जन्म, शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था : सार्वभौम
जन्म, शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था : सार्वभौम प्रस्तावना
वास्तव में विकास एक सतत प्रक्रिया है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवनपर्यंत चलती रहती है। हम विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया को कुछ अवस्थाओं में विभाजित कर सकते हैं। विकास की अवस्था शब्द यह प्रदर्शित करता है कि विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने पर विकास की प्रक्रिया में कुछ निश्चित परिवर्तन आ जाते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में बालक विकास की कुछ होकर गुजरता अवस्थाओं से है इस इकाई में हम विकास की पूर्व अवस्थाओं: गर्भावस्था, शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था में होने वाले विभिन्न विकासों, बाल्यावस्था के प्रत्यय : विभिन्न सामाजिक राजनैतिक वास्तविकताओं के द्वारा निर्मित विभिन्न बाल्यावस्थाओं के प्रत्यय के विषय में विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे।
जन्म, शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था
सामान्य रूप से मानव विकास को निम्न
पांच अवस्थाओं में बांटा जा सकता है.
1. गर्भावस्था ( गर्भाधान से जन्म तक )
2. शैशवावस्था ( जन्म से 2 वर्ष तक )
3. बाल्यावस्था ( 2 वर्ष से 11 वर्ष तक )
4. किशोरावस्था ( 12 से 19 वर्ष तक
5.
प्रौढावस्था ( 19 वर्ष से अधिक )
माता के गर्भ धारण करने से लेकर शिशु
के जन्म तक का काल गर्भावस्था कहलाता है। शिशु के जन्म के उपरान्त के प्रथम दो
वर्ष का काल शैशवावस्था कहलाता है। दो वर्ष की आयु से लेकर 11 वर्ष की आयु तक का
काल बाल्यावस्था कहलाता है । 12 वर्ष की आयु से लेकर 19 वर्ष तक का काल
किशोरावस्था कहलाता है। 19 वर्ष की आयु के बाद का काल प्रौढावस्था कहलाता है ।
1 शैशवावस्था
बालक के जन्म लेने के उपरान्त की
अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। शिशु को अंग्रेजी में इन्फैंट (Infant ) कहते हैं । इन्फैंट लैटिन भाषा का शब्द
है, जो दो शब्दों In व Fari से
मिलकर बना है । 'In का अर्थ है- नहीं और ‘Fari' का अर्थ है बोलना, अतः Infant का शाब्दिक अर्थ है बोलने के अयोग्य । Infant शब्द का प्रयोग बालक की उस अवस्था के
लिए किया जाता है, जब वह सार्थक शब्द का प्रयोग प्रारंभ
करता है। यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्ष तक मानी जाती है। यह अवस्था बालक के
निर्माण का काल कहलाती है,
क्योंकि यह अवस्था ही वह आधार है जिस
पर बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक का जितना
अधिक निरीक्षण एवं निर्देशन किया जाता है, बालक
का विकास और उसके जीवन का विकास उतना ही उत्तम होता है।
1. शैशवावस्था में शारीरिक विकास :
