भारत में जनजातीय जीवन सामाजिक संरचना स्तरीकरण
भारत की सामाजिक रचना प्रस्तावना (Introduction)
भारत की सामाजिक रचना के तीन प्रमुख अंग हैं-जनजातीय आवास, ग्राम और कस्बे व शहर
जनजाति और गाँव,
और
कस्बे के बीच सुस्पष्ट अन्तर आसानी से नहीं किया जा सकता क्योंकि इन सबमें
कुछ-न-कुछ समान लक्षण पाए जाते हैं। देश के कुछ भागों में बड़े आदिवासी गाँव हैं
और ये गैर- जनजातीय, बहुजातीय गाँवों से बहुत भिन्न नहीं हैं। कुछ जनजातियों में नातेदारी
सम्पत्ति और सत्ता पर आधारित विभेद उतने ही स्पष्ट हैं जितने गैर जनजातीय संगठन का
अंग नहीं है परन्तु वे हमेशा वृहद समाज के सम्पर्क में रही हैं। जनजातीय क्षेत्रों
में रहने वाले गैर आदिवासियों ने उनका आर्थिक और सामाजिक शोषण किया है। अनेक
जनजातियों ने इस शोषण के विरुद्ध विद्रोह किए हैं।
ग्राम और नगर की कुछ समान विशेषताएँ हैं। दोनों ही एक-दूसरे पर
आश्रित हैं, विशेषकर अर्थव्यवस्था के
क्षेत्र में। गाँव से लोग नगरों में प्रवसन करते हैं और नगरीय लोग उनके शारीरिक
श्रम और खाद्यान्न, दूध तथा कच्चे माल आदि के उत्पादन पर निर्भर हैं। दोनों में इन
समानताओं के होते हुए भी उनकी कुछ विशिष्टताएँ हैं, जिनके कारण वे सांस्कृतिक
प्रतिमानों, जीवन प्रणाली, अर्थव्यवस्था, रोजगार और सामाजिक
सम्बन्धों के सन्दर्भ में एक-दूसरे से भिन्न है। इस अध्याय में हमने ग्रामीण व
नगरीय सामाजिक संरचना, उनके पारस्परिक सम्बन्ध, ग्रामीण समुदाय में परिवर्तनों और नगरीकरण की व्याख्या
की है।
भारत में जनजातीय जीवन (Tribal Life in India)
भारत के संविधान की धारा 46 में लिखा गया है कि राज्य सरकार के कमजोर तबकों विशेषकर
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को विशेष
सुविधा देगा और उनकी प्रत्येक प्रकार के सामाजिक अन्याय और शोषण से रक्षा करेगा।
फिर भी ऐसी जनजातियाँ हैं जो अनुसूचित नहीं हैं लेकिन भारत की जनसंख्या में कमजोर
मानी जाती हैं। जनजातियाँ शिक्षा और आर्थिक क्षेत्रों में विशेष रूप से दुर्बल
हैं। भारतीय समाज के प्रभु वर्ग मुख्यतः हिन्दू जमींदारों और साहूकारों ने उनका
शोषण किया है। उद्योगपतियों ने आदिवासी क्षेत्रों में कारखाने स्थापित करने के लिए
उनकी जमीनें खरीद लीं। बाजार में बेचने के लिए आदिवासी द्वारा लाई गई वन उपज बहुत
सस्ते दामों में खरीद ली जाती हैं।
अनेक आदिवासियों ने शोषण से मुक्ति पाने और अपनी प्रस्थिति तथा
सम्मान को ऊंचा उठाने के लिए अपनी जनजातीय पहचान समाप्त कर दी एवं हिन्दू, ईसाई या इस्लाम धर्म अपना
लिया। कभी-कभी जनजातीय समूह और जातीय समूह में स्पष्ट अन्तर कर पाना भी कठिन हो
जाता है। जनजातियों में एक ओर तो शिकारी और खाद्य संग्राहक हैं और दूसरी ओर ऐसे
आदिवासी हैं जो गाँव में बसे हुए हैं और व्यापारिक दृष्टि से जातीय समूहों की तरह
कार्य करते हैं।
आदिवासियों में अपनी पृथकता का बहुत आभास है और वे अपने आपको
गैर-आदिवासी जातियों, मुसलमानों और ईसाइयों से अलग मानते हैं। भाषा उनकी पहचान का एक बहुत
बड़ा आधार है। अन्य लक्षणों के अलावा बोलचाल की भाषाओं के आधार पर मुण्डा, संथाल और हो जनजातियों की
विशिष्ट पहचान की जाती है। बहुत सी जनजातियाँ ऐसे पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में
रहती हैं जहाँ जनसंख्या छितरी हुई हैं और संचार कठिन है। आदिवासी पूरे उपमहाद्वीप
में फैले हैं,
परन्तु
पश्चिम बंगाल,
बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात मुख्य आधार है। और
महाराष्ट्र में इनका
जनजातीय समाज की परिभाषा
मैंडेलबॉम के अनुसार सम्पूर्ण समाज में जनजातीय जीवन की कड़ियाँ
बंधुता पर आधारित हैं। बंधुता सिर्फ सामाजिक संगठन का ही सिद्धान्त नहीं है बल्कि
यह उत्तराधिकार श्रम विभाजन, सत्ता और विशेषाधिकारों के वितरण का सिद्धान्त भी है। जनजातीय समाज
आकार में छोटे होते हैं। अपने सामाजिक संबंधों के अनुरूप जनजातीय लोगों को अपनी
नैतिकता, धर्म और विश्वदृष्टि होती
है। संथाल, गौंड और भील आदि कुछ
जनजातियों की जनसंख्या बहुत है। शालीन्स के अनुसार " जनजातीय समाज" शब्द
खण्डीय व्यवस्था तक सीमित है। खण्डीय व्यवस्थाओं में संबंध लघु स्तर पर होते हैं, उनमें स्वायत्तता है और
कतिपय विशिष्ट क्षेत्रों में ये समाज एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं। यह बात हम बिहार
की संथाल, उराँव और मुण्डा तथा राजस्थान
की भील, मीना और गरासिया जनजातियों
के बारे में कह सकते हैं। जातियों की प्रकृति सावयवी है क्योंकि प्रत्येक जाति
जजमानी व्यवस्था, खान-पान और विवाह संबंधों के संदर्भ में सावयवी सम्पूर्णता का एक अंग
है। सावयवी संबंधों के सिद्धांत द्वारा सामाजिक जीवन में विभिन्न जातियों की
एक-दूसरे पर अन्तर्निर्भरता को समझा जा सकता है। जाति समूह विशिष्ट प्रदत्त
कसौटियों के आधार पर संस्तरणीय रूप में व्यवस्थित हैं।
भारत में जनजातियों को समझने के लिए 'जन', 'कृषक' और 'नगर' या 'जनजातीय', 'जन' और 'अभिजात' के बीच विभेदों का विश्लेषण
खास लाभदायक नहीं है। भौगोलिक बाधा और संचार की समस्या, तुलनात्मक सांस्कृतिक
स्वायत्तता और आर्थिक आत्मनिर्भरता के बावजूद बिहार की जनजातियों में पारस्परिक
अन्तःक्रिया और सहयोग होते रहे हैं क्योंकि उनका विचार है कि उनके परम्परागत भूमि
सम्बन्ध, आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा
सांस्कृतिक स्वायत्तता को समान बाह्य खतरा है, हिन्दू जमींदारों, बंगाली साहूकारों और ब्रिटिश प्रशासन ने इन आदिवासियों
का जानलेवा और पूर्ण अमानवीय शोषण किया। अन्तर्जनजातीय पृथकता और सांस्कृतिक
अनन्यता कभी भी नहीं थी। बिहार की जनजातियों ने अपने शोषकों के विरुद्ध जनता को
जगाया। उन्होंने प्रशासन, नगर, अभिजात और बाहरी लोगों के साथ सम्पर्क स्थापित किया। झारखण्ड क्षेत्र
जिसमें बिहार,
बंगाल, मध्यप्रदेश और उड़ीसा की
बहुत सी उपसंस्कृतियाँ हैं। मुण्डा, उदाँव, हो और संथाल इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं जो वन सम्पदा, स्थिर कृषि, उद्योगों और कोयला खानों
