विद्यालयी पाठ्यचर्या में काम से संबंधित विषयों जैसे बागवानी और आतिथ्य के समावेशन की सार्थकता
विद्यालयी पाठ्यचर्या में बागवानी और आतिथ्य के समावेशन की सार्थकता
समाज के किसी भी घटक के विकास एवं उन्नति के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण साधन है। शिक्षा हमारे जीवन की सुव्यवस्था के काम आती है। शिक्षा के अभाव में कुछ भी अर्थपूर्ण हांसिल नहीं किया जा सकता। शिक्षा के माध्यम से ही जीवन के सभी प्राप्तव्य प्राप्त किये जा सकते है। यह लोगों के जीवन स्तर में सुधार तथा उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने हेतु क्षमताओं का निर्माण कर उनके लिए बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस भौतिक संसार में सफलतापूर्वक जीवन यापन करने हेतु समाज की प्रत्येक इकाई को आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बनाने में भी महती भूमिका निभाती है जीविकाजीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। अपनी योग्यता के अनुसार एक विशेष व्यवसाय का चुनाव जो हम अपने भविष्य के लिये करते हैं विद्यार्थी जिस वृत्ति का चुनाव करते हैं वही आपके भविष्य की आधरशिला है। पूर्व में लोग पहले अपनी शिक्षा पूरी करते थे, फिर अपनी जीविका , का निर्णय करते थे। लेकिन आज की पीढ़ी अपनी विद्यालयी शिक्षा पूरी करने से पहले ही अपने निर्माण की दिशा में कदम बढ़ा लेती है। जीविका का चुनाव किसी व्यक्ति की जीवन शैली को अन्य किसी घटना की तुलना में सबसे अधिक प्रभावित करता है। कार्य हमारे जीवन के कई रूपों को प्रभावित करते हैं। हमारे जीवन में मूल्यों, दृष्टिकोण एवं हमारी प्रवृत्तियों को जीवन की ओर प्रभावित करता है। इस भीषण प्रतियोगिता की दुनिया में प्रारम्भ में ही जीविका सम्बन्धी सही चुनाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए एक ऐसी प्रक्रिया की आवश्यकता है, जो किसी व्यक्ति को विभिन्न जीवन वृत्तियों से उसके शिक्षा का में ही अवगत कराए। यदि शिक्षा ग्रहण करने के समय ही उसकी पाठ्यचर्या में विविध व्यावसायिक विषयों का समवेश ही जाए तब विद्यार्थीयों को शिक्षा ग्रहण करते समय ही अपनी रुचियों क्षमताओं और मनोवृतियों का उसे और उसकी शिक्षा से जुड़े सभी हितकारको को सहायता मिल जाएगी । तथा बेरोजगारों की संख्या में भी कमी आएगी तथा इस पहल से उसके अर्थोपार्जन की क्षमता बढ़ती है। पाठ्यचर्या में काम से सम्बंधित विषयों के समावेशन से विभिन्न शिल्प एवं कला-कौशल का अभ्यास भी हो जाता है और व्यसाय के अवसरों से भी वो प्रारम्भ से ही परिचित हो जाता हैं। इन आधारों पर मनुष्य नौकरी अथवा स्वावलम्बी उपार्जन में अधिक सफल होता है। ऐसे-ऐसे अनेक लाभों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा में विविध व्यावसायिक कार्यक्रमों का समावेश किया गया। महात्मा गाँधी के शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो की रोजगार परक हो। उनका मानना था कि भारत में बच्चों को 3H की शिक्षा अर्थात् head, hand, heart की शिक्षा दी जाए। गांधीजी के अनुसार शिक्षा ऐसी हो जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके बालक आत्मनिर्भर बन सके तथा बेरोजगारी से मुक्त हो । चुने हुए शिल्प की शिक्षा देकर अच्छा शिल्पी बनाकर स्वावलम्बी बनाया जाए। बच्चों को प्ररम्भ से ही शारीरिक श्रम को महत्व बताया जाये ताकि सीखे हुए शिल्प के द्वारा जीविकोपार्जन कर सके। शिक्षा बालकों के जीवन, घर, ग्राम तथा ग्रामीण उद्योगों, हस्तशिल्पों और व्यवसाय घनिष्ट रूप से संबंधित हों। बच्चों द्वारा बनाई गई वस्तुएं जिनका प्रयोग कर सके एवं उनको बेचकर चूंकि बुनियादी शिक्षा राष्ट्रीय सभ्यता, संस्कृति के का प्रचलन किया गया है। मस्तिष्कीय विकास की दृष्टि से अर्थोपार्जन जैसी आवश्यकता पूरी करने की दृष्टि से - अति आवश्यक शिक्षा का विकास होना ही चाहिए उससे हर व्यक्ति को लाभान्वित होना ही चाहिए। इसमें दोरायें नहीं हो सकतीं। ज्ञान, अर्थोपार्जन, शिल्प, कला आदि का अपना महत्व और कार्यक्षेत्र है। भौतिक प्रगति के लिए उन सबकी जरूरत है। गांधीजी ने बुनियादी शिक्षा के पाठ्क्रम अंतर्गत के 'आधारभूत शिल्प जैसे: कृषि, कताई-बुनाई, लकड़ी, चमड़े, मिट्टी का काम, पुस्तक कला, मछली पालन, फल व सब्जी की बागवानी, बालिकाओं हेतु गृहविज्ञान तथा स्थानीय एवं भौगोलिक आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षाप्रद हस्तशिल्प इसके अलावा मातृभाषा, गणित, सामाजिक अध्ययन एवं सामान्य विज्ञान, कला, हिंदी, शारीरिक शिक्षा आदि रखा। शिक्षण विधि को शिक्षण का वास्तविक कार्य- क्रियाओं और अनुभवों पर अनिवार्य रूप से आधारित किया। सामुदायिक जीवन के आधारभूत व्यवसायों से जुड़ी हुई थी। तथा सीखे हुए आधारभूत शिल्प के द्वारा व्यक्ति अपने जीवन का निर्वाह कर सकता था। अतः यह शिक्षा हमारे जीवन के बुनियाद या आधार से जुड़ी हुई थी इसलिए इसका नाम बुनियादी या आधारभूत शिक्षा रखा गया। उनका मानना था की बच्चों को विभिन्न विषयों की शिक्षा किसी आधारभूत शिल्प के माध्यम से दी जाए। गांधीजी ने बुनियादी शिक्षा में सीखने की समवाय पद्धति का उपयोग किया। जिसक अंतर्गत उन्होंने समस्त विषयों की शिक्षा किसी कार्य या हस्तशिल्प के माध्यम सेदी | कोठारी आयोग (1964) ने शिक्षा को काम से समन्वित करने के उद्देश्य से "कार्यानुभव" को शिक्षा के सभी स्तरों पर शिक्षा का अभिन्न अंग बनाने की सिफारिश की तथा इस आयोग ने 10+2+3 शिक्षा योजना में +2 पर अकादमिक धारा के अतिरिक्त दूसरी धारा "व्यावसायिक धारा" पाठ्यक्रम में रखने तथा 50% विद्यार्थियों को इस धारा से जोड़ने की सिफारिश की थी। 1951-52 में पंचवर्षीय योजना आरंभ करने के अवसर पर आचार्य विनोबा भावे ने कहा था किसी भी राष्ट्रीय योजना की पहली शर्त सबको रोजगार देना है यदि योजना से सबको रोजगार नहीं मिलता, तो यह एकपक्षीय होगा, राष्ट्रीय नहीं कार्यानुभव को, सभी स्तरों पर दी जाने वाली शिक्षा का एक आवश्यक अंग होना चाहिए। कार्यानुभव एक ऐसा उद्देश्यपूर्ण और सार्थक शारीरिक काम है जो सीखने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है जिससे समाज को वस्तुएँ या सेवाएँ मिलती हैं। यह अनुभव एक सुसंगठित और क्रमबद्ध कार्यक्रम के द्वारा दिया जाना चाहिए। कार्यानुभव की गतिविधियाँ विद्यार्थियों की रूचियों, योग्यताओं और आवश्यकताओं पर आधारित होंगी। शिक्षा के स्तर के साथ ही कुशलताओं और ज्ञान के स्तर में वृद्धि होती जाएगी। इसके द्वारा प्राप्त किया गया अनुभव आगे चलकर रोजगार पाने में बहुत सहायक होगा। माध्यमिक स्तर पर दिए जाने वाले पूर्व-व्यावसायिक कार्यक्रमों से उच्चतर माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के चुनाव में सहायता मिलेगी। शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए की छात्र को इस योग्य बनाये की वो अपनी जीविका और ज़रूरतों को स्वयं पूरा कर सके। शिक्षा तभी सार्थक सिद्ध होगी जब वह प्रत्येक छात्र को किसी कार्य के योग्य बनाएगी। इसलिए व्यवसाय के लिए शिक्षा न केवल ऐच्छिक बल्कि अनिवार्य शर्त है। शिक्षा में औपचारिकता एवं मौखिकता को दूर करने के लिए व्यावसायिक कार्यानुभव आवश्यक है। गांधीजी ने भी बेसिक शिक्षा प्रणाली द्वारा हस्तकला या कार्यधारित शिक्षा प्रणाली पैर बल दिया क्योंकि उन्होंने आत्मनिर्भरता को शिक्षा का महत्वपूर्ण आधार माना। आज के औद्योगिक युग में शिक्षा का व्यवसायीकरण महत्वपूर्ण है। यह एक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ करने की प्राकृतिक लगन होती है और शिक्षा को चाहिए की उनकी उस इच्छा की संतुष्टि करे ताकि वो अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को पूर्णतया दर्शा सकें। गांधीजी के शब्दों में सच्ची शिक्षा बेरोजगारी के विरुद्ध बीमें के रूप में होनी चाहिए। कोठारी आयोग ने भी समाज उपयोगी उत्पादन कार्य अथवा कार्यानुभव (S. U. P. W. ) पर बल दिया है। उन्होंने शिक्षा को कार्यधारित बनाने पर बल दिया है और यू. जी. सी. के निर्देशन में इस कार्य के लिए आर्थिक सहायता भी जुटाई ताकि देश के बहुत से महाविद्यालयों में व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाया जा सके। मानव का सम्पूर्ण विकास आवश्यक है। व्यावसायिक पक्ष व्यक्तित्व का एक भाग है, परंतु जीवन को सम्पूर्ण बनाने के लिए दुसरे पक्षों का विकास भी ज़रूरी है अर्थात व्यावसायिक के साथ साथ नैतक और बौद्धिक विकास भी ज़रूरी है। हमारे देश में बेरोजगारी की इस भीषण समस्या के अनेक कारण हैं । उन कारणों में लॉर्ड मैकॉले की दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति, जनसंख्या की अतिशय वृद्धि, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के कारण कुटीर उद्योगों का ह्रास आदि प्रमुख हैं। शिक्षा प्रणाली में रोजगारोन्मुख शिक्षा व्यवस्था का समावेशन से ही इन समस्याओं से निजात पाया जा सकता है। हमारी परम्परागत शिक्षा भी इसी ओर इंगित करती है कहा गया हैं की अर्थकरी च विद्या अर्थात विद्या ऐसी हो जो हमें अर्थोपार्जन के योग्य बनाए ।
विद्यालयी पाठ्यचर्या में काम से संबंधित विषयों के समावेशन के उद्देश्य:
• कार्य से सम्बंधित शिक्षा विद्यार्थी को उसकी उसकी उसके परिवार तथा समुदाय की आवश्यकताओं भोजन, स्वास्थ्य और स्वच्छता, वस्त्र, आवास, मनोरंजन और सामाजिक सेवा के संबंध में की पहचान करने में सहायता करती है।
• समुदाय में उत्पादक गतिविधियों के साथ उसे परिचित करती है।
• कच्चे माल के स्रोतों को जानने और माल और सेवाओंके उत्पादन में उपकरण और उपकरणों के उपयोग को जानने में सहायता करती है।
• विविध प्रकार के कार्यों में शामिल वैज्ञानिक तथ्यों और सिद्धांतों को जानने में सहायक है ।
• उत्पादक कार्यों की योजना एवं नियोजन प्रक्रिया को समझने में सहायक । उत्पादक कार्यों के चयन, खरीद, व्यवस्था और उपकरण और उत्पादक कार्य के विभिन्न रूपों लिए सामग्री के उपयोग के लिए कौशल का विकास करना ।
• उत्पादक कार्य एवं समाज सेवा स्थितियों में समस्या को सुलझाने के तरीकों के कौशल का विकास करना ।
• मैनुअल काम और मैनुअल श्रमिकों के प्रति सम्मान का विकास करना ।
• आत्मनिर्भरता, समबद्धता, अनुशासन, सहयोग, दृढ़ता, सहनशीलता, आदि के वांछनीय मूल्यों का विकास।
• उत्पादक कार्य और सेवाओं के क्षेत्र में उपलब्धियों के माध्यम से आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास का विकास करना ।
• पर्यावरण के लिए चिंतन और अपनेपन, जिम्मेदारी और समाज के लिए प्रतिबद्धता की भावना का विकास करना।
• समाज के सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के बारे में जागरूकता का विकास करना।
बागवानी या उद्यान विज्ञान के समावेशन की सार्थकता
बागवानी' लैटिन शब्द 'Hortus' (उद्यान) और 'संस्कृति' (खेती) में बगीचा खेती अर्थ से ली गई है। बागवानी विज्ञान फल, सब्जियों, फूल, मसाले, सजावटी पौधे, वृक्षारोपण फसलों, कंद फसलों, औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती के साथ जुड़ा हुआ है। यह एक कला और विज्ञान है। पौधे, फल और सब्जियों इत्यादि हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हुए हैं। बागवानी का अध्ययन भारत जैसे कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में बहुत महत्व का है। बागवानी एक अनुप्रयोगित विज्ञान है। बागवानी या उद्यान विज्ञान के प्रकार में फल विज्ञान, पुष्प विज्ञान, सब्जी विज्ञान, फल सब्जी परिरक्षणके अलावा बागवानी चिकित्सा भी शामिल हैं। अत: यह विषय आकर्षक व्यवसाय अवसरों को प्रदान करती है। इस क्षेत्र में न केवल ज्ञान या आसपास के सौंदर्यीकरण बल्कि संयंत्र प्रचार और खेती, फसल उत्पादन, मिट्टी की तैयारी, प्लांट ब्रीडिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग, संयंत्र जैव रसायन और प्लांट फिजियोलॉजी के साथ भी संबंधित है। बागवानी लगभग किसी भी क्षेत्र में इच्छुक व्यक्ति के लिए कैरियर के अवसरों के साथ एक बहुत ही विविध क्षेत्र है। नौकरी पीएच.डी. के साथ उन लोगों के लिए बागवानी में लगभग हर किसी के लिए मौजूद हैं।
आतिथ्य के समावेशन की सार्थकताः आतिथ्य
अंग्रेज़ी के शब्द hospitality, अर्थात आतिथ्य, का उद्गम लैटिन शब्द hospes से हुआ है; तथा hospes की उत्पत्ति hostis से हुई है, जिसका मूल अर्थ है, शक्ति होना. शाब्दिक रूप से "मेजबान" का अर्थ "अजनबियों का स्वामी" होता है। अतः आतिथ्य का तात्पर्य अजनबी को मेजबान के बराबर/समतुल्य रखना, उसकी देखभाल करना तथा उसे सुरक्षित महसूस कराना होता है, तथा उसकी मेजबानी के अंत में उसे अगले पड़ाव का मार्गदर्शन प्रदान करना होता है | भारत संसार की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है, तथा अतिथियों के ईश्वर के समतुल्य मानने की इसकी प्राचीन संस्कृति है "अतिथि देवो भव" के दर्शन शास्त्र में विश्वास रखते हैं। आतिथ्य आचार शास्त्र अनुप्रयुक्त आचार शास्त्र की एक शाखा है। व्यवहार में, यह अनुप्रयुक्त आचार शास्त्र की अन्य शाखाओं के संबंधों को मिलाता है, जैसे कि व्यापार आचार शास्त्र, पर्यावरणीय आचार शास्त्र, व्यावसायिक आचार शास्त्र, एवं अन्य। चूँकि आतिथ्य एवं पर्यटन सम्मिलित रूप से विश्व में सबसे बड़े सेवा उद्योगों का सृजन करता है, अतः आतिथ्य एवं पर्यटन से जुड़े व्यक्तियों के लिये अच्छे और कार्यों की बहुत संभावनायें हैं।