लिपि का विकास और विभिन्न भाषाओं की लिपि
लिपि का अर्थ परिभाषा एवं विकास (लिपि क्या होती है ?)
क्या आप जानते है कि लिखित भाषा या लिपि का प्रयोग सर्वप्रथम कहाँ हुआ था ? लिपि और बोली में क्या अंतर है? और विभिन्न भाषाओं की लिपियों का विकास कैसे हुआ? क्या किसी भाषा की लिपि में कभी आंशिक या पूर्ण परिवर्तन हुआ है? इन्ही रोचक प्रश्नों के उत्तर जनने के लिए हम आगे बढ़ते है। लिपि या लिखित भाषा को परिभाषित करना और इसके विकास की ऐतिहासिक विवेचना करना, भाषा (बोली) की तुलना में बहुत कठिन कार्य नही है । क्योंकि यह एक मूर्त तत्व है।
डेनियल (Daniels, 2003) लिपि को इस प्रकार से परिभाषित करते हैं:
लिपि न्यूनाधिक स्थाई चिन्हों की प्रणाली या पद्धति होती है जो किसी बोली या कथन विशेष को इस प्रकार से प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त होती है कि वक्ता की हस्तक्षेप के बिना लगभग वैसा ही पुनः प्राप्त किया जा सके" ।
अर्थात जो विचार य संदेश वक्ता ने संप्रेषित किए हैं, श्रोता भी लगभग वैसा ही प्राप्त करें या वही अर्थ निकालें। इस परिभाषा में लिपि को एक चिन्हों की प्रणाली बताया गया है। लिपि का उद्देश्य दूरवर्ती सम्वाद को वस्तुनिष्ठ तरीके से स्थापित करना है। शिक्षा तकनीकी, जनसंचार तकनीकी, सूचना प्रे तकनीकी के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि में गिना जाता है।
विश्व में कितनी भाषाएं बोली जाती है? इसका एक अंदाजा ही लगाया जा सकता है। प्रत्येक बार की नृजातीय गणना में इनकी संख्या बदलती रहती है। आप विभिन्न पुस्तकों में अलग अलग संस्थाओं द्वारा दिए तथ्यों में अंतर पायेंगे। इससे हमें भ्रमित होने की आवश्यकता नही है क्योंकि हम जानते है की भाषा एक गतिशील व परिवर्तनशील तत्व है। अभी तक यही कोई 5000 से 7000 के बीच भाषाएं बताई जाती है। विश्व के लगभग 200 देशों में (196) 6000 से अधिक (6909) भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। जबकि इन सभी भाषाओं के प्रयोग करने वाले कुल लगभग दो दर्जन लिपियों क प्रयोग करते है। भाषाओं की तरह लिपियों की संख्या भी अविवादित रूप से निश्चित नही की जा सकती है। यहाँ लिपियों की संख्या की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि आप भाषाओं और लिपियों की संख्या में अंतर देख कर स्वयं समझ जायेंगे कि भाषा और लिपि दो अलग अलग तत्व है। लिपि का विकास भाषा के उदविकास के बहुत बाद में हुआ है तथापि लिपि का इतिहास भी हजारों वर्ष पुराना हो चुका है। बोले जाने वाले अमूर्त शब्दों व भावों को मूर्त स्थायी रूप देने के बहुत से और बहुत तरीकों से प्रयास किए गये (जिनकी चर्चा हम इस खण्ड में आगे करेंगे। इन अनेकनेक प्रयासों के लम्बे इतिहास में बहुत सी लिपियों ने जन्म लिया। इनमें से कुछ आज भी प्रयोग में है और कुछ विलुप्त हो गई। इसके अलावा कुछ लिपियों में समय और सुविधा के हिसाब से मूलभूत परिवर्तन हुए। कुछ लिपियों ने नई लिपियों को जन्म दिया य अन्य लिपियों का पोषण किया और उनका प्रयोग खत्म हो गया। कुछ श्रोतों के अनुसार शुद्ध लिपियाँ और वर्णमालाएँ 20 ही है (worldstandards.eu, & sixtyvocab.com). सभी प्रकार की लिपियों और वर्णमालाओं को जोड़ने पर भी इनकी संख्या 40 से अधिक नही हो पाती है। अद्यतन जानकारी के अनुसार विश्व की 7099 जीवित भाषाओं ( Ethnologue, 2017) में से सिर्फ 300 भाषाएं लिखित रूप में प्रयोग की जाती है (DayTrnaslation, n. d. ) । अर्थात भाषा लिखित रूप में ही हो, यह किसी भी भाषा के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त नहीं है। सभी भाषाएं एक लिपि में और एक भाषा सभी लिपियों में लिखी जा सकती है। आइये हम भाषा और लिपि के अंतर को बिंदुवार तरीके से समझने की कोशिश करते है;
लिपि और बोली में अंतर
लिपि या लेखन भाषा की तरह कोई जैविक यह अनुवांशिक कारण नहीं होता है। कोई भी मानव शिशु अपने वातावरण में बोली जाने वाली भाषा को सीखें बिना नहीं रह सकता है। परंतु लिपि इसके विपरीत कोई नैसर्गिक क्रिया नहीं है बिना अनुदेशन (शिक्षण) के कोई बच्चा लिखने और पढ़ने की क्रिया प्रारंभ नहीं कर सकता है।
बोली की अपेक्षा लेखन एक सचेतन क्रिया है। इसके लिए मानव मस्तिष्क का कोई विशेष हिस्सा निर्धारित नहीं होता है, और न ही इसके लिए कोई विशेष मानव जीन ( Gene) आधार है। लिपि प्रकल्पित(Devised) तत्व है, जिसकी रचना सचेतन रूप से की गई है। जबकि भाषा एक उदविकसित (evolved) मानव क्षमता है। जिसकी उत्पत्ति मानव के लाखों वर्षों के उद्विकास के इतिहास में छिपी हुई है।
आज सूचना तकनीकि के समय में आपके लिए यह समझना कठिन नहीं है कि किसी भी भाषा की लिपि में परिवर्तन किया जा सकता है। आप मोबाइल संदेश भेजते ही होंगे। मोबाइल संदेश की भाषा हिंदी, गढ़वाली, कुमाऊनी कुछ भी रखते हुए रोमन लिपि (अंग्रेजी भाषा की लिपि) का प्रयोग तो कर ही लेते होंगे। अथवा आपने बहुत से अंग्रेजी के शब्द देवनागरी हिंदी वर्णमाला लिपि में लिखे होंगे। जिसमें आपका अपना नाम सर्वाधिक लिखा जाने वाला शब्द होगा। कहने का तात्पर्य यह है की लिपि और भाषा अलग-अलग तत्व है। एक भाषा को सभी लिपियों में लिखा जा सकता है। देश की भाषा या भाषाएं कोई भी हो पर समझने की सुविधा की दृष्टि से हम लिपि विशेष के प्रयोग को कानून द्वारा अनिवार्य भी कर सकते हैं। जैसा कि हमारे देश के सभी सरकारी कामकाज को देवनागरी और रोमन लिपि में ही प्रकाशित किया जाता है। उत्तराखण्ड की प्रशासनिक भाषाएं हिंदी और संस्कृत दोनो ही देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।
आप बहुत सी हिंदी भाषा की कहानियों को अंग्रेजी (रोमन) लिपि में कई इंटरनेट साइटों पर पढ़ सकते है। दो भाषाओं के संयुक्त प्रयोग के कारण कुछ ब्लोग (Blog/ वेबसाइट पर लेख व निबंध) लेखकों ने तो रोमनागरी (Romanagari) श्बद का प्रयोग करना शुरू कर दिया है। रोमनागारी एक संयुक्त शब्द (portmanteau word) है जो हिंदी (देवनागरी) लेखों को अंग्रेजी (रोमन) लिपि में लिखे जाने पर प्रयोग होता है जिसमें शब्द देवनागरी के और अक्षर (वर्ण) रोमन लिपि के होते है। इस प्रयोग से आप भाषा और लिपि के स्वतंत्र अस्तित्व को समझ सकते है।
