसका काफी ठीक अनुमान लगा सकते हैं।
8वीं शताब्दी के आरंभ में भारत की प्रशासनीय अवस्था (Administrative Conditions)
(क) केन्द्रीय प्रशासन (Central Administration)
(i) राजा इस समय तक गणराज्य प्रायः लुप्त हो चुके थे। इसलिए सातवीं तथा आठवीं शताब्दी में राजाशाही ही लोकप्रिय सरकार थी और यह प्रायः पैतृक थी। परन्तु बंगाल के पाल वंश के गोपाल तथा काँची के पल्लव वंश के नन्दीवर्मन का उदाहरण यह दर्शाता है कि कभी-कभी राजा राज्य के प्रमुख तत्वों द्वारा निर्वाचित भी होता था । स्त्रियों को राजकीय सिंहासन का उत्तराधिकारी बनने से नहीं रोका जाता था। काश्मीर और उड़ीसा के शासकों में कुछ स्त्रियों के नाम भी इतिहास में आये हैं। राजा वास्तव में एक अधिनायक होता था। उसके अपने व्यक्तित्व में सभी वैधानिक संचालक न्याय सम्बन्धी तथा सैन्य शक्तियों का समावेश होता था। परन्तु निर्दयी होने की तो बात छोड़ो, राजा लोग प्रायः हितैषी मनमानाशाह होते थे जो अपनी प्रजा की भौतिक भलाई का सदैव ध्यान रखते थे।
(ii) मंत्री राजा को उसके राजकीय कर्तव्यों के निभाने में परामर्श तथा सहायता देने के लिए एक मंत्रिमंडल भी हुआ करता था, परन्तु राजा उनका परामर्श स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं था। मंत्रियों की संख्या नियत नहीं होती थी परन्तु बड़े-बड़े मंत्री प्रायः इस प्रकार के होते थे-
1. सन्धि विग्रहक युद्ध तथा शान्ति का मंत्री ।
2. अरक्ष पल अधिकृत उल्लेख अधिकार मंत्री । :
3. अमात्य वित्त मंत्री ।
4. सुमन्त विदेश मंत्री ।
5. राजा पुरोहित धर्म मंत्री ।
कुछ मंत्रीपद व्यवहार में पैतृक बन गये थे। किसी भी मंत्री का महत्त्व उसकी समझ तथा ईमानदारी पर निर्भर होता था।
(ख) स्थानीय प्रशासन (Local Administration) :
साम्राज्य प्रांतों में बँटा हुआ था जिनके भिन्न-भिन्न नाम थे-जैसे भुक्ति, मंडल, देसा इत्यादि । प्रांत के मुखिया को उपारिक कहते थे, जिसका मुख्य कर्त्तव्य प्रांत में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखना, राजा की आज्ञाओं को लागू कराना और जब आज्ञा मिले तो प्रजा का नेतृत्व करना था । हर प्रान्त आगे जिलों में विभक्त समझा जाता था, जिन्हें वैश्य कहते थे। वैश्य का शासन प्रबंध वैश्यपति नामक जिलाधिकारी के हाथ में होता था। शासन की निम्नतम इकाई गाँव होती थी जहाँ प्रशासनीय कर्तव्य नम्बरदारों तथा पंचायत द्वारा पूरे किये जाते थे।
(ग) वित्तीय प्रशासन (Financial Administration) :
वित्त की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था और इसका अपना एक मंत्री विशेष होता था। आय का मुख्य स्रोत भूमि लगान था जो भूमि की स्थिति तथा सामर्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होता था, कहीं छठा हिस्सा, कहीं पाँचवाँ कहीं चौथा तो कहीं तीसरा । भूमि लगान के अतिरिक्त पराधीन सरदारों से उपहार धन लिया जाता था। भाँति-भाँति के कर, आयकर तथा व्यापार इत्यादि के शुल्क से भी आय होती थी।
(घ) सैनिक प्रणाली (Military System):
प्रत्येक राजा के पास एक सेना होती थी जो आंतरिक विद्रोह का दमन करती और विदेशी आक्रमणों का सामना करती थी। सेना के चार अंग थे-पद सेना, अश्व सेना, रथ सेना और गज सेना । लड़ाई के तरीके पुराने थे और मुख्य हथियार थे-खड्ग, तीर-कमान, भाले इत्यादि । गज सेना अपनी मंद गति के कारण सेना की कमजोरी मानी जाती थी।
8वीं शताब्दी के आरंभ में भारत की सामाजिक अवस्था (Social Conditions)
(i) आठवीं शताब्दी के आरंभ में समाज चार बड़े वर्गों में बँटा हुआ था :
