ज्ञान के विविध स्रोत; ज्ञान के प्रकार सक्रियता एवं असक्रियता
Various sources of knowledge; differences in Information, Data and Knowledge
ज्ञान के विविध स्रोत प्रस्तावना
यह सर्वविदित है कि मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्न है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य अपने ज्ञान को आगे बढाता है और अपने ज्ञान वृद्धि एवं शक्ति वृद्धि से अपने वातावरण में एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता है। ज्ञान के क्षेत्र में निरंतर प्रगति उसकी जिज्ञासा का प्रतिफल है। एक जिज्ञासु मानव की शक्ति असीमित है। अतः किसी भी समस्या के निदान के लिए उसकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियां एकाग्रचित होकर उसका समाधान खोजने लगती है। प्रयास सफल हो की नहीं यह आवयशक नहीं परन्तु उसकी जिज्ञासा की ज्योति प्रज्ज्वलित हो जाती है। ज्ञान स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है यह अध्याय ज्ञान एवं ज्ञान के विभिन्न स्रोतों की विवेचना पर आधारित है। ज्ञान की परिभाषा, ज्ञान, आंकड़े एवं सूचना के मध्य अंतर को इस अध्याय में सम्मिल्लित किया गया है। जहां भौतिक ज्ञान का आधार मन है वहीँ आध्यात्मिक ज्ञान का आधार आत्मा है। यह भी ज्ञात करना आवश्यक है कि किस प्रकार के मानव व्यवहार को ज्ञान की श्रेणी में लिया जा सकता है। प्रस्तुत अध्याय में ज्ञान अर्जित करने के पारंपरिक एवं आधुनिक साधन पर भी बल दिया गया है। किसी भी समस्या को हल करने के लिए चिंतन, मनन एवं परिश्रम की आवश्यकता होती है। परन्तु कभी कभी समस्या का हल प्रयास एवं भूल से भी हो जाता है।
ज्ञान के विविध स्रोत ( Sources of Knowledge)
यह सर्वविदित है की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ज्ञान प्रदान करना है। ज्ञान का सत्य से वही सम्बन्ध है जो सूरज का गर्मी से है। सत्य का अस्तित्व तभी मान्य है जब उसका ज्ञान हो। सत्य को ज्ञान से अलग नहीं किया जा सकता । इसीलिए तत्त्वमीमांसा के साथ ज्ञान मीमांसा जुडी होती है। ज्ञान और सत्य एक ही है। क्यूँकि यह व्यक्ति के मन में होता है । ज्ञान की उपयोगिता तभी है जब उसे दूसरों तक पहुंचाया जा सके। यही मत संतो एवं प्रवर्तको का भी है। शिक्षा द्वारा ज्ञान की उपयोगिता को सिद्ध किया जा सकता है। ज्ञान वह है जो हमारे जीवन पर लागू होता है, प्राचीन होने पर भी जिसका अस्तित्व विद्यमान है, जो वर्तमान में भी ताज़ा बना हुआ है। ज्ञानी नए एवं पुराने को जोड़ कर जीवन को जीना जानते है । प्राचीन ज्ञान के अनुसार नए और पुराने का समन्वय होना नितांत आवयशक है, जैसे एक वृक्ष का तना पुराना होता है पर उसकी भूमिका आवयशक होती है और उसकी शाखाएं नयी होती है, उसी प्रकार से व्यक्ति का जीवन भी अनुकूलनशील होना चाहिए । ऋगवेद का प्रथम श्लोक है, “अग्निपूर्वभिरऋषिभिरिधौ नूतानैरुतः " प्राचीन और नवीन दोनों एक साथ विद्यमान है और यही ज्ञान है कोई भी व्यक्ति दुखी या व्यथित नहीं रहना चाहता। जो हमें दुःख से दूर ले जाए, जो हमें दूरदर्शिता दिखाए जो हमारे जीवन को स्फूर्ति प्रदान करे, और जो हमारे व्यक्तिगत को सृष्टि से जोड़े, वही ज्ञान है। ज्ञान अत्यंत संतोष प्रदान करता है, और यह सबको उपलब्ध है। अतः ज्ञान वह है जो जीवन में उत्सव लाये, जो चेहरे पर मुस्कान लाये, और जो जीवन में दूरदर्शिता लाने का अंतर्बोध दे । ज्ञान सूक्ष्म है स्थूल, यह एक अति महत्वपूर्ण प्रश्न है। जहां शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के मन में जानकारी के रूप में ज्ञान को सूक्ष्म की श्रृखला में रखा जा सकता है वहीँ, पुस्तकों में वर्णित भाषा में लिखा ज्ञान स्थूल होता है। उदहारण के लिए जिस प्रकार जल में नमक घुल जाता है पर एक बड़ा ढेला स्थूल रूप में दिखाई देता है, उसी प्रकार विद्यार्थियों के लिए पुस्तक वही नमक का ढेला है जिससे उनके ज्ञान का वर्धन होता है।
ज्ञान की सक्रियता एवं असक्रियता
शिक्षा की दृष्टि
से ज्ञान की सक्रियता एवं असक्रियता को ज्ञात कर लेना अति आवयशक है। शिक्षक द्वारा
पाठ योजना का स्वरुप बनाना जिससे कि वह विद्यार्थियों को ज्ञान का अर्जन करवाने के
लिए उचित स्थितियों का निर्माण कर सके, सक्रिय ज्ञान की श्रेणी में आता है। शिक्षक का उद्देश्य
होता है कि विद्यार्थी उस ज्ञान का उपयोग कर सके। प्रयोग के माध्यम से ज्ञान
रुचिकर हो जाती है। अन्यथा ज्ञान यदि बोझ लगने लगे तो विद्यार्थी उससे लाभान्वित
नहीं हो पाता.
प्रत्यक्ष ज्ञान एवं अप्रत्यक्ष ज्ञान :
ज्ञान के दो पक्ष होते हैं: प्रत्यक्ष ज्ञान एवं
अप्रत्यक्ष ज्ञान। ऐसा ज्ञान जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होता है, जिसे व्यक्ति
अपने जीवन में स्वयं प्राप्त करता है, प्रत्यक्ष ज्ञान है। ऐसे ज्ञान को ताज़ा ज्ञान कहा जाता है
वहीं दूसरी ओर वह ज्ञान जो कथनों एवं पुस्तकों से प्राप्त किया जाता है, परोक्ष ज्ञान
होता है। परोक्ष ज्ञान को इसिलिये बासी ज्ञान भी कहा जाता है। वर्तमान यथार्वादी
दार्शनिक एवं वैज्ञानिक प्रत्यक्ष ज्ञान को मानते हैं। परन्तु शिक्षा के क्षेत्र
में दोनों पक्ष के ज्ञान की भूमिका है। भारतीय दर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रमा
एवं परोक्ष ज्ञान को अप्रमा कहा गया है। भारतीय दर्शन में आगे इस बात का भी वर्णन
है की ज्ञान एवं अज्ञान के भेद को किस प्रकार समझा जाए। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष
ज्ञान के अलग अलग लक्षण भी वर्णित किये गए हैं। इसके अतिरिक्त मीमांसा दर्शन में
भी दोनों प्रकार के ज्ञान की विवेचना की गयी है । इस से यह पुष्टि होती है की
शिक्षक शिक्षा के माध्यम से वह विद्यार्थियों को भ्रम से मुक्त करने का प्रयास
करता है। ऐसी शिक्षा जिससे विद्यार्थी को ज्ञान का स्वरुप समझाया जा सके।
क्या ज्ञान परिवर्तनिय है अथवा अपरिवर्तिनीय :
यह एक अति महत्वपूर्ण प्रश्न है की ज्ञान का
स्वरुप परिवर्तित होता है अथवा नहीं? ज्ञान के तत्व बदलते हैं अथवा नहीं? शिक्षक अपने
विद्यार्थियों को जिस ज्ञान के तथ्य, विचार, प्रत्यय, नियम एवं निष्कर्ष आदि ज्ञान के कथ्य को समझाता है, उनमे परिवर्तन , अथवा बदलाव होता
है अथवा नहीं ? यहाँ पर ध्यान
देने की बात यह है कि ज्ञान के कुछ तत्व तो बदल हैं पर वे इतने समय काल में होते
है कि उनका बदलाव अनुभव नहीं हो पाता। जीवन मूल्य लगभग वैसे ही रहते हैं, और ऐसे तथ्य नियम
अथवा प्रत्यय प्रायः नहीं बदलते और ज्ञान के ये तत्व शिक्षा के लिए अति
महत्त्वपूर्ण है । शिक्षा द्वारा इन जीवन मूल्यों के प्रति विद्यार्थियों में
आस्था पैदा की जाती है । परन्तु ऐसा नहीं है की ज्ञान के तत्वों में परिवर्तन नहीं
होता ज्ञान के कुछ तत्व परिवर्तन से प्रभावित होते हैं। जब ज्ञान में अभिवृधि होती
है तो ज्ञान में परिवर्तन निश्चित है पाठ्यक्रम में समय समय पर बदलाव आवयशक है
जिससे की परिवर्तित ज्ञान को शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों तक पहुँचाया जा
सके। तभी शिक्षा को प्रगतिशील कहा जा सकता है। सत्य के अन्वेषण से जो नए सिद्धांत
और नियम उजागर होते है वे ज्ञान के स्थूल रूप में परिवर्तन की अपेक्षा रखते हैं।
यह सत्य है कि शरीर की आँखें सब कुछ नहीं देख सकती परन्तु ज्ञान चक्षु सब कुछ देख
सकती है। शिक्षा हमारे ज्ञान चक्षु खोल देती है अतः कल्याणकारी सिद्ध हो सकती हैं | आज के वर्तमान
परिपेक्ष्य में, शिक्षा मात्र
सूचनात्मक तथ्यों को विद्यार्थियों तक पहुंचाने का कार्य करती है न कि ठोस ज्ञान
का, इससे इसका
खोखलापन प्रकट होता है ।
ज्ञान के प्रकार
ज्ञान के चार प्रकार होते हैं:
1. आगमनात्मक ज्ञान
2. प्रागुनभाव ज्ञान
3. विश्लेषण ज्ञान
4. एवं संश्लेषण
ज्ञान
1. अनुभवजन्य ज्ञान ( A posterior Knowledge ):
अनुभव एवं निरक्षण पर आधारित ज्ञान ही अनुभवजन्य ज्ञान है । इसके मुख्य
प्रवर्तक जॉन लोक थे। उनके अनुसार, विद्यार्थी मन जन्म में को होता है परन्तु अनुभव के साथ
उसके मन की पट्टी पर लेखन प्रारम्भ हो जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि अनुभव से
ज्ञान की वृद्धि होती है। इस प्रकार के ज्ञान में अलौकिक का स्थान नहीं है। समग्र
अनुभव से सीखने की प्रबलता बढती है। जॉन लोक के अनुसार, “हमारी बुद्धि एवं
हमारी ज्ञानेन्द्रियों में कुछ भी निहित नहीं होता है। जन्म के प्रत्यय के विचार
को लोक निरस्त करते हैं और प्रत्यक्षीकरण द्वारा ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान मानते
हैं।"
अनुभवजन्य ज्ञान की विशेषताएं :
i. हमें अपने दैनिक जीवन में जो ज्ञान प्राप्त होता है वह यथार्थ नहीं बल्कि वही ज्ञान का वास्तविक उदाहरण है
ii. इस ज्ञान के अनुसार अनुभव ही ज्ञान का मुख्य स्रोत है। अनुभव का अर्थ इन्द्रिय अनुभव से है।
iii. जन्म जात मन में कोई प्रत्यय नहीं होता बल्कि वह अनुभव के द्वारा होता है ।
iv. प्रारम्भ में मन निष्क्रिय रूप में संवेदनाओं को ले लेता है। मन की सक्रियता प्रारम्भ में नहीं होती है बल्कि अनुभव से होती है।
v. ज्ञान के मौलिक तत्व प्रत्यय है और उसकी पद्धति आध्यात्मिक है।
vi. भौतिक ज्ञान में
ही आदर्श ज्ञान निहित होता है । विज्ञान सार्वभौम ज्ञान देता है परन्तु उसमे
अनिवार्यता नहीं होती ।
2. प्रागनुभव ज्ञान ( A prior Knowledge) :
जब सिद्धांत को समझ लिया जाता है, तो सत्य की पहचान होती है। फिर, निरिक्षण, अनुभव एवं प्रयोग द्वारा उसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती । कांट इस विचार के प्रवर्तक थे । जहाँ आगमनात्मक ज्ञान अनुभव पर बल देता है, वहीँ प्रागनुभव ज्ञान अनुभव से स्वतंत्र होने की बात कहता है। उनके अनुसार, सामान्य सत्य स्पष्ट, निश्चित होता है। गणित का उदाहरण देते हुए इस ज्ञान को समझा जा सकता है। गणित का ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान है। कांट ने तर्क एवं अनुभव के परस्पर सहयोग से ज्ञान की प्राप्ति की बात करते। दोनों ही ज्ञान के स्रोत हैं और दोनों का समान महत्त्व है। किसी एक की आलोचना करना ठीक नहीं है।
कांट के अनुसार, ज्ञान की तीन विशेषताएं हैं: सार्वभौमिकता, आवश्यकता एवं नवीनता ।
कांट ने भौतिक
विज्ञान एवं गणित के ज्ञान का संस्लेषण किया एवं वास्तविक ज्ञान की संभावना का
उल्लेख किया बारह पक्षों को सम्मिलित किया जो इस प्रकार से है: अनेकता, एकता, समग्रता, भाव, अभाव, सेमित्ता, करंता, गुनार्थकता, अन्योंतता, संभावना, वास्तविकता, एवं अनिवार्यता ।
कांट द्वारा ज्ञान की पूरी व्याख्या की गयी है। इसका आरम्भ संवेदनाओं से होता हुआ
अंतर्दृष्टि जाकर समाप्त होता है। संवेदनाओं के द्वारा ही बाह्य संसार का बोध कर
के ज्ञान का अर्जन किया जाता है। कांट दो प्रकार के विश्व की चर्चा करते हैं:
परमार्थ सत्य एवं संवृत्ति सत्य । पहले वाले से बोध होता है एवं दुसरे से संवेदना
होती है। इन दोनों विचारों का एकाकीकरण कर के ज्ञान पर प्रकाश डालते। इन दोनों
विचारों में अनुभव और तर्क सम्मिलित हैं।
3. विश्लेषण (Analytic Method) :
किसी भी समस्या
में क्या है और क्या ज्ञात करना है, कैसे ज्ञात करना है, विश्लेषण की श्रृंखला में आता है। इन सभी घटकों को अलग अलग
पढने की विधि ही विश्लेषण है । इसे समस्या का हल खोजने की सर्वोत्तम विधि कहा जाता
है। ज्ञात से अज्ञात का पता किया जाता है। हल प्राप्त करने के लिए प्रश्नों में
दिए गए तथ्यों का विश्लेषण करके क्रम में रखा जाता है। ज्ञात से अज्ञात बढ़ने की
प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। दिए गए तथ्यों पर प्रकाश डाल उनकी सहायता से
परिणामों को प्राप्त किया जाता है, फिर दोनों के मध्य परस्पर समायोजन बैठाया जाता है। विश्लेषण
विधि के तीन मुख्य सोपान है - ज्ञात करना, हल एवं उत्पत्ति ।
इस विधि से तर्कसंगत चिंतन विकसित होने के साथ प्राप्त ज्ञान के स्थायी होने की सुनिश्चितता होती है। विद्याथी प्रारम्भ से अंत तक समस्त प्रक्रियाओं से गुज़रता है इस प्रकार वह विषयवस्तु को समझने में सक्षम हो जाता है। विद्यार्थी की रटने की अपेक्षा स्वयं की भागीदारी से तर्क करने की क्षमता प्रबल हो जाती है। भागीदारी से उसके अन्वेषण करने की शक्ति बढती है जो उसमे आत्मविश्वास प्रदान करता है । परन्तु यह विधि लम्बी होने के कारण अधिक समय लेती है। सामान्य बुद्धि वाले बच्चों के लिए यह इतनी सरल नहीं है अतः उनके लिए इसका कोई उपयोग नहीं है। परिशुद्धता प्राप्त करना कठिन हो जाता है। यह विधि वहाँ उपयोगी सिद्ध होती है जहां विषय वास्तु को छोटे छोटे हिस्सों में बांटकर विश्लेषण किया जा सकता है और फिर पुनः उसे संगठित कर ज्ञात से अज्ञात को संबोधि किया जा सकता है।
4. संस्लेषण विधि ( Synthesis Method) :
विश्लेषण के विपरीत विधि को संस्लेषण विधि कहते हैं। संस्लेषण से तात्पर्य है, अलग अलग वस्तुओं को एकत्र करने की प्रक्रिया समस्या के अलग अलग भागों को एकत्रित करते हुए ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ा जाता है। परिकल्पना करते कथनों से जोड़कर, निष्कर्ष को प्राप्त किया जाता है।
चूँकि यह विधि
लम्बी नहीं होती अतः इससे समय की बचत होती। गणित एवं विज्ञान जैसे विषयों के लिए
ये विधि अधिक उपयुक्त है। यह विधि अपेक्षाकृत अधिक सरल, संक्षिप्त एवं
सुचारू है।
परन्तु वहीँ
दूसरी ओरमी बनी रहती, यह विधि
विद्याथियों में रटने की ओर ले जाती हैं और उन्हें निष्क्रिय बनाती है
विद्यार्थियों के में में कई शंकाएं उत्पन्न होती है और उनके संतोषजनक उत्तर ने
मिल पाने की स्थिति में अन्दर आत्मविश्वास की कमी हो जाती है। इस विधि में तर्क की
कमी बनी रहती है, न ही सम्पूर्ण
समझ विकसित हो पाती है न ही विद्यार्थियों माँ आत्मविश्वास | अतः इस विधि को
अमनोवैज्ञानिक विधि भी कहा जाता है।
निष्कर्ष रूप में
यह कहा जा सकता है की विश्लेषण एवं संस्लेषण विधि एक दुसरे के प्रतियोगी नहीं पूरक
हैं। विश्लेषण के माध्यम से रचना को करने का कारण और पद के प्रयोग का चुनाव करके
और फिर संस्लेषण विधि से इस समस्या को क्रमबद्ध एवं सुसगठित ढंग से हल करना सबसे
उचित होगा
ज्ञान के स्रोत : (Sources of Knowledge)
ज्ञान के प्रमुख
स्रोत निम्न प्रकार से है-
i. इन्द्रिय अनुभव :
ज्ञानेन्द्रियाँ व्यक्ति को संसार की वस्तुओं के संपर्क में लाता है और व्यक्ति के
अन्दर संवेदना उत्पन्न करता है। यही संवेदना वास्तु का जज्ञान प्रदान करती है ।
वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण होने से ही संवेदनाओं को भली भाँतीसमझा जा सकता है। प्रत्याक्षी
करण चेतन मन में अवधारणा उत्पन्न करता है और हमारा ज्ञान इन अवधारणाओं पर ही
निर्भर करता है । अनुभववादी, तार्किक प्रत्यक्षवादी, यथार्थवादी, तथा विज्ञानवादी, इन्द्रिय अनुभव को ही मुख्य स्रोत मानते है । यह ध्यान देने
योग्य है कि इन इन्द्रिय अनुभव से प्राप्त ज्ञान की विश्वसनीयता का आकलन तो संभव
है किन्त इसकी वैद्यता ज्ञात करना कठिन कार्य है।
ii. साक्ष्य :
साक्ष्य दूसरों के प्राप्त अनुभव एवं निरिक्षण को आधार मानते हुए ज्ञान प्राप्त करना साक्ष्य कहलाता है । स्वयं करने की अपेक्षा, व्यक्ति दूसरों के निरिक्षण से ही तथ्य प्राप्त करके ज्ञान अर्जित करता है । औरों के अनुभव पर आधारित इस साक्ष्य का बहुत उपयोग होता है। व्यक्ति यदि किसी स्थान को नहीं देखा हुआ होता है परन्तु दुसरे के अनुभव और दिए गए वर्णन से उस स्थान के अस्तित्व पर विश्वास कर लेता है। अतः उसके ज्ञान में वृद्धि होती है। साक्षा के स्रोत से व्यक्ति कई ऐसे तथ्यों के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेता है।
iii. तर्कबुद्धि :
तर्क एक मानसिक प्रक्रिया है और हमारा अधिकाँश तर्क पर आधारित होता है। तर्क
द्वारा हम अनुभव से प्राप्त ज्ञान की संवेदनाओं को संगठित करके संपूर्ण ज्ञान का
निर्माण करते हैं। अतः यह कहा जा सकता है की तर्क अनुभव पर कार्य करता है और उसे
ज्ञान में परिवर्तित करता है।
iv. अंतः प्रज्ञा :
किसी तथ्य को अपने मन में पा जाना अंतः प्रज्ञा है। इस ज्ञान पर हमारा पूर्ण विश्वास होता है। इसको किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। न ही हमें इसकी निश्चितता या वैता पर कोई होता है। अंतः दृष्टि ज्ञान प्राप्त करने का ऐसा साधन है जिसका उल्लेख दार्शनिको द्वारा किया गया है अंतः दृष्टि प्रतिभाशाली लोगों को अकस्मात् ही अनुभव हो जाता है। जैसे उदाहरण के लिए, महात्मा बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे बैठ कर ज्ञान प्राप्त हुआ। एक बिजली की कौंध की तरह ऐसा ज्ञान मस्तिष्क में अचानक ही उदय हो जाता है। एक अन्य उदाहरण में जब मूसा को दस महत्वपूर्ण ईश्वरीय सूत्र एक पर्वत पर बैठ कर प्राप्त हुए वह भी एक अंतः दृष्टि ही कही जायेगी । इस्लाम के साहित्य में इसे 'इल्हाम ' कहा जाता है। इसकी चर्चा भारतीय दर्शन में भी की गयी है। अन्तः दृष्टि पर नए तरह का प्रकाश मनोविज्ञानों की खोजों से डाला गया। जर्मनी के मनोवैज्ञानिक कोह्नेर ने ये अन्वेषण किया कि पशु भी किसी समस्या से जूझते हुए अकस्मात् उसका हल निकाल ही लेते हैं। पर यह भी तभी संभव है जब वह समस्या की सम्पूर्णता की जानकारी पा जाता है। ऐसा ही निष्कर्ष बालकों पर भी प्रयोग करके के ज्ञात हुआ । अतः अन्तः द्रिष्टि के साधन की व्याख्या की जा सकती है। इसका उत्तम लाभ शिक्षा के क्षेत्र में उपयोग करके भी मिल जाता है। अन्ता दृष्टि गंभीर चिंतन का ही परिणाम है। समस्याओं से संघर्ष करके , कई असफलता के बाद अन्तः द्रिष्टि प्राप्त होती है। महान दार्शनिकों एवं विद्वानों का यही मत है। विद्याथियों के सृजनात्मकता के विकास में सहायक होने के साथ ही पाठ्य की योजनाओं के बनाने में भी “इकाइ ज्ञान” का प्रयोग किया जाता है। ऐसा करने से विद्यार्थियों को विषय की सम्पूर्णता अबोध हो जाता है। शिक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो यह वैज्ञानिक व्याख्या अति महत्त्वपूर्ण है।
V. सत्ता आधिकारिक ज्ञान :
यह सर्व विदित है कि मानव समाज में व्यक्तिगत भिन्नताएं हैं। कुछ की प्रतिभा बिरले ही होती है और ये प्रतिभाशाली मानव ही ज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान देते हैं । इनके द्वारा दिया गया ज्ञान प्रतिभा ज्ञान कहलाता है। सामान्य व्यक्तियों को इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार एवं सिद्धांतों को मान लेना चाहिए। शिक्षा में संचालित समस्त पाठ्यक्रम इन विद्वानों जीवन के अनुभवों को मथकर निकाले गए माखन से परिपूर्ण होता है । शिक्षा क्रम को बनाये रखने के लिए इन पर विश्वास करना महत्वपूर्ण हो जाता है। ज्ञान स्रोत की भारी कमी यह है कि यदि इन विचारों से इतना अधिक प्रभावित हो गए तो यह स्वयं की चिंतन की शक्ति को समाप्त कर सकती है। अतः अन्धविश्वासी न बनके अपने स्वयं के चिंतन को बनाये रखने की भी उतनी ही आवश्यकता है नहीं तो ज्ञान का विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा।