बच्चों के जीवन सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में बचपन की बहुलता
बच्चों के जीवन सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में बचपन की बहुलता प्रस्तावना
भारतीय समाज का
ताना-बाना विविधता युक्त है। यह भी द्रष्टव्य है कि ये विविधताएं कई बार आग्रह और
पूर्वग्रह के कारण भेदभाव और सामाजिक पदानुक्रम का आधार बनती है। ऐसे परिवेश में
बड़े होने का अनुभव केवल जैविक परिपक्वता तक सीमित नहीं रहता है बल्कि अनके रूपों
में प्रकट होता है। 'बड़े होने का अनुभव किस तरह प्रकट होगा? यह उस परिवेश पर
निर्भर करता है जिसमें बच्चा बड़ा हो रहा होता है। भारत में एक ओर ग्रामीण परिवेश
है जहां जातीय सीमाएं, पितृसत्ता, मानव के जैविक
विकास से जुड़े धार्मिक और सामुदायिक संस्कार, संयुक्त परिवार, सामूहिकता कम या ज्यादा विद्यमान हैं तो दूसरी ओर नगरीय
संस्कृति का प्रभाव है जहां पाश्चात्य आधुनिकता के प्रभाव में भारतीय समाज की
परंपरागत पहचान जैसे- जाति की सीमाएं कमजोर हुयी हैं, संस्थागत
समाजीकरण पर विश्वास बढ़ा है, समानता जैसे मूल्यों के प्रभाव में बालिकाओं की
शिक्षा को लेकर जागरूकता आयी है। इसके साथ ही बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि उनके
पहचान और विकास का संकेतक के रूप में स्थापित हुए हैं। तकनीकी और प्रौद्योगिकी का
भी व्यापक प्रभाव है। यहां 'गेटेड कम्यूनिटी और माल कल्चर का प्रभाव भी
देखा जा सकता है। विकास की भौतिक उपलब्धियों के आर्थिक संकतेकों के अतिरिक्त
आदिवसी/मूलनिवासियों के भी समुदाय है जो अपनी संस्कृतिगत विश्वासों और परंपराओं के
अनुसार बच्चों का लालन-पालन और समाजीकरण करते हैं। उनकी अपेक्षाएं और विकासात्मक
संदर्भ बचपन की लोकप्रिय छवियों से भिन्न होते हैं। विद्यालय के अभाव, विद्यालय की लागत
आदि सीमाओं को शिक्षा के अधिकार कानून के बाद विजित कर लिया गया है लेकिन परिवार
की गरीबी और इस गरीबी को दूर करने में आय अर्जक की भूमिका को निभाना ऐसा पक्ष है
जिसे अभी भी दूर नहीं किया गया है। इसका प्रभाव नगरीय और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों
में है। बाल्यावस्था पर गरीबी का भी प्रभाव अवलोकित किया जा सकता है। बाल्यावस्था
की एक लोकप्रिय छवि - 'अबोध बच्चा', अभिभावकों द्वारा
पोषित, विद्यालय की उपस्थिति, चंचल भोला , सुकुमार सक्रिय
उत्साही आदि के साथ एक हाशिए का भी बचपन है -
- वे बच्चे जिसके पास आवास, भोजन और वस्त्र की आधारभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए कोई पाल्य नहीं है।
- वे बच्चे जो ऐसे पाल्य या व्यक्ति के साथ रहने को मजबूर जिसने उसे साथ रहने के लिए विवश किया है और उनके साथ रहने के कारण बच्चों के मानसिक, शारीरिक और यौनि शोषण की संभावना अधिक है।
- जो शारीरिक या मानसिक या उक्त दोनों दृष्टियों से विशिष्ट क्षमता से युक्त है और जिसकी देखभाल नहीं की जा रही है।
- जिसके अभिभावक तो हैं लेकिन जो स्वयं अपनी और अपने पाल्य की देखभाल कर पाने में समर्थ नहीं है।
- जो अनाथ हैं, या जो परिवार से बिछड़ गए हैं या जो परिवार को छोड़ कर चले आए हैं और जिनके अभिभावकों का पता नहीं चल पाया है।
- जो मानव तस्करी, देह व्यापार और मादक पादर्थों के सेवन जैसे व्यसनों में लिप्त हैं।
- जो सशस्त्र संघर्ष, प्राकृतिक आपदा के प्रभाव में हैं।
- बच्चों की विविधता के उक्त संदर्भ को शिक्षकों द्वारा संज्ञान में लिया जाना चाहिए। इन बच्चों के असामान्य बचपन की विशिष्टता को औपाचारिक शिक्षण के द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए।
बचपन में बहुलता
'बचपन में बहुलता
अपेक्षाकृत एक नया सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य है जो परिवार अध्ययन, बाल्यवस्था
अध्ययन, मनोविज्ञान, नृशास्त्र जैसे
अन्य सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन उपागमों में बदलाव को भी दर्शाता है। यदि बचपन
से संबंधित अकादमिक बहसों पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि एक विशिष्ट
विकासात्मक अवस्था के रूप में बचपन की पहचान 17 वीं और 18 वीं शताब्दी के आसपास की
गयी । एरीज (1962) इस संबंध में तर्क देते हैं कि बाल्यावस्था को एक विशिष्ट
विकासात्मक अवस्था के वर्ग में रखने के लिए बच्चों की वयस्कों से भिन्न गतिविधियों
में संलग्नता को आधार बनाया गया। इस तर्क के सापेक्ष कि बाल्यावस्था का उदय 17 वीं
व 18वीं शताब्दी की परिस्थितियों पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि इस दौरान घटित
हो रहे पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रान्ति और उपनिवेशीकरण ने बालक और
वयस्क के बीच अंतराल को पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस दौरान ही
आधुनिकता का जन्म हुआ जिसमें व्यक्ति के लिए स्थान, मध्यम वर्ग का
उदय, राज्य की कल्याणकारी अवधारणा और नागरिकता बोध को स्थान
मिला। इसी तरह स्वास्थ्य सेवाओं के प्रसार और उपलब्धता, शिशु मृत्यु दर
पर नियंत्रण, संक्रामक रोगों पर नियंत्रण को भी वैज्ञानिक प्रगति के
संकेतों के रूप में पहचाना गया। इन परिवर्तनों ने ऐसी परिस्थिति तैयार की जिसमें
बच्चों की सुरक्षा और देखभाल और पोषण की जरूरतों को पूरा इस अवस्था की विशिष्ट
आवश्यकताओं के रूप में पहचाना गया। सामाजिक कुशलताओं, ज्ञान और
संस्कृति के संचरण के लिए संस्थागत समाजीकरण पर बल दिया गया और विद्यालय जैसी
संस्थाओं का विकास प्रारंभ हुआ। 'कल्याणकारी राज्य की संकल्पना ने इस प्रक्रिया
में राज्य को भी भागीदार बना दिया। इन बदलावों के फलस्वरूप बाल्यावस्था की जैविक
सीमा/आयु सीमा को लंबा कर दिया। बच्चों की दुनिया को वयस्कों की दुनिया से भिन्न
माना जाने लगा जिसकी विशिष्टता खेल और विद्यालयी शिक्षा में संलग्नता को बताया
गया। वयस्कों की दुनिया से बच्चों की दुनिया को अलग करने में यह ध्यान रखा गया कि
यौनिकता / कामुकता (Sexuality) से रहित हो। इस तरह से
बाल्यावस्था की जो छवि निर्मित हुयी उसे “एक मध्यमवर्गीय