में रोजगार और सरकारी नौकरियों पर निर्भर हैं। कुछ आदिवासी शहरों में बस गए हैं, अन्य गाँवों में रहते हैं, और गाँवों में रहने वालों
में कुछ की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी है, इस प्रकार जनजातीय संस्कृति में कुछ अंश तक कृषक
संस्कृति के तत्व विद्यमान हैं।
जनजातीय अनन्यता समाप्त न हुई एकात्मकता, जनजातीय चेतना तथा दूसरी
और कस्बों, शहरों और प्रशासन पर
निर्भरता तथा अपने शोषकों के विरुद्ध संघटन जनजातीय समाज में सदैव विद्यमान रहे
हैं। जनजातीय आदिमता के पुनर्जीवित करने का प्रयास भी बाह्य हस्तक्षेप और नियमों
और नियमनों के थोपने के विरोध में अभिव्यक्त किया गया है। बिहार के आदिवासी
मुख्यतः कृषक हैं और इसलिए उनकी आर्थिक समस्याओं को समझने का आधार उनकी कृषकता
होनी चाहिए।
कृषक समाजों के बारे में थेयोडोर शानिन द्वारा उल्लिखित विशेषताएँ बिहार की जनजातियों पर ठीक तरह से लागू होती हैं। ये विशेषताएँ हैं-
( 1 ) कृषक परिवार की बहुआयामी सामाजिक व्यवस्था की आधारभूत इकाई खेत है,
(2) भूमि पालन जीवनयापन का मुख्य साधन है क्योंकि इसके द्वारा अधिकांश उपभोग की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है,
(3) विशिष्ट परम्परात्मक संस्कृति लघु समुदायों की जीवन प्रणाली से जुड़ी हुई है,
(4) कृषकों की स्थिति शोषितों
के समान होती है जिन पर बाहरी लोगों का प्रभुत्व होता है। एस.सी. रॉय ने बिहार की
जनजातियों को " कृषकों" की संज्ञा दी है। 300 वर्षों तक जनजातियों ने
सामंतवाद के विरुद्ध संघर्ष किया है। आज उनकी समस्याएँ झारखण्ड क्षेत्र में
औद्योगिक नगरीकरण के कारण भी बनी हुई हैं।
जनजातीय सामाजिक संरचना
मैंडेलबॉम ने भारतीय जनजातियों को निम्न विशेषताएँ बतलाई हैं- (1) बंधुता सामाजिक बंधनों का
एक साधन (2) व्यक्तियों और समूहों के
बीच सोपान का अभाव, (3) दृढ़ और जटिल औपचारिक संगठनों का अभाव, (4) भूमिधारिता का सामुदायिक
आधार, (5) खण्डीय स्वरूप, (6) अतिरिक्त पूँजी के संग्रह
और उपयोग, और बाजार आधारित व्यापार
का कम महत्व,
(7) धर्म के स्वरूप और सार में विभेद का अभाव और (8) जीवन आनन्द प्राप्त . करने
की विशिष्ट मनोदशा ।
इन विशेषताओं के आधार पर जनजातियों को अन्य सामाजिक श्रेणियों
से अलग किया गया है। 1930 के दशक में ब्रिटिश प्रशासन ने जनजातियों की विस्तृत जनगणना की।
जनजातियों को उनके धार्मिक और परिस्थितीय आधा पर जातियों से विभेदित किया गया है।
फिर भी जनजातियाँ कृषक भी हैं क्योंकि उनमें से बहुत से लोग
गाँवों में रहते हैं और कृषि व अन्य संबद्ध व्यवसायो में संलग्न हैं। ये विभिन्न
जातियों और समुदायों की तरह ही दिखाई देते हैं। आज 427 जनजातियाँ हैं जिनकी
जनसंख्या 3 करोड़ से अधिक हैं। वे
सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 7 प्रतिशत हैं, जनजातियों में निवास, परिस्थिति, आर्थिक कार्य, भाषा, धर्म और बाह्य संसार के साथ सम्पर्क के आधार पर बहुत सी विभिन्नताएँ
पाई जाती हैं। प्रत्येक जनजाति आंतरिक तौर पर स्तरित है, सम्भव है कि किसी जनजाति