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । परन्तु हर वर्ग अपने ही कर्तव्य से दृढ़ता से नहीं बँधा हुआ था। ऐसे ब्राह्मण भी थे जो योद्धा थे और ऐसे क्षत्रिय भी थे जो व्यापारी थे। इसी प्रकार कई वैश्य और शूद्र शासक का कर्तव्य करते थे। लोग प्रायः अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करते और अन्तर-जातीय विवाह बहुत कम होते थे।
(ii) 8वीं शताब्दी के आरंभ में भारत की स्त्रियों की स्थिति
स्त्रियों की स्थिति कोई सराहनीय स्थिति न थी । विधवाएँ पुनर्विवाह नहीं कर सकती थीं। उधर दूसरी ओर सती का रिवाज समाज में छाया हुआ था, जिसके अनुसार विधवाएँ अपने आपको अपने पतियों की चिताओं के साथ जला डालतीं। बहु-पत्नी विवाह का रिवाज प्रचलित था, विशेषकर ऊपर के वर्गों में।
(iii) लोगों का पवित्र जीवन
साधारण लोग विशेषकर केन्द्रीय भारत के लोग एक पवित्र तथा ऊँचा नैतिक जीवन व्यतीत करते थे। अधिक लोग शाकाहारी थे, वे न किसी प्राणी को मारते और न मद्यपान करते। वे लहसुन और प्याज खाने से भी परहेज करते। परन्तु भारत के अन्य भागों के लोग उत्तर-पश्चिम भारत के लोगों को पवित्र नहीं मानते थे। गन्दे, मांसाहारी लोगों का भी एक वर्ग था जिन्हें चाण्डाल कहा जाता था और वे नगर के बाहर अलग बस्तियों में रहा करते थे। उन्हें अछूत समझा जाता ।
(iv) लोगों का दानी स्वभाव
लोग बड़े सुखी और समृद्धशाली थे। धनी लोग बड़े दानी थे क्योंकि निर्धनों की : सहायता करना एक पुनीत कर्तव्य समझा जाता था। वे सड़कें विश्रामगृह, चिकित्सालय तथा लोक भलाई के अन्य भवन बनवाते। वे बाग भी लगवाते और लोक भलाई के लिए तालाब तथा कुएँ बनवाते ।
(v) शिक्षा (Education) :
जनता की शिक्षा के लिए अगणित विद्यालय थे और कई विश्वविद्यालय भी थे, जिनमें सबसे प्रसिद्ध पूर्व का नालन्दा विश्वविद्यालय और पश्चिम का वल्लभी विश्वविद्यालय था। मालवा में धार का एक संस्कृत कालिज भी था और अजमेर में भी एक ऐसा कालिज था जहाँ वेदों शास्त्रों के अतिरिक्त जो अन्य विषय इन विश्वविद्यालयों तथा कालिजों में पढ़ाये जाते, वे थे विज्ञान, गणित, खगोलशास्त्र इत्यादि ।
8वीं शताब्दी के आरंभ में भारत की धार्मिक अवस्था (Religious Conditions)
(i) इस समय भारत में तीन धर्म प्रफुल्लित थे:
बुद्ध धर्म, जैन धर्म तथा हिन्दू धर्म। जैन धर्म सबसे कम प्रिय था। बुद्ध धर्म ने भी जनता पर अपना प्रभाव खो दिया था और यह पतनशील था। राजा लोग बहुधा हिन्दू होते थे और हिन्दू धर्म के संरक्षण के लिए कानून बनाते रहते थे। वे प्रायः दूसरे धर्मों के सहनशील थे। परन्तु सिन्ध के राजा दाहिर की तरह कुछ राजा लोग बुद्धधर्मियों पर रोक लगा देते। लोग चाहे हिन्दू हों अथवा बौद्ध धर्मी, वे ऊँचे धार्मिक आदर्शों से प्रेरित रहते।
(ii) हिन्दू धर्म और उसकी रीतियाँ
इस काल में हिन्दू धर्म बहुत ही संस्कारपूर्ण धर्म था। मूर्तिपूजा उनका सबसे बड़ा नियम था और लोग ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादि देवताओं की मूर्तियों का पूजन करते रामायण, महाभारत का पठन, वेद मंत्रों का गान व्रत रखना, धार्मिक स्थानों की तीर्थयात्रा करना इस प्रकार के कई रीति-रिवाज थे, जिनके पालन की हर हिन्दू से आशा की जाती थी। ब्राह्मणों का पुरोहित वर्ग इन सरल हृदय लोगों का खूब शोषण करता था।
8वीं शताब्दी के आरंभ में भारत की आर्थिक अवस्था (Economic Conditions)
लोगों की भौतिक दशा बहुत अच्छी थी। अधिकतर लोग शताब्दियों से गाँव में रहते आये थे और उनका मुख्य धंधा खेतीबाड़ी था। परन्तु इस काल में जिसका हम अध्ययन कर रहे हैं, व्यापार भी बहुत लोकप्रिय धंधा बन चुका था। दूसरे देशों के साथ भी व्यापार जारी था और कुछ व्यापारी निस्संदेह बड़े धनी थे। वे दान संस्थाएँ स्थापित करते और गरीबों की गरीबी तथा दुःखों को दूर करने का ध्यान रखते थे।