शैशवावस्था में बालक का शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है। जन्म के समय नवजात शिशु के सिर की लम्बाई कुल शरीर की लगभग एक चौथाई होती है । लेकिन प्रथम दो वर्षों में सिर की लम्बाई तथा आकार में तीव्र गति से वृद्धि होती है। नवजात शिशु की हड्डियाँ छोटी, कोमल तथा लचीली होती हैं । शैशवावस्था के दौरान शिशु की हड्डियाँ कैल्शियम, फोस्फोरस एवं अन्य खनिज पदार्थ पाकर कठोर और मजबूत हो जाती हैं। जन्म के समय शिशु के दांत नही होते हैं छटे या सातवें माह में दूध के दांत निकलने लगते हैं तथा एक वर्ष की आयु तक दूध के सभी दांत निकल जाते हैं। शिशु की टांग तथा भुजाओं का विकास भी तीव्र गति से होता है। जन्म के कुछ समय के बाद ही शिशु अपने स्नायुओं पर नियंत्रण करने का प्रयास शुरू कर देता है । प्रारंभ में शिशु का अपनी गामिक गतिविधियों पर नियंत्रण कम होता है, लेकिन धीरे धीरे वह अपनी गामिक गतिविधियों पर सफलतापूर्वक नियंत्रण करने लगता है।
2. शैशवावस्था में भाषा विकास :
शैशवावस्था में बालक
अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को अपने हाव-भाव के द्वारा प्रदर्शित करने लगता
है। इन सभी हाव-भावों का अर्थ केवल शिशु के माता पिता या वही व्यक्ति समझ पाते हैं, जो शिशु के संपर्क में रहते हैं। सुखद
संवेग को शिशु हंसकर, अपनी बाँहों को फैलाकर प्रदर्शित करता
है, जबकि दुखद संवेग को शिशु रोकर
अभिव्यक्त करता है । सामन्यतया शिशु भी अपने परिवार के सदस्यों के हाव-भाव तथा
मौखिक अभिव्यक्ति को देखकर उनकी भाषा को समझने की कोशिश करता है। शैशवावस्था में
ही शब्दावली का निर्माण होना प्रारम्भ हो जाता है तथा दो वर्ष की आयु तक के बालक
का शब्दकोश लगभग 200-300 शब्द होता है।
3. शैशवावस्था में सावेंगिक विकास :
शिशु जन्म के समय
ही संवेगात्मक व्यवहार की अभिव्यक्ति करता है, जैसे:
रोना, चिल्लाना, हाथ पैर पटकना आदि। इस अवस्था में बालक
में मुख्य रूप से चार संवेग होते हैं : भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा। प्रारंभ में शिशु के
संवेग अस्पष्ट होते हैं तथा उन्हें पहचानना काफी कठिन होता है। लेकिन धीरे-धीरे
आयु के बढ़ने पर शिशु के संवेगों में स्पष्टता आने लगती है तथा लगभग 2 वर्ष की आयु
तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है।
4. शैशवावस्था में सामाजिक विकास :
जन्म के समय शिशु
सामाजिक नहीं होता है, लेकिन दूसरे व्यक्तियों के साथ पहली
बार संपर्क में आते ही उसके समाजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। पहले माह
में शिशु किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है, परन्तु आयु बढ़ने के साथ साथ वह अपने
परिवार के सदस्यों की आवाज़ पहचानने लगता है। परिवार के सदस्यों को देखकर हँसता है
और अकेला रह जाने पर रोता है। शिशु परिचित एवं अपरिचित में विभेद करने लगता है।
किसी गलत काम को करने से रोके जाने पर मान जाता है। शिशु अपिरिचित व्यक्तियों के प्रति
अपन नापसंदगी दर्शाता है। इस अवस्था के अंत तक शिशु में सामाजिक भावना का भी विकास
हो जाता है, जैसे: पहले शिशु बालक अकेले खेलना पसंद
करता है फिर दूसरे बालकों के साथ खेलना श करता है और फिर धीरे-धीरे उसे अपनी आयु
के बालकों के साथ खेलने में आनंद आने लगता है।
5. शैशवावस्था में मानसिक विकास तथा संज्ञानात्मक विकास :
