बाल्यावस्था का प्रत्यय
बाल्यावस्था का प्रत्यय
सामान्यतः विकास की शैशवावस्था और प्रौढावस्था के बीच की जो अवस्था होती है, बाल्यावस्था कहलाती है। अगर हम भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा को देखें तो पाते हैं कि बाल्यावस्था 6 वर्ष आयु से प्रारंभ होकर वर्ष की आयु तक मानी जाती थी। जिसमे बालकों में आधारभूत मूल्यों एवं कौशलों की आधारशिला रखी जाती थी। ये मूल्य बालक को उसके परिवार से संस्कार के रूप में प्राप्त होते थे। बालक को अनौपचारिक शिक्षा परिवार के द्वारा ही दी जाती थी
ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्पसन ने बाल्यावस्था को परिभाषित करते हुए लिखा है कि- बाल्यावस्था वह समय है, जब व्यक्ति के आधारभूत द्रष्टिकोण, मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है। निर्माण का यह उत्तरदायित्व माता- पिता, शिक्षक और समाज पर होता है।
जैविक परिभाषा के अनुसार जन्म से लेकर किशोरावस्था के बीच की जो अवस्था होती है बाल्यावस्था कहलाती है। कानूनी परिभाषा के अनुसार वह व्यक्ति जिसकी आयु प्रौढावस्था की आयु से कम होती है बालक कहलाता है।
United Nations Convention on the Right of the Child 34 - Child is a human being below the age of 18 years unless under the law applicable to the child, majority is attended earlier.
एक समान परिभाषा ना होने के कारण भारत वर्ष में बाल्यावस्था का प्रत्यय अत्यंत अस्पष्ट हो गया है।
विभिन्न सामाजिक वास्तविकताओं के द्वारा निर्मित बाल्यावस्था के प्रत्यय
प्रत्येक बालक किसी ना किसी समाज में जन्म लेता है। अतः उस समाज एवं समाज की संस्कृति का बालक के व्यवहार एवं व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है । बाल्यावस्था का प्रत्यय विभिन्न समाजों में विभिन्न है यहाँ पर हम विभिन्न सामाजिक राजनैतिक वास्तविकताओं के द्वारा निर्मित विभिन्न बाल्यावस्था के प्रत्यय के विषय में चर्चा करेंगे।
i. उपेक्षित वर्ग :
इस वर्ग में वे बालक आते हैं, जो सामाजिक- आर्थिक तथा संस्कृतिक रूप से पिछड़े होते हैं, जैसे : अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के बालक आदि । ऐसे समाज में बाल्यावस्था का प्रत्यय वास्तविक तौर पर उपस्थित नही होता है ऐसे बालक प्रायः गरीब एवं वंचित परिवार से आते हैं। अतः इन बालकों को अपने परिवार की आर्थिक मदद करने हेतु बालश्रमिक के रूप में किसी दुकान या फैक्ट्री में काम करना पड़ता है इन बालकों की स्कूल एवं शिक्षक के प्रति मनोवृत्ति नकारात्मक होती है, इनकी संवेगात्मक समस्यायें गंभीर होती हैं। स्कूल में इनका नामांकन दर कम तथा उच्च ड्राप आउट रेट होता है। इन बालकों में साधारण आकांक्षा होती है व हीनभावना पायी जाती है। इनमें अभिप्रेरणा का नितांत अभाव होता है तथा दूरदर्शिता की कमी पायी जाती है। ऐसे बालक अनौपचारिक भाषा का प्रयोग करते हैं व इनकी भाषा अस्पष्ट होती है।
ii. लिंग द्रष्टिकोण :
हमारे समाज में बालक और बालिका में भेद करना एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी तक निरंतर चला आ रहा है। यद्धपि भारतीय संविधान में पुरुष व स्त्री को समान अधिकार दि गए हैं फिर भी भारतीय समाज में लिंग भेद विद्यमान है । हमारे समाज में एक बालिका की बाल्यावस्था का प्रत्यय एक बालक की बाल्यावस्था के प्रत्यय से भिन्न होता है भारतीय समाज में बालकों को बालिकाओं की तुलना में हर क्षेत्र में प्राथमिकता दी जाती है। परिवार में बालक का जन्म होने पर जहाँ खुशियाँ मनाई जाती हैं वहीं बालिका के जन्म होने पर उसको बोझ समझा जाता है। भारत सरकार द्वारा लिंग निर्धारण को प्रतिबंधित कर दिया गया है तथा ऐसा करना कानूनी तौर पर अपराध है, फिर भी कुछ चिकत्सकों की मदद से माता पिता जन्म से पूर्व ही लिंग निर्धारण कराकर बालिका को जन्म लेने से पहले गर्भ में ही समाप्त करा देते हैं। यही कारण है की वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार लिंग अनुपात 1000 पुरुषों पर 914 महिला है, जोकि वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 1000 पुरुषों पर 927 महिला था । इसी प्रकार वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जहाँ पर पुरुषों की साक्षरता दर 82.14% है वहीं महिला साक्षरता दर मात्र 65.46% है, क्योंकि अधिकांश माता पिता आज भी बालिका को पराया धन समझते है और उन्हें कोई लाभ नही होगा, ऐसा सोचकर बालिका की शिक्षा पर व्यय करना व्यर्थ समझते हैं। हमारे समाज में जहाँ बालक पढने के लिए स्कूल भेजा जाता है वहीं बाल्यावस्था से ही बालिकाओं से यह अपेक्षा की जाती है की वे घर के काम जैसे खाना बनाना , कपडे धोना, अपने छोटे भाई बहिन की देखभाल करना आदि कार्यों में अपने माता पिता की मदद करें अतः इसी भेदभाव के कारण बालिकाओं के व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता व उनमे आत्मविश्वास की भी कमी रह जाती है। परिवार द्वारा किए जाने वाले इस लिंग भेद के कारण ही बालिकाओं का नामांकन दर कम व ड्राप आउट रेट बालकों की तुलना में बहुत ज्यादा होता है तथा बालिकाएं ना केवल शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाती हैं, बल्कि अनेक स्वस्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से भी ग्रसित हो जाती हैं जैसे- एनीमिया, कुपोषण आदि।
विकलांग बालक :
इस श्रेणी में प्रायः मानसिक रूप से मंद बालक, द्रष्टि दोष से ग्रसित बालक, भाषा दोष से ग्रसित बालक, श्रवण सम्बन्धी दोष से ग्रसित बालक आते हैं । इन बालकों के लिए बाल्यावस्था का प्रत्यय सामान्य बालकों की तुलना में भिन्न होता है ऐसे बालकों में एक अनुपयुक्त आत्मसम्प्रत्यय विकसित हो जाता है। जिसके कारण उनके व्यक्तित्व का विकास अवरूद्ध हो जाता है। साथियों के द्वारा मजाक उड़ाये जाने के कारण ऐसे बालक हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं। ऐसे बालकों को सामान्य कक्षा से अलग रखा जाता है जिससे उनमे अवांछित सामाजिक शीलगुण विकसित होने की संभावना ज्यादा रहती है।
iv. मानसिक रूप से मंद बालकों में शारीरिक कद सामान्य बालकों की तुलना भिन्न होता है। सामान्य बालकों की तुलना में बौद्धिक क्षमता कम होती है, ऐसे बालक समाज एवं परिवार के लोगों के साथ समायोजन नहीं कर पाते हैं। ऐसे बालकों का संवेगात्मक विकास अनुपयुक्त होता है तथा भाषा विकास भी बहुत ही कम हो पाता है। इन बालकों को उचित अनुचित ज्ञान नहीं होता है। इनमें आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता की भी कमी होती है।
V. दृष्टिदोष से ग्रसित बालकों को दो वर्गों में रखा जा सकता है- अंधे बालक, निम्न द्रष्टि वाले बालक । अंधे बालक या तो जन्म से ही अंधे होते हैं या जन्म के बाद किसी बीमारी या दुर्घटना के कारण, वे अंधेपन का शिकार हो जाते हैं। द्रष्टिदोष से ग्रसित बालकों की सीखने की क्षमता प्रभावित होती है। अंधे बालकों को विशेष पद्धति द्वारा ही पढना लिखना सिखाया जाता है । लेकिन निम्न द्रष्टि वाले बालकों की समस्या अंधे बालकों की तुलना में अधिक गंभीर होती है,
क्योंकि जहाँ एक ओर ऐसे बालकों को विशेष पद्धति से पढना लिखना नही सिखाया जाता वहीं दूसरी ओर ऐसे बालक द्रष्टि कम होने से सामान्य पुस्तकों के उन अक्षरों को नहीं पढ़ पाते जिनके आकर छोटे होते हैं।
vi. भाषा दोष से ग्रसित बालकों को कई वर्गों में रखा जा सकता है जैसे गूंगे बालक, उच्चारण सम्बन्धी दोष वाले बालक, आवाज़ सम्बन्धी दोष वाले बालक, प्रवाहिता सम्बन्धी दोष बालक व व्याख्यान सम्बन्धी दोष वाले बालक । भाषा सम्बन्धी रोग से ग्रसितदोष बालकों की शैक्षिक उपलब्धि एवं सामाजिक विकास प्रभावित होता । ऐसे बालकों में स्कूल में समायोजन सम्बन्धी कठिनाईयां होती हैं। गूंगे बालक चाहकर भी अपनी इच्छा को अर्थपूर्ण भाषा के रूप में अभीव्यक्त नही कर पाते हैं। उच्चारण सम्बन्धी दोष वाले बालक शब्दों का गलत ढंग से उच्चारण करते हैं जैसे चोटी को रोटी कहना, चाल को छाल कहना आदि आवाज़ सम्बन्धी दोष वाले बालक नाक में बोलते हैं या उनकी आवाज़ कर्कश होती है प्रवाहिता सम्बन्धी दोष वाले बालक बोलने में हकलाते हैं, जबकि व्याख्यान सम्बन्धी दोष वाले बालक कुछ ख़ास शब्दों को बोलने में कठिनाई का अनुभव करते हैं।
vii. श्रवण सम्बन्धी दोष से ग्रसित बालकों को दो वर्गों में रखा जा सकता है: पूर्ण बहरापन से ग्रसित बालक एवं आंशिक बहरापन से ग्रसित बालक । पूर्ण बहरापन से ग्रसित बालक विशेष प्रवर्धक के प्रयोग के बाद भी कुछ नहीं सुनते तथा दूसरों की भाषा नहीं समझ पाते हैं। जबकि आंशिक बहरेपन से ग्रसित बालक प्रवर्धक का प्रयोग करके दूसरों की बोली को समझ लेते हैं या यदि इनसे ऊँचे स्वर में बोला जाए तो भी ये सुन लेते हैं ।