विभिन्न स्तरों पर विविधिता - वैयक्तिक, क्षेत्रीय, भाषा, जाति और समूह,
भारत में विविधता प्रस्तावना
भारत एक विशाल देश है। इसका भौगोलिक
विस्तार और विस्तृत क्षेत्रफल उसे और भी विशालता प्रदान करते हैं। यहां प्राकृतिक
विविधता, जातिगत, भाषा, धर्म संबंधी विविधता स्पष्ट रूप से
देखने को मिलती है। इसके साथ ही भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्वों की तरफ ध्यान
दें तो हमें पाते हैं कि यह बहिर्मुखी होने की अपेक्षा अंतर्मुखी अधिक है । यदि
इसके मूल स्वरुप को देखा जाए तो भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता पर अधिक बल देती
है। भारत के सभी 10 दर्शन में हमें भारतीय संस्कृति की
झलक मिल जाती है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक राजस्थान से अरुणाचल प्रदेश तक
विविधताओं से भरे होने के पश्चात भी इसमें अंतर्निहित एकता को आप महसूस कर सकते
हैं। वर्तमान परिपेक्ष्य में आधुनिक समाज बहुत ही तेजी से बदलता जा रहा है। इसके
लिए बहुत सारे कारक एक साथ कार्य कर रहे हैं, इन
सभी कारकों के संदर्भ में ज्ञान प्राप्त करना व उन समस्याओं का हल ढूंढने का
प्रयास होना चाहिए। भारत में अन्तर्निहित विविध स्तरों पर विद्यमान इन्हीं
विविधताओं, उनसे उत्पन्न समस्याओं और इन विविधताओं
से प्राप्त ज्ञान और अनुभवों के प्रयोग का अध्ययन इस अध्याय के अंतर्गत किया
जाएगा।
भारत में विविधता
विविधता की दृष्टि से भारत जैसा सम्पन्न देश विरले ही कोई होगा जहाँ पूर्व पश्चिम से एकदम भिन्न है और उत्तर दक्षिण से तरह से भिन्न है। भारत जहाँ सांस्कृतिक सम्पन्नता और विविधता हर तरफ देखने को मिलती है, जहाँ 8 से भी अधिक धर्मों को मानने वाले लोग हैं, 200 भाषाओं और 1600 से भी अधिक बोलियों को बोलने वाले हैं, 28 राज्य और 9 केन्द्रशासित प्रदेश हैं, लगभग 3000 जातियाँ और 25000 उपजातियों से सम्बंधित लोग भारत में निवास करती हैं। भौगोलिक दृष्टि से भारत की विविधता के विषय में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा है कि "यदि कोई विदेशी, जिसे भारतीय परिस्थितियों का ज्ञान नहीं है, सारे देश की यात्रा करे तो, वह वहाँ की भिन्नताओं को देखकर यही समझेगा कि, यह एक देश नहीं, बल्कि छोटे-छोटे देशों का समूह है और ये देश एक-दूसरे से अत्यधिक भिन्न है। जितनी अधिक प्राकृति भिन्नताएँ यहाँ हैं, उतनी अन्यत्र कहीं पर नहीं हैं। देश के एक छोर पर उसे हिम मंडित हिमालय दिखाई देगा और दक्षिण की ओर बढ़ने पर गंगा, यमुना एवं ब्रह्मपुत्र की घाटियाँ, फिर विन्ध्य, अरावली, सतपुड़ा तथा नीलगिरी पर्वत श्रेणियों का पठार। इस प्रकार अगर वह पश्चिम से पूर्व की ओर जायेगा तो उसे वैसी ही विविधता और विभिन्नता मिलेगी। उसे विभिन्न प्रकार की जलवायु मिलेगी। हिमालय की अत्यधिक ठण्ड, मैदानों की ग्रीष्मकाल की अत्यधिक गर्मी मिलेगी। एक तरफ़ असम का समवर्षा वाला प्रदेश हैं, तो दूसरी ओर जैसलमेर का सूखा क्षेत्र, जहाँ बहुत कम वर्षा होती है। इस प्रकार भौगोलिक दृष्टि से भारत में सर्वत्र विविधता दिखाई पड़ती है" ।
भारत के अनेक क्षेत्रों में सांस्कृतिक
विविधता दृष्टिगोचर होती है। यहाँ अलग-अलग क्षेत्रों के व्यक्तियों में पर्याप्त
रूप में सांस्कृतिक भिन्नता मिलती है। क्षेत्रों के अनुसार लोगों की शारीरिक बनावट, खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, यहाँ तक की उनकी मानसिकता भी अलग-अलग
होती है।
1. वैयक्तिक पक्ष के आधार पर विविधता -
प्राचीन भारत में मानव जीवन को चार अवस्थाओं में बांटा गया था- ब्रम्हचार्य गृहस्थ,वानप्रस्थ व सन्यास। पहली अवस्था में एवं ज्ञान का अर्जन किया करता था दूसरी में इस ज्ञान का अनुप्रयोग व उपयोग, अंत में जीवन मुक्ति के अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति की होती थी। पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने के लिए यह सारी व्यवस्था व्यवस्थाएं की गई थी। वर्ण व्यवस्था उस समय वर्ण व्यवस्था का आधार गुण, कर्म के आधार पर किया जाता था । श्रम का विभाजन अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए किया गया था। इसके अंतर्गत ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णों में कार्य का विभाजन हुआ था। योग्यतम व्यक्तियों को उनकी रुचि, अभिवृत्ति व योग्यता के अनुसार कार्य प्रदान किया जाता था ना की जन्म के आधार पर। अपने कर्म के अधर पर व्यक्ति एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जा सकता था। पर कालांतर में वर्ण जन्म के साथ जुड़ गया और यहीं से समस्याएँ उत्पन्न होनी शुरू हो गयीं।
भिन्नता का दूसरा आधार धर्म है।
धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं के आधार पर भी हम एक- दूसरे से अलग हैं। प्राचीन समय
में एकही धर्म से जुड़े अलग-अलग मतावलंबी थे पर कालांतर में कुछ नए धर्मों का उदय
हुआ और कुछ अन्य धर्मावलम्बी बहार से आए। वर्तमान समय में में भारत 8 से अधिक धर्मों को मानने वाले हैं और
धार्मिक आधार पर एक दुसरे से भिन्न हैं ।
वैयक्तिक भिन्नता का सबसे मुख्य आधार
मनोवैज्ञानिक आधार है। इसके अनुसार हम सभी एक जैसे होकर भी बुद्धि, व्यक्तित्व, रूचि, अभिवृत्ति, अभिक्षमता, दक्षता आदि आधारों पर एक-दूसरे से बहुत
ही भिन्न हैं और अपनी भिन्नताओं के आधार पर हमारी आवश्यकता भी भिन्न है।
भिन्नता का एक अन्य आधार लैंगिक आधार
भी है। इस आधार पर विश्व और भारत की सम्पूर्ण आबादी दो भागों में बंटी हुई है।
हालांकि कुछ उभयलिंगी भी हैं जो अपनी शारीरिक विशेषताओं के आधार पर स्त्रिऔर पुरुष
से अलग हैं। इसके अतिरिक्त लैंगिक चयन जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी भिन्नता देखी
जा सकती है।
धर्म शब्द को अंग्रेजी भाषा में 'रिलीजन' कहते हैं जिसका अर्थ है- संबंध स्थापित करना अर्थात उस शक्ति से मानव
है जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के साथ सद्भावना, प्रेम के साथ पवित्रता, दया, निष्पक्षता, नमृता जैसे गुणों का संकुचित अर्थ में
धर्म का अर्थ है किसी अमुक् धर्म के प्रति श्रद्धा रखना । जबकि व्यापक अर्थों में
धर्म का अर्थ है, हृदय व चरित्र की पवित्रता, जन सेवा , आध्यात्मिक विकास। धर्म का क्षेत्र
मानव का जीवन क्षेत्र है। इस संबंध में वाइट हेड का कहना है- " धर्म एक ऐसे
तत्व का दर्शन है जो हमारे परे ( बाहर) पीछे तथा भीतर है। ” धर्म के द्वारा मानव सहनशील व नम्र
बनता है, उसकी अंदर समाज सेवा की भावना विकसित
होती है। धर्म संस्कृति का वह पक्ष है जोकि मानव में विकास में मदद करता है। धर्म
के द्वारा नैतिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है। जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण
का निर्माण और साथ साथ संस्कृति व संरक्षण का विकास करने में भी धार्मिक शिक्षा
मुख्य भूमिका निभाती है। भारत में धारा 19 के
अनुसार प्रत्येक नागरिक को आध्यात्मिक स्वतंत्रता दी गई है इसके अनुसार सभी
व्यक्ति किसी भी धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र हैं। हमारे राज्य का अपना निजी
धर्म नहीं है, यहां जनतंत्र अथवा लोकतंत्र ही सत्य
है।
2. क्षेत्रीय पक्ष के आधार पर विविधता -
किसी क्षेत्र विशेष से
संबंधित भावनाओं के एकीकरण व अलग पहचान बनाए जाने को हम क्षेत्रीयता के रुप में
जानते हैं। स्वाधीन भारत में 1947 के
बाद से क्षेत्र विशेष के आधार पर अलग-अलग राज्यों का गठन हुआ है। देखा जाए तो भारत
बहुभाषी, धर्मनिरपेक्ष, शांति प्रिय राष्ट्र के रूप में जाना
जाता है परंतु आंतरिक दृष्टिकोण से हमें यह ज्ञात होता है कि क्षेत्र विशेष को
लेकर कुछ लोगों का दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है। आज जी हम भी नए क्षेत्रों प्रदेश
की स्थापना को लेकर उठ रहे आंदोलनों व मांगों का समर्थन करते हुए लोगों को देख
सकते हैं। भारत के उत्तर- दक्षिण पूर्व पश्चिम सभी जगह पर इस तरह की मांग उठते हुए
हम देख सकते हैं। क्षेत्रीयता के आधार पर अगर हम नजर डालें तो हम पाते हैं भौगोलिक
स्थिति, विशेष भाषा संबंधी विषय क्षेत्र अथवा
एक समान होने के किसी भी मुद्दे को लेकर क्षेत्रीयता के समस्याओं को उठाया जा सकता
है
3. भाषा के आधार पर विविधता -
भारत के विभिन्न प्रान्तों में
अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। यह विशेषता भाषायी आधार पर इन प्रान्तों को दूसरे
प्रान्त से अलग करती है। वर्तमान समय में 22
भाषाओं को अधिकारिक भाषाओँ के रूप में मान्यता प्राप्त हैं। कुछ अन्य भाषाओं को भी
इस सूची में सम्मिलित करने की माँग की जा रही है। इसमें हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संपर्क भाषा,
सांस्कृतिक भाषा के रूप में स्थापित
है। इसके अतिरिक्त संविधान में अनुच्छेद 343 से
351 तक हिंदी भाषा से संबंधित प्रावधानों
का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्तमान में
जिन 22 भाषाओं को स्थान प्रदान किया गया है।
यह निम्नलिखित है-
1. आसामी 2. बंगाली 3. गुजराती 4. हिंदी 5. कन्नड़ 6. कश्मीरी 7. कोंकणी 8. मलयालम 9. मणिपुरी 10. मराठी 11. नेपाली 12. उड़िया 13. पंजाबी 14. संस्कृत 15. सिंधी 16. 18. उर्दू 19. बोडो 20. संथाली 21. मैथिली और 22. डोगरी।
राजभाषा के रूप में हिंदी भारत को एक सूत्र में बांधने का कार्य करती है इसकी एकता व अखंड को ध्यान में रखते हुए हिंदी को यह दर्जा प्रदान किया गया भारत एक बहुभाषी देश है, जिसमें हिंदी के अलावा अन्य प्रादेशिक भाषाओं का उपयोग होता है परंतु हिंदी भाषी प्रदेशों में अर्थात उत्तर के अधिकार क्षेत्र में हिंदी ही बोली जाती है । प्रमुख हिंदी भाषी क्षेत्रों के अंतर्गत उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश व दिल्ली का नाम शामिल है। हिंदी व क्षेत्रों में इन क्षेत्रों में हिंदी व उससे संबंधित बोलियों के बीच में इतनी तारतम्यता है कि हिंदी के स्वरूप का सही सही आकलन करना मुश्किल हो जाता है। भारत के संदर्भ में मातृभाषा में क्षेत्रीय भाषाएं भी हैं इसके अलावा अंग्रेजी भाषा को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, प्रशासनिक कार्यों व अन्य कार्यों में प्रमुख रूप से प्रयोग में लाई जाती है । उदारीकरण के बाद विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने के बाद इसका प्रयोग तेजी से बढा है इसके अलावा शिक्षा के माध्यम के रुप में आज बहुत से विद्यालय अंग्रेजी को मुख्यतः प्रयोग में लाते हैं भारत की व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए यहां त्रिभाषा सूत्र पर विशेष बल दिया गया है जिसके अंतर्गत मातृभाषा, प्रथम भाषा व द्वितीय भाषा सीखने पर ध्यान केंद्रित किया गया है स्वतंत्रता के बाद विभिन्न आयोगों ने भी शिक्षा में भाषा के माध्यम के प्रयोगों पर अपनी अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की है।
4. जाति के आधार पर विविधता -
जाति उस वर्ग को कहते हैं जिसमें
सदस्यों की सदस्यता और कर्तव्य उनके जन्म से ही निश्चित हो जाते हैं। एक बंद वर्ग
है जिसके कारण एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति में स्थान प्राप्त नहीं कर सकता ।
प्रत्येक जाति का अपना खानपान, विवाह
व्यवस्था, आजीविका, परंपरा का आचार विचार होते हैं जो कि इस एकता प्रदान करते हैं। हमारे
देश में प्राचीन भारत में कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र चार वर्ण अथवा जातियों का निर्माण हुआ था। ब्राह्मण कर्मकांड, मंत्रो का जाप, विद्या का पठन-पाठन करते थे। क्षत्रिय
देश व राज्य की सुरक्षा किया करते थे । वैश्य वाणिज्य एवं व्यापार का संचालन करते
थे और शूद्र उपरोक्त तीनों वर्णों की सेवा करते थे। यह जाति व्यवस्था सामुदायिक
एकता के साथ व्यक्तियों को मानसिक सुरक्षा भी प्रदान करती थी । आज वर्तमान में
जाति व्यवस्था संपूर्ण समाज में छुआछूत, ऊंच-नीच, भेदभाव भी बढ़ते जा रहा है। प्राचीन
भारत में जातीयता के अनुसार व्यवसाय को निश्चित करना है, बाद में पैतृकता की वजह सामाजिक
गतिशीलता भी खत्म की कम गई है। जातीयता के दोष को देखते हुए पंडित नेहरू ने लिखा
है- - “भारत में जाति प्राचीन काल में कितनी
ही उपयोगी क्यों ना रही हो पर इस समय यह सब प्रकार की उन्नति के मार्ग में बड़ी
भारी बाधा और रुकावट बन रही हैं। आज यह हमारी दया के पात्र नहीं है, और किसी की भावना के अधीन ना होकर अधीन
ना होकर हमें इसके साथ मोह नहीं करना चाहिए। हमें इसे जड़ से उखाड़ कर अपनी सामाजिक
रचना दूसरे ही ढंग से करनी होगी । " संविधान में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य कमजोर वर्ग की सामाजिक कमियों, आर्थिक हितों को बढ़ावा देने, सुरक्षा व संरक्षण दिए देने की
व्यवस्था की गई है। भारत सरकार के द्वारा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित
जनजाति आयोग का निर्माण किया गया है। इसके अलावा 19 नवंबर 1976 अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम में कठोर
दंड का प्रावधान रखा गया है।
विधानमंडल, राज्य से संबंधित सरकारी नौकरी में
उचित आरक्षण व प्रतिनिधित्व प्राप्त रहेगा। इसके अतिरिक्त आयु सीमा में छूट, उपयुक्तता संबंधी मानकों में छूट
अयोग्य ना होने पर पदों के लिए चयन सीधी भर्ती मामलों में अनुभव संबंधी छूट प्रदान
की गई है। राज्यों में कल्याण विभाग, स्वयंसेवी
संगठन कल्याण को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं। संविधान के अनुच्छेद 244 और पांचवी अनुसूची के अनुसार आंध्र
प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान के कुछ इलाकों को अनुसूचित क्षेत्र माना गया है और इन
राज्यों के राज्यपाल को क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में राष्ट्रपति को 1 वर्ष में वार्षिक रिपोर्ट भेजनी होती
है। अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में परीक्षा पूर्व
प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई हैं। उनके लिए दसवीं कक्षा के पास छात्रवृति योजना, बालिका छात्रावास योजना, पुस्तक बैंक योजना, राष्ट्रीय स्तर की छात्रवृत्तियां की
योजना बनाई है। अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अल्पसंख्यक आयोग 1978 स्थापना की गई। आयोग के अध्यक्ष के
अलावा में विभिन्न अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य भी होते हैं। इसमें संविधान में
उपलब्ध कराई गई सभी सुरक्षा का मूल्यांकन कार्यक्रम - उसके लिए सुझाव, केंद्र व राज्य सरकार की नीतियों की
समीक्षा अधिकारों का सुरक्षा से वंचित किए गए खा शिकायतों की जांच करना, सर्वेक्षण और अनुसंधान कार्य, अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में कानून व
कल्याण संबंधी उपाय सुझाना और सरकार को रिपोर्ट भेजना। आयोग इन मुद्दों पर अपना
ध्यान केंद्रित करता है। इसके अलावा प्रधानमंत्री द्वारा घोषित 15 सूत्री कार्यक्रम के अंतर्गत ( 1993) में केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक सेल
नामक एक विशेष प्रकोष्ठ कि स्थापना भी की है। यह कार्यक्रम सांप्रदायिक सौहार्द को
बढ़ाने, सांप्रदायिक हिंसा को रोकने, अल्पसंख्यकों की शैक्षिक आवश्यकता पर
बल देने के लिए, सेवाओं, केंद्रीय और राज्य पुलिस में भर्ती के लिए अल्पसंख्यको पर ध्यान
केंद्रित करते हुए अन्य विकासात्मक कार्यक्रम को ढंग से लागू करने पर बल देती है
वर्तमान समय में भारत में लगभग 3000 से
अधिक जातियाँ, 25000 उपजातियां और 700 जनजातियाँ हैं ।
5. सामाजिक समूह के आधार पर विविधता -
सामाजिक समूह का
निर्माण दो या दो से अधिक व्यक्तियों से होता है। बच्चे का मूलभूत समूह उसका
परिवार है। यह एकांकी अथवा संयुक्त हो सकता है। वह अपने परिवार के साथ बड़ा होता
है और अन्य समस्त समूहों की सदस्यता को प्राप्त करता चला जाता है। बड़े होने के
पश्चात उसके समूह में स्कूल, क्लब, खेलकूद के समूह, व्यवसायिक संगठन आदि जुड़ जा हैं। इस
प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक वातावरण में रहते हुए सामाजिक जीवन के गुणों की
शिक्षा प्राप्त करता है।
i. व्यावसायिक समूह-
व्यवसायिक समूह में
प्रत्येक सदस्य किसी व्यवसाय में लगा रहता है, लोहे
के काम को करने वाले लोहार के समूह, बाल
काटने वाला नहीं नाई। इस तरह से विभिन्न उपवर्गों, स्थानों, व्यवसाय से जाति व्यवस्था की उत्पत्ति
हुई। परंतु इसका एक और पक्ष है की सभी व्यवसायिक समूह अपने-अपने सदस्यों की
प्रशिक्षण व कुशलता की वृद्धि के लिए प्रयास करते हैं जिससे वह अपने समूह की
उन्नति के लिए हर संभव प्रयास करते हैं।
ii. धार्मिक समूह-
भारत में अनेक भाषा व धर्म के लोग रहते हैं। धार्मिक समूह में प्रमुख हिंदू , मुसलमान, सिख, इसाई, पारसी, जैन व बौद्ध शामिल है। इसके अलावा इन सभी में अलग-अलग उपसमूह भी है। भारतीय सामाजिक जीवन में धार्मिक समूहों का भी विशेष महत्व है। एक ही धर्म में आस्था रखने वाले लोग आपसी सहयोग वह सहानुभूति की भावना से जुड़े होते हैं, उनमें घनिष्ठता बढ़ती है वह वह वह सामाजिक एकता को स्थापित रखने में भी कार्य करते हैं। प्रत्येक धार्मिक समूह नैतिकता को ध्यान में रखते हुए सामाजिक समाज कल्याण की कार्य करने का प्रयास करता रहता है।
iii आर्थिक समूह-
भारत में आर्थिक दृष्टि
से भी विविधता व्याप्त है। यहाँ धन का असमान वितरण है। एक तरफ़ एक बड़ा वर्ग ऐसा
है, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर
रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ ऐसा भी वर्ग है, जिसकी आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ़ तथा
आय इतनी अधिक है कि वह विश्व के सबसे धनी व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं।
अन्य वर्ग उपरोक्त सभी समूहों के अलावा विभिन्न आयु, लिंग, जाति, उद्योग के आधार पर भी अलग-अलग सामाजिक वर्ग है।