के सदस्यों को स्वयं के अस्तित्व सम्बन्धी हालातों का स्पष्ट आभास न हो या उनको इस
सम्बन्ध में एक विकृत या अवास्तविक चेतना हो ।
संख्या को बाहुलता के आधार पर भारत की प्रमुख जनजातियाँ हैं-
मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, और आंध्र प्रदेश के गौंड, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के भील, बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के
संथाल गौंड और भील, प्रत्येक की जनसंख्या 40 लाख से अधिक है। संथालों की जनसंख्या 30 लाख से अधिक है। ऐतिहासिक, नृजातीय और सामाजिक, सांस्कृतिक संबंधों के
आधारों पर रॉय बर्मन ने जनजातीय समुदायों को पांच क्षेत्रीय समूहों में विभाजित
किया है।
ये समूह निम्न हैं-
1. उत्तर-पूर्व भारत जिसमें असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा
सम्मिलित हैं।
2.
उत्तर
और उत्तर-पश्चिम भारत का उप- हिमालय क्षेत्र जिसमें उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिले
और हिमाचल प्रदेश सम्मिलित हैं।
3. केन्द्रीय और पूर्वी भारत जिसमें पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश
शामिल किए गए हैं।
4. दक्षिण भारत जिसमें तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक आते हैं।
5. पश्चिमी भारत जिसमें राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र को
शामिल किया जाता है।
प्रजातीय लक्षणों, भाषा, सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक प्रतिमान आदि के संदर्भ में भारत की
जनजातियाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। आदिवासियों में आदि ऑस्ट्रेलियाई प्रमुख
प्रजातीय कोटि है। उप हिमालय पट्टी में मंगोल प्रजाति की प्रधानता है।
भूमध्यसागरीय प्रजाति और नीग्रीटो अन्य क्षेत्रों में रहते हैं। जनजातियों की
भाषाएं सभी प्रकार से आस्ट्रिक, द्रविडियन और तिब्बती चीनी से सम्बन्धित हैं। भूमिज और भील जैसी कुछ
जनजातियों का हिन्दुओं में सात्म हो गया है। कुछ जनजातियाँ ईसाई धर्म की ओर
प्रभावित हुई हैं। जनजातियों के मुख्य धंधे निम्न हैं- (1) वानिकी और खाद्य सामग्री
संचयन, (2) झूम कृषि, (3) स्थायी कृषि (4) खेत मजदूरी (5) पशु पालन, (6) घरेलू उद्योग धंधे ।
भारत की जनजातियों में सामाजिक स्तरीकरण
एन. के. बोस की तरह आंद्रे बेत्तेई ने भी जनजातियों के वर्गीकरण
के मुख्य आधार,
भाषा, धर्म और पृथकता को बतलाया
है। परन्तु बेत्तेई ने जीवनयापन के तरीके को भी वर्गीकरण का आधार माना है। बोस ने
जनजातीय लोगों को तीन मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया है- ( 1 ) शिकारी, मछुआरे और संग्रहक, (2) झूम कृषक, और (3) स्थाई कृषक जो हल और हल
खींचने वाले पशुओं को काम में लेते हैं। तीसरी श्रेणी में संथाल, गौंड, भील, उराँव और मुण्डा आदि
जनजातियों के लोग हैं। इन जनजातियों के कृषक और गैर जनजातियों के कृषकों में
भिन्नता नहीं है। इन जनजातियों को कृषकों, कृषि मजदूरों और श्रमिकों में भी वर्गीकृत किया जाता है।