शैशवावस्था में बालक में मानसिक क्रियाओं जैसे ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना आदि का विकास तीव्र गति से होता है। इस अवस्था में में भार का संप्रत्यय एवं समय का संप्रत्यय स्पष्ट नही होता है। जैसे - जैसे शिशु की उम्र बढ़ती जाती है, शिशु का मानसिक विकास होता जाता है और उसमें समझने की शक्ति बढती जाती है। शिशु अपने माता पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों को पहचानने लगता है। एक वर्ष की आयु में शिशु परिचित एवं अपरिचित व्यक्तियों में विभेद करने लगता है । शिशु परिचित व्यक्ति के प्रति हंसकर और अपरिचित व्यक्ति के प्रति रोकर अनुक्रिया व्यक्त करता है।
2 बाल्यावस्था
शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था प्रारंभ
होती है, जोकि 2 वर्ष की आयु से लेकर 11 वर्ष की
आयु तक मानी जाती है। इस आयु काल में बालक में स्फूर्ति अधिक होती है अतः इस
अवस्था को स्फूर्ति अवस्था कहा जाता है। इसी अवस्था में बालक अपनी प्राथमिक
विद्यालय की शिक्षा प्रारंभ करता है इसलिये इसे प्रारंभिक विद्यालय अवस्था भी कहा
जाता है।
बाल्यावस्था को पुनः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
i. प्रारंभिक बाल्यावस्था (2 वर्ष से 6 वर्ष तक
ii. उत्तर बाल्यावस्था ( 6 वर्ष से 11 वर्ष
तक )
प्रारंभिक बाल्यावस्था
यह बाल्यावस्था 2 वर्ष से प्रारम्भ
होकर 6 वर्ष तक की आयु तक होती है। शिक्षकों द्वारा इस अवस्था को प्राकस्कूल
अवस्था तथा मनोवैज्ञानिकों के द्वारा इसे प्राकटोली अवस्था के नाम से भी पुकारा
जाता है। इस अवस्था में होने वाले प्रमुख विकास हैं:
1. प्रारंभिक बाल्यावस्था में शारीरिक विकास :
प्रारंभिक
बाल्यावस्था में बालक एवं बालिकाओं के शरीर के अंगों में परिवर्तन आना प्रारंभ हो
जाता है, जैसे: शरीर के आकार में परिवर्तन आना, वजन में परिवर्तन आना, शरीर की मांसपेशियाँ अधिक गठीली और
मजबूत हो जाना आदि। प्रारंभिक बाल्यावस्था की समाप्ति तक बालकों में कुछ स्थायी
दांत उग आते हैं।
2. प्रारंभिक बाल्यावस्था में भाषा विकास :
इस अवस्था में बालक
बोलना सीखने के लिए काफी प्रेरित रहते हैं । इस अवस्था में बालक अभ्यास द्वारा
शब्दों का उच्चारण करना, शब्दावली बनाना तथा वाक्य बनाकर बोलना
सीख जाते हैं।
3. प्रारंभिक बाल्यावस्था में सावेंगिक विकास :
प्रारंभिक
बाल्यावस्था में बालकों में सामान्य तौर पर वही संवेग देखने को मिलते हैं जोकि एक
सामान्य व्यस्क में देखने को मिलते हैं। वयस्कों में और बालकों में दिखने वाले
संवेगों की केवल अभिव्यक्ति में अंतर होता है। इन संवेगों में क्रोध, डर, ईर्ष्या, उत्सुकता, ख़ुशी, दुःख, प्रेम आदि मुख्य होते हैं। इस अवस्था
में बालक अपना क्रोध रोकर,
किसी सामान को फेंककर, चीख मारकर व्यक्त करते हैं। डर के
संवेग में बालक कुछ विशेष अनुक्रिया करते हैं, जैसे:
भाग जाना, अपने आप को छिपा लेना आदि। अपनी
उत्सुकता को शांत करने के लिए वे तरह तरह के प्रश्न करते हैं, ईर्ष्या हो जाने पर अगर कोई सामान
दूसरे बालक के पास है तो वैसा ही सामान पाने के लिए अपनी चीजों की बुराई करने लगते
हैं, जैसे मेरी पेंसिल ख़राब है, ड्रेस पुरानी हो गयी है आदि, हर्ष होने पर अपने संवेगों को ताली