नौकरीपेशा पितृसत्तात्मक समाज में बाल्यावस्था' का एकांगी रूप
हावी था। इसमें बच्चे को आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से निर्भर, सुरक्षा और
संरक्षण की आवश्यकता, भोला, सरल, प्राकृतिक
स्वाभाव वाला जैसे विशेषणों से परिभाषित किया जाता है। बाल्यावस्था, वयस्क बनने के
लिए तैयारी की अवस्था बन कर रह जाती है। इसी उद्देश्य से शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी
बुनियादी सुविधाओं को भी उपलब्ध कराया जाता है।
वर्तमान में इस
स्वरूप की सार्वभौमिकता को नकारा जा रहा है। बाल्यावस्था की विशेषतों के उक्त
साधारणीकृत लक्षणों के बदले बाल्यावस्था में बहुलता को पहचाना गया है। इस संदर्भ
में बाल्यावस्था के निम्नलिखित पहुलओं का पर बल दिया गया है-
बाल्यावस्था की
कोई सार्वभौमिक संकल्पना या परिभाषा नहीं है। इसे जैविक विकास की अवस्थाओं के
वर्गों में रखना एक सीमित अर्थ प्रदान करता है। वस्तुतः यह एक सामाजिक और
सांस्कृतिक निर्मिति है।
बच्चों की दुनिया
वयस्कों की दुनिया से गुणात्मक दृष्टि से भिन्न होती है। उनकी इस दुनिया को उनके
अनुभवों और नज़रिए से देखा जाना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि वे निष्क्रिय
ग्रहणकर्ता (PassiveRecipient) नहीं है बल्कि सक्रिय अर्थ निर्माता है।
बच्चों की कुछ
विशेषताओं और विकासात्मक संकेतकों के बारे में भविष्यकथन किया जा सकता है. लेकिन
बच्चों का विकास उनके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में स्थापित होता है। इस संदर्भ
की मान्यताओं, विश्वासों, रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों के आधार पर
बाल्यावस्था की विशेषताओं को पहचाना जा सकता है।
बच्चों की सामाजिक स्थिति के सदंर्भ में उनके जेण्डर की भूमिका को अवश्य संज्ञान में लेना चाहिए। प्रायः यह पाया गया है कि बाल्यावस्था की लोकप्रिय छवि में एक लड़के के विकासात्मक संदर्भ को ही संज्ञान में लिया जाता है।
बच्चों के विकास
की चर्चा में बच्चों के अधिकार को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए । बाल्यावस्था में
स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकारों और सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
सामान्य
बाल्यावस्था में संरक्षण और देखभाल का समुचित प्रबंध होता है। इसके अलावा वे बच्चे
जो संकटपूर्ण वातावरण जैसे- आतंक प्रभावित क्षेत्र, आपदाग्रस्त
क्षेत्र और भौतिक सुविधाओं से वंचित क्षेत्र में रह रहे हैं उनके बाल्यावस्था पर
भी विचार करना चाहिए। प्रतिकूलताओं में बचपन किस प्रकार प्रस्फुटित होता है? इस पर भी विचार
करना चाहिए।
गरीबी, प्रवसन की
चुनौतियों, घरेलू हिंसा और सामाजिक उत्पातों के बच्चों के मानसिक
स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का भी संज्ञान में लेना चाहिए।
यूरी ब्रानफेनब्रेनर का पारिस्थितिक मॉडल: बाल्यावस्था की बहुलता को समझने का सैद्धान्तिक उपकरण
बाल्यावस्था में बहुलता को समझने के लिए यूरी ब्रानफेनब्रेनर का पारिस्थितिक मॉडल हमारी मदद करता है। इसके अनुसार, एक बालक (या व्यक्ति विशेष) को अनेक तरह के सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारक प्रभावित करते हैं। इन सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारकों में सबसे पहले सूक्ष्मतंत्र (Micro System) आता हैं। सूक्ष्मतंत्र के अंतर्गत बालक के आसपास के करीबी लोग आते हैं जैसे परिवार, शिक्षक, भाई-बहन व परिवार के अन्य वयस्क आदि। ये सभी बालक को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। तथा बच्चे उन्हें प्रभावित करते हैं। अगले तंत्र में मध्यवर्ती तंत्र (Meso System) आता है, इसमें परिवार शिक्षक तथा अन्य इकाइयाँ आती हैं। ये इकाइयां आपस में अन्तः क्रिया करती हैं जिसका असर बालक पर पड़ता है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन इकाइयों की आपसी प्रक्रिया में बालक कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। बर्हितंत्र (Exo System के अंतर्गत वह सामाजिक कारक आते हैं, जिनका बालक पर अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ता है। जैसे- शिक्षक का विद्यालय के प्रशासन से संबंध, माता-पिता का व्यवस्था, उनकी आय, आदि। अंत में समष्टि तंत्र आता है। इसके अंतर्गत समाज के मूल्य, नियम, कायदे- कानून, रिवाज आदि को रखते हैं। रीति-इस मॉडल को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि विभिन्न सांस्कृतिक संदर्भों में आयु के अतिरिक्त बच्चों को दी गयी सामाजिक भूमिका, उनके परिवार की सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक क्षेत्रीय पृष्ठभूमि, सामाजिक संबंधों का जाल, सांस्कृतिक विश्वास और मान्यताएं वृदस्तरीय कारण हैं जो बाल्यावस्था की बहुलता के लिए उत्तरदायी है। सूक्ष्म स्तर पर पाल्य के साथ बिताया जाने वाला समय, बातचीत और गतिविधियां, अभिभावकों की विद्यालय और पाल्यों से संबंधित अन्य एजेंसियों से संबंध, व्यक्तिगत प्रवृत्ति, जेण्डर आधारित श्रम विभाजन, जीवन-यापन की शैलियां, परिवार का संगठन, देखभाल और लालन-पालन की शैलियों आदि बाल्यावस्था के स्वरूप को तय करती है।
भारत में बाल्यावस्था
भारत में जनगणना
के अंतर्गत 'बच्चे के जनांकिकीय वर्ग के अन्तर्गत उस प्रत्येक व्यक्ति
को रखते हैं जिसकी आयु 14 वर्ष से कम होती है। अधिकांश सरकारी योजनाओं में बच्चे
की परिभाषा करने के लिए इसी मानक आयु को आधार बनाया गया है। यह भी उल्लेखनीय है के
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यू.एन.सी.आर.सी. (यूनाइटेड नेशंस कन्वेन्शन फॉर चिल्ड्रेन
राइट्स) के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु प्रत्येक व्यक्ति बच्चे की श्रेणी में आता
है। आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो भारत की आबादी का कुल 39 प्रतिशत हिस्सा बच्चों