दक्षिण बिहार,
बंगाल, उड़ीसा और मध्यप्रदेश में
आदिवासी कारखानों में कार्य करते हैं। एस. सी. रॉय ने उराँव और मुण्डा
ग्रामवासियों को कृषक कहा है। फ्यूरर हैमेनडोर्फ ने अदिलाबाद के राजगौंड
आदिवासियों की संस्कृति को कृषक संस्कृति की संज्ञा दी है। एफ. जी. बैली ने भी
उड़ीसा के खौंड आदिवासियों को कृषक कहा है।
अनेक मानवशास्त्रियों ने एक विशिष्ट जनजाति के सदस्यों में
सामाजिक स्तरीकरण देखा है। काश्तकारी की अवधि के व्यावसायिक विभेदीकरण के सन्दर्भ
में एस.सी. रॉय ने एक उराँव गाँव में कई समूहों का उल्लेख किया है। राय ने कृषक
मालिक व रैयतों की विभिन्न श्रेणियों का उल्लेख किया है। इसी आदिवासी समूह में
महाली, घासी, और लोहरा आदि अनेक अंत:
वैवाहिक समूह पाये जाते हैं। मुण्डा भी स्थायी तौर पर कृषि करते हैं और उनके
परिवार में श्रम विभाजन भी पाया जाता है। मुण्डाओं में खूँटकट्टी- भू-धारण पद्धति
पाई जाती थी। खूँटकट्टी पद्धति के अन्तर्गत: (1) खूँटकट्टीदार, (2) प्रजा या रैयत, और (3) सहायक जातियाँ (सेवाकारी
समूह) पाए जाते थे। वैयक्तिक भू-स्वामित्व के लागू होने और ब्रिटिश राज
के प्रादुर्भाव से साहूकारों और जमींदारों का जनजातीय जीवन में हस्तक्षेप बढ़ा।
इसी कारण खूँटकट्टी पद्धति का महत्त्व समाप्त हो गया। धुर्वे ने आदिवासी लोगों को
पिछड़े हिन्दू की संज्ञा दी है।
जनजाति और जाति
मैंडेलबॉम के अनुसार जनजाति धीरे-धीरे जाति की ओर बढ़ रही है।
मैंडेलबॉम के कथनानुसार: “सब जनजातियों और तमाम जातियों के लोगों के बीच कोई निर्वाध
सांस्कृतिक या सामाजिक अन्तर नहीं है परन्तु जनजातीय और जातीय लक्षणों के बीच
अन्तर की एक श्रृंखला है।" सांस्कृतिक पवित्रता और अपवित्रता, स्थानीय आत्माओं की पूजा
और बंधुता व्यवहारों की प्रकृति के सन्दर्भ में जनजातियों और जातियों में कुछ
सामान्य सांस्कृतिक लक्षण पाए जाते हैं। जनजाति और जाति के बीच अन्तर के मोटे रूप
में पांच पहलू हैं- (1) सामाजिक, (2) राजनैतिक, (3) आर्थिक (4) धार्मिक, और (5) मनोवैज्ञानिक इन पहलुओं में विभेदों के उपरान्त भी आदिवासियों का
जाति मूल्यों की ओर खिसकाव है। जीवन प्रणालियों, प्रथाओं, भोजन प्रतिमानों, धार्मिक संस्कारों, सोपान, गुट व झगड़े, संस्कृति, धर्म और जीवन-दृष्टिकोण
आदि के क्षेत्रों में यह खिसकाव अवलोकित हुआ है। इन क्षेत्रों में जनजातियों ने
जाति समूहों का अनुसरण किया है।
इतिहासकार डी.डी. कोसाम्बी के अनुसार ईसा पूर्व 6वीं सदी में गंगा के मैदान
में जनजातियों पर कौशल और मगध राज्यों ने विजय प्राप्त कर उनके क्षेत्रों को स्वयं
के क्षेत्रों में आत्मसात कर लिया था। प्राचीन काल से ब्रिटिश राज तक जनजातियों ने
गैर जनजातियों पर लगातार आक्रमण किया। जनजातीय समूहों की व्यवस्था में आत्मसात को
ब्रिटिश राज ने ठीक नहीं समझा। उन्होंने जनजाति और जाति के इस मिश्रण के परिणाम को
राज के लिए एक गम्भीर खतरा महसूस किया । जनजातियों और जातियों के एकीकरण को रोकने
की यह एक राजनैतिक चाल थी। सर हरबर्ट एच. रिजले के अवलोकन के अनुसार 1873 से ही जनजातियाँ जातियों
में परिवर्तित हो रही थीं। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को संस्कृतीकरण या हिन्दूकरण
कहा जा सकता है।
जनजातीय समस्याएँ
कु. सुरेश सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक ट्राइबल सिचुएशन इन
इंडिया में अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न जनजातियों के बारे में सामाजिक और
सांस्कृतिक, संचार नीति, राजनीति और प्रशासन कृषि
समस्याओं और आर्थिक विकास, आन्दोलन और नेतृत्व तथा एकीकरण की समस्याओं का विस्तृत वर्णन किया
गया है। बी. के. राय वर्मन के सर्वेक्षण से प्रतीत होता है कि जनजातियाँ सबसे अधिक
पिछड़ी हुई हैं। उनमें साक्षरता की गति धीमी है और उनकी अर्थव्यवस्था आदिम है। कम
से कम 185 तालुकाओं में उनकी जनसंख्या
कुल जनसंख्या के 50 प्रतिशत से अधिक है। जनजातीय स्थिति भारत के सब भागों में समान नहीं
है। उत्तर-पूर्व भारत में कई वर्षों से हालत बिगड़ी हुई है और मध्यभारत में गरीबी, बेरोजगारी, ऋणग्रस्तता, पिछड़ापन और अज्ञानता आदि
की समस्या तीक्ष्ण बनी हुई है। उत्तर-पूर्व भारत के आदिवासियों में राजनीतिकरण, शिक्षा और जीवन का स्तर
अन्य भागों की जनजातियों की तुलना में बेहतर है।
भारत की जनजातियों में परिवर्तन की प्रक्रिया
नृजातीय और सांस्कृतिक एकात्मकता को बनाए रखने और डिक्कुओं
(बाहरी लोगों) द्वारा शोषण के विरुद्ध स्वयं को हिन्दू समूहों के रूप में बचाने के
लिए जनजातियाँ सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से जागरूक हो रही हैं। वे अपनी राजनैतिक
एकता पर बल दे रही हैं। इसके कारण जनजातियों में एक नए प्रकार का पारिस्थितिक
सांस्कृतिक विलगन आ सकता है। इस प्रकार का कदम जनजातियों ने अपने आर्थिक पिछड़ेपन
और विफलीकरण की भावना के कारण उठाया है।
जनजातियों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में एकीकृत करने के लिए
उन्होंने बहुत अधिक आर्थिक अवसर प्रदान करने होंगे ।। जनजातियों को गैर- जनजातियों
के साथ एकीकरण के आत्मसातवादी मॉडल के अनुसार जनजातियों की गैर जनजातियों के साथ
संरचनात्मक कड़ियों का होना आवश्यक है। भारतीय समाज में तीव्र सामाजिक परिवर्तनों
के कारण आज विलगाववाद मॉडल खास उपयुक्त नहीं है। भारत में वृहद् परिवर्तनों के
होने के उपरान्त भी जनजातीय चेतना जनजातियों को भारतीय समाज के एक विशिष्ट प्रभाव
के रूप में दृढ़ करने के लिए उभरकर आई है। उदाहरण के लिए बिहार की जनजातीय प्रखण्ड
में औद्योगीकरण द्वारा उस क्षेत्र में गैर-जातियों के साथ एकीकरण बढ़ा है और
जनजातीय चेतना को भी बढ़ावा मिला है। आदिवासियों द्वारा स्वायत्तता की यह माँग उन
सांस्कृतिक स्वायत्तता के खोने के भय और उत्पन्न कुण्ठाओं के कारण उत्पन्न हुई है।
निहार रंजन रे के अनुसार जनजातियाँ, अपराधी जनजातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ और
अनुसूचित जातियाँ भ्रमकारी शब्द हैं। ये शब्द बुद्धिमत्तापूर्वक निर्मित नहीं किए
गए हैं। रे लिखते हैं: इनसे इन समुदायों के प्रति हमारी मनोवृत्ति निर्धारित हो गई
है और उनकी समस्याओं के प्रति हमारा उपागम भी निर्धारित हो चुका है। उनकी समस्याएँ
जितनी उनकी हैं,
उतनी
ही शेष भारतीय जनता की भी हैं।
भारतीय राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण से निम्न अवलोकन प्रस्तुत किए हैं-
1. जनजातियां जन या जनता हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे
भारत के अन्य भूभागों और सांस्कृतिक क्षेत्रों लोग हैं। आदिवासीय जन गैर-आदिवासी
समुदायों, जिनमें जाति आधारित
सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था वाले
हिन्दू समुदाय भी सम्मिलित हैं, से भिन्न हैं। रे के कथनानुसार जाति जाति नहीं है और न ही एक
सामाजिक- धार्मिक व्यवस्था ही है। यह एक आर्थिक व्यवस्था भी है जो जन्म के आधार पर
वंशानुगत और सोपानीय ढंग से आयोजित है।
2. समावेशन और एकीकरण में स्पष्ट अन्तर है। जाति व्यवस्था
में जनजातियों का समावेश किया गया है। न कि एकीकरण । उनको इस व्यवस्था के विभिन्न स्तरों, विशेषकर निम्न स्तरों पर
शामिल किया गया है। यह प्रक्रिया भी धीमी रही है और इसकी महत्ता भी जाति में
ढीलापन आने से निरर्थक हो गई है। अतः जनजातियों को नई तकनीकी अर्थव्यवस्था, एक नई उत्पादन व्यवस्था
में शामिल करने की आवश्यकता है।
3. शीघ्र परिवर्तनशील आधुनिक जीवन, नई कानूनी व्यवस्था और
प्रशासन व नई आर्थिक व्यवस्था के कारण आदिवासियों में उत्पन्न दबावों और तनावों को समझने की आवश्यकता
है।
4. आर्थिक तथा अन्य कठिनाइयों के कारण आदिवासी अपने जन्म
स्थानों से अन्य स्थानों पर प्रवसन कर गए हैं। उनमें से कुछ सेना में भर्ती भी हुए हैं।
5. अनुसूचित जनजातियाँ, निर्दिष्टत जनजातियाँ और अनुसूचित जातियाँ जैसे नामों
में विभाजन के बीज अन्तर्निहित हैं।
6. जनजातियाँ आज की पहचान की खोज में है। नई समाज व्यवस्था
के साथ लगाव और आत्म निर्धारण की भावना की उन्हें तलाश है। पूर्वोत्तर क्षेत्र में
नए राज्य निर्मित हुए हैं। बिहार में आदिवासियों के झारखण्ड और अन्य पड़ौसी
राज्यों में पास के जिलों में पृथक राज्य की स्थापना की माँग, उनकी पहचान का परिचायक है।
रे लिखते हैं-" समकालीन सन्दर्भ में आदिवासियों के विलयन
के लिए पारस्परिक हिन्दू पद्धति का कोई भी विचार, मेरे दिमाग से मात्र
पागलपन है। वर्तमान सन्दर्भ में यह मात्र काल दोष है। " परन्तु यह भी सही है
कि अनेक आदिवासियों ने हिन्दू, ईसाई या इस्लाम धर्मों को अपना लिया है। परिवर्तन और गतिशीलता की इन
प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप आदिवासियों और अन्य समुदायों में अन्तर घटा है ।
परन्तु यह भी सही है कि जो आदिवासी परिवर्तित नहीं हुए हैं और जिन्होंने अन्य
धर्मों को नहीं अपनाया है, उनके बीच गुटबाजी और झगड़े बढ़े हैं। बिहार में उन आदिवासियों, जिन्होंने ईसाई धर्म
अपनाया है, और गैर-आदिवासियों के बीच
स्पष्ट विभाजक रेखा है।