बजाकर, उछल कूद करके प्रदर्शित करते हैं ।
दुःख की स्थिति में खाना ना खाना, खेल
में रूचि ना दिखाना आदि व्यवहार करते हैं।
4.प्रारंभिक बाल्यावस्था में सामाजिक विकास :
इस अवस्था में बालक सामाजिक संपर्क स्थापित करना सीखते हैं। वे अपनी उम्र के बालकों से मित्रता करना सीखते हैं। हमउम्र बालकों के साथ खेलने में तथा बातचीत करने में बालकों को प्रसन्नता होती है । इस अवस्था में जहाँ एक ओर बालकों में कुछ ख़ास सामाजिक व्यवहार देखने को मिलते हैं, जैसे: सहयोगिता, सहानुभूति, मित्रता, अनुकरण करना, निर्भरता आदि वहीं दूसरी ओर बालको में कुछ असामाजिक व्यवहार भी देखने को मिलते हैं जैसे: आक्रामकता, लड़ाई झगडा करना, दूसरों को चिढ़ाना, दूसरों को डराना आदि ।
5. मानसिक विकास तथा संज्ञानात्मक विकास :
प्रारंभिक बाल्यावस्था में बालकों में मानसिक विकास काफी तेज गति से होता है तथा बालकों में बौद्धिक क्षमता बढ़ जाती है। जिसके परिणामस्वरूप बालकों में अपने आस पास की चीज़ों एवं घटनाओं को समझने की शक्ति भी बढ़ जाती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक पियाजे के अनुसार संप्रत्यय विकास की यह अवस्था चिंतन की प्राकपरिचालन अवस्था है। इस अवस्था में बालकों का चिंतन तर्कसंगत नहीं होता है । बालकों में इस अवस्था में जीवन, मृत्यु, भार, संख्या, दूरी, समय आदि के बारे में एक संप्रत्यय विकसित करने की क्षमता विकसित हो जाती है। इस अवस्था में बालक क्या, क्यों, कैसे, कहाँ वाले प्रश्नों को लगातार पूछता रहता है। बालक में जीवन मृत्यु के प्रत्यय का विकास तो हो जाता है किन्तु यह प्रत्यय अस्पष्ट होता है । अतः बालक इस अवस्था में निर्जीव वस्तुओं को जैसे खिलौना, चलता हुआ पंखा, चलती हुई कार को जीवित समझ लेता है।
3 उत्तर बाल्यावस्था
यह अवस्था 6 वर्ष की आयु से प्रारंभ
होकर 12 वर्ष तक की आयु तक होती है। शिक्षकों द्वारा अवस्था को प्रारंभिक स्कूल
अवस्था तथा मनोवैज्ञानिकों के द्वारा टोली अवस्था के नाम से भी पुकारा जाता है, क्योंकि इस अवस्था में बालक स्कूल में
औपचारिक शिक्षा के लिए जाना शुरू कर देते हैं तथा अब उनका अपने समूह के अन्य
सदस्यों के द्वारा स्वीकृत किया जाना, उनके
लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इस अवस्था में होने वाले प्रमुख विकास हैं:
1. उत्तर बाल्यावस्था में शारीरिक विकास :
इस अवस्था में शारीरिक
विकास में और अधिक स्पष्टता आ जाती है इस अवस्था में बालकों की ऊंचाई में औसतन 2
से 3 इंच की वार्षिक वृद्धि होती है तथा शरीर का वजन भी 3 से 5 पौण्ड तक औसतन
प्रतिवर्ष बढ़ता है। इस अवस्था की समाप्ति तक बालकों में 32 स्थायी दांत में से 28
स्थायी दांत निकल आते हैं तथा शेष चार स्थायी दांत किशोरावस्था में निकलते हैं।
2. उत्तर बाल्यावस्था में भाषा विकास :
इस अवस्था में बालकों में भाषा विकास और अधिक तीव्र गति से होता है। इस अवस्था में बालकों में शब्दावली निर्माण में वृद्धि होती है। बालक शिक्षकों से बात करके, अन्य लोगों से बात करके, पुस्तकें पढ़कर, अखबार पढ़कर, टेलीविजन देखकर अपनी शब्दावली पर्याप्त मात्रा में बढ़ा लेते हैं। उनके उच्चारण में भी शुद्धता आती है तथा बालक प्राय: जटिल वाक्यों का प्रयोग करना शुरू कर देते हैं ।
