भारत में संयुक्त परिवार अर्थ प्रकृति
भारत में संयुक्त परिवार (Joint Family in Inida)
संयुक्त परिवार शब्द में 'संयुक्तता' की धारणा की विभिन्न विद्वानों ने विविध रूप से विवेचना की है। कुछ विद्वानों (जैसे इरावती कर्वे ) ने संयुक्तता के लिए सह-निवास (co-residentiality) को आवश्यक माना है तो कुछ विद्वान (जैसे, बी. एस. कोहन, एस.सी. दुबे, हैरोल्ड गूल्ड, पालिन कोलेण्डा व आर. के. मुकर्जी) सह निवास और सह भोजन दोनों को संयुक्तता के आवश्यक तत्व मानते हैं। कुछ अन्य (जैसे एफ. जी. बेली, टी.एन. मदान) संयुक्त सम्पत्ति - स्वामित्व को अधिक महत्व देते हैं, और कुछ (जैसे आई.पी. देसाई ) नातेदारों के प्रति दायित्यों को पूरा करने को महत्व देते हैं, भले ही उनके निवास अलग-अलग हों तथा सम्पत्ति में सहस्वामित्व न हो। 'दायित्व को पूरा करने का अर्थ है अपने को परिवार का सदस्य मानना, वित्तीय और अन्य प्रकार की सहायता देना तथा संयुक्त परिवार के नियमों को मानना ।
इरावती कर्वे के अनुसार प्रचीन भारत ( वेद और रामायण- महाभारत युग) में परिवार निवास, सम्पत्ति, और प्रकार्यो के आधार पर संयुक्त था। उन्होंने ऐसे परिवार को 'परम्परागत' या 'संयुक्त' परिवार कहा है। कापड़िया का मानना है कि हमारा आदि परिवार (early family ) केवल संयुक्त या पितृसत्तात्मक ही नहीं था, इसके साथ-साथ हमारे परिवार व्यक्ति (individual) भी होते थे।
व्यक्तिवादिता (individual) की प्रवृत्ति के बावजूद परिवार का संयुक्त तथा सगोत्रक (agnatic) स्वरूप बना हुआ है। कर्वे ने परम्परागत (संयुक्त) परिवार की पांच विशेषताएं बताई हैं: सह निवास, सह रसोई, सह सम्पत्ति, सह पूजा तथा कोई नातेदारी सम्बन्ध । इस प्रकार कर्वे का संयुक्तता का आधार है: आकार, निवास, सम्पत्ति और आमदनी । इस आधार पर उन्होंने संयुक्त परिवार की परिभाषा इस प्रकार की है (1953:10 ) : "एक ऐसे व्यक्तियों का समूह जो (व्यक्ति) आमतौर पर एक ही छत के नीचे रहते हैं, एक ही चूल्हे पर पका भोजन करते हैं, साझी सम्पत्ति रखते हैं, परिवार की सहपूजा में भाग लेते हैं तथा एक दूसरे से एक विशेष प्रकार के नातेदारी सम्बन्धों से जुड़े होते हैं"। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अनुसार 'सह सम्पत्ति' तथा 'संयुक्त सम्पत्ति' शब्दों का अर्थ है कि सभी जीवित स्त्री व पुरुष सदस्य तीन पीढ़ियों तक पैतृक सम्पत्ति के हिस्सेदार न ही किसी को दी जा सकती है। इस प्रकार एक व्यक्ति को अपनी पत्नी, दो पुत्रों, दो पुत्रियों, दो पौत्रों तथा दो पौत्रियों के साथ अपनी सम्पत्ति को अपनी पत्नी व चार बच्चों में बराबर बाँटना होगा। पौत्र संतति अपने माता-पिता की सम्पत्ति में से ही हिस्सा लेंगे। पुत्र व पुत्री प्रत्येक की पूर्व मृत्यु पर उनके उत्तराधिकारी एक एक भाग लेंगे।
आई.पी. देसाई मानते हैं कि सह निवास तथ सह - रसोई को संयुक्त परिवार की परिसीमा के लिए आवश्यक समझना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से संयुक्त परिवार को सामाजिक सम्बन्धों का समुच्चय एवं प्रकार्यात्मक इकाई नहीं माना जायेगा। उनका कहना है कि एक घर के सदस्यों के बीच के आपसी सम्बन्धों तथा अन्य घरों के सदस्यों के साथ सम्बन्धों पर ही परिवार के प्रकार का निर्धारण किया जा सकता है। एकाकी परिवार को संयुक्त परिवार से अलग देखने के लिए भूमिका सम्बन्धों (role relations) के अन्तर को एवं विभिन्न रिश्तेदारों के बीच व्यवहार के मानदंडीय प्रतिमान ( normative pattern) को समझना पड़ेगा। उनकी मान्यता है कि जब दो एकाकी परिवार नातेदारी सम्बन्धों के होने पर भी अलग-अलग रहते हों, लेकिन एक ही व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में कार्य करते हों तो वह परिवार संयुक्त परिवार होगा। उन्होंने इस परिवार को 'प्रकार्यात्मक संयुक्त परिवार' (functional joint family) कहा है। आवासीय (residential ) संयुक्त परिवार में जब तक तीन या अधिक पीढियां एक साथ न रह रहीं हो तब तक यह परम्परात्मक संयुक्त परिवार नहीं हो सकता। उस के अनुसार दो पीढ़ियों का परिवार 'सीमान्त संयुक्त परिवार' (marginal joint family) कहलाएगा। इस प्रकार देसाई ने संयुक्त परिवार के तीन आधार माने हैं: पीढ़ी की गहराई, अधिकार एवं दायित्व तथा सम्पत्ति ।
रामकृष्ण मुखर्जी ने पांच प्रकार के सम्बन्ध बताते हुए, वैवाहिक (conjugal), माता-पिता पुत्र-पुत्री ( parental- filial), भाई-भाई व भाई-बहन (inter-sibling), समरेखीय (lineal), तथा विवाहमूलक (affinal) सम्बन्ध-कहा है। कि संयुक्त परिवार वह है जिसके सदस्यों में उपरोक्त पहले तीन सम्बन्धों में से एक या अधिक और या समरेखीय या विवाहमूलक या दोनों सम्बन्ध पाये जाते हैं।
संयुक्त परिवार की प्रकृति (Nature of Joint Family)
आई.पी.देसाई (1964:153-156) ने 1956 और 1958 के बीच किए गए 423 परिवारों के सर्वेक्षण के आधार पर परिवार के दो भिन्न-भिन्न वर्गीकरण दिए है: (i) पीढ़ीयों की गहराई (depth ) को लेकर सदस्यों के बीच सम्बन्धों पर आधारित (ii) अन्य परिवारों के सदस्यों के साथ सम्बन्धों के आधार पर। प्रथम आधार पर उन्होंने परिवार का वर्गीकरण चार प्रकार से किया है: एक पीढ़ी, दो पीढ़ियाँ, तीन पीढ़ियाँ तथा चार या अधिक पीढ़ियों वाले परिवार। इन में से प्रथम दो प्रकार के परिवारों को उन्होंने एकाकी परिवार कहा है और अन्तिम दो को संयुक्त परिवार अन्य परिवारों के साथ सम्बन्धों तथा संयुक्तता की सीमा के आधार पर देसाई ने परिवारों को पांच प्रकार से वर्गीकृत किया है : (i) एकाकी परिवार, जो कि कार्य तथा निवास की दृष्टि से अलग होता है; (ii) प्रकार्यात्मक संयुक्त परिवार, जो आवासीय अर्थ में एकाकी होता है, किन्तु अन्य परिवारों के साथ पारस्परिक दायित्यों की पूर्ति के अर्थ में संयुक्त होता है; (iii) प्रकार्यात्मक और सत्तासूचक (substantively ) संयुक्त परिवार, जो कि आवासीय दृष्टि से एकाकी होता है परन्तु सम्पत्ति, कार्य की दृष्टि व पारस्परिक उत्तरदायित्यों की पूर्ति की दृष्टि से संयुक्त होता है: (iv) सीमान्त संयुक्त परिवार, जो आवास, सम्पत्ति व कार्य में संयुक्त होता है किन्तु दो ही पीढ़ियों तक ही सीमा होती है; (v) परम्परागत संयुक्त जो कि सीमान्त संयुक्त परिवार की तरह आवास, सम्पत्ति व कार्य में संयुक्त होता है, लेकिन तीन या अधिक पीढ़ियों के सदस्यों का होता है। निम्न चित्र 3 परम्परागत संयुक्त परिवार तथा सीमान्त संयुक्त परिवार के पांच उप-प्रकार दर्शाता है।
देसाई के वर्गीकरण में तीसरे प्रकार के सीमान्त संयुक्त परिवार को (यानि कि व्यक्ति द्धस्वऋ, पत्नी, अविवाहित सन्तान, और बिना सन्तान के विवाहित पुत्र) को कापड़िया ने एकाकी परिवार कहा है। उनकी मान्यता है कि वह परिवार एकाकी होता है जिसमें व्यक्ति, उसकी पत्नी और उनके विवाहित या अविवाहित बच्चे हों, अर्थात् यह परिवार माता-पिता और उनके विवाहित या अविवाहित बच्चों का समूह है बशर्ते कि विवाहित बच्चों के अपने बच्चे न हों। यदि विवाहित बच्चों के भी बच्चे हों तो वह परिवार संयुक्त परिवार में बदल जायेगा। कापड़िया ने पांच प्रकार के परिवार बताए हैं: (1) एकाकी परिवार अविवाहित पुत्रों के साथ ( 2 ) एकाकी परिवार विवाहित पुत्रों के साथ (3) समरेखीय (lineal ) संयुक्त परिवार (4) भिन्न शाखाई (colateral) संयुक्त परिवार और ( 5 ) विधवा बहिन के साथ और / या उसके बच्चे के साथ ( यानि कि आश्रितों के साथ) परिवार ।
कापड़िया द्वारा दर्शाए गए उपरोक्त वर्गीकरण में दूसरे प्रकार का एकाकी परिवार ( जिसे देसाई ने सीमान्त संयुक्त परिवार कहा है) ऐलिन रास के द्वारा लघु संयुक्त परिवार कहा गया है। रास (1931:34) ने चार प्रकार के परिवार बताए हैं: (1) बड़ा संयुक्त परिवार जिसमें तीन या चार पीढ़िया एक साथ, एक ही घर में रहती हों, एक ही रसोई में भोजन बनाती हों, साझी सम्पत्ति की मालिक हों, और सभी के खर्चे के लिए आमदनी इकठ्ठी हों, (2) लघु संयुक्त परिवार जिसमें माता-पिता, विवाहित पुत्र व अविवाहित बच्चे या दो भाई अपनी पत्नी व बच्चों के साथ रहते हों; (3) एकाकी परिवार जिसमें माता या पिता दोनों अविवाहित बच्चों के साथ रहते हों; और (4) एकाकी परिवार के आश्रितों के साथ, यानि कि माता-पिता, उनकी अविवाहित सन्तान और एक या अधिक आश्रित सदस्य। रास ने लघु संयुक्त परिवार के तीन उप प्रकार बताए हैं:
(i) व्यक्ति, उसकी पत्नी, अविवाहित बच्चे व विवाहित पुत्र बिना बच्चें के,
गोरे ने दो प्रकार के मू परिवार तथा एकाकी और संयुक्त और प्रत्येक के तीन उप-प्रकारों की ओर संकेत किया है। एकाकी परिवार के तीन उन भेद हैं: (i) पति पत्नि व अविवाहित बच्चे (ii) पति, पत्नि, बच्चे और अविवाहित (बिना कमाने वाले) भाई (iii) पति, पनि, बच्चे, तथा विधवा माता या अन्य आश्रित जो सह सम्पत्ति भागी नहीं हैं। संयुक्त प्रकार के तीन उप भेद इस प्रकार हैं: (i) पति, पनि, विवाहित व अविवाहित बच्चे ( समरेखीय संयुक्त परिवार) (ii) पति, पत्नि, विवाहित अविवाहित बच्चे व अविवाहित भाई ( भ्रातृक संयुक्त परिवार) (iii) पति, पत्नि, विवाहित पुत्र, विवाहित भाई और उनके परिवार ( समरेखीय और भ्रातृक संयुक्त परिवार ) । मेरा तर्क यह है कि भारतीय परिवार का संरचनात्मक आदर्श पश्चिमी परिवार के आदर्श से बिल्कुल भिन्न हैं। भारत में चूंकि आदि परिवार की संरचना वही थी जिसे आज "संयुक्त परिवार" कहा जाता है, अतः हमें इस परिवार को मूल परिवार की इकाई के रुप में समझना चाहिए और इसे "परम्परागत" परिवार की संज्ञा देनी चाहिए, जबकि " एकाकी" परिवार को "विखण्डित" (fissioned) परिवार कहा जाना चाहिए, अर्थात् वह परिवार जो अपनी पैतृक इकाई से पृथक हो गया है। आवासीय पृथक्करण के बाद भी यह अपने पैतृक इकाई पर निर्भर रह सकता है पूर्ण रुपेण स्वतंत्र इकाई के रुप में भी कार्य कर सकता है। "संयुक्त " शब्द केवल तभी उपयुक्त होगा जब हम या फिर 'एकाकी" परिवार को मूल परिवार इकाई मानें और इस प्रकार से दो एकाकी इकाईयों के समन्वय से एक नये परिवार 44 की धारणा सामने आती है। लेकिन यह ज्ञात होने पर कि " एकाकी" परिवार हमारी मूल इकाई नहीं है, यह आवश्यक है कि “परम्परागत" परिवार को ही मूल परिवार इकाई मानें और अन्य स्वरुपों को इसी संदर्भ में समझें ।
भारतीय समाज में सामान्य प्रथा यह है कि नव दम्पत्ति एक स्वतंत्र आत्मनिर्भर घर में वैवाहिक जीवन प्रारम्भ नहीं करते, बल्कि पति के माता-पिता के साथ प्रारम्भ करते हैं। इसके विपरीत पश्चिमी समाज में भले की पुरुष व उसकी पत्नी दोनों में से किसी के भी माता-पिता के साथ एक ही छत के नीचे वैवाहिक जीवन प्रारम्भ करें (जो कि मकानो की कमी के कारण कभी-कभी होता है), लेकिन इसको वे लो आपातकालीन व्यवस्था मानकर ही स्वीकार करते हैं और इस व्यवस्था को वे अस्थाई ही मानते हैं। जैसे ही सम्भव होता है वे अपना स्वतंत्र "घर" (household) स्थापित कर लेते हैं। यदि किसी कारणवश वे इसमें असमर्थ रहते हैं और यदि आने वाले महीनों में वैवाहिक कठिनाइयां उत्पन्न होतीं हैं तो सर्व प्रथम वे अपने माता-पिता के “घर” पृथक हो जायेंगे। संरचना के उपरोक्त आदर्श के आधार के कारण परिवार के वर्गीकरण का हमारा आधार न तो घर के सदस्यों की संख्या ही होना चाहिए (जैसा बोमैन ने किया था) और न ही व्यक्तिगत सदस्यों की क्रियाओं का अभिमुखीकरण (orientation) (जैसा आई.पी.देसाई ने किया था) बल्कि निवास, निर्भरता और नातेदारी सम्बन्धों की विस्तृति (range) को एक साथ मानकर ही परिवारों का वर्गीकरण करना चाहिए। इस आधार पर हम परिवारों को दो समूहों में वर्गीकृत कर सकते हैं: "परम्परात्मक" और " विखण्डित"। प्रथम समूह को तीन उप विभागों में भी वर्गीकृत किया जा सकता हैं: विस्तृत परिक्षेत्र का नातेदारी परिवार (large range kinship family), मध्ययम परिक्षेत्र का नातेदारी परिवार (intermediate range kinship family), तथा लघु परिक्षेत्र का नातेदारी परिवार (small range kinship family)। द्वितीय समूह को आश्रित (dependent) परिवार और अनाश्रित (independent) परिवार में विभाजित किया जा सकता है।
विखण्डित अनाश्रित परिवार (fissioned independent family) वह है, जिसमें पति, पत्नी और उनके अविवाहित बच्चे होते हैं, जिसमें परिवार का मुखिया न तो किसी रिश्तेदार के अधिकार पर आश्रित है और न ही उन पर आर्थिक रुप से आश्रित होता हैं; और विखण्डित आश्रित परिवार (fissioned dependent family) वह होता है जहां सदस्य (पति, पत्नी, और अविवाहित पुत्र व पुत्रियां) अलग घर में रहते हैं, लेकिन या तो कार्यों की दृष्टि से या सम्पत्ति की दृष्टि से अपने नातेदारों (पिता, भाई, दादा, आदि) पर निर्भर रहते हैं। वह इकाई एक जीवित कुलपिता (patriach) की सत्ता के आधीन भी होती है।
परम्परागत परिवारों में विस्तृत परिक्षेत्र के नातेदारी परिवार में चार प्रकार के स्वजन / नातेदार होते हैं: प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक तथा दूरस्थ । यों भी कहा जा सकता है कि विस्तृत परिक्षेत्र का नातेदारी परिवार वह है जिसमें कम से कम दो सगोत्री निकट की पीढ़ियों के प्रत्येक भाई के जनन परिवार (family of orientation) के हों (जैसें चित्र 8 (i) में "अ" और "ब" द्वितीय पीढ़ी में तथा "क" और "न" तृतीय पीढ़ी में और माता पहली पीढ़ी में दर्शाये गये हैं)। ऐसे परिवार का उदाहरण वह परिवार है जिसमें दो विवाहित भाई होंगे। (जैसे चित्र 8 (i) में "अ" और "ब"), उनके माता-पिता पत्नी, और विवाहित पुत्र ("क" और "न") तथा अविवाहित पुत्र ( "ख" 44 और “प”) और अविवाहित पुत्रियां ("ग" और "म" ) तथा अविवाहित पौत्र ("ट" और "र") तथा पौत्रियाँ (“त" और "ल")। चित्र 8 ( i ) में चार प्रकार के स्वजन / नातेदार इस प्रकार सम्मिलित होंगे :