बच्चों के साथ अंतःक्रिया एवं अवलोकन : विश्लेषण के विविध उपागम
बच्चों के साथ अंतःक्रिया एवं अवलोकन : विश्लेषण के विविध उपागम प्रस्तावना
बच्चों से अच्छी
तरह अंतः क्रिया या उनकी गतिविधियों का गहन अवलोकन करके शिक्षक उनके बारे में बहुत
कुछ समझ सकते हैं। यह जरूरी भी है क्योंकि किसी बच्चे के बारे में बिना जाने उसके
विकास को सही दिशा दे पाना शिक्षक के लिए मुश्किल है। हर बच्चे के जीवन में उसके
सामाजिक-सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि
परिवेश का गहरा हस्तक्षेप होता है। जब बच्चे विद्यालय आते हैं तो वे अपनी सोंच एवं
व्यवहार के अंतर्गत उस परिवेश के तत्वों को भी लेकर आते हैं। बार शिक्षक अपने
विद्यार्थियों के उस सोंच या व्यवहार के पीछे के कारण को समझ नहीं पाते हैं और
उसपर अपनी अनापेक्षित प्रतिक्रिया दे देते हैं। इसके कारण वे बच्चे विद्यालय में
सहज नहीं हो पाते हैं और सीखने की प्रक्रिया से दूर होते जाते हैं। इसलिए बच्चों के
सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के प्रति संवेदनशील होना एक शिक्षक के लिए बहुत जरूरी
है और उसे कुछ ऐसे उपागम या तरीके आने चाहिए जिनके माध्यम से वह अपने बच्चों के
परिवेशीय पक्षों का अध्ययन कर सके। उदाहरण के तौर पर, यदि किसी बच्चे
का व्यक्तिगत अध्ययन करना हो तो इसके अन्तर्गत उस बच्चे के बाहरी व्यवहार व उसके
अंतःकरण का अध्ययन, उसकी पारिवारिक
स्थिति, शारीरिक व मानसिक
समस्याएं, रुचियाँ, आस-पास का
वातावरण, माता-पिता के साथ
उसका व्यवहार एवं संबंध तथा बच्चे की आर्थिक स्थिति, आदि समस्त पक्षों को जानने के लिए विभिन्न
तरीकों का इस्तेमाल करना एक शिक्षक को आना चाहिए। इन सब के आधार पर, शिक्षकों को
बच्चों के बारे में बहुत कुछ पता चल सकता है जिसके आधार पर वे अपने सीखने-सिखाने
की प्रक्रिया को आकार दे सकते हैं। इस इकाई में बच्चों को समझने के कुछ प्रमुख
उपागमों एवं तरीकों के बारे में चर्चा की गई है। प्रशिक्षुओं से अपेक्षा है कि वे
उनकी समझ बनाकर अपने विद्यालय में उनका प्रभावी प्रयाग करेंगे।
विभिन्न सामाजिक- सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आनेवाले बच्चों के अध्ययन का अंतर्विषयी उपागम: आवश्यकता एवं महत्व
हर बच्चे की अपनी अलग-अलग पहचान होती है और उसके विकास की प्रक्रिया भी विशिष्ट होती है। इसके पीछे उसके सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका देखी जा सकती है। जो बच्चा जिस परिवेश में पला-बड़ा होता है वह उस परिवेश के विभिन्न तत्वों के साथ अंतः क्रिया कर उसको स्वयं के व्यवहार में अवश्य शामिल कर लेता है। यह प्रक्रिया चेतन और अचेतन दोनों ही स्तरों पर निरंतर चलती रहती है। इन सब का बच्चे के विकास और मुख्य तौर पर शैक्षिक विकास पर भी गहरा असर पड़ता है। उदाहरण के तौर पर बच्चे की भाषा, उसके आस-पास का माहौल आदि का उसके सीखने की प्रक्रिया में अहम योगदान होता है। इन सब के साथ-साथ बच्चों के अध्ययन का उद्देश्य विद्यार्थियों को शैक्षणिक वातावरण में भली-भांति समझकर एवं उनकी परिस्थितियों के अनुकूल शिक्षण प्रविधि का उपयोग कर शिक्षण में उनकी सहायता करना एवं उनके अच्छे भविष्य के निर्माण में पूर्णरूपेण सहयोग करना भी है।
अतः यह जरूरी है
कि बच्चे के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं, उसके व्यवहार, सोंच आदि के बारे में शिक्षक को एक व्यवस्थित समझ हो।
हालांकि, इतना महत्वपूर्ण
होने के बावजूद यह आयाम बहुत उपेक्षित रहा है। विभिन्न विषयों जैसे कि मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, नृविज्ञान, दर्शनशास्त्र आदि
से विभिन्न सिद्धांतों, उपागमों एवं
तरीकों को अपनाकर बच्चों के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं को समझने का कार्य
धीरे-धीरे शुरू हुआ। यदि देखे तो उन्नीसवीं सदी के आरंभ में जैसे-जैसे
मनोवैज्ञानिकों का ध्यान व्यक्तिगत विभिन्नताओं की उत्पत्ति, स्वरूप एवं समस्याओं
की ओर अग्रसर हुआ, बच्चों के अध्ययन
की आवश्यकता महसूस होने लगी। इतना ही नहीं, जीवन के समस्त पहलुओं में विभिन्नताएँ दिखाई देने लगी और
बच्चों के मानसिक स्तर, व्यक्तिगत गुणों, योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों, उपलब्धियों
