भाषा का विकास: बोली और लिपि
भाषा का विकास: बोली और लिपि प्रस्तावना
भाषा का प्रयोग जितना ही नैसर्गिक, सरल और उपयोगी है, इसको परिभाषित करना उतना ही कठिन है। भाषा मानव की नैसर्गिक जैवीय क्षमता के साथ ही एक सांस्कृतिक विशेषता भी है। जो विभिन्न भाषाओं के मध्य अंतर का आधार है। भाषा किसी समाज के अन्दर अनेकानेक जटिल व्यवस्थाओं के मध्य एक जटिल व्यवस्था (System) है। जिसमें कई उप-व्यवस्थाएं होती है। मानव भाषा का विकास कब और कैसे हुआ इसपर कोई एक मत निराकरण नही हो सका है। विषय की जटिलता और अनुभवजन्य साक्ष्यों के अभाव के कारण 'भाषायी समाज पेरिस' (Linguistic Society of Paris, 1871 ) ने इस विषय पर तत्कालीन और भविष्य में किसी भी परिचर्चा पर रोक लगा दी थी (Larson, Dprez & Yamakido, 2010)। यह प्रतिबन्ध पश्चिमी देशों में बीसवीं शदी के अंत तक प्रभावकारी बना रहा है तथापि चोमस्की, हउसर, फिच (Chomsky, Hauser Fitch) आदि विद्वानों के इस दिशा में सतत कार्यशील रहने से इस विषय पर लगा प्रतिबंध प्रतीकात्मक रूप से खत्म हो जाता है और अर्थहीन हो जाता है।
विभिन्न मानव समूहों द्वारा सम्प्रेषण हेतु बोली का प्रयोग: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
इस खंड
में हम मानव द्वारा भाषा के प्रयोग के इतिहास पर चर्चा करेंगे। जब कभी भी भाषा के
इतिहास की बात आती है तब हमारा ध्यान सर्वप्रथम बोलचाल की भाषा पर ही जाता है।
इसमें कोई संदेह नही है कि सर्वप्रथम बोली (Spoken Language) का विकास हुआ था। इस तथ्य को हम मनुष्य में
भाषा के विकास के अवलोकन से भी सिद्ध कर सकते है। आपने देखा होगा कि बच्चे बोलना
पहले सीखते है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवाज करते है जिन ध्वनियों पर
उनकों सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती है उन ध्वनियों को वे दोहराते रहते है (इस तथ्य
के आधार पर भी भाषा की उत्पत्ति का एक सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है)। ये देखा
गया है कि मानकीकृत भाषा के विकास के उपरांत भी कुछ बच्चे स्वयं के बनाए हुए शब्दो
का प्रयोग संदर्भ विशेष में जारी रखते है। यह सिर्फ एक शब्द का किसी एक बच्चे के
लिए अर्थपूर्ण बनने का संदर्भ है । समस्त मानव प्रजाति के विभिन्न वर्गों / समूहों
/ प्रखंडों की सामान्य भाषा और विभिन्न भाषाओं के विकास का इतिहास हजारों वर्ष
पहले प्रारम्भ हुआ था, जो आज भी जारी
है।
भाषा की उत्पत्ति
के संदर्भ में सामान्य प्रश्न जो आपके मस्तिष्क में आते है और इस विषय पर की चर्चा
के आधार पर आप यह तो मान सकते है कि भाषा एक जटिल और विलक्षण संकल्पना है। इसको
परिभाषित करना और इसकी उत्पत्ति के विषय में सही सही कुछ कहना असम्भव नही पर दुरूह
कार्य अवश्य है। भाषा की उत्पत्ति के सही समय के विषय में सटीक अनुमान लगाना संभव
नहीं है। हम यह नहीं जानते हैं कि भाषा का विकास कैसे हुआ, क्योकि जीवन की
उत्पत्ति के प्रारम्भिक पदचिन्हों की भाँति भाषा की उत्पत्ति के संदर्भ में
ऐतिहासिक प्रमाण व साक्ष्य प्राप्त नही हुए है। विद्वानों का अनुमान है कि यही कुछ
लगभग एक लाख से पचास हजार वर्षों के बीच बोलचाल की भाषा का विकास हुआ होगा और
लिखित भाषा का विकास लगभग पाँच हजार वर्षों पूर्व हुआ होगा। जैसा कि भाषा सभी
विषयों की आधार हैं और एक अंतर्विषयक अनुशासन भी हैएक अध् ययन सामग्री की रूप में
भाषा अनेकानेक विषय क्षेत्रों के अनतर्गत आती है जिन्हें हम भाषा के आधार कह सकते
है। इन विभिन्न दृष्टिकोणों से हम भाषा की उतपत्ति का इतिहास पता करने का प्रयत्न
करते है।
भाषा उत्पत्ति से सम्बंधित श्रोत व आधार
भाषा की उत्पत्ति से सम्बंधित सैकड़ो सिद्धांत प्रतिपादित किए गये है जिन्हें हम श्रोत व आधार भी कहते है। सभी सिद्धांतों की चर्चा करना यहाँ सम्भव और आवश्यक नही है। अतः हम कुछ प्रमुख सिद्धांतों व विचारधाराओं की चर्चा करेंगे।
1. धार्मिक श्रोत:
हम जानते है कि विश्व के सभी धर्मों में जो प्रमुख तत्व है वह मानव और ईश्वर का
अस्तित्व, विशेषताएं और
दोनो तत्वों का आपस में सम्बंध की विवेचना करते है। भाषा भी एक मनुष्य से जुड़ी
विशेषता है। अतः विश्व के प्रमुख धर्मों में भाषा की उत्पत्ति के संदर्भ में भी
विवेचना मिलती है। हिंदू धर्म के अनुसार भाषा का जन्म देवी सरस्वती से हुआ। यहूदी
और ईसाई धर्म के अनुयायियों का मानना है कि ईश्वर ने सर्वप्रथम आदम को उत्पन्न
किया। आदम ने संसार के अन्य प्राणियों के विषय में जो भी कुछ कहा वे शब्द ही उनके
नाम हो गए। संसार के आदि पुरुष और स्त्री (आदम और हौवा) जिस भाषा में बात किया
करते थे उसी से संसार की समस्त भाषाओं का जन्म हुआ। इस बात को सिद्ध करने, जाँचने और खंडन
करने हेतु 25000 वर्षों से 500 वर्षों के पूर्व
तक शोध व परीक्षण किए जाते रहे (युले, 2006)। आज के समय में भाषा की उत्पत्ति के इस आधार
पर चर्चा करना अनावश्यक माना जाता है (शर्मा, 2010 ) ।
2. प्राकृतिक ध्वनि श्रोत:
इस विचारधारा के अनुसार प्रारम्भिक शब्दों की उत्पत्ति मनुष्य द्वारा
प्राकृतिक ध्वनियों के सुनने और उनकि आवृत्ति करने से हुई। इस विचारधारा के अनुसार
काँव काँव की ध्वनि से कौआ शब्द बना। इसी सिद्धांत की एक कड़ी के रूप में यह विचार
आता है कि मानव के हर्ष और विषाद के अनुभवों के बाद की स्वभाविक ध्वनियों जैसे कि 'आह' 'ओह' 'वाह' 'हाय' आदि से भाषा का
विकास हुआ होगा। यह बात सत्य है कि भाषा में कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो जीवों नाम और
उनके व्यवहार से सम्बंध रखते है परंतु सम्पूर्ण मानव भाषा की उत्पत्ति की व्याख्या
इस आधार पर नही की जा सकती। शब्द विज्ञान (Morphology), जो कि आज एक पूर्ण विकसित विषय माना जाता है, वह किसी भी भाषा
के शब्दों की उत्पत्ति के सिर्फ यही श्रोत तो नही बताता है। तथापि इस श्रोत का हम
पूर्णरूप से खंडन नही कर सकते है। हो सकता है कि मानव घोषयंत्र का प्रयोग इन्ही
शब्दों के प्रयोग से प्रारम्भ हुआ। हो।
3. मातृभाषा सिद्धांत:
प्राकृतिक श्रोत के ही समान मातृभाषा सिद्धंत के मानने वाले सोचते है।
इस मत के अनुसार भाषा की उत्पत्ति सर्वप्रथम माता और उसके शिशु के बीच सम्वाद से
हुई जो बाद में आंगे चलकर अन्य निकट संबंधियों में सम्वाद का माध्यम बनते हुए
समुदाय विशेष की भाषा का रूप ले लेती है।
4. जैविक संरचना / शारीरिक अनुकूलन श्रोत:
कुछ विद्वानों का मानना है कि मनुष्य में भाषा का विकास
इसलिए हुआ कि उसकी जैविक सरंचना अन्य जीवों की तुलना में अधिक अनुकूल थी। इस विचार
क्रम में सर्वप्रथम हम मनुष्य के पूर्णतः द्विपदीयचर (दो पैरों पर चलने वाला) होने
पर ध्यान देते है। इस कारण से मनुष्य के मस्तिष्क तथा घोषयंत्र का समुचित विकास हो
सका। अब आप मनुष्य के दांतो पर ध्यान देंगे जो सीधी खड़ी स्थिति में होते है।
मांसाहारी जीवों की भाँति मानव-दंत भोजन को चीरने में बहुत 'उपयोगी तो नही
कहे जा सकते है, पर दंताक्षरों
(वर्णों: त, थ, द, ध) के उच्चाराण
में अनूठी भूमिका अदा करते है । मानव ओष्ठ की सरंचना शब्द उच्चारण की दृष्टि से
अधिक अनुकूल होती है जिससे ओष्ठय वर्णों ( प, फ,
ब, भ ) का उच्चारण
सम्भव हो पाता है। इसी प्रकार से जैवभाषाविज्ञानियों ने हमारे मुख, तालु, जिव्हा, आदि की विशिष्ट
सरंचना को भाषा धर कारण माना है। मनुष्य में घोषयंत्र का स्थान भी अन्य स्तनपायी
(बंदर, बनमानुष आदि)
जीवों की तुलना में कुछ नीचे होता जो गलकोश को बड़ा करते हुए ध्वनि - गुंजन की
संभावना उत्पन्न करता है। घोषयंत्र की यह स्थिति मानव के द्विपदचारी होने के कारण
मानी जाती है।
नीगस के अनुसार
मनुष्य का शाकाहारी होना भी भाषा के विकास का कारण बना। मांसाहारी जीवों में
कपोलों और मुख का ठीक से विकास नही हो पाता है क्योंकि वे भोजन को ठीक से चबाते
नही हैं। इसके विपरीत मनुष्य मुख व कपोलों का अधिक विकास कर सका इसलिए ध्वनि-भेद
में वह अन्य पशुओं से अधिक समर्थ हो सका (Negus, 1946) मुखविवर के संकुचन और प्रसर से मनुष्य बोलने और
गाने में सहायता लेता है। गाने की क्षमता को भी भाषा के विकास का एक उच्च कोटि का
पायदान माना जा सकता है, जिसमें गायक को
भाषा में प्रयोग होने वाले विभिन्न अंगों का कुशलता से प्रयोग करना होता है।
5. अनुवांशिक श्रोत:
इस विचारधारा के लोग भाषा को एक अनुवांशिक लक्षण मानते है । आपने देखा होगा कि कुछ
बच्चे जो जन्म से बहरे होते है, परिणामतः वे हिंदी, अंग्रेजी, गढ़वाली आदि सामन्यरूप सें प्रचलित मानक भाषाएँ नहीं सीख
पाते है। तथापि समयांतराल व अवसर प्राप्त होने पर वे भी संकेत भाषा में सम्प्रेषण
करने में सक्षम हो जाते है। उनमें से कुछ बच्चे तो समाज में प्रचलित मानक भाष भी
सीखने लगते जिसे देखकर आम जन ईश्वर का चमत्कार कहते है। इससे एक बात तो सिद्ध होती
है कि मानव शिशु भाषा सम्बंधित एक विशेष क्षमता के साथ ही जन्म लेते है।
भाषा की उत्पत्ति के अनेकानेक श्रोत, सिद्धांत, व तर्क प्रस्तुत किए जा चुके है तथापि इसकी उत्पत्ति का प्रारंभ और कारण एक रहस्य ही बना है। अनुवांशिकी एक ऐसा विषय है जो तंत्रिका विज्ञान, विक जीव विज्ञान, विकासवादी जीवविज्ञान की मदद से शायद इस पहेली का हल निकालने में सक्षम हो। भाषा की उत्पत्ति से सम्बंधित यह खोज अब उस विशेष 'भाषा जीन' (Language- gene) की खोज की ओर अभिमुख होता दिखाई देता है, जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करता है। प्रसिद्ध भाषाविद यूले महोदय भी भाषा की इस पहेली का हल मानव अनुवांशिकी में ही मानते है। उनका मानना है कि हम भाषा के कुछ गुणों व विशेषताओं का वर्णन तो कर सकते है परंतु एक वस्तुनिष्ठ सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत करना आज भी संभव नही है ( Yule, 2006, p.16). लेकिन एक तथ्य तो सर्वमान्यरूप से सिद्ध हो चुका है कि मानव में कुछ जैविक क्षमताएँ तो होती है जो किसी भाषा के प्रत्यक्ष अनुदेशन के बिना भी मानव को उस भाषा विशेष को प्रयोग करने की दक्षता प्रदान करती है (Larson, Dprez & Yamakido, 2010)। रामविलास शर्मा जी के शब्दों में इस परिचर्चा को एक अंत दिया जा सकता है । शर्माजी कहते है कि भाषा रचना का कारण मानव परिवेश, उसके जिवन की अवश्यकताएँ तथा उसका विशेष शारीरिक गठन है .