अपनी गतिशील व प्रवाहमय लक्षण के कारण बोली (भाषा) धीरे-धीरे विकसित होती है और विलुप्त भी हो सकती है। उत्तराखंड की 15 बोलियों में से दो (गढ़वाली और कुमायुनी) ही प्रमुखता से बोली जाती हैं और बाकी में से कुछ तो अदृश्य होने की कगार पर हैं। अर्थात जिन्हें उत्तराखण्ड के लोग भी नही जानते कि यह बोलियाँ उनकी ही संस्कृति का अंग रही है। ऐसी विलुप्तप्राय बोलियाँ ग्रामीण इलाकों में सिर्फ बिना पढ़ें लिखे या बुजुर्ग लोगो द्वारा प्रयोग में लाई जाती है। ऐसे ही बहुत सी भाषाएं मर चुकी हैं या मृतप्राय हैं क्योंकि उनको बोलने वाले लोग या तो नहीं रहे या तो भाषा परिवर्तन कर चुके हैं। परंतु उन भाषाओं का साहित्य चिरजीवी होता है। सिंधु सभ्यता के अवशेषों से जो लिपि मिली है हम उसका अर्थ निकालने में असमर्थ है क्योंकि वह भाषा अब लुप्त हो चुकी है परंतु आप देख रहे हैं की लिपि आज भी आपके सामने अस्तित्व में है। हम कह सकते हैं कोई भी लिपि तुलनात्मक रुप से भाषा की अपेक्षा अधिक लंबी उम्र की होती है। यह भाषा और लिपि के अंतर के साथ साथ सम्बंध का भी कारण कहा जा सकता है। किसी भाषा को चिरजीवी बना देने के लिए उसका लिखित भाषा के रूप में होना जरूरी होता है। लिपि के लिखने और प्रयोग के तरीकों में भी परिवर्तन होते हैं पर ऐसे परिवर्तन किसी बोली की तुलना में नगण्य कहे जा सकते हैं। नेशनल जिओग्राफिक मासिक पत्रिका के अनुसार हर दो सप्ताह (14 दिन) में एक भाषा लुप्त हो जाती है और इस गति के हिसाब से अगली शताब्दी तक विश्व में प्रचलित लगभग 7000 भाषाओं में से आधी ही रह जायेंगी (Rymer, 2012)
भाषा विज्ञान को जब हम मनोविज्ञान के साथ जोड़कर समझते हैं तब लिपि भाषाविज्ञान के पाले को छोड़कर संकेतशास्त्र य लक्षणविज्ञान (Semiotics) की तरफ खड़ी दिखाई देती है। क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार भाषा एक संज्ञानात्मक अमूर्त क्रिया हो जाती है। जबकि लिपि मूर्त व स्थूल प्रकृति की होती है।
ज्ञानेंद्रिय प्रयोग के आधार पर भाषा और लिपि में अंतर हो जाता है। छोटी सी बात है कि जो हम सुनते है वह भाषा य बोली है और जो देखते है वह लिपि य लेखन प्रणाली है। यह बात सिर्फ समझने के लिए है वैसे मनुष्य एक ज्ञानेंद्री को रोककर दूसरे का प्रयोग नही करता है। पाठन के उदाहरण से हम दोनो के एक साथ प्रयोग को समझ सकते है।
उपरोक्त भाषा और लिपि के अंतर का वर्णन का एक मात्र उद्देश्य यह सिद्ध करना रहा है कि हम भाषा और लिपि के स्वतन्त्र अस्तित्व को समझ सके। एक आम आदमी भाषा और लिपि में अंतर नहीं कर पाता है। परंतु शिक्षकों को यह अंतर समझना आवश्यक होता है। भाषा और लिपि में अंतर के साथ साथ घनिष्ठ सम्बंध होता है, यही कारण है कि हम दोनो को अलग अलग करके नही समझ पाते। अब हम अंतर की तरह दोनो में सम्बंध भी सूचीबद्ध कर लें।
