बच्चों के जीवन सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में बचपन बहुलता
बच्चों के जीवन सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में बचपन बहुलता प्रस्तावना
भारतीय समाज का ताना-बाना विविधता युक्त है। यह भी द्रष्टव्य है कि ये विविधताएं कई बार आग्रह और पूर्वग्रह के कारण भेदभाव और सामाजिक पदानुक्रम का आधार बनती है। ऐसे परिवेश में बड़े होने का अनुभव केवल जैविक परिपक्वता तक सीमित नहीं रहता है बल्कि अनके रूपों में प्रकट होता है। 'बड़े होने का अनुभव' किस तरह प्रकट होगा? यह उस परिवेश पर निर्भर करता है जिसमें बच्चा बड़ा हो रहा होता है। भारत में एक ओर ग्रामीण परिवेश है जहां जातीय सीमाएं, पितृसत्ता, मानव के जैविक विकास से जुड़े धार्मिक और सामुदायिक संस्कार, संयुक्त परिवार, सामूहिकता कम या ज्यादा विद्यमान हैं तो दूसरी ओर नगरीय संस्कृति का प्रभाव है जहां पाश्चात्य आधुनिकता के प्रभाव में भारतीय समाज की परंपरागत पहचान जैसे- जाति की सीमाएं कमजोर हुयी हैं, संस्थागत समाजीकरण पर विश्वास बढ़ा है, समानता जैसे मूल्यों के प्रभाव में बालिकाओं की शिक्षा को लेकर जागरूकता आयी है। इसके साथ ही बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि उनके पहचान और विकास का संकेतक के रूप में स्थापित हुए हैं। तकनीकी और प्रौद्योगिकी का भी व्यापक प्रभाव है। यहां 'गेटेड कम्यूनिटी और माल कल्चर का प्रभाव भी देखा जा सकता है। विकास की भौतिक उपलब्धियों के आर्थिक संकतेकों के अतिरिक्त आदिवसी/मूलनिवासियों के भी समुदाय है जो अपनी संस्कृतिगत विश्वासों और परंपराओं के अनुसार बच्चों का लालन-पालन और समाजीकरण करते हैं। उनकी अपेक्षाएं और विकासात्मक संदर्भ बचपन की लोकप्रिय छवियों से भिन्न होते हैं। विद्यालय के अभाव, विद्यालय की लागत आदि सीमाओं को शिक्षा के अधिकार कानून के बाद विजित कर लिया गया है लेकिन परिवार की गरीबी और इस गरीबी को दर करने में आय अर्जक की भूमिका को निभाना ऐसा पक्ष है जिसे अभी भी दूर नहीं किया गया है। इसका प्रभाव नगरीय और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में है। बाल्यावस्था पर गरीबी का भी प्रभाव अवलोकित किया जा सकता है। बाल्यावस्था की एक लोकप्रिय छवि - 'अबोध बच्चा', अभिभावकों द्वारा पोषित, विद्यालय की उपस्थिति, चंचल भोला सुकुमार सक्रिय उत्साही आदि के साथ एक हाशिए का भी बचपन है -
वे बच्चे जिसके पास आवास, भोजन और वस्त्र की आधारभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए कोई पाल्य नहीं है।
वे बच्चे जो ऐसे पाल्य या व्यक्ति के साथ रहने को मजबूर जिसने उसे साथ रहने के लिए विवश किया है और उनके साथ रहने के कारण बच्चों के मानसिक, शारीरिक और यौनि शोषण की संभावना अधिक है।
जो शारीरिक या मानसिक या उक्त दोनों
दृष्टियों से विशिष्ट क्षमता से युक्त है और जिसकी नहीं की जा रही है।
जिसके अभिभावक तो हैं लेकिन जो स्वयं
अपनी और अपने पाल्य की देखभाल कर पाने में समर्थ नहीं है।
जो अनाथ हैं, या जो परिवार से बिछड़ गए हैं या जो
परिवार को छोड़ कर चले आए हैं और जिनके अभिभावकों का पता नहीं चल पाया है।
जो मानव तस्करी, देह व्यापार और मादक पादर्थों के सेवन
जैसे व्यसनों में लिप्त हैं। - जो सशस्त्र संघर्ष, प्राकृतिक आपदा के प्रभाव में हैं।
बच्चों की विविधता के उक्त संदर्भ को
शिक्षकों द्वारा संज्ञान में लिया जाना चाहिए। इन बच्चों के असामान्य बचपन की
विशिष्टता को औपाचारिक शिक्षण के द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए।
बचपन में बहुलता
'बचपन में बहुलता अपेक्षाकृत एक नया
सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य है जो परिवार अध्ययन, बाल्यवस्था
अध्ययन, मनोविज्ञान, नृशास्त्र जैसे अन्य सामाजिक विज्ञानों
के अध्ययन उपागमों में बदलाव को भी दर्शाता है। यदि बचपन से संबंधित अकादमिक बहसों
पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि एक विशिष्ट विकासात्मक अवस्था के रूप में
बचपन की पहचान 17 वीं और 18 वीं शताब्दी के आसपास की गयी। एरीज (1962) इस संबंध में तर्क देते हैं कि
बाल्यावस्था को एक विशिष्ट विकासात्मक अवस्था के वर्ग में रखने के लिए बच्चों की
वयस्कों से भिन्न गतिविधियों में संलग्नता को आधार बनाया गया। इस तर्क के सापेक्ष
कि बाल्यावस्था का उदय 17 वीं व 18वीं शताब्दी की परिस्थितियों पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि इस
दौरान घटित हो रहे पुनर्जागरण, औद्योगिक
क्रान्ति और उपनिवेशीकरण ने बालक और वयस्क के बीच अंतराल को पैदा करने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस दौरान ही आधुनिकता का जन्म हुआ जिसमें व्यक्ति के
लिए स्थान, मध्यम वर्ग का उदय, राज्य की कल्याणकारी अवधारणा और
नागरिकता बोधको स्थान मिला। इसी तरह स्वास्थ्य सेवाओं के प्रसार और उपलब्धता, शिशु मृत्यु दर पर नियंत्रण, संक्रामक रोगों पर नियंत्रण को भी
वैज्ञानिक प्रगति के संकेतों के रूप में पहचाना गया। इन परिवर्तनों ने ऐसी
परिस्थिति तैयार की जिसमें बच्चों की सुरक्षा और देखभाल और पोषण की जरूरतों को
पूरा इस अवस्था की विशिष्ट आवश्यकताओं के रूप में पहचाना गया। सामाजिक कुशलताओं, ज्ञान और संस्कृति के संचरण के लिए
संस्थागत समाजीकरण पर बल दिया गया और विद्यालय जैसी संस्थाओं का विकास प्रारंभ हुआ।
‘कल्याणकारी राज्य' की संकल्पना ने इस प्रक्रिया में राज्य
को भी भागीदार बना दिया। इन बदलावों के फलस्वरूप बाल्यावस्था की जैविक सीमा / आयु
सीमा को लंबा कर दिया। बच्चों की दुनिया को वयस्कों की दुनिया से भिन्न माना जाने
लगा जिसकी विशिष्टता खेल और विद्यालयी शिक्षा में संलग्नता को बताया गया। वयस्कों
की दुनिया से बच्चों की दुनिया को अलग करने में यह ध्यान रखा गया कि
यौनिकता/कामुकता (Sexuality)
से रहित हो। इस तरह से बाल्यावस्था की
जो छवि निर्मित हुयी उसे ‘एक मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा
पितृसत्तात्मक समाज में बाल्यावस्था' का
एकांगी रूप हावी था। इसमें बच्चे को आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से निर्भर, सुरक्षा और संरक्षण की आवश्यकता, भोला, सरल, प्राकृतिक स्वाभाव वाला जैसे विशेषणों
से परिभाषित किया जाता है। बाल्यावस्था, वयस्क
बनने के लिए तैयारी की अवस्था बन कर रह जाती है। इसी उद्देश्य से शिक्षा और
स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं को भी उपलब्ध कराया जाता है।
वर्तमान में इस स्वरूप की सार्वभौमिकता
को नकारा जा रहा है। बाल्यावस्था की विशेषतों के उक्त साधारणीकृत लक्षणों के बदले
बाल्यावस्था में बहुलता को पहचाना गया है। इस संदर्भ में बाल्यावस्था के
निम्नलिखित पहुलओं का पर बल दिया गया है-
बाल्यावस्था की कोई सार्वभौमिक
संकल्पना या परिभाषा नहीं है। इसे जैविक विकास की अवस्थाओं के वर्गों में रखना एक
सीमित अर्थ प्रदान करता है। वस्तुतः यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक निर्मिति है।
बच्चों की दुनिया वयस्कों की दुनिया से
गुणात्मक दृष्टि से भिन्न होती है। उनकी इस दुनिया को उनके अनुभवों और नज़रिए से
देखा जाना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि वे निष्क्रिय ग्रहणकर्ता (PassiveRecipient) नहीं है बल्कि सक्रिय अर्थ निर्माता
है।
बच्चों की कुछ विशेषताओं और विकासात्मक
संकेतकों के बारे में भविष्यकथन किया जा सकता है लेकिन बच्चों का विकास उनके
सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में स्थापित होता है। इस संदर्भ की मान्यताओं, विश्वासों, रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों के आधार
पर बाल्यावस्था की विशेषताओं को पहचाना जा सकता है।
बच्चों की सामाजिक स्थिति के सदंर्भ
में उनके जेण्डर की भूमिका को अवश्य संज्ञान में लेना चाहिए। प्रायः यह पाया गया
है कि बाल्यावस्था की लोकप्रिय छवि में एक लड़के के विकासात्मक संदर्भ को ही
संज्ञान में लिया जाता है।
बच्चों के विकास की चर्चा में बच्चों
के अधिकार को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। बाल्यावस्था में स्वास्थ्य और शिक्षा
के अधिकारों और सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
सामान्य बाल्यावस्था में संरक्षण और
देखभाल का समुचित प्रबंध होता है। इसके अलावा वे बच्चे जो संकटपूर्ण वातावरण जैसे-
आतंक प्रभावित क्षेत्र, आपदाग्रस्त क्षेत्र और भौतिक सुविधाओं
से वंचित क्षेत्र में रह रहे हैं उनके बाल्यावस्था पर भी विचार करना चाहिए ।
प्रतिकूलताओं में बचपन किस प्रकार प्रस्फुटित होता है? इस पर भी विचार करना चाहिए।
गरीबी, प्रवसन की चुनौतियों, घरेलू
हिंसा और सामाजिक उत्पातों के बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का
भी संज्ञान में लेना चाहिए।
यूरी ब्रानफेनब्रेनर का पारिस्थितिक मॉडल: बाल्यावस्था की बहुलता को समझने का सैद्धान्तिक उपकरण
बाल्यावस्था में बहुलता को समझने के लिए यूरी ब्रानफेनब्रेनर का पारिस्थितिक मॉडल हमारी मदद करता है। इसके अनुसार, एक बालक (या व्यक्ति विशेष) को अनेक तरह के सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारक प्रभावित करते हैं। इन सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारकों में सबसे पहले सूक्ष्मतंत्र (Micro System) आता हैं। सूक्ष्मतंत्र के अंतर्गत बालक के आसपास के करीबी लोग आते हैं जैसे परिवार, शिक्षक, भाई-बहन व परिवार के अन्य वयस्क आदि। ये सभी बालक को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं तथा बच्चे उन्हें प्रभावित करते हैं। अगले तंत्र में मध्यवर्ती तंत्र (Meso System) आता है, इसमें परिवार शिक्षक तथा अन्य इकाइयाँ आती हैं। ये इकाइयां आपस में अन्तः क्रिया करती हैं जिसका असर बालक पर पड़ता है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन इकाइयों की आपसी प्रक्रिया में बालक कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। बर्हितंत्र (Exo System के अंतर्गत वह सामाजिक कारक आते हैं, जिनका बालक पर अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ता है। जैसे- शिक्षक का विद्यालय के प्रशासन से संबंध, माता-पिता का व्यवस्था, उनकी आय, आदि। अंत में समष्टि तंत्र आता है। इसके अंतर्गत समाज के मूल्य, नियम, कायदे- कानून, रिवाज आदि को रखते हैं।
इस मॉडल को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि विभिन्न सांस्कृतिक संदर्भों में आयु के अतिरिक्त बच्चों को दी गयी सामाजिक भूमिका, उनके परिवार की सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक क्षेत्रीय पृष्ठभूमि, सामाजिक संबंधों का जाल, सांस्कृतिक विश्वास और मान्यताएं वृदस्तरीय कारण हैं जो बाल्यावस्था की बहुलता के लिए उत्तरदायी है। सूक्ष्म स्तर पर पाल्य के साथ बिताया जाने वाला समय, बातचीत और गतिविधियां, अभिभावकों की विद्यालय और पाल्यों से संबंधित अन्य एजेंसियों से संबंध, व्यक्तिगत प्रवृत्ति, जेण्डर आधारित श्रम विभाजन, जीवन-यापन की शैलियां, परिवार का संगठन, देखभाल और लालन-पालन की शैलियों आदि बाल्यावस्था के स्वरूप को तय करती है।