इत्यादि में विविधताएँ दिखाई देने लगी। ऐसी स्थिति में मनोवैज्ञानिकों को ऐसे
अध्ययन के तरीको की आवश्यकता का अनुभव हुआ जो बच्चों के व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि
पहलुओं का अध्ययन कर पाने में सक्षम हो। इसके परिणामस्वरूप अन्वेषण शुरू हुए, प्रायोगिक कार्य
होने लगे, फिर धीरे-धीर
बच्चों के अध्ययन हेतु विभिन्न उपागमों एवं उपकरणों का उपयोग होना शुरू हुआ।
उपकरणों की सहायता से व्यक्तियों के मानसिक एवं दैहिक दोनों ही पहलुओं का मापन एवं
मूल्यांकन किया जाने लगा।
साथ ही, समय परिवर्तन के
साथ जैसे-जैसे व्यक्तिगत विभिन्नताओं के जटिल रूप को महत्व दिया जाने लगा, वैसे-वैसे
उपकरणों की आवश्यकता अनुभूत होने लगी और तदनुसार उनमें परिवर्तन भी होते रहे। अब
बच्चों के अध्ययन के लिए केवल मनोवैज्ञानिक आधार ही नहीं, बल्कि
समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय उपगमों को अपनाया जाने लगा। बच्चों को उनके संदर्भ
में समझने का दृष्टिकोण समाजशास्त्र एवं नृविज्ञान द्वारा भी प्रोत्साहित किया
गया। इनसब का यदि शैक्षिक अनुप्रयोग देखें तो विद्यार्थियों को जानने, उनकी रुचियों को
समझने, उनकी विभिन्न
समस्याओं का समाधान करने,
उनके दृष्टिकोण व
अभिवृत्तियों को पहचानने आदि में शिक्षकों द्वारा विभिन्न तरीको को इस्तेमाल करने
की समझ बढ़ी।
सामान्यतः देखें
तो बच्चों को समझने के कई सरल एवं जटिल तरीके हैं जिसे शिक्षकों द्वारा प्रयोग में
लाया जा सकता है। इन तरीकों के माध्यम से बच्चों के बारे में महत्वपूर्ण आंकड़ों
को एकत्र करके उनका विश्लेषण करने से शिक्षकों की समझ भी बहुत समृद्ध होगी। आगे के
खण्डों में कुछ प्रमुख तरीकों के बारे में संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
प्रशिक्षुओं से अपेक्षा है कि वे इन तरीकों को समझकर इनका प्रयोग विद्यालयों में
करें।
बच्चों का अवलोकन: विभिन्न तरीके
अवलोकन विधि वह
विधि है, जिसमें किसी के
व्यवहार या घटना को देखकर उसका व्यवस्थित व नियोजित रूप से अध्ययन किया जाता है।
इस विधि का उपयोग शिक्षार्थियों के व्यवहारों, उनकी अभिरुचि, अभिक्षमता, व्यक्तित्व आदि के विषय में जानने के लिए किया जाता हैं।
अवलोकन का शाब्दिक अर्थ है-ध्यानपूर्वक देखना, निरीक्षण करना, आँखों से देखना, अर्थात यह एक सुविचारित, सुनियोजित, सजगतापूर्वक अध्ययन करने की प्रक्रिया है। इसका प्रयोग कई
प्रकार से किया जा सकता है जैसे व्यक्ति विशेष अथवा समूह के व्यवहार के अध्ययन
हेतु । अवलोकन एक जटिल प्रक्रिया है जिसके व्यवस्थित क्रियांवयन के लिए
अवलोकनकर्ता को कई प्रकार की तैयारियां करनी होती है। एक शिक्षक के रूप में अवलोकन
करने के लिए इसके विविध पक्षों को समझना जरूरी है। अवलोकन के कुछ प्रमुख प्रकार इस
प्रकार से हैं:
i. औपचारिक अवलोकन-
इसमें अवलोकनकर्ता विद्यार्थियों के विशिष्ट व्यवहारों का अवलोकन औपचारिक परिस्थितियों में करता है। अवलोकनकर्ता यह निश्चित करता है कि उसे विद्यार्थियों को किस समय और कहाँ अवलोकन करना है। इसमें स्थान, समय, उपकरण के साथ-साथ, अवलोकन के निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखा जाता हैं तथा साथ ही अवलोकन के लिए कुछ निश्चित बिन्दुओं को भी पूर्वनिर्धारित किया जाता है। उदाहरण स्वरूप जिस व्यक्ति का अवलोकन किया जानेवाला है उससे कुछ निश्चित कार्य करवाये जाते हैं और पूर्वनिर्धारित मानकों के अनुसार उनका अवलोकन किया जाता है। इसमें परिस्थितियों को आवश्यकतानुसार व्यवस्थित व नियंत्रित किया जाता है। अतः इसे औपचारिक अवलोकन कहा जाता है।
ii. अनौपचारिक/स्वाभाविक अवलोकन
शिक्षक स्वाभाविक परिस्थिति या विविध गतिविधियों जैसे- खेल का मैदान, कक्षाकक्ष में की गई गतिविधि, मध्य अंतराल के समय होने वाले क्रियाकलाप, स्कूल के बाहर बच्चों का व्यवहार आदि के दौरान अवलोकन कर सकते हैं। सामान्यतः इस तरह के अवलोकन में विद्यार्थियों को यह पता नहीं होता कि उनके व्यवहारों का अवलोकन किसी अवलोकनकर्ता द्वारा किया जा रहा है। फलस्वरूप वें अपने व्यवहारों में स्वभाविकता बनाए रखते है और अवलोकनकर्ता उन व्यवहारों का प्रेक्षण आराम से कर लेता है। इस दौरान शिक्षक किसी विद्यार्थी विशेष के विभिन्न व्यवहारों व गतिविधियों को ध्यानपूर्वक देख सकता है। उदाहरण के तौर पर, शिक्षक दूर से ही बच्चों के समूह द्वारा खेल के मैदान में किए गए व्यवहारों का अवलोकन कर इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि कौन सा विद्यार्थी स नेतृत्व कर रहा है, कौन-कौन से विद्यार्थी खेल में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं, और कौन से विद्यार्थी निष्क्रिय व चुपचाप मैदान में बैठे हुए हैं। अनौपचारिक निरीक्षण के लिए समय सीमा, स्थान, , परिस्थितियां की कोई पाबंदी नहीं निर्धारित की जाती है। अवलोकनकर्ता स्वतंत्रता पूर्वक बच्चे के व्यवहार का अवलोकन कर सकता है।
सहभागी अवलोकन-
इस विधि में अवलोकनकर्ता विद्यार्थियों की क्रियाओं में स्वयं हाथ बटाता है अर्थात
अवलोकनकर्ता विविध गतिविधियों में सहभागियों के साथ भाग लेते हुए उस समूह का सदस्य
बन जाता है और इसके साथ-साथ उसके व्यवहारों का अवलोकन भी करते रहता है। यहां इस
तरह अवलोकनकर्ता का क्रियाओं में हाथ बंटाने का मुख्य उद्देश्य व्यवहारों को
स्वाभाविक तरीके से प्रभावित करने तथा ठीक ढंग से वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण करने से है।
इस प्रकार के अवलोकन में शिक्षक अवलोकनकर्ता के रूप में निकट एवं गहराई से
विद्यार्थियों के प्रत्येक पहलू का ध्यान से अवलोकन कर उनका विस्तृत रिकॉर्ड तैयार
कर सकता है।
iv. असहभागी अवलोकन-
इस प्रकार के अवलोकन में शिक्षक एक अवलोकनकर्ता के रूप में समूह में सम्मिलित न होकर उस गतिविधि पर बाहर से दृष्टि रखता है और विद्यार्थियों के व्यवहार को बाहर से ध्यान पूर्वक देखता है। अवलोकनकर्ता विद्यार्थियों के व्यवहार को विद्यालय के अन्दर एंव बाहर किसी भी जगह पर ध्यान से देखता रहता है और उसके आधार पर निष्कर्ष पर पहुँचता है।
एक शिक्षक के लिए
औपचारिक, अनौपचारिक, सहभागी व असहभागी
सभी प्रकार के अवलोकन महत्वपूर्ण हैं। कई बार इन दोनो प्रकार के अवलोकन विधि का
प्रयोग साथ-साथ होता है। कक्षा में शिक्षक अपने अवलोकन के आधार पर ही कक्षा
व्यवस्था अथवा विद्यार्थियों के व्यवहार को व्यवस्थित करता है। उसके अवलोकन के कई
बिन्दू हो सकते हैं।
अवलोकन के चरण
अवलोकन की
प्रक्रिया को मूलतः तीन चरणों में किया जा सकता है। प्रत्येक चरण में किए जानेवाले
कार्यो का विवरण सूझाव के रूप में आगे दिया जा रहा है। हालाकि इन चरणों को संदर्भ
अनुसार परिवर्तित किए जाने की पूरी संभावना है। साथ ही यह भी समझना आवश्यक है कि
कोई भी चरण स्वयं में परिपूर्ण नही है बल्कि प्रत्येक चरण की कार्ययोजना का अन्य
चरणों से गहरा संबंध है। अवलोकन की प्रक्रिया को चरण में व्यक्त करने का प्रमुख
कारण उसे व्यवस्थित रूप से करने से है।
प्रथम चरण (अवलोकन पूर्व ) -
यह अवलोकन से पहले का चरण है और यह अवलोकन करने के लिए आधार का
काम करता है। यदि इस चरण को सुनियोजित कर लिया जाए तो आगे के चरणों को व्यवस्थित
रूप से करने एवं अपेक्षित परिणामों को प्राप्त करने की संभावना बढ़ जाती है। इस
चरण में किए जानेवाले प्रमुख कार्यों का क्रमवार विवरण निम्नलिखित हैं।
1. अवलोकन के
उद्देश्यों का निर्धारण अर्थात, क्या अवलोकन करना है, किसका अवलोकन करना है तथा क्यों अवलोकन करना है। ये तीनो
प्रश्न अवलोकन के प्रक्रिया की प्रथम कड़ी हैं। इनके बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
अतः अवलोकन करने से पूर्व शिक्षक को इन बिन्दुओं पर विचार करके इनका निर्धारण करना
आवश्यक है। उदारहण के लिए,
एक शिक्षक
निम्नलिखित बिन्दुओं को लेते हुए अपने अवलोकन के उद्देश्यों को निर्धारित कर सकता
है:-
- किसी विशेष परिस्थिति का अवलोकन
- किसी विशेष विद्यार्थी का अवलोकन
- किसी विशेष गतिविधि का अवलोकन
- किसी चयनित समस्या या विषय का अवलोकन
2. अवलोकन हेतु योजना निर्माण-
अवलोकन के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अब यह निश्चित करना
होता है कि अवलोकन कैसे करें। इसके लिए क्या कार्य योजना होगी। योजना निर्माण के
दौरान हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होता है।
i. अवलोकन की पस्थितियों से अवगत होना।
ii. अवलोकन के लिए सहभागियों (एक विद्यार्थी, विद्यार्थी समूह, शिक्षक-समूह आदि) का चयन
iii अवलोकन कैसे करेंगे अर्थात इसका प्रकार क्या होगा।
iv. अवलोकन बिन्दुओं का निर्धारण (प्रश्नावली निर्माण, प्रारूप निर्धारण, आदि)
V.