लिपि और बोली में सम्बंध
भाषा (बोली) और लिपि दोनो ही समाज विशेष की संस्कृति का प्रतीक होती है। परिणामतः पहचान और स्वाभिमान का कारण भी बनती है। हम विदेश में अपनी मातृभाषा को बोलने का अवसर मिलने पर सुखद अनुभव करते है। यदि आप अपनी भाषा को बोलने वाले व्यक्ति को उत्तराखंड से बाहर पाते है तो उसे तुरंत ही पहचान लेते है। साथ ही समय उपलब्ध रहने पर परिचय बढ़ाकर अपनी भाषा में वार्तालाप भी करने का अवसर प्राप्त कर लेते होंगे।
अंतर में हमने समझा कि भाषा को समाज में रहते हुए हम सीख ही लेते है, जबकि लिपि सीखने के लिए शिक्षण की आवश्यकता होती है। लेकिन यह नैसर्गिक अधिगम की प्रक्रिया मातृ-भाषा में ही होती है। अन्य भाषाओं के सीखने के लिए हमें शिक्षण य अनुदेशन की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा जब तक कि हम उस भाषा विशेष के लोगों के मध्य रहने न लगे। अतः दोनो में ही शिक्षण की आवश्यकता होती है।
भाषा सूक्ष्म व अस्थायी तत्व होती है। इस को स्थूल व चिरस्थायी बनाने के लिए लिपि अपना सम्बंध निभाती है।
दोनो ही अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। भ्रमरहित व बाधारहित सम्प्रेषण में दोनों एक दूसरे की पूर्ति करती है। आप शिक्षक के रूप में कोई विषय बच्चों को समझाने का प्रयास करते है। बच्चों की समझ सुदृढ़ करने और समझ की गारण्टी प्रदान करने के लिए आप अपने व्याख्यान के साथ साथ श्यामपट्ट पर मुख्य बिंदु लिखने की कोशिश जरूर करते होंगे या करेगें। अतः अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में दोनो अन्योन्याश्रित होती है।
लिपि के विकास का इतिहास
लिपि के विकास के इतिहास भी बहुत रोचक और लम्बा है। मानव ने अपनी अभिव्यक्ति को स्थायी बनाने के लिए कई तरह के प्रयोग किए है। जिन्हें हम गुफाओं में प्राप्त चित्रों से शुरू करते हुए. शिलालेखों, ताम्रपत्रों, भोजपत्रों, पुस्तकों, वेबसाइटों आदि आदि पर एक नजर डालकर समझ सकते है। बोली या बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए आप अपने सामने वाले व्यक्ति को अपना संदेश य विचार संप्रेषित कर सकते है और एक समय विशेष का प्रयोग ही कर सकते है। बोलचाल की भाषा की सीमा को पार करते हुए एक लिपि (यहाँ लिखित भाषा कहना अधिक उचित होगा) समय और स्थान के परे सम्प्रेषण का कार्य करती है। शायद मनुष्य की यही आवश्यकता उसे लिपि के सर्जन के लिए बाध्य करती | मानव ने हजारों प्रयोग किए होंगे जिनसे संप्रेषण के अनेकानेक माध्यमों का जन्म हुआ। लिपि विकास किसी भी मानव संस्कृति के लिए क्रांतिकारी घटना रही होगी। जैसा की विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में किसी न किसी तरह मूर्त संप्रेषण / अभिव्यक्ति के चिन्ह मिल जाते हैं। इससे