भारतीय समाज का उद्भवः सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम
( Evolution of Indian Society-Socio-Cultural Dimensions)
भारतीय समाज का उद्भवः सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम
भारत विविध सामाजिक और सांस्कृतिक तत्त्वों का संश्लेषण कहा जाता है। यह आर्य और द्रविड़ संस्कृतियों का सम्मिश्रण है। इस संश्लेषण के फलस्वरूप गाँव, परिवार, जाति और विधि व्यवस्था में एकता पाई जाती है। प्राचीनकाल से आज तक भारतीय समाज की निरन्तरता इस संश्लेषण द्वारा बनी हुई है। मोहनजोदड़ो ( 2500 ईसा पूर्व) से लेकर बौद्ध, जैन, इस्लाम और ब्रिटिश शासन व स्वातंत्र्योत्तर भारत तक कला, चित्रकारी, संगीत और धर्म आदि के क्षेत्रों में सात्मीकरण तथा संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा निरन्तरता पाई जाती है।
के. एम. पणिकर जो एक निष्ठावान् राष्ट्रवादी थे, संश्लेषण और सात्मीकरण की ऐतिहासिकता को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं: "मैं संस्कृति को विचारों, धारणाओं, विकसित गुणों और संगठित संबंधों तथा शिष्टताओं की एक ग्रन्थि मानता हूँ जो प्रायः एक समाज में पाई जाती है। "
पणिकर इस संदर्भ में कहते हैं कि विचारों की समानता, आचरण व व्यवहार में एकरूपता और आधारभूत समस्याओं को समझने का सर्वमान्य उपागम साझा परम्पराओं और आदर्शों पर आधारित होते हैं। भारतीय संस्कृति की एक जीवन-पद्धति रही है, बाहरी सम्पर्क होने से इसमें निरन्तर संशोधन होते हैं, परन्तु देशी सिद्धान्तों और विचारों पर आधारित होने के कारण यह पद्धति मूलतः “ भारतीय " बनी रही। भारतीय संस्कृति के ये रूप और उपागम साहित्त्य, कला और वास्तुकला में दिखाई देते हैं। भारत में धार्मिक और सामाजिक सहिष्णुता की परम्परा रही है। इस परम्परा ने भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में समृद्धि और अनेकरूपता लाने में योगदान किया है।
प्राचीनकाल के मुख्य साहित्यिक स्रोत हैं:
(1) संस्कृत भाषा और संस्कृतिपरक भाषाओं में, और (2) द्रविड़ भाषाएँ । वेद, पुराण और महाभारत और प्राकृत एवं पाली भाषाओं का उल्लेख इनमें किया जाता है। श्रीलंका के इतिवृत, बुद्धिचरित और जैन साहित्य मुख्य ऐतिहासिक लेखन हैं। कल्याण के चालुक्य चत्रमानस और बंगाल के पाल के बारे में अनेक ऐतिहासिक कृतियाँ मध्ययुग के संस्कृतिक भाषाओं में शमिल की गई हैं। इन तीन राजवंशों के बारे में प्रसिद्ध कृतियों में क्रमशः विक्रमादेव चरित, पृथ्वीराज विजय और रामचरित हैं। कश्मीर की राजतरंगिनी और गुजरात के इतिवृत अन्य मुख्य कृतियाँ हैं। 1206 से 1761 ईस्वी के अर्न्तगत तमिल, कन्नड़, तेलुगू और मलयालम भाषाओं में महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गए। पारसी और अरबी भाषाओं को बहुत प्रोत्साहन मिला। प्रागैतिहासिक और आद्य ऐतिहासिक कालों को प्रस्तर युग, ताम्र युग और लौह युग में विभक्त किया गया है। इस प्रकार के वर्गीकरण से मनुष्य की भातिक और प्रौद्योगिक प्रगति का बोध होता है। मनुष्य की आर्थिक और सामाजिक प्रस्थिति तथा उसके पर्यावरण के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की अधिक आवश्यकता है। इस युग वर्गीकरण से पर्याप्त समझ प्राप्त नहीं की जा सकती।
मनुष्य की प्रगति की अवस्थाओं को समझने के लिए निम्नलिखित उद्भवीय प्रक्रिया अधिक सूचनाकारी है:
1. आदिम भोजन संग्रहण अवस्था या आदि और मध्य प्रस्तर युग ।
2. उन्नत भोजन-संग्रहण अवस्था या उत्तर प्रस्तर युग / पाषाणकाल
3. आरम्भिक भोजन उत्पादन संक्रमण या नवप्रस्तर युग ।
4. स्थायी ग्रामीण समुदाय या उन्नत नवप्रस्तर युग / ताम्रपाषाण ।
5. नगरीकरण या कांस्य युग।
यहाँ हम सिंधु सभ्यता के बारे में संक्षेप में वर्णन करेंगे। सिंधु सभ्यता नगरीय है, और इसका क्षेत्र नील नदी या टिगरीज- यूफ्रैटेज घाटियों या पीत नदी घाटी की सभ्यताओं के क्षेत्र से अधिक था। पश्चिम से पूर्व तक सिंधु घाटी की सभ्यता 1,550 किलोमीटर में, और उत्तर से दक्षिण में 1,100 से अधिक किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई थी। इस सभ्यता की आश्चर्यजनक विशेषता सुव्यवस्थित नगर आयोजन है रास्ते, गालियों और उपगलियों व घरों में सममिति थी, और ये सब भट्टों में पकी हुई ईंटों के बने हुए थे। भारत के गजेटियर भाग दो में लिखा है: “एक घर में एक केन्द्रीय आँगन, तीन से चार तक रहने के लिए कमरे, एक स्नानागार और एक रसोईघर होते थे। बड़े घरों में तीस तक कमरे और प्रायः दो मंजिलें होती थीं। कई मकानों में कुएँ भी होते थे और शानदार भूमिगत जलनिकास व्यवस्था थी।" सम्भवतः शहर " निम्न" और " ऊपरी ” भागों में बँटे हुए थे। एक " परिषद्”, एक बहु-खम्भव सीगार, एक सार्वजनकि स्नानागार, एक वृहद धान्य- भंडार और पक्की ईंटों से निर्मित दुर्ग तथा एक काष्ठ अधिरचना पाए गए हैं।
मटर, तरबूