जिज्ञासा और वर्तमान भारतीय परिदृश्य
जिज्ञासा और वर्तमान भारतीय परिदृश्य
भारत में भी, हम जिज्ञासा को विभिन्न रूपों में दमन करते हैं। शहरी समृद्ध परिवारों में, बच्चे स्ट्रोलरों, कुर्सियों और सीटों पर सीमित कर दिए जाते हैं, और शहरी गरीब परिवारों में वे छोटे-छोटे घरों में सीमित होते हैं। हमारे देश में सुरक्षा कारणों (जैसे दुर्घटना, चोट, अपहरण, बाल उत्पीड़न, अन्य व्यक्तियों और जीवों से होने वाले नुकसान) की वजह से बच्चों को अपने परिवेश की खोजबीन करने और उसे अनुभव करने से रोका जाता है। शिक्षक भी कई बार बच्चों को उनकी मेजों तक ही सीमित कर देते हैं। बच्चों को यहाँ- वहाँ घूमने की स्वतंत्रता नहीं होती और खोजबीन करने, चीजों को अनुभव करने की स्वतंत्रता भी नहीं होती। शिक्षा के अधिकांश कार्यक्रम न सिर्फ बच्चों की जगह को सीमित कर देते हैं, बल्कि उनके अनुभवों को भी सीमित कर देते हैं। स्थिर और कठोर पाठ्यचर्या, कार्यपद्धति और तयशुदा गतिविधियां, बच्चों को जिज्ञासु और सृजनशील होने का अवसर नहीं प्रदान करते हैं। ऐसे में उन्हें लगभग कोई गुंजाइश नहीं मिलती कि वे अपनी प्रतिक्रियाएँ दे सकें, जिनके माध्यम से वे अपने भीतर उठते किसी भाव को व्यक्त कर सकते हैं।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा (NCF), 2005 ने भी इन सन्दर्भों में बदलाव को प्रोत्साहित किया है। NCF, 2005 के अनुसार पाठ्यचर्या लचीला और बाहर के दुनिया से जुड़ा होना चाहिए। शिक्षकों को चाहिए कि वे ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिसमे बच्चे पहले से ज्ञात जानकारी को सबके साथ साझा कर सकें, बल्कि वे अधिक से अधिक सवाल भी पूछ सकें। शिक्षक यदि बच्चों को कक्षा में सहज होने के अवसर नहीं देंगे तो वे सुनिश्चित करेंगे कि कक्षा में बिलकुल शान्ति रहे, बच्चे अपनी मेजों पर बैठे रहें और शिक्षक द्वारा दी जाने वाली सारी उत्प्रेरक जानकारियों को चुपचाप सोखते रहें। जबकि एक अच्छी कक्षा के लिए बच्चों का प्राकृतिक कौतुहल आवश्यक है, उनकी जिज्ञासा आवश्यक है।
हमारे देश में शिक्षकों की कमी सभी को ज्ञात है। ऐसे में, भारत में बच्चों के लिए किताबें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। ये हमारी कक्षाओं में न केवल बच्चों के जिज्ञासा का कारण बनती है, बल्कि यह जिज्ञासा को तृप्त भी करती है। इसलिए बच्चों के पाठ्य पुस्तक की भूमिका अधिगम और जिज्ञासा से जुड़ जाती है। भारत में किताबों का इतिहास 200 साल पुराना मात्र ही है। पुस्तकें सिर्फ दृष्टि आधारित होती हैं, किन्तु हमारे स्पर्श, ध्वनि सहित अन्य संवेदनाओं पर आधारित बुनियादी अनुभवों को भी तृप्त करती है। ऐसे में, बच्चों द्वारा पढ़ी गई एक पाठ्य-पुस्तक तथा विद्यालय के अनुभव उसे विभिन्न परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील बनाती है, बल्कि उसके कौतुहल और कल्पना के संसार को भी संपन्न बनाती है ।
इसलिए हमारे देश के लिए आवश्यक है कि पुस्तकें तथा अन्य संबंधित सामग्री काफी संपन्न और उन्नत हों, साथ ही, वे बच्चों से समग्र संवाद स्थापित करने वाले हों।
तार्किक शक्ति हेतु बहुलवाद दृष्टिकोण का विकास
बहुलवाद एक ऐसे समाज को प्रोत्साहित करता है, जिसमें विभिन्न जातीय, धार्मिक और सामाजिक समूहों के सदस्य अपनी-अपनी परंपराओं और विशेष हितों में भागीदारी और विकास को बनाए रखते हैं; जबकि एक राष्ट्र की एकता के लिए आवश्यक अंतर-निर्भरता के लिए सहकारी रूप से कार्य करते हैं। बहुलवाद की अधिकांश परिभाषाओं का फोकस विश्व के विविध लोगों के बीच परस्पर निर्भरता, विकास और सहयोग के तत्वों के आसपास विकसित होता है। बहुलवाद का दर्शन और विचारधारा नया नहीं है, लेकिन इसके क्रियान्वन पर आजकल फोकस बन रहा है। बहुलवादी विचारों का पालन और अभ्यास करने के लिए, शिक्षा छात्रों, शिक्षकों, सलाहकारों और समुदाय को अनुभव प्रदान कर रहा है। का दर्शन किसी एक शैक्षिक पर्यावरण तक ही सीमित नहीं करता है। शिक्षक या विद्यालय और समुदाय के बीच प्रभावी संवाद भागीदारी के सूक्ष्म तरीकों से करा बहुलवाद के बारे में जागरूकता प्राप्त सकते हैं। विद्यालय गतिविधियों, कार्यशालाओं, पाठ्यक्रमों और छोटे समूहों के माध्यम से बहुलवाद के क्रियान्वयन में तेजी लाया जा सकता है। बहुलवाद बहुसांस्कृतिक मुद्दों और चिंताओं को समाहित करता है। बहुलवाद भारतीय समाज की बहुलवादी और विविध प्रकृति निश्चित रूप से न केवल पाठ्यपुस्तकों की बल्कि विभिन्न सामग्रियों को तैयार करने के लिए एक मजबूत आधार बनती है। इसके द्वारा बच्चों की रचनात्मकता, भागीदारी और अभिरुचि को बढ़ावा दिया जा सके, जिससे उनकी शिक्षा उन्नत हो सके। सिर्फ पाठ्यपुस्तक छात्रों के विभिन्न समूहों की विभिन्न जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता है। इसके अलावा, एक ही सामग्री / अवधारणा को अलग-अलग तरीकों से पढ़ाया जा सकता है। माध्यमिक शिक्षा आयोग की रिपोर्ट ने पाठ्य-पुस्तकों में दोषों को हटाने के लिए कई सिफारिशें कीं, जिसमें यह भी बताया गया था कि अध्ययन के किसी भी विषय के लिए कोई एकल पाठ्य पुस्तक निर्धारित नहीं की जानी चाहिए। उचित संख्या में उन्हीं किताबों को स्वीकृति दी जानी चाहिए जो निर्धारित मानकों को संतुष्ट करती हों। कोठारी आयोग की रिपोर्ट में रूप से कहा गया है कि पाठ्यचर्या में सुधार के किसी भी प्रयास की सफलता के लिए बुनियादी पाठ्य-पुस्तकों, शिक्षकों, मार्गदर्शक और अन्य प्रकार के सीखने के संसाधनों की तैयारी है।
किसी बच्चे की तार्किक क्षमता के विकास के लिए भी उनके सामने कई विकल्प चाहिए | बहुविकल्प नवाचार के लिए आवश्यक हैं, जबकि बंधे हुए या विकल्पों का ना होना बच्चों के सृजनशीलता को ख़त्म कर सकता है। पूछताछ तथा समझने के विभिन्न माध्यम द्वारा छात्रों में कौशल विकसित करना चाहिए। इसे शिक्षक सभी ग्रेड स्तरों और भी सामग्री क्षेत्रों पर लागू कर सकते हैं। ये विभिन्न प्रकार की जानकारी एकत्रित करने, जानकारी की व्याख्या करने, विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने और प्रभावी ढंग से कई बिंदुओं को स्पष्ट करने में मदद करते हैं। साथ ही, वे एक सहयोगी समूह के भीतर व्यक्तियों के विविध योगदान का सम्मान करना भी सीखते हैं। सीखने के सार्वभौमिक प्रारूप सिद्धांत (Universal Design of Learning) भी विविध क्षेत्रों में बहु-विकल्पों को बढ़ावा देते हैं।
सारांश
जिज्ञासा को एक उत्सुकता के रूप में समझा जा सकता है। व्यक्ति की यह उत्सुकता मुख्यतः जानने की इच्छा से संबंधित होता है। जिज्ञासा व्यक्ति या बच्चे के व्यवहार को प्रभावित करता है। हम यह भी कह सकते हैं कि जिज्ञासा बच्चे या व्यक्ति के सीखने के व्यवहार में समावेशित होता है। यह व्यक्ति में प्राकृतिक या जन्मजात क्षमताओं से जुड़ा होता है। साथ ही, किसी बच्चे या व्यक्ति में जिज्ञासा को प्रोत्साहित या हतोत्साहित किया जा सकता है। मनुष्यों द्वारा वैज्ञानिक खोज, शोध और अन्य अकादमिक कुशलताओं के पीछे जिज्ञासा या उत्सुकता एक प्रमुख कारण है। बच्चा व्यापक, पर्वेक्षक और प्रायोगिक दृष्टिकोण वाला होता है। वह केवल अपने चारों ओर की जटिल दुनिया से खुद को बंद नहीं करता है, बल्कि वह दुनिया का निरीक्षण करता है। वह अपने चारों ओर की वस्तुओं को जानने के लिए उसे छूता है, स्वाद लेता है, वह जानना चाहता है कि वह कैसे काम करती है। वह साहसिक होता है, वह गलतियां करने से डरता नहीं है।
एक शिक्षक के रूप में बच्चे की इस तरह की स्थितियों में क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए? यह प्रश्न आपके दिमाग में उभरने चाहिए। क्या शिक्षक / शिक्षिका को बच्चे को खोजबीन करने से रोकना चाहिए? उत्तर है नहीं। उसे उसके प्राकृतिक जिज्ञासा को विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं से जोड़ने की आवश्यकता है। बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द हैं। जिज्ञासा का सीधा संबंध कौतुहल से है। उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल प्रवृत्ति है। जिज्ञासा के बिना खोज करने की कोई प्रेरणा नहीं होती। जिज्ञासा के बिना, बच्चे के मन में उदासीनता और अरुचि पैदा हो जाती है और बिना जाँच-पड़ताल और खोजबीन की जिन्दगी के संवेगिक, सामाजिक तथा आर्थिक सन्दर्भ में विकास नहीं हो सकता है। शिक्षकों को बच्चों में जिज्ञासा को बनाए रखने के लिए उन्हें अनुभव करने तथा खोज करने के मौके देने होंगे। यह तभी सम्भव होता है जब बच्चा छूने, स्वाद लेने, देखने, सूँघने और सुनने की अपने पाँचों इन्द्रियों का उपयोग करके बाहर से प्राप्त होने वाली उत्प्रेरक जानकारियों को व्यवस्थित रूप से आत्मसात करे और उनसे समझ विकसित करे।
भारत में भी, हम जिज्ञासा को विभिन्न रूपों में दमन करते हैं। हमारे देश में सुरक्षा कारणों की वजह से बच्चों को अपने परिवेश की खोजबीन करने और उसे अनुभव करने से रोका जाता है। शिक्षक भी कई बार बच्चों को उनकी मेजों तक ही सीमित कर देते हैं। शिक्षा के अधिकांश कार्यक्रम न सिर्फ बच्चों की जगह को सीमित कर देते हैं, बल्कि उनके अनुभवों को भी सीमित कर देते हैं। स्थिर और कठोर पाठ्यचर्या, कार्यपद्धति और तयशुदा गतिविधियां, बच्चों को जिज्ञासु और सृजनशील होने का अवसर.