हमें एक बात तो समझ लेनी चाहिए कि लिपि किसी भी विकसित सभ्यता का अनिवार्य तत्व होती है। जरा कल्पना कीजिए कि भाषा (बोली) के जन्म से मानव को समूह बनाकर रहने का अवसर मिला होगा। आपसी सहमति बनी होगी। आपसी व्यवहार के नियम बने होगें। सामूहिक जीवन सुखद, सुरक्षित और सामंजस्यपूर्ण हो गया होगा । आप बोलचाल की भाषा के सहारे सिर्फ सामूहिक जीवन की तो कल्पना कर सकते है पर वर्तमान में विद्यमान देशों और राष्ट्रों की कल्पना नही कर सकते। अर्थात वृहद समुदाय के सदस्यों को सामूहिक नियमों का पालन करवाने के लिए लिखित कनून, सरकार, प्रशासन आदि की जरूरत होती है। प्रशासन के लिए लिपि अनिवार्य शर्त होती है। यही कारण है की स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत हम राष्ट्रभाषा सुनिश्चित तो नही कर सके पर प्रशासनिक भाषा और लिपि हमने सुनिश्चित की या करनी पड़ी। शायद इन सब बातों से आपके मस्तिष्क में लिपि की अनिवार्यता और इसके विकास की आवश्यकता तो स्पष्ट हो चुकी होगी। अब हम लिपि के विकास पर एक ऐतिहासिक नजर डालते है।
विश्व की सभ्यताओं के इतिहास में हम देखते हैं कि सर्वप्रथम लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व मेसोपोटामिया की सभ्यता के शहर सुमेंर (वर्तमान ईरान इराक वाला क्षेत्र) में कीलक्षर/ कीलाकार लिपि का विकास हुआ था। यह लिपि मिट्टी के फलकों पर उत्कीर्ण की जाती थी (चित्र 1)। इस लिपि में चित्रात्मक व रेखात्मक दोनो ही प्रकार के चिन्हों का प्रयोग किया जाता था।
मेसोपोटामियां की कीलाक्षर लिपि
वर्तमान लिपि से स्पष्टरूप से संबंधित प्रतीत होती हुई प्राचीन लिपि 3000 वर्ष पूर्व शिलालेखों में दिखाई देती है। इन हजारों वर्षों के सफर में हजारों पड़ाव मिलते है । गुफाओं में प्राप्त चित्रकारी को अधिकतर भाषाविद लिपि का हिस्सा नहीं मानते हैं। लेकिन अभिव्यक्ति को स्थायी करने के लिए चित्र पद्धति ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यह चित्रकारी चित्रकला की विशाल परंपरा का एक हिस्सा ही मानी जाती रही है। जब कोई चित्र / प्रतिकृति (image) सतत रूप से किसी पदार्थ, उत्पाद या परिणाम को वर्णित करने लगती है तब इस तरह के वर्णन को चित्रलिपि (Pictogram) की संज्ञा दी जाती है। हमारी प्राचीनतम सैंधव सभ्यता के अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ भी चित्रलिपि का प्रयोग किया जाता था (चित्र 2) |
जो चर्चा हमें बाद में करनी चाहिए थी वह अभी करना जरूरी हो रहा है। बात यह है कि चित्र के माध्यम से संप्रेषण लिपि के विकास की शुरुआत तो है पर शुद्ध लिपि के विकास के बाद भी हमने चित्र पद्धति प्रयोग बंद नही किया है। आज भी राष्ट्रीय राजमार्गों पर सार्वजनिक स्थलों जैसे कि रेलवे स्टेशन, विमानपत्तन पर चित्र के माध्यम से संप्रेषण किया जाता है ( चित्र 3)| इसका कारण है कि चित्रों के माध्यम से सम्प्रेषण में भ्रम की सम्भावना कम से कम होती है।.
चित्रलिपि में जब अमूर्त विचारों को सम्प्रेषित करने की क्षमता आ जाती है तब हम इसे विचारलिपि य भावलिपि (Ideogram) कहते है। चित्रलिपि और भाव लिपि में सिर्फ तत्व के प्रतिनिधित्व का अंतर है। एक में मूर्त पदार्थों का वर्ण करते हैं और दूसरे में अमूर्त विचारों का वर्णन करते हैं। ★ जब इस सितारे के चित्र के माध्यम से हम आकाश के तारों का वर्णन करें तो इसे हम चित्रलिपि का एक उदाहरण कह सकते है । 'तारा' शब्द लिखने के अलावा हम इस चित्र को बनाकर अपनी बात कह सकते है। परंतु जब तारे के चित्र के माध्यम से हम रात्रि, शांति, शीतलता आदि भावों को प्रदर्शित करने लगते है तब इसे हम भावलिपि की संज्ञा देते है। प्राचीन चित्र पद्धति के कई चित्र आज की वर्णमाला के अक्षर के रूप में परिवर्तित हो गए हैं।
चित्रलिपि से वर्णचिन्ह की ओर जाना मानव मस्तिष्क की बड़ती हुई अमूर्त चिंतन की क्षमता का द्योतक है। जब प्रतीक चिन्ह शब्दों का प्रतिनिधित्व करने लगते हैं तब प्रतीकलिपि ( Logograms) का विकास होता है। इसका प्रयोग आज भी होता है। बहुत सी कंपनियों के चिन्ह ही उनके नाम का प्रतिनिधित्व करते है । आप बैंक ऑफ इंडिया को लिखने के लिए आप सितारे के चिन्ह का प्रयोग कर सकते है। यूनीलीवर कम्पनी के लिए (U) क चिन्ह प्रयोग कर सकते है। सुमेर की कीलाक्षर लिपि भी एक प्रकार की प्रतीकलिपि ही थी। वर्तमान में चीन की भाषा में प्रतीक चिन्हों का प्रयोग देखा जा सकता है। चीनी वर्णमाला के कई वर्ण एक ध्वनि मात्र को नहीं बल्कि सम्पूर्ण शब्द ( या शब्द के अर्थ) को वर्णित करते हैं या शब्द के एक भाग को वर्णित करते हैं।
इस परंपरा से अलग दूसरी प्रणाली है जहां वर्ण-चिन्ह (य चित्र) भाषा के शब्द को नहीं ध्वनि कोवर्णित करते हैं। इसे कूटलेखन (Rebus Writing) नाम दिया गया है। जब कभी भी उस ध्वनि का प्रयोग शब्दों में होता है तो उस ध्वनिचिन्ह( कूटचिन्ह) को उस शब्द में जोड़ दिया जाता है। ध्वनिकूट हमें वर्तमान वर्णमाला की ओर अधिक पास ले आते है। आज भी हम अपनी अभिव्यक्ति के कूट तैयार करते रहते है। कूटध्वनि के अधुनिक उदाहरण से समझ सकते है कि एक ध्वनि कैसे एक शब्द को य शब्द के भाग को प्रदर्शित करती होगी। उदाहरण के लिए same too you की जगह same 2 you, Night को में Ni8 भी तो लिख देते है और Today को 2Dayl जब कोई प्रतिकृति (Image) भाषा के स्वर या व्यंजन वर्ण का प्रतिनिधित्व न करके शब्दांश/स्वरांश (Syllable का प्रतिनिधित्व करती है तब हम उसे स्वरांश लिपि (Syllabary) कहते हैं। जापान की भाषा में इस शब्दांश लेखन प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। प्राचीन मिस्र और सुमेर की लिपियों में भी शब्दांश लेखन का प्रयोग मिलता है। शब्दांश लिपि हमें वर्तमान वर्णमाला के सबसे निकटतम पायदान तक पहुँचा देती है। जहां एक वर्ण-चिन्ह सिर्फ एक ध्वनि को प्रतिनिधित्व करता है। अरबी और यहूदी जैसी समी (Semetic) भाषाओं की लिपि प्रणाली में सिर्फ व्यंजनों ( क ख ग च आदि) की सहायता से ही शब्द लिखे जाते थे। स्वर ( अ इ उ आदि ) का चिन्ह पाठक को स्वयं अपने विवेक से समझना होता था। यही व्यंजक वर्णमाला वर्तमान भाषाओं की वर्णमाला का सूत्रपात करती है। यहाँ तक हम एक चिन्ह एक स्वर तक पहुच चुके होते है। परंतु शुद्ध स्वर अक्षर (Vowel) के चिन्ह को तैयार नही कर सके थे। इतिहास में सर्वप्रथम यूनानियों ने स्वर अक्षरों की पूर्ति करके शुद्ध व पूर्ण वर्णमाला को जन्म दिया।