की जनसंख्या के अन्तर्गत आता है। इसमें से 27 प्रतिशत बच्चे नगरीय क्षेत्रों में
रहते हैं और 73 प्रतिशत बच्चे ग्रामीण परिवेश में निवास करते हैं। आयुवर्ग के
अनुसार देखें तो 0-5 वर्ष की आयु प्रसार के अन्तर्गत 29 प्रतिशत बच्चे हैं। इसी
तरह 6-10 वर्ष की आयु प्रसार में 28 प्रतिशत, 11-15 वर्ष के
आयु प्रसार में 27 प्रतिशत और 11-14 वर्ष की आयु प्रसार में 16 प्रतिशत बच्चे आते
हैं। बच्चों की कुल संख्या में 52 प्रतिशत लड़के और 48 प्रतिशत लड़कियां हैं। भारत
में बाल्यावस्था से संबंधित शोध कार्यों द्वारा बाल्यावस्था की निम्नलिखित
प्रवृत्तियां ज्ञात होती है-
भारत में
बाल्यावस्था के प्रारंभिक अध्ययनों में एक कार्य मर्फी (1953) का है। आप ने भारत
में बाल्यावस्था की विशिष्टता इस पक्ष में देखते हैं कि यहां बच्चे और वयस्क एक
जैसी गतिविधियों और एक ही भौतिक परिवेश व स्थान में सक्रिय रहते हैं। गतिविधि से
अभिप्राय है कि बच्चों को खेतों पर काम करने, घरेलू कार्यों
में सहयोग करने आदि से बच्चों को रोका नहीं जाता है। भौतिक परिवेश से अर्थ है कि
सोने, मिलने, रहने और खेलने जैसी रोजमर्रा की गतिविधियों के
स्थान में बच्चों के साथ वयस्क भी उपस्थित रहते हैं। सरस्वती (1999) मर्फी की इस
स्थापना से सहमत हैं और इसी आधार पर वे भारत में बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था को
सतत मानती है। उनका तर्क है कि भारत के परिवारों में बच्चों की गतिविधियों और
वयस्कों की गतिविधियों के बीच कोई सीमारेखा या विभाजन नहीं है। सरस्वती और पाई
(1997) इस तथ्य का उल्लेख करती हैं कि भारत के परिवारों में बहु अभिभावकत्व का चलन
है। इसकी व्याख्या में वे बताती हैं कि माता-पिता के अतिरिक्त परिवार के अन्य
सदस्य जैसे- दादा-दादी, बड़े भाई-बहन आदि भी अभिभावकों की भूमिका में
रहते हैं। चौधरी (2004) भाई-बहनों में जन्म का क्रम और आयु को बाल्यावस्था की
विशिष्टता का निर्धारक मानती हैं। इनके अनुसार भारत में छोटे भाई-बहनों को बड़े
भाई-बहन को वयस्क और अभिभावक मानना पड़ता है। वे उनके निर्देशन में कार्य करते
हैं। बड़े भाई-बहन भी इस भूमिका का निर्वहन करते हैं। अभिभावकों की तुलना में वे
बड़े भाई-बहनों की निगरानी में अधिक समय व्यतीत करते हैं।
मलिक (2013) गरीबी की बाल्यावस्था में विकास के प्रभाव का आकलन करते हुए बताते हैं कि गरीब परिवारों में बच्चों को वयस्क की भूमिका निभानी होती है। वे विद्यालय जाने की अपेक्षा नगद भुगतान के बदले मजदूरी करने को तत्पर रहते हैं। ऐसे परिवारों के बच्चों की विद्यालयी शिक्षा अपेक्षाकृत अधिक आयु में प्रारंभ होती है। ये बच्चे खेल, मनोरंजन, संगीत और भ्रमण जैसी संलग्नताओं से वंचित रहते हैं। इन्हें विद्यालय में भी सामाजिक बहिष्करण का सामना करना होता है। साधना (2009) दलित परिवारों में बाल्यावस्था की चर्चा के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा दो संकेतकों को चुनती हैं। वे मात्रात्मक आंकड़ों के आधार पर बताती है कि अन्य जातीय वर्गो के बदले दलित परिवारों में शिशु मृत्युदर अधिक है। इन परिवारों में शिशु के जन्म से मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है । इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में दलित बच्चे अधिकांशतः सरकारी विद्यालयों में जाते हैं। इसका कारण निजी विद्यालयों की फीस वहन की क्षमता नहीं है। नांबिसान (2009) दलित बच्चों के विद्यालयी अनुभवों में सामाजिक बहिष्करण की प्रवृत्ति को पहचानती हैं। दास और मेहता (2013) आदिवासी बच्चों के संदर्भ में इसी स्थिति का उल्लेख करते हैं। नगरीय क्षेत्रों में गरीबों के बच्चों की चुनौतियों की चर्चा करते हुए रूक्मिनी बनर्जी (1997) बताती है कि ऐसे बच्चे अधिकांशतः प्रवासी परिवारों से होते हैं। ये परिवार नगर-ग्राम और नगर- नगर का प्रवास करते रहते हैं। उदाहरण के लिए नगरों में नौकरी की समस्या उपस्थित होने पर वे गांव वापस चले जाते हैं। जब गांव में रोजगार के अवसर नहीं होते तो शहर आते हैं। इससे इन परिवारों के बच्चों की औपचारिक शिक्षा सर्वाधिक प्रभावित होती है। कई बार अध्ययन सत्र के दौरान अभिभावक बच्चों को गांव भेज देते हैं। बच्चों को आय अर्जक और अपने भाई-बहनों का देखभाल करने वाले की भूमिका निभानी पड़ती है। वे ये भी बताती है कि ये बच्चे मित्रों के साथ बाजार जैसे सामुदायिक स्थान पर पर्याप्त समय व्यतीत करते हैं। उच्च बालिका मृत्युदर, निम्न लिंगानुपात, और बालिकाओं में कुपोषण भारतीय, विद्यालय नामांकन में स्त्रियों की निम्नदर समाज की मात्रात्मक सच्चाई है जो एक पितृसत्तात्मक समाज में जेण्डर समाजीकरण के संदर्भ में लड़कों की स्वीकार्यता का भी प्रमाण है। दूबे (1988) बताती है हैं कि भारतीय समाज में लैंगिक समाजीकरण जेण्डर की रचना के लिए उत्तरदायी हैं। आप उल्लेख करती हैं कि भारतीय समाज में लड़कियों को महिला के लघु रूप में देखा जाता है। रोजमर्रा की गतिविधियों में श्रम विभाजन, रीति-रिवाजों में महिलाओं की भूमिका बालिकाओं के समाजीकरण को बालकों के समाजीकरण से अलग बना देती है। बचपन की सुविधाओं के संदर्भ में लड़कियां, लड़कों की तुलन में उपेक्षित होती हैं। उनकी सुरक्षा के नाम पर उनकी सामाजिक गतिशीलता को हतोत्साहित किया जाता है। विद्यालय में भी परिवार के समाजीकरण को पुनर्बलित किया जाता है। इसका उदाहरण लड़कियों के लिए आचार-व्यवहार के निर्धारण में देखा जा सकता है।
चौधरी (2013) एक
नगरीय और शिक्षित बाल्यावस्था का उल्लेख करती हैं जो महानगरों के एकल परिवार में
देखी जा सकती है। वे बताती हैं कि ऐसे परिवारों में इण्टरनेट आदि के माध्यम से
देखभाल के देशी नुस्खों की खोज की जाती है। बिष्ट (2008) बताती हैं कि
पाठ्यपुस्तकों और मीडिया के विभिन्न माध्यमों में जिस बाल्यावस्था की प्रस्तुति की
जा रही है वह नगरीय, मध्यमवर्गीय पुरूषों के लिए उच्च जातीय
बाल्यावस्था की है। आदिवासी बच्चे, लड़कियां, दलित परिवार के
बच्चे, दिव्यांग, ग्रामीण परिवेश के बच्चों का बचपन अभी भी
औपचारिक शिक्षा में हाशिए पर है। कौर (2014 )बाजार और मीडिया ने बच्चों को संभाव्य
उपभोक्ता मानते हुए उनकी छवि को बाजार में प्रस्तुत किया है। बच्चों के लिए
उत्पादों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुयी है। इन उत्पादों का लक्षित उपभोक्ता
नगरीय, शिक्षित, शारीरिक सौष्ठव, स्मार्ट और प्रौद्योगिकी
सेवी बच्चा है। परिवार के आवश्यक संघटक के रूप में बच्चों को प्रस्तुत किया गया
है। ये भी दिखाया गया है कि अभिभावक बच्चों की जरूरतों और जिद्दों को पूरे करने के
लिए प्रयास करते हैं। बच्चों की चंचलता का सर्वाधिक प्रदर्शन मीडिया में किया गया
है। इसी तरह टेलीविजन पर प्रसारित 'रिएलटी शो' और 'टैलेण्ट हण्ट' के कार्यक्रम
नृत्य, अभिनय और गायन जैसी पाठ्य सहगामी मानी जाने वाली गतिविधियों
को एक नया मंच प्रदान कर रहे हैं। ये मंच एक ओर बच्चों को अपनी रचनात्मकता और
कुशलता के प्रदर्शन का अवसर दे रहा है तो दूसरी ओर बाल्यावस्था में केवल अकादमिक
और पुस्तकीय ज्ञान में दक्षता के मिथक को भी तोड़ रहा है। बच्चों की वयस्क की सी
प्रस्तुति एक अन्य पक्ष है जिसे मीडिया ने स्थापित किया है। मीडिया में 'अच्छे' बच्चे की छवि में
आज्ञाकारिता, सहयोग की तत्परता, विद्यालय में
अच्छा प्रदर्शन, सामाजिक अन्तः क्रियाओं में आचार- वयवहार के उत्तम प्रदर्शन
को दर्शाया गया है। ओल्गान्यूवेनहाइस (2009) भारत के संदर्भ में बाल्यावस्था के
विरोधाभास को उभारती हैं कि यहां सर्वप्रथम एक 'वैश्विक बच्चे' की परिकल्पना की
जाती हैं। इस परिकल्पना के आधार पर आदर्श बचपन में क्या होना चाहिए को परिभाषित
किया जाता है और फिर किन बच्चों को यह नहीं मिल पा रहा है? उन्हें पहचाना
जामा है। भारत में बच्चों के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाओं की उपलब्धता, प्राथमिक शिक्षा
के सार्वभौमिकरण और बालश्रम के उन्मूलन आदि के कार्यक्रम इसी मान्यता पर
क्रियान्वित किए जा रहे हैं।
बाल्यावस्था का विकासात्मक संदर्भ: परिवार
परिवार
संतानोत्पत्ति, जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पालकों में दायित्वबोध
और पाल्य के सामाजिक-आर्थिक-भावनात्मक सुरक्षा और संरक्षण की संस्थागत व्यवस्था
हैं। किसी भी व्यक्ति की प्रथम सामाजिक पहचान उसके परिवार की ही सामाजिक पहचान
होती है। परिवार सूक्ष्म स्तर पर लालन-पालन, बच्चे से अन्तः
क्रिया, परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अभिभावकत्व की साझेदारी का
माध्यम है तो वृहद् स्तर पर परिवार समाज की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था से
परिचित कराने और इन
व्यवस्थाओं में
प्रवेश का माध्यम बनता है। भारतीय संदर्भ में परिवार की विशेषताओं में पारिवारिक
संबंधों, रिश्तेदारों का व्यापक जाल, जाति, धर्म और समुदाय
की पहचान से युक्त और विभेदीकृत, पितृसत्तात्मक और सामूहिकता में विश्वास करने
वाले का उल्लेख किया जाता है। परिवार की दिनचर्या, रीति-रिवाज और
सामाजिक व्यवहार बाल्यावस्था से ही व्यक्ति के समाजीकरण को प्रभावित करता हैं।
भाषा का विकास, अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के प्रति व्यवहार, शिक्षा का महत्व, घरेलू कार्यों
में सहयोग, परिवार में टेलीविजन इत्यादि देखने के समय, साक्षरता की
सामग्री, अतिथियों के आने की आवृत्ति, परिवार के बाहर
जाने की दर और सामाजिक कुशलताओं की भूमिका में परिवार में अपनाए जाने वाले दैनंदिन
व्यवहार का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अन्तः क्रिया और सामाजिक व्यवहार से जुड़ी
इन गतिविधियों पर परिवार की सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक और भाषायी पृष्ठभूमि का प्रभाव
पड़ता इन पृष्ठभूमियों में जितनी भिन्नता होगी उतने तरह के बाल्यवास्था के प्रारूप
प्रकट होगें। उदाहरण के लिए निम्न आय वर्ग के परिवारों में घरेलू कार्यों में
सहभागिता, आय अर्जन में अभिभावकों की मदद, छोटे भाई-बहनों
की देखभाल, छोटे घर में एक साथ रहने की प्रवृत्ति, औपचारिक शिक्षा
के बदले आय अर्जन को प्रधानता जैसी प्रवृत्ति अवलोकनीय है। उच्च आय वर्ग के
परिवारों में भौतिक सुविधाओं से युक्त एक अलग कमरा, सूचना
प्रौद्योगिकी के आधुनिक संसाधनों का प्रयोग, औपचारिक शिक्षा
और अन्य संस्थागत समाजीकरण पर बल को महत्व दिया जाएगा। मध्यम वर्गीय परिवारों
शिक्षा के द्वारा सामाजिक गतिशीलता सुनिश्चित करना, घर और विद्यालय
दोनों जगहों पर विद्यालय जैसे अभ्यासों में संलग्नता, अनुशासन आदि का
महत्व देखा जा सकता है। राबर्ट लेवाइन परिवार की लालनपालन शैली के तीन अवस्थाओं का
उल्लेख करते हैं। सर्वप्रथम माता-पिता यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि बच्चे की
जैविक परिपक्वता सुनिश्चित हो और वह जीवित रहे। तदुपरांत उनका लक्ष्य अपने पाल्य
को इस प्रकार से विकासात्मक संदर्भ प्रदान करना होता है कि वह आर्थिक रूप से
निर्भर रह सके। दोनों प्रकार के लक्ष्यों को संतुष्ट करने के उपरांत वह अपनी
सामुदायिक और सांस्कृतिक पहचान को आत्मसात कर सके । रास (1961) ने चार प्रकार के
परिवार संरचनाओं का उल्लेख करते हैं-
1. वृहद् संयुक्त
परिवार, जिसमें तीन या तीन से अधिक पीढ़ीयां रहती हैं। ऐसे परिवारों
में दादा परिवार की मुखिया की भूमिका में रहते हैं। परिवार के समाज के साथ संबंधों
का निर्वहन, रीति-रिवाज कर्मकाण्डों में सहभागिता, आर्थिक संसाधनों
का एकत्रण और विभाजन आदि का दायित्व निभाते हैं। ऐसे परिवारों में बच्चे, विशेष रूप से
लड़के का पैदा होना स्वागत योग्य होता है। उसके लालन-पालन का दायित्व परिवार के
वयस्क उड़ाते हैं। बड़े भाई-बहनों का एक समुच्चय होता है जो उसके देखभाल के साथ
अन्य गतिविधियों की निगरानी करता है।
2. संयुक्त
परिवार, जिसमें माता-पिता अपने वयस्क और विवाहित बच्चों के साथ रहते
हैं। उनकी भूमिका परिवार की मुखिया की रहती है। विवाहित जोड़ा और उनकी संताने अपने
पैतृक निवास मं रहते हैं। ऐसे परिवारों में बच्चे के दादा-दादी उनकी देखभाल में
सक्रिय भूमिका निभाते हैं। बच्चा, अपनी माता के अलावा इन वयस्कों के साथ भी
पर्याप्त समय व्यतीत करता है।
3. एकल परिवार, माता-पिता और
उनके अविवाहित संतानें रहती है। ऐसे परिवारों में बच्चे के लालन- पालन का दायित्व
मुख्यतः माता का होता है। पिता मुख्यः आय अर्जक की भूमिका निभाता है।
4. एकल परिवार, माता-पिता और
उनके अविवाहित संतानें रहती है। ऐसे परिवारों में पिता और माता दोनों आय अर्जक
होते हैं। उन्हें प्रतिदिन आय अर्जन हेतु काम पर जाना होता है। बच्चे की देखभाल के
लिए आया या क्रैच का प्रबंध करते हैं। ऐसे परिवारों में बच्चे के संस्थागत
समाजीकरण जैसे- प्री- स्कूल होबी क्लब आदि में पंजीयन कराने की तत्परता रहती है।
परिवार में
पालन-पोषण के दायित्व के आधार पर बाल्यावस्था के विकासात्मक संदर्भ में चार प्रकार
बताए गए हैं। प्रथम, जहां बच्चे के देख-भाल का दायित्व दादा-दादी /
नाना-नानी जैसे बुजुर्ग उठाते हैं। ऐसे परिवारों में लालन-पालन के देशज और लोक
सम्मत व्यवहारों जौ-मालिश करना, मिट्टी में खेलना और लोरी सुनाने आदि का चलन
अधिक होता है। द्वितीय, लालन-पालन का मुख्य दायित्व माता-पिता का होता
है। मां की भूमिका जैविक और भौतिक आवश्यकताओं तक दूध पीलाना, देखभाल करना
मालिश करना इत्यादि कार्यों की होती है जबकि सामाजिक अन्तः क्रियाओं और कुशलता आदि
के लिए पिता की भूमिका को महत्व दिया जाता है। इसी कारण भारत में बचपन के समाजीकरण
को पितृसत्तात्मक समाजीकरण कहते हैं। तृतीय, भारत में परिवार
की संरचना और सामाजिक संबंधों का जाल इस प्रकार का होता है कि भारत में कोई भी
बच्चा प्रथम संतान नहीं होता है। उसके चचरे भाई-बहनों या रिश्तेदार और पड़ोस का कोई
न कोई बच्चा उसके बड़े भाई बहन की भूमिका में अवश्य होता है। ऐसे परिवार जहां
माता-पिता दोनों कार्य करने जाते हैं, परिवार किसी अन्य
पालक के आर्थिक बोझ को वहन करने की क्षमता नहीं रखता है बड़े-भाई बहन पालक की
भूमिका निभाते हैं। यह भूमिका अपने से छोटे भाई बहन की देखभाल करने, उनकी आवश्यकताओं
के बारे में निर्णय करना, विद्यालय चुनाव जैसे निर्णयों में दिखती है।
चतुर्थ, महानगरीय मध्यम वर्गीय परिवारों में आया को बच्चे के
लालन-पालन का दायित्व सौंपा जाता है। ऐसे परिवारों में माता-पिता दोनों नौकरी के
निमित्त प्रतिदिन घर के बाहर जाते हैं। आया को देख-रेख के संबंध में सलाहें दे दी
जाती है।
भारत में परिवार
की संरचना में बदलाव के प्रथम लक्षण के रूप में संयुक्त परिवार के विघटन को पहचाना
जा रहा है। भले ही संरचना के स्तर पर संयुक्त परिवार विघटित हो रहे हैं लेकिन
भावानात्मक रूप से वे उपस्थित है। अपने वृहद् परिवार के आयोजनों में सम्मिलित होना, दूरभाष आदि
माध्यमों से संपर्क में रहना, उनसे मिलने के लिए पैतृक गांव आने-जाने जैसे
लक्षणों को इस तर्क के समर्थन में प्रस्तुत किया जाता है। भारत में बच्चे के विकास
में परिवार की भूमिका इस अर्थ में विशिष्ट हो जाती है वह बच्चों के प्रति
सांस्कृतिक विश्वासों (जैसे- बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं), पारस्परिक
निर्भरता के मूल्यों और पितृसत्तात्मक समाजीकरण के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
अभ्यासों का माध्यम बनते हैं।
बाल्यावस्था का विकासात्मक संदर्भ: पड़ोस
परिवार और
विद्यालय के संरचित परिवेश के अतिरिक्त 'पड़ोस भी
विकासात्मक परिवेश उपलब्ध कराता है। विद्यालयेतर हमउम्र साथियों के साथ समूह का
निर्माण, इस समूह के साथ समय बिताना, सामुदायिक
गतिविधियों का अवलोकन और सहभागिता, व्यस्कों की
अन्तः क्रियाओं और गतिविधियों का अवलोकन आदि कुछ ऐसे उदाहरण जिनके क्रियान्वयन का
क्षेत्र 'पड़ोस' होता है। पड़ोस एक समान सामाजिक-आर्थिक
पृष्ठभूमि वाले परिवारों का भौगोलिक संकेन्द्रण होता है। परिवार अपनी आवश्यकता और
हैसियत के अनुसार एक आवासीय परिवेश का चुनाव करता है। आवासीय परिवेश के समस्त
परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, धार्मिक और
सांस्कृतिक अभ्यास, इन परिवारों के बीच सामाजिक संबंधों की
प्रगाढ़ता आदि मिलकर पड़ोस का विकास करते हैं। पड़ोस की भौतिक विशेषताएं जैसे-
आवसीय सुविधाएं, बस्ती की संरचना, मनोरंजन आदि की
सुविधा, सामुदायिक भवन, खेल के स्थान आदि
की उपलब्धता और अनुपलब्धता बच्चे के रोजमर्रा की गतिविधियों को प्रभावित करता है।
महानगरों में विकसित हो रहे 'अपार्टमेंट संस्कृति' में बच्चों के
लिए पार्क, खेल का मैदान और खेल के संसाधन उपलब्ध होते हैं। इनके
माध्यम से विद्यालय के बाद की दैनिक अवधि को संरचित किया जाता है। जबकि निम्न आय
वर्ग के परिवार जो मलिन बस्तियों / झुग्गियों आदि में रहते हैं वे सघन आबादी के
क्षेत्र होते हैं, घरों का आकार और क्षेत्रफल कम रहता है और
शौचालय आदि की समस्या रहती है। ऐसे पड़ोस का भौतिक पर्यावरण अनुकूल दशा उपलब्ध
नहीं कराता है। इन परिवारों में अभिभावकों द्वारा बच्चों की निगरानी का भी अभाव
पाया जाता है। वे प्रायः गलियों और बाजारों को हमउम्र साथियों के साथ समय बिताने
के स्थान के रूप में प्रयुक्त करते हैं। सामुदायिक संस्थानों जैसे- स्थानीय
प्रशासन, स्थानीय समितियां और संगठन भी बच्चों के जीवन को अप्रत्यक्ष
रूप से प्रभावित करती हैं। नागरिक संल्गनता, सामुदायिक आयोजन
आदि के माध्यम से ये बच्चों की विश्वदृष्टि के विकास में भूमिका निभाती है। पड़ोस के
साथ सामाजिक संबंध भी बच्चों के लिए विकासात्मक संदर्भ उपलब्ध कराता है। भारत में
अपने ही जैसे धार्मिक, क्षेत्रीय और जातीय लोगो के पड़ोस में रहने की
प्रवृत्ति को पहचाना गया है। गांव में जातीय आधार पर 'पुरवे' और 'कुनबे का पड़ोस
इसका एक उदाहरण है। बच्चा अपने पड़ो में कितना और किस रूप में क्रियाशील रहेगा? इसका निर्णय
परिवार के द्वारा किया जाता है। मध्यमवर्गीय और नगरीय परिवारों के द्वारा पड़ोस
में पाल्य गतिविधियों को संरचित किया जाता है और इसकर निगरानी की जाती है। उदाहरण
के लिए खेलने के लिए समय सारिणी बना देना, जिन बच्चों के
साथ पाल्य संपर्क में है उनके अभिभावकों के बारे में पूछना, सुनिश्चित करना
कि पाल्य असामाजिक गतिविधियों में संलग्न न हो। निम्न सामाजिक आर्थिक वर्ग के
परिवारों में अभिभावकों द्वारा बच्चों की निगरानी का भी अभाव पाया जाता है। वे
प्रायः गलियों और बाजारों को हमउम्र साथियों के साथ समय बिताने के स्थान के रूप
में प्रयुक्त करते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते
संसाधनों ने मध्यम वर्गीय परिवारों के पाल्यों की पड़ोस के साथ अन्तःक्रिया को
सीमित किया है।
पड़ोस के द्वारा सामाजिक पूंजी के विकास के लिए संसाधन प्रदान किए जाते हैं, बच्चे अपने पड़ोस से रोल मॉडल पहचानते हैं और उनका अनुकरण करते हैं, पड़ोस के साथ सामाजिक संबंध, सामाजिक-सांवेगिक सहयोग का स्रोत है। इन सकारात्मक पक्षों के अतिरिक्त असामाजिक और आपत्तिजनक व्यवहार में संलग्नता, बाल-अपराध, मादक पदार्थों के सेवन की आदत, विद्यालय से भागने आदि की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने में पड़ोस की भूमिका को पहचाना गया है। ध्यातव्य है कि पड़ो किसी व्यवहार विशेष या व्यक्तित्व के गुण विशेष के निर्धारण का अंतिम और एकमात्र कारण नहीं है।
बाल्यावस्था का विकासात्मक संदर्भ: विद्यालय
बाल्यावस्था में विद्यालय द्वारा एक विशिष्ट विकासात्मक संदर्भ उपलब्ध कराया जाता है। जैसे ही बच्चा विद्यालय में प्रवेश करता है उसे एक वैयक्तिक स्वतंत्रता और दायित्व के साथ विद्यार्थी की पहचान प्राप्त होती है। उसके लिए एक ऐसी दुनिया खुलती है जहां वह प्रथमतः सीखने के लिए आता है। इसके साथ ही वह अपने व्यक्तित्व और वैचारिकी को भी विकसित करता है। विद्यालय में शिक्षक के रूप में विद्यार्थियों को रोल मॉडल मिलता है। सहपाठी उसके लिए ऐसा समूह बनते हैं जहां बच्चा पहल करना, नेतृत्व करना, तर्क-वितर्क करना आदि सीखता है वहीं वह अपने साथियों के दबाव में भी कार्य करता है। विद्यालय विद्यार्थी को अपनी रूचि पहचानने और उसका विकास करने में मदद करते हैं। विद्यालय में विद्यार्थी का समायोजन उसके स्वस्थ शारीरिक और मानसिक विकास का माध्यम बनता है। इन आदर्श भूमिकाओं के साथ यह भी उल्लेखनीय है कि कई बार विद्यालयों की छिपी हुयी पाठ्यचर्या बच्चों के साथ भेदभाव और हाशिए के समुदायों के प्रति पूर्वग्रह के प्रसार में भी भूमिका निभाती है। विद्यालय विद्यार्थी को एक ऐसा परिवेश उपलब्ध कराता है जहां विद्यार्थी कक्षा में सहपाठियों, अध्यापकों, पाठ्यचर्या और अन्य गतिविधियों में सहभागिता करता है। स्वयं विद्यालय का भी अपना परिवेश होता है। विद्यालय का संगठन, विद्यालय में उपलब्ध संसाधन, विद्यालय की समुदाय से संबद्धता, विद्यालय की राज्य से संबद्धता विद्यालय के परिवेश को निर्धारित करने वाले कुछ कारक है। इन्हीं कारकों के सापेक्ष आप सरकारी विद्यालय, सरकार द्वारा अनुदानित विद्यालय, निजी विद्यालय जैसी विद्यालय के प्रकारों का अवलोकन कर सकते हैं। भारतीय समाज की सामाजिक-आर्थिक संरचना का विद्यालयों के चुनाव, अभिभावकों के विद्यालय के साथ संबंध और विद्यार्थियों के विद्यालय में संलग्नता पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव को अभिभावकों द्वारा विद्यालय के चुनाव में, अभिभावकों के प्रति विद्यालय की अभिवृत्ति में, विद्यार्थियों के प्रति शिक्षकों के विश्वासों और धारणाओं में देख सकते हैं। प्रायः विद्यालयों की पाठ्यचर्या, सत्र की अवधि, शिक्षक की न्यूनतम योग्यता आदि पक्ष समान होने पर विद्यालयों को उत्तम, अच्छा, कम अच्छा जैसे श्रेणियों में देखने के लिए उक्त कारक ही उत्तरदायी है। इस तर्क की पुष्टि इस आधार पर भी होती है कि निजी विद्यालयों के प्रति सर्वाधिक अधिमान है और वर्तमान में सरकारी विद्यालयों में वही बच्चे जा रहे हैं जिनके अभिभावक किसी भी प्रकार का शुल्क वहन करने की क्षमता नहीं रखते हैं। इसी तरह सरकारी विद्यालयों में दलित, आदिवासी, लड़कियों जैसे हाशिए के समुदाय के विद्यार्थियों की अधिकता भी प्रमाण है कि समाज में यह मान्यता व्याप्त है कि विद्यालय के परिवेश में गुणात्मक भिन्नता है और अभिभावक निजी विद्यालयों के प्रति अधिभार रखते हैं। विद्यालय में विद्यार्थी का अकादमिक प्रदर्शन उसके भावी भविष्य को दिशा देने का कार्य करता है। इस संदर्भ में विद्यालय की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
बाल्यावस्था में अनूठेपन का उदाहरण: बाल श्रमिक
प्रायः आप घरेलू
कार्यों, सड़क के किनारे सामान बेचते और खाने-पीने आदि के दुकानों पर
कार्य करते हुए अनेक बच्चों को देखते होंगे। आपने कभी सोचा है कि इन बच्चों के लिए
शिक्षा और बड़े होने के क्या मायने हैं? ऐसे बच्चों को
बाल श्रमिक कहा जाता है। बाल श्रम एक सार्वभौमिक शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने
में एक महत्वपूर्ण बाधा है। वैश्विक स्तर पर, कुल बाल श्रमिकों
में से 50 प्रतिशत से अधिक भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और
श्रीलंका में है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार अकेले भारत में
ही 5 से 10 करोड़ के बीच बाल श्रमिक है। संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष
से कम आयु के बच्चों को किसी फैक्ट्री, खनन कार्य या
किसी जोखिम वाले काम में नहीं लगाया जा सकता।
किसी उद्योग, खान, कारखाने आदि में
14 वर्ष से कम आयु के मानसिक और शारीरिक श्रम करने वाले बाल श्रमिक कहलाते है।
परन्तु 5 वर्ष से कम आयु के बच्चे इतने बड़े नहीं होते कि भुगतान या मुनाफे के लिए
लाभदायक आर्थिक गतिविधियों में भाग ले सके। इसलिए बाल श्रमिक 5 से 14 आयु वर्ग के
आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने वाले बच्चे होते है। संयुक्त राष्ट्र संघ के बाल
अधिकार पर संपन्न सम्मेलन में कहा गया है कि बच्चों के श्रम की व परिस्थितियां
जहां उनका कार्य बच्चे के स्वास्थ्य एवं मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, या सामाजिक विकास
पर प्रतिकूल प्रभाव डालता हो, बाल श्रम की परिधि में आता है। वस्तुतः बाल
श्रम का सबसे अंधकारमय पक्ष बाल श्रम से बच्चों पर पड़ने वाले कुप्रभाव है। यहाँ
पर कुछ दुष्प्रभावों का उल्लेख किया जा रहा है-
बाल मजदूरी के
चलते बच्चों का नैसर्गिक, शारीरिक तथा मानसिक प्रभाव विकास बाधित होता
है। परिणामतया उनकी कार्य क्षमता का हास होता है।
बालश्रम में
संलग्नता के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा बाधित हो जाती है। वस्तुतः यह कहा जाता है
कि जो विद्यार्थी औपचारिक शिक्षा से वंचित हैं वे किसी न किसी प्रकार के श्रम में
संल्गन हैं।
शिक्षा स्वास्थ्य
एवं आवास की समस्या का सामना करने के कारण इन भावी जीवन जोखिम जाता है। खतरनाक
उद्योंगो में काम करने वाले बच्चों के स्वास्थ्य पर तो कुप्रभाव पड़ता है। हो
युक्त
विभिन्न उद्योंगो
में काम करने वाले बच्चों को अनेक प्रकार की बीमारियों और विकलांगता का सामना करना
पड़ता है। दियासलाई तथा पटाखा बनाने वाले बच्चों को सांस की दिक्कत तथा भयानक रूप
से जल जाने का खतरा होता है जबकि पत्थर खदान, स्लेट या कांच
उद्योग में काम करने वाले बच्चे सिलकोसिस, धूल एवे ताप की
बजह से दम घुट जाने तथा जल जाने के खतरे से दो चार होते है। हथकरघा उद्योग में
फाइब्रोसिस तथा बाइसीनोसिस तथा कालीन उद्योग में धूल एवं रेशों के कारण फेफड़ों की
भयानक बीमारी गटिया तथा जोड़ के तनाव से बच्चों के प्रभावित होने की संभावना होती
है। ताला या पीतल उद्योग में काम करने वाले बच्चों को दमा भयंकर सिरदर्द क्षयरोग
तथा गुब्बारा फैक्ट्री के बाल श्रमिकों को निमोनियां हार्टअटैक जैसी बीमारियां लग
जाती है।
बाल श्रम के लिए उत्तरदायी कारण
भारत में बाल
श्रम के लिए पारिवारिक गरीबी एक महत्वपूर्ण उत्तरदायी कारक है. कुछ समंक बताते है
कि 18 से 58 वर्ष की आयु के ( जो अधिकांशतः बच्चों के पालन पोषण का दायित्व
निर्वहन करते है) लगभग 25 प्रतिशत लोग बेकार है। शेष जो रोजगार प्राप्त हैं उनमें
से 92 प्रतिशत लोग असंगठित होकर क्षेत्र में काम करते है जहां न्यूनतम मजदूरी और
सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों पर अमल नहीं होता. साथ ही पूरे वर्ष रोजगार की समस्या
रहती है. गरीबी के इस परिवेश में बच्चे मजदूरी करने हेतु विवश हो जाते है। बाल
मजदूरी के प्रोत्साहन में नियोक्ताओं का हित भी उत्तरदायी है। वस्तुतः बाल श्रमिक
सस्ता और आज्ञाकारी श्रमिक होता है। जिसकी कोई संगठित क्षमता नहीं होती है। उसे
डरा धमका कर बड़े लम्बे समय तक कम मजदूरी पर काम लिया जा सकता है। इस प्रकार
उत्पादन व्यय कम करने की दृष्टि से नियोक्ता के लिए बाल श्रम लाभ का स्त्रोत है।
बाल श्रम के लिए माता पिता की अशिक्षा, विद्यालय का
भयप्रद वातावरण, अपव्यय, और अवरोधन भी महत्वपूर्ण है। कई बार विद्यालय
का भयप्रद वातावरण उन्हें विद्यालय छोड़ने के लिए बाध्य कर देता है। एक अनुमान के
मुताबिक कक्षा 1 में नामांकित होने वाले 100 बच्चों में से 40 ही कक्षा 5 तक पहुंच
पाते है। कक्षा 8 तक तो यह संख्या मात्र 20 रह जाती है। जाहिर है विद्यालय छोड़
देने वाले ये सभी खेलने और पढ़ने की उम्र में बालश्रमिक बनकर परिवार के कमाऊ पूत
बन जाते है। बाल श्रम के निवाराणार्थ बनाए गए अधिनियमों एवं प्रावधानों का
कठोरतापूर्वक पालन न हो पाना भी इस समस्या के निरन्तर विकास का एक प्रभावी कारण
है। सरकारी तथा गैर सरकारी तौर पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि माचिस तथा
पटाखा बनाने वाली फैक्ट्रियों में विस्फोटक सामग्री कानून तथा फैक्ट्री कानून तथा
श्रम कानूनों का उल्लंघन किया जाता | बाल श्रम के लिए
हमारा जाति या वर्ग आधारित सामाजिक ढांचा, जिसमें प्रायः
निम्न जाति या वर्ग आधारित सामाजिक ढांचा जिसमें प्रायः निम्न जाति या वर्ग में
जन्म लेने वाले बच्चों को मजदूरी विरासत में मिलती है, भी जिम्मेदार है
शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभाव बुरी संगत पारिवारिक तनाव आदि बाल मजदूरी के
अन्य प्रमुख कारण है।
बाल्यावस्था में अनूठेपन का उदाहरण : पथवासी बच्चे
पथवासी बच्चों को परिभाषित करते हुए यूनीसेफ
( 1985, 1992) ने तीन प्रमुख बिन्दुओं को महत्व दिया है
- बच्चे जो गलियों पर कार्य करते हैं, लेकिन अपने परिवार के साथ रहते हैं।
- वे बच्चे जिनका परिवार तो है, लेकिन उन्हें इससे आवश्यक मदद नहीं मिलती।
- वे बच्चे जो कार्यात्मक रूप से परिवार और अभिभावक के बिना रहते हैं।
यूनीसेफ की ही
अवधारणा को आधार बनाकर पथवासी बच्चे पर आधारित अन्तराष्ट्रीय अन्तः एनजीओ)
कार्यक्रम (1986) ने इन्हें इस प्रकार से परिभाषित किया है- “एक पथवासी बच्चा
वह लड़का या लड़की है जो अभी व्यस्क नहीं हुआ है और जिसके लिए गली अपने वृहत्तर
अर्थ में, जो परित्यक्त स्थान और गैर निवास योग्य स्थानों को भी शामिल
करता है, ही आवास और जीविकोपार्जन का साधन है जो किसी भी प्रकार के
व्यस्क संरक्षण और सहयोग से वंचित है। इसी प्रकार कासग्रोव (1990) ने इन्हें
परिभाषित करते हुए कहा कि है कि 'पथवासी बच्चे ऐसे बच्चे हैं जो 18 वर्ष की उम्र
से कम आयुवर्ग के हैं, जिनका व्यवहार सामान्य और सामाजिक रूप से मान्य
व्यवहार जैसा नहीं होता है, जिनकी विकासात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति परिवार
या परिवार जैसी किसी अन्य प्रकार के संस्था द्वारा नहीं होती है।” इन परिभाषाओं में
पथवासी बच्चे की अवधारणा को सार्वभौमिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। इन परिभाषाओं
में प्रयुक्त आधारों पर ध्यान दें तो स्पष्ट होता है कि ये आधार संस्कृतिबद्ध हैं, न कि सार्वभौमिक
लस्क (1992) ने इस अवधारणा को पुनः एक नए वर्गीकरण के रूप में प्रस्तुत किया। इसके
अन्तर्गत इन्होंने निम्न वर्ग बनाएदृ गली में रहने वाले परिवारों के बच्चे, बिना अभिवावक के
बच्चे, परिवार में रहने वाले लेकिन गली में समय बिताने वाले बच्चे।
आप्तेकर (1994) ने इन परिभाषाओं को चुनौती दी और पथवासी बच्चे की अवाधारणा की
व्याख्या एक प्रक्रिया के रूप में कियह प्रक्रिया गली में प्रवेश और समय बिताने के
साथ प्रारम्भ होती है और गली की संस्कृति में पूरी तरह से रम जाने पर समाप्त होती
है। ये बच्चे गली में ही ज्यादातर समय बिताते हैं और गली की गतिविधियों में संलग्न
रहते हैं। जीवन यापन गली की गतिविधियों में संलग्नता पर आधारित है। इन्हें किसी भी
प्रकार का संरक्षण और सुरक्षा नहीं मिलती है।
प्रायः पथवासी बच्चों को 'परित्यक्त बच्चों' के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह भी पाया गया है कि ये बच्चे परित्यक्त बच्चे न होकर ऐसे परिवार से सम्बन्धित हैं जहाँ जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को 'कमाने' की जरूरत होती है।मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन बच्चों को जो कीमत चुकानी पड़ती है वह ही इनके अनुभवों को सामान्य ओर स्वीकार्य बचपन की अवधारणा से भिन्न बना देता है. ज्यादातर कार्यों में 'स्ट्रीट चिल्ड्रेन' की अवधारणा को परिभाषित करते हुए वस्तुनिष्ठता की कीमत पर उनके जीवन्त, निजी और वैयक्तिक अनुभवों को किनारे कर दिया गया है| बजाय अन्तः क्रियात्मक विश्लेषण करने के, कार्यकरण प्रभाव के रूप में व्याख्या करते हुए, गरीबी, पारिवारिक जीवन की कठिनाइयों एवं जनसंख्या की अधिकता का परिणाम बता दिया गया है। जो कार्य इस स्तर से आगे बढ़े हैं, उन्होंने इन बच्चों के वर्गीकरण का प्रयास किया है। वर्गीकरण और परिभाषाओं के अन्तर्गत इन बच्चों के, इनके परिवार से सम्बन्ध के स्तर को और गली से इनके सम्बन्ध की प्रकृति को आधार बनाया गया। इन्हें एक ‘व्यक्ति' विशेष के रूप में न देखकर एक विशेषण विशेष से जोड़कर देखा गया है। इनके ‘समांगता' की मान्यता हमें उनके अनुभवों के सूक्ष्म विश्लेषण से वंचित कर देती है। कुछ अध्ययनों में इन्हें ऐसे समूह के रूप में देखा गया है जिनके मूल आवश्यकताओं जैसे भोजन, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित कर दिया गया है। स्पष्ट है कि पथवासी बच्चे को परिभाषित करने की तीन धाराएँ रही हैंदृ प्रथम के अन्तर्गत सामाजिक दृजनांकीकिय आधारों पर गली में इनकी मौजूदगी को इनकी परिभाषा का आधार बनाया गया है। दूसरे प्रकार के प्रयास में परिवार और अन्य सामाजिक एजेंसियों से इनके विलगाव की प्रक्रिया को आधार बनाया गया है। इस प्रकार के प्रयासों ने इन बच्चों को मुख्यधारा से काटकर एक अलग वर्ग में रखा है। तीसरे प्रकार के वे प्रयास हैं जो हाल के वर्षों में हुए हैं, जिनके अन्तर्गत सबसे पहले अवधारणा विशेष पर ही प्रश्न चिह्न लगाते हुए इसे 'सामाजिक सांस्कृतिक कारक निर्मित सम्प्रत्यय' माना गया है, और यह सवाल पूछा गया कि यह परिभाषा किस लिए है? किसने बनाया है? और यह किसके पक्ष में कार्य कर रही है? इस धारा के अन्तर्गत आने वाले विद्वानों का मानना है कि पथवासी बच्चे की अवधारणा के अन्तर्गत इन बच्चों को आम बच्चों, व्यस्कों, परिवार और स्कूल जैसी अन्य सामाजिक संस्थाओं से विलग रूप में देखा जाता है। यह प्रवृत्ति इनके सामाजिक बहिष्करण को वैधता प्रदान करती है। वृहत्तर सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक प्रक्रिया जन्य अपवंचन, राज्य द्वारा मूलभूत सुविधाओं को प्रदान करने की असफलता, एवं परिवार के द्वारा जीवन जी की मूलभूत चुनौतियों से दैनिक सामना को विश्लेषण के दायरे से अलग कर देने पर उपरोक्त प्रकार के एकांगी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। एक शिक्षक के रूप में इन बच्चों के सन्दर्भ में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होगा-
इन्हें ‘अपराधी’, ‘भगोड़ा’ या 'भुक्तभोगी' के रूप में देखने के बजाय एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में देखना चाहिए जो नाना प्रकार के वातावरण में सक्रियता के साथ सहभागिता करते है।
ये बच्चे गलियों में रहते हुए समाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान व्यक्तित्व का विकास करते हैं, सीखते हैं, चुनौतियों का सामना करते हैं और दायित्व स्वीकारते हैं। इन बच्चों के लिए गली जीवनानुभवों का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
इन बच्चों को हम मूल्यहीन और असामाजिक कह देते हैं, जबकि इनमें भी 'आत्म सम्मान' की इच्छा और सामाजिक संवेदना होती है।
हमें ध्यान रखना होगा की पथवासी बच्चे की संज्ञा इन्हें केवल गली में भटकने वाले बच्चों के रूप में बाँध देती है और जीवन के अन्य पक्षों की उपेक्षा कर देती है. इन बच्चों के लिए कोई भी सुधारात्मक प्रयास इनके प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति रखकर नहीं किया जा सकता है।
यदि इनकी छवि को नकारात्मक रूप में अतिरंजित किया जायेगा और दया भावना के साथ सहयोग का प्रयास हुआ उससे ये बच्चे समाज की मुख्यधारा से जुड़ने के बजाय और भी कटते चले जायेंगे।
तदनुभूति और
तादात्मय के साथ इनकी ओर बढ़ने पर यह भी अपनी ऊर्जा सीखने की अपनी ललक के साथ आगे
आएँगे। प्रक्रिया में
संज्ञानात्मक क्षमता की दृष्टि से ये बच्चे उतने ही क्षमतावान हैं जितने की अन्य सामान्य बच्चे। शिक्षा की में लाने के लिए हमें इनके विकासात्मक सन्दर्भ को ध्यान में 'रखकर उसके अनुरूप " त्वरक' कार्यक्रमों का निर्माण करना होगा। यहाँ उल्लेखनीय है कि वास्तविक लक्ष्य उन्हें शिक्षा की मुख्यधारा में लाने तक सीमित नहीं है बल्कि समाज की मुख्यधारा में लाने का है।
विपरीत
परिस्थितियों में जीने की बाध्यता, प्रवसन, गरीबी और अपवंचन
जनित सामाजिक बहिष्करण की प्रक्रिया के बीच समाज के निम्नतम तबके से आनेवाले ये
बच्चे भी अपने 'बालदृअधिकारों' के दावेदार है और
एक शिक्षक के रूप में हमारा दायित्व हैं की हम मानव विविधता को ध्यान में रखते हुए
सभी विद्यार्थियों को सीखने का गुणवत्ता पूर्ण अवसर उपलब्ध कराएँ.