द्वितीय चरण (अवलोकन के दौरान)
प्रथम चरण में निर्धारित किए गए कार्ययोजना के आधार पर - उनका
क्रियान्वयन इस चरण में किया जाएगा। वस्तुतः इस चरण में उद्देश्यों की प्राप्ति के
लिए आंकड़ों को संग्रहीत किया जाएगा। आवलोकन की यह प्रक्रिया आवश्यकतानुसार एक से
अधिक बार हो सकती है।
इस चरण में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है:-
i. योजनानुरूप बनायी गयी प्रश्नावली अथवा प्रारूप में आंकड़ों को व्यवस्थित रूप से अंकित करना।
ii. परिस्थिति के अनुसार पूर्वनिर्धारित योजना में परिवर्तन करने के लिए लचीलापन रखें। iii. अवलोकन के प्रकार के अनुसार उसके नियमों का ध्यान रखना । उदाहरण स्वरूप अनौपचारिक अवलोकन के दौरान शिक्षक को यह ध्यान रखना होगा कि विद्यार्थियों स्वाभाविक रूप से अपनी गतिविधियों में संलग्न हैं, तब अवलोकन करें।
iv. अवलोकन के
आंकड़ों को सुरक्षित रूप से रखना।
तृतीय चरण (अवलोकन पश्चात)
इस चरण में द्वितीय चरण के माध्यम से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया जाएगा। आंकड़ों के विश्लेषण के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने पूर्वनिर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखे। साथ ही यह भी हो सकता है कि द्वितीय व तृतीय चरण को बार-बार किया जाना हो । विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त करें। विश्लेषण की बात करें तो प्राप्त आंकड़ों को कई दृष्टिकोणों से विश्लेषित किया जा सकता है। यह विश्लेषणकर्ता के उपर निर्भर करता है कि वे विश्लेषण के लिए किन- किन विषयों से आधार बिन्दुओं को लेता है। उदाहरण के तौर पर, किसी बच्चे द्वारा किए जानेवाले व्यवहार को जेण्डर, पितृसत्ता, सामाजिक अधिगम, समाजीकरण आदि तमाम अवधारणाओं के संदर्भ में समझा जा सकता है।
आगे उदाहरण के
तौर पर एक अवलोकन सूची को दिया गया है। इसमें दिए गए बिन्दुओं को पढ़े और यह
विश्लेषण करें कि इस सूची के आधार पर प्राप्त आकड़ों की मदद से शिक्षक क्या
विश्लेषण कर सकता है। और कौन-कौन से निष्कर्षो तक पहुंच सकता है। साथ ही इस सूची
के अवलोकन बिन्दुओं की समीक्षा भी करें कि वे औपचारिक अवलोकन हैं अथवा अनौपचारिक
अवलोकन ।
अवलोकन की सीमाएं
अवलोकन विधि की सफलता के लिए सबसे पहले प्रेक्षक का तैयार एवं कुशल होना आवश्यक है। ऐसा नहीं होने के कारण प्रेक्षक अवलोकन के समय कई तरह की भूल कर बैठते है और विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है। अवलोकन की प्रक्रिया में बार बार सम्मिलित होने से ही प्रेक्षक को अनुभव होता है।
स्वाभाविक अवलोकन
विधि में प्रेक्षण अनियंत्रित परिस्थिति में किया जाता है। परिस्थिति अनियंत्रित
होने के कारण प्रेक्षक द्वारा निरीक्षण किए जाने वाले व्यवहार कई कारणों जैसे
बच्चे का स्वास्थ्य, कक्षा-कक्ष
परिस्थिति, आदि द्वारा
प्रभावित होते रहते हैं। ऐसी परिस्थति में प्रेक्षक के लिए यह निश्चित करना संभव
नहीं हो पाता कि विद्यार्थियों के व्यवहार में होने वाला अमूक परिवर्तन का कारण
कौनसा है। अतः वे निश्चित होकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ रहते हैं।
इस विधि में
अवलोकनकर्ता के निजी पूर्वाग्रह, पक्षपात आदि का प्रभाव अवलोकन पर पड़ता है, जिससे उसका
अवलोकन तटस्थ नहीं हो पाता है। उदाहरणस्वरूप- जब कोई शिक्षक किसी विद्यार्थी से
बहुत खुश होता है या उसे पसंद करता है तो वह शिक्षक उस छात्र के बुरे व्यवहार को
भी अच्छा कहता है, नजरअंदाज करता है
और किसी ना किसी ढंग से उसकी प्रशंसा करता रहता है। इसी तरह अगर शिक्षक किसी अमुक
विद्यार्थी से नाखुश होता है तो शिक्षक द्वारा उसके कामों में दोषारोपण किया जाता
है। अतः स्पष्ट है कि इस विधि में अवलोकनकर्ता की अपनी पूर्वधारणा या पक्षपात का
प्रभाव अवलोकन पर बहुत पड़ता है।
अवलोकन विधि का
उपयोग केवल बाह्य व्यवहारों के अध्ययन में किया जाता है और इसके आधार पर ही
विद्यार्थी की आंतरिक मानसिक क्रियाओं के बारे में निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है।
लेकिन ऐसा करना हमेशा सही नही होता है क्योंकि आंतरिक मानसिक क्रियाओं का यथार्थ
ढंग से अध्ययन करना संभव नही है।
बच्चों के साथ अंतःक्रियाः साक्षात्कार विधि
साक्षात्कार का
शाब्दिक अर्थ होता है अंतःदर्शन अर्थात आंतरिक रूप से देखना । इस तरह यह कहा जा
सकता है कि शाब्दिक रूप से किसी व्यक्ति से सम्बन्धित आंतरिक तथ्यों को जानने की
प्रक्रिया को साक्षात्कार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि
जिन अप्रकट अथवा अदृश्य तथ्यों को बाहय रूप से निरीक्षण नहीं किया जा सकता है, उन तथ्यों की
जानकारी प्राप्त करना ही साक्षात्कार कहलाता है। जैसे-किसी विषय के विभिन्न पहलुओं
के विषय में गहन जानकारी प्राप्त करना ।
इस विधि द्वारा
विद्यार्थियों की सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं, अभिरुचियों योग्यताओं, मनोवृत्तियों से
संबंद्ध अवधारणाओं का अध्ययन करते हैं। इसका प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के विचारों, विश्वासों, मूल्यों, भावनाओं, अतीत के अनुभवों
आदि के विषय में जानना है। इसमें प्रत्यक्ष संपर्क अर्थात आमने-सामने के संपर्क
द्वारा सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है। साक्षात्कार विधि में शिक्षक
विद्यार्थियों का एक-एक करके या एक छोटा समूह बनाकर कुछ प्रश्न पूछते हैं।
साक्षात्कार का प्रयोग मुख्यतः वैसे विषयों के अध्ययन के लिए किया जाता है जिनको
जानने के लिए बातचीत करनी आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर बच्चों के समायोजन संबंधी
समस्याओं का अध्ययन करने तथा साथ ही साथ उनका शैक्षिक एवं व्यवसायिक निर्देशन
संबंधी अवधारणाओं को जानने के लिए इस विधि को अपनाया जा सकता है। साक्षात्कार के
अन्तर्गत विद्यार्थी को स्वतंत्रतापूर्वक प्रश्नों के माध्यम से अपने विचार
प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। इस विधि में प्रायः गुणात्मक तथ्यों का संग्रह
किया जाता है। इस विधि में विद्यार्थियों की भाव भंगिमा, अभिव्यक्ति, बोलने की शैली
आदि के अवलोकन का मौका भी साक्षात्कारकर्ता को मिलता है। कुछ हद तक यह भी कहा जा
सकता है कि शिक्षक साक्षात्कार के आधार पर बच्चे के व्यवहार के बारे में जो
विश्लेषण करता है, वह अधिक
प्रामाणिक होता है और उसके द्वारा बच्चे के मानसिक पहलुओं के विषय में अधिक
विश्लेषण किया जा सकता है। क्योंकि शिक्षक के विश्लेषण में स्वयं विद्यार्थी का मत
भी अंतर्निहित होता है।
साक्षात्कार के प्रकार
साक्षात्कार को कई प्रकार से समझा जा सकता है जिसमें से निम्नलिखित साक्षात्कार प्रमुख हैं।
1. संरचित साक्षात्कार-
इस विधि के अन्तर्गत अध्ययनकर्ता पूछे जानेवाले प्रश्नों को एक
निश्चित क्रम में पहले से ही तैयार कर लेता है। साक्षात्कार के समय वह सूचनादाता
से यह प्रश्न उसी क्रम के आधार पर पूछता है। इस तरह के साक्षात्कार में पूर्व
निर्धारित प्रश्न होने के कारण साक्षात्कार की प्रकृति नियंत्रित होती है। उदारहण
के तौर पर, शिक्षक पहले से
यह निश्चित कर लेते है कि विद्यार्थियों से वे किन-किन प्रश्नों को पूछेंगे और
उसको पूछने का क्रम क्या होगा। इस प्रकार के साक्षात्कार के कुछ लाभ भी हैं और कुछ
सीमाएं भी। इस साक्षात्कार में पहले से प्रश्न निर्धारित होने के कारण
साक्षात्कारकर्ता को कोई विशेष कठिनाई नही होती है, पर पूर्वनिर्धारित प्रश्न होने के कारण यह भी
हो सकता है कि कई महत्वपूर्ण सूचनाओं को को शामिल नहीं किया जा सके। नीचे किसी
विद्यार्थी से साक्षात्कार हेतु बनायी गयी सामान्य प्रश्नावली का उदाहरण दिया जा
रहा है, इसके प्रश्नों को
देखें और किसी विद्यार्थी से इनको पूछ कर उनका विश्लेषण भी करें।
i. अपने परिवार के बारे में बताएं?
ii. आपके कितने भाई-बहन हैं?
iii आपको घर पर क्या करना अच्छा लगता है और क्यों?
iv. अपने आस-पड़ोस के बारे में बताएं?
v. क्या आपके मित्र हैं?
vi. अपने प्रिय मित्र के बारे में बताए। वह आपको प्रिय क्यों है?
vii. आपको यह विद्यालय कैसा लगता है?
viii. आपका पसंदीदा कांलाश कौनसा है?
ix. आपको किस तरह का खेल पसंद है?
X. आपको कैसे शिक्षक
या शिक्षिकाएं पसंद है?
2. असंरचित साक्षात्कार -
संरचनात्मक साक्षात्कार विधि के विपरीत इस विधि में प्रश्न एवं उनकी
संख्या पहले से निश्चित नहीं होती। अध्ययनकर्ता अध्ययन संबंधित कोई भी प्रश्न
पूछने के लिए स्वतंत्र होता है। इसमें साक्षात्कारकर्ता प्रश्नों के स्वरूप अपने
मन से निर्धारित करता है। वस्तुतः साक्षात्कारकर्ता पहले से सिर्फ विषयवस्तु के
विषय में सोंचकर आता है पर प्रश्नों का निर्माण वह साक्षात्कार के दौरान ही करता
है। इस प्रकार के साक्षात्कार के लिए गहन तैयारी की जरूरत पड़ती है।
साक्षात्कारकर्ता के पास यह कौशल होनी चाहिए जिससे वह साक्षात्कार के दौरान
उभर कर आए
प्रसंगों से पुनः कोई प्रश्न बना दे। इस प्रकार के साक्षात्कार के लिए अनुभवी
व्यक्ति की अवाश्यकता होती है। इस साक्षात्कार में चुंकि प्रश्नों को पहले से
निर्धारित करके नही रखा जाता, अतः साक्षात्कार देनेवाले को यह पूरी आजादी रहती है कि वह
अपनी बात को विस्तार से रखे। साथ ही यह भी खतरा रहता है कि कहीं विषय से भटकाव ना
हो जाए। साक्षात्कार के और भी कई प्रकार हैं जैसे- औपचारिक, अनौपचारिक, नैदानिक इत्यादि
।
साक्षात्कार की प्रक्रिया के चरण
मुख्य रूप से
साक्षात्कार की प्रक्रिया के निम्नलिखित चरण होते है.
i. साक्षात्कार की तैयारी-
इस चरण में साक्षात्कार के विषय एवं उसके उद्देश्यों के अनुरूप पूर्व
तैयारियां की जाती है। उदाहरण के तौर पर साक्षात्कार देनेवाले व्यक्ति से अनुमति, साक्षात्कार का
समय, चर्चा के
विषयबिन्दु, स्थान, इत्यादि से
संबधित तैयारियों पर ध्यान दिया जाता है। इस दौरान साक्षात्कार की योजना का
निर्माण भी किया जाता है जिसमें साक्षात्कार का प्रारम्भ, विकास एवं समापन
से संबंधित व्यवस्था की योजना बनायी जाती है।
ii. साक्षात्कार का संचालन-
इस चरण में साक्षात्कार को पूर्व निर्धारित योजना के अनुरूप क्रियांवित
किया जाता है। इस दौरान साक्षात्कारकर्ता द्वारा साक्षात्कार के विषयबिन्दु को
चर्चा के केन्द्र में बनाये रखने के अलावा कई महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना
आवश्यक है। जैसे- साक्षात्कार की शुरूआत कैसे करें, समुख बैठे व्यक्ति से चर्चा को स्वाभाविक रूप
से शुरू कैसे करें। चर्चा के दौरान महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में कैसे रखें, इत्यादि ।
साक्षात्कार का समापन कैसे करें, इसका भी विशेष ध्यान साक्षात्कारकर्ता को रखना होता है।
iii आलेखन / प्रतिवेदन व विश्लेषण-
इस चरण में साक्षात्कार के दौरान आए महत्वपूर्ण सूचनाओं को
व्यवस्थित रूप से लिखा जाता है। प्रायः साक्षात्कार के तुरन्त बाद इस कार्य को कर
लिया जाता है ताकि किसी प्रकार की महत्वपूर्ण जानकारी ध्यान से उतर ना जाए। अंत
में उद्देश्यों के आधार पर प्राप्त सूचनाओं का विश्लेषण कर लिया जाता है।
आगे ज्यां पियाजे
द्वारा बच्चों के साथ किए गए एक साक्षात्कार का उदाहरण दिया जा रहा है।
ज्यां पियाजे की नैदानिक साक्षात्कार विधि (क्लीनिकल विधि)
अभी तक हमने साक्षात्कार के विभिन्न
प्रकार एवं इसकी समान्य प्रक्रिया पर विचार किया। साथ ही साक्षात्कार के लिए
प्रश्नावली के उदाहरण का विश्लेषण भी किया। जिन पियाजे ने भी अपने अध्ययन के लिए
साक्षात्कार विधि का प्रयोग किया था। चूंकि उनके प्रयोग ने बच्चों के अध्ययन के
लिए साक्षात्कार विधि के महत्व को रेखांकित किया, अतः यहां हम उनके द्वारा किए गए प्रयोग का एक
परिचय भी दे रहे। हैं। पियाजे ने बच्चों के विचारों के विस्तार के लिए वार्तालाप
शैली का तरीका अपनाया। पियाजे के नैदानिक साक्षात्कार का उपयोग बच्चों की संज्ञात्मक
पक्ष का अध्ययन करने में किया जाता है। इसके अलावा बाल विकास के अन्य क्षेत्रों
में भी इसका उपयोग किया जाता है, जैसे- बच्चों के देखभाल के तौर तरीकों की सूचनाएं प्राप्त
करने के लिए अनुसंधानकर्त्ताओं द्वारा इसका उपयोग किया गया। इस विधि की विशेषता यह
है कि यह व्यक्ति को अपने विचारों के प्रदर्शन हेतु अवसर देता है।
नैदानिक साक्षात्कार की कुछ सीमाएँ भी हैं जैसे- कई बार विषयी स्वयं के विचार प्रक्रिया से सम्बन्धित सूचनाओं को छुपाते हुए साक्षात्कारकर्त्ता को मिथ्या सूचनाएँ देता है। विषयी अपने विचारों को शब्दों में अभिव्यक्त करने में असमर्थ होते है। इस कारण से साक्षात्कारकर्ता को वास्तविक जानकारी प्राप्त नही हो पाती।
नैदानिक
साक्षात्कार के अन्तर्गत पियाजे ने 5 साल के बच्चे से सपनों की समझ के बारे में कई प्रश्न किए
थे। उनके उदारहण नीचे दिए जा रहे हैं। (Source: Piaget, 1926/ 1930, PP 97-98 )
प्रश्न 1 सपने कहाँ से आते हैं ?
उत्तर - मै सोचता हूँ, जब मै सोता हूँ तब सपने आते है।
प्रश्न 2- क्या यह हमारे भीतर से आते है या फिर बाहर से ?
उत्तर - बाहर से ।
प्रश्न 3 हम सपने में क्या देखते है ?
उत्तर - मैं नही जानता (हाथ हिलाते हुए)।
प्रश्न 4- जब आप सोते हो, और अपना सपना देखते हो, तब सपना कहाँ होता है ?
उत्तर - मेरे बिस्तर में कम्बल के अन्दर, यह मेरे पेट मे था, हड्डियों में छूपा था। इसलिए मैनें नही देखा।
प्रश्न 5- जब तुम सोये तब सपना कहाँ था ?
उत्तर - हाँ, वह मेरे बिस्तर में था।
प्रश्न 6- जब आप कमरे में थे, तब आपने सपने को देखा तो यदि मैं अन्दर आता तो क्या मै भी देख पाता ?
उत्तर- नही, जो बड़े होते है वो सपने नही देखते ।
प्रश्न 7- क्या दो लोगों को एक जैसे सपने आते है ?
उत्तर- नही, कभी नही ।
प्रश्न 8 - जब सपना कमरे में होता है तो क्या तुम्हारे करीब होता है ?
उत्तर - हाँ, वह मेरी आँखो से 30 सेंटीमीटर दूर होता है।
साक्षात्कार की सीमाएं
इसमें समय तथा श्रम दोनों ही अधिक लगते हैं। साथ ही बहुत बड़ी संख्या में साक्षात्कार कर पाना मुश्किल होता है। अतः यह विधि बहुत छोटे समूह के लिए उपयुक्त है।
साक्षात्कारकर्ता की पूर्वधारणा के कारण साक्षात्कार के आंकड़े तथा विश्लेषण दोनो ही प्रभावित होते हैं। अतः इससे प्राप्त निष्कर्षों पर पूर्ण रूप से निर्भर नही रहा जा सकता.
इस विधि द्वारा
विद्यार्थियों के शैक्षिक व्यवहारों के अध्ययन करते समय यह देखा जाता है कि वे उस
परिवश में घबरा जाते है या डरे-डरे दिखते है। इस कारण कभी कभी तो वे सब कुछ जानते
भी प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते। अतः निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं हो
पाता।
बच्चों को समझने के अन्य तरीके
अवलोकन और
साक्षात्कार के अलावा और भी कई तरीके हैं जिनके माध्यम से बच्चों को समझा जा सकता
है। विद्यालय में शिक्षक इन तरीकों को अपनाते भी हैं। आइए इनके बारे में समझते
हैं।
1 विश्लेषणात्मक/चितंनात्मक प्रतिक्रिया लेखन (रिफ्लेक्टिव जर्नल)
जर्नल (पत्रिका)
अथवा प्रतिवेदन का लेखन चिंतन एवं मनन करने के अभ्यास का एक साधन है।
विश्लेषणात्मक / चितंनात्मक जर्नल अपने कार्य की प्रगति के प्रति समालोचनात्मक एवं
विश्लेषणात्मक रूप से सोचने का तरीका है। यह दर्शाता है कि कैसे आपके कार्य के
विभिन्न पक्ष एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसमें किसी विषय अथवा सीखने की प्रक्रिया
की उन्नति / विकास एवं सोच में बदलाव की निरंतर संभावना बनी रहती है। उदाहरण के
तौर पर विद्यालय में बच्चों के व्यवहार में आपके प्रति पहले दिन से लेकर अबतक
क्या-क्या परिवर्तन हुआ और क्यों हुआ, इसपर आप एक रिफ्लेक्शन लिख सकते हैं।
चिंतनशील लेखन
में एक घटना, विचार, वस्तु, प्रक्रिया अथवा
अनुभव पर पुनः देखने का साक्ष्य प्रस्तुत किया जाता है। इसमें सिद्धांतों पर
समकालीन विचारों को लेते हुए वस्तु, प्रक्रिया, अनुभवों पर विश्लेषण एवं टिप्पणी दी जाती है। प्रक्रिया के
महत्व एवं प्रासंगिकता की खोज एवं व्याख्या की जाती है। इसमें यह भी देखा जाता है
कि विषय अथवा प्रक्रिया का आपके लिए क्या महत्व है एवं इससे आपका सीखना कैसे
प्रभावित हो रहा है। रिफ्लेक्टिव लेखन में बहुत सारे विषयों से विभिन्न
दृष्टिकोणों को शामिल करने की भरपूर सम्भावना होती है। उदाहरण के तौर पर, आपकी कक्षा में
कोई बच्चा किसी खास तरह का व्यवहार करता या करती है तो उसके कारणों पर आप चिंतन
मनन कर सकते हैं और मनोविज्ञान, समाजशास्त्र आदि से विश्लेषण का आधार लेकर टिप्पणी लिख सकते
हैं।
विश्लेषणात्मक/
चितंनात्मक लेखन की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण बिन्दु चिंतनशील- विश्लेषणात्मक लेखन
में निम्नांकित के संदर्भ में ध्यान रखना चाहिए-
i. विवरण- यह बहुत
अधिक लंबा नहीं होना चाहिए तथा इसमें 'यह क्या है? क्या हुआ? एवं 'मैं इसके बारे में क्यों बात कर रहा हूँ?” यह अवश्य आना
चाहिए।
ii. व्याख्या- इसमें
यह अवश्य देखा जाए कि क्या वह प्रक्रिया/विषय उपयोगी महत्वपूर्ण रोचक प्रासंगिक है? कैसे यह दूसरों
के समान अथवा अलग है? कैसे इसे समकालीन
सिद्धांतों को लेते हुए पता लगाया समझाया जा सकता है ?
iii. परिणाम- परिणाम
में आपने इससे क्या सीखा व यह आपके भविष्य के काम को कैसे प्रभावित करेगा, इस पर चिंतन होना
चाहिए।
शिक्षक डायरी: रिफ्लेक्टिव जर्नल के रूप में
कक्षा में शिक्षण
के दौरान अपने विद्यार्थियों के व्यवहारों व समस्याओं को योजनाबद्ध तरीके से समझना
तथा उनपर चिंतन-मनन करना,
एक शिक्षक के लिए
अति आवश्यक हैं। इसमें शिक्षक की डायरी की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। एक तरह
से अपनी डायरी के माध्यम से शिक्षक स्वयं के शिक्षण में साकारात्मक परिवर्तन ला
सकता है। शिक्षक डायरी मूलतः एक शिक्षक का दपर्ण है जिससे उसके शिक्ष की विशेषताओं
की छवि मिलती है। सीखने-सीखाने की प्रक्रिया में शिक्षक डायरी एक महत्त्वपूर्ण
स्रोत होती है जो शिक्षक की समझ, व्यवहार व मनोभाव को प्रदर्शित करती है।
विद्यालय में
अपने शिक्षण से सम्बंधित विभिन्न गतिविधियों की योजनाओं से लेकर शिक्षण के दौरान
आनी वाली कठिनाइयों आदि का विस्तृत विवरण एक शिक्षक स्वयं अपनी डायरी में प्रतिदिन
लिखता है। उन अनुभवों के आधार पर वह अपने शिक्षण पद्धति में बदलाव की संभावना
तलाशता है तथा आवश्यकतानुरूप परिवर्तन करके पुनः कक्षा में प्रस्तुत होता है। इसके
अलावा विद्यार्थियों की रूचि तथा उनके स्तर को देखकर उसमें सुधार लाने के तरीकों
को लिखना तथा शिक्षक विद्यालय में प्रतिदिन क्या पढ़ाते है तथा बच्चे उस चीज को
किस गति से सीखते हैं, इस संबंध में
सूचनाओं को एकत्रित करना। इस प्रकार शिक्षक डायरी उसके वृत्तिक विकास का भी एक
प्रभावी माध्यम हो सकता है।
शिक्षक डायरी का
इतना व्यापक महत्त्व होने के बावजुद शिक्षकों के द्वारा इसका प्रभावी उपयोग नगण्य
है। विद्यालयों में यह सिर्फ औपचारिकता तक ही सीमित है, जिसे प्रशासनिक
आदेशों के कारण शिक्षकों द्वारा ऐसे ही लिख दिया जाता है। परन्तु यदि वास्तविक रूप
से शिक्षक डायरी का सही उपयोग किया जाये तो किसी भी विद्यालय में शिक्षण स्तर को
बहुत ऊँचा उठाया जा सकता है।
एनेक्डोटल अभिलेख (उपाख्यान आलेख / घटनावृत्त आलेख)
बच्चों के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए शिक्षक विभिन्न प्रकार के तरीकों का उपयोग करते हैं। इसमें गैर मनोवैज्ञानिक तकनीकें आदि शामिल होती है। किसी विद्यार्थी के व्यवहार और व्यक्तित्व गुणों से संबंधित सूचनाओं अथवा उस विद्यार्थी के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं आदि को एनेक्डोटल या उपख्यानक आलेख के रूप में तैयार किया जाता है, जिसके द्वारा विद्यार्थी के विकास को संपूर्णता में समझने में सहायता मिल सके। उपख्यानक अभिलेख के द्वारा एक शिक्षक को बच्चों के व्यवहार की समझ विकसित करने में सहायता मिलती है। ये अभिलेख बच्चे के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूचनाओं का एक लिखित संकलन है जिसकों शिक्षक आवश्यकता अनुरूप उपयोग में लेता है।
इस अभिलेख के
माध्यम से शिक्षक अपने विद्यार्थी के व्यवहार व अधिगम के विकास से संबंधित
महत्वपूर्ण घटनाओं को व्यवस्थित रूप से रिकार्ड करके रखता है ताकि समयानुसार उनके
विश्लेषण से विद्यार्थी को विशेष मदद की जा सके। सभी विद्यार्थियों के विषय में
एनेक्डोटल रिकार्ड को तैयार करने के दौरान एक अध्यापक अपनी कक्षा के विद्यार्थियों
के प्रति और अधिक संवेदनशील हो पाता है, साथ ही उनके विषय में और जान पाता है।
उपाख्यानक अभिलेख
छात्रों की समस्याओं पर भी प्रकाश डालते है। अतः विद्यार्थियों को उचित निर्देशन
एवं परामर्श देने में सुविधा होती है। जब कोई नया अध्यापक विद्यालय में आता है, उपाख्यानक
अभिलेखों का अध्ययन करके अपने विद्यार्थियों के संबंध में पूरी जानकारी थोड़े समय
में ही प्राप्त कर लेता है। अतः इस प्रकार उपाख्यात्मक अभिलेख बच्चों के विशेष
व्यवहार का लेखा-जोखा रखने में सहायक है। और एक शिक्षक के लिए यह अत्यंत आवश्यक
है। कि वे बच्चों के विशेष व्यवहारों पर दृष्टि रखें और उन व्यवहारों का
दिन-प्रतिदिन अवलोकन कर रिकार्ड का संधारण करें।
एनेक्डोटल अभिलेखों के प्रकार
एनेक्डोटल रिकार्ड विभिन्न प्रकार के होते हैं। विद्यालय के विद्यार्थियों अथवा उनसे संबंधित महत्वपूर्ण घटनाओं से संबंधित संक्षिप्त विवरण एक प्रकार का एनेक्डोटल रिकार्ड ही है। इसमें किसी विद्यार्थी विशेष से संबंधित सूचनाओं का संग्रह किया जाता है। उदाहरण के तौर पर विद्यार्थी की पारिवारिक पृष्ठभूमि, आर्थिक स्तर, स्वास्थ्य विवरण, अकादमिक प्रदर्शन रिपोर्ट इत्यादि। विद्यार्थी की नियमित डायरी भी स्वयं में एक महत्वपूर्ण अभिलेख है। इनमें से कई एनेक्डोट्स को विद्यालय का शिक्षक अकेले नहीं बना सकता अर्थात उसके लिए विद्यार्थी के परिवार व अन्य स्रोतों से भी मदद लेनी पड़ती है।