3. उत्तर बाल्यावस्था में सांवेगिक विकास :
इस अवस्था के
बालकों में भी वही सभी संवेग पाए जाते हैं जो प्रारंभिक बाल्यावस्था के बालकों में
पाए जाते हैं, परन्तु अभिव्यक्ति का तरीका प्रारंभिक
बाल्यावस्था के बालकों से भिन्न होता है। इस अवस्था में बालक यह जान जाता है की
सामाजिक रूप से बहिष्कृत संवेगों की अभिव्यक्ति से उसे सामाजिक अनुमोदन नहीं मिलेगा
। अतः बालक ऐसे संवेगों की अभिव्यक्ति नही करता जो सामाजिक रूप से बहिष्कृत हों, जैसे: बात बात पर क्रोध करना, रो देना, किसी से डरकर भाग जाना आदि। इस अवस्था बालक में क्रोध किसी ख़ास
अवस्था में ही उत्पन्न होता है, जैसे:
यदि बालक पर कोई झूठा आरोप लगाया जाए या बेवजह कोई टिका टिप्पणी की जाए। इसी
प्रकार जहाँ प्रारंभिक बाल्यावस्था के बालकों में किसी भी नयी चीज़ को देखकर
उत्सुकता उत्पन्न हो जाती है, वहीं
इस अवस्था के बालकों में केवल उन्ही चीज़ों के प्रति उत्सुकता उत्पन्न होती है जो
उनके लिए महत्वपूर्ण होती हैं।
4. उत्तर बाल्यावस्था में सामाजिक विकास :
जैसे की हम पहले भी
अध्ययन कर चुके हैं की इस अवस्था को टोली अवस्था भी कहा जाता है। इस अवस्था की
विशेष बात यह है कि इस अवस्था में बालक हमउम्र बालकों के साथ टोली बनाकर रहना पसंद
करता है। टोली में रहते हुए बालक का समाजीकरण होता है बालक टोली में रहते हुए अनेक
बातें सीखता है, जैसे किसी कार्य का उत्तरदायित्व लेना, प्रतियोगिता में भाग लेना किसी कार्य
में सहयोग करना, बालक में सामाजिक समझ का विकसित होना
आदि कभी कभी बालकों पर टोली का नकारात्मक प्रभाव भी पड़ जाता है और ऐसी स्थिति में
बालक टोली द्वारा निर्धारित मूल्यों एवं मानकों को सर्वोपरि मानते हुए अपने माता
पिता के द्वारा निर्धारित मूल्यों एवं मानकों को ही अस्वीकृत कर देता है।
5. उत्तर बाल्यावस्था में मानसिक विकास तथा संज्ञानात्मक विकास :
इस अवस्था में बालक मानसिक रूप से प्रारंभिक बाल्यावस्था की तुलना में
अधिक विकसित हो जाते हैं। इस अवस्था के बालकों में लगभग 90% तक मानसिक विकास पूरा
हो जाता है ।
पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालक चिंतन के मूर्त परिचालन की अवस्था में होता है । इस अवस्था में बालक पहले सीखे गए संप्रत्यय को और अधिक स्पष्ट मजबूत और मूर्त बनाता है। अब बालकों का चिंतन पहले से अधिक तर्कसंगत हो जाता है जैसे बालक यह समझने लगता है की 1 फीट में 12 इंच होते हैं तथा 12 इंच का 1 फीट होता। जीवन मृत्यु का प्रत्यय भी अधिक स्पष्ट हो जाता है अतः बालक जीवित एवं अजीवित वस्तुओं में सार्थक अंतर करने लगता है। उनमें मुद्रा सम्बन्धी प्रत्यय भी विकसित हो जाता है। बालक में दिन तारीख व माह ठीक ठीक बता सकने की क्षमता भी विकसित हो जाती है इस अवस्था में बालक जो भी स्कूल में सीखते हैं, जो भी अनुभव रेडियो सुनने से टेलिविज़न देखने से, अख़बार पढने से, चलचित्र देखने से प्राप्त करते हैं, उससे वे नए ढंग से अर्थ निकालना शुरू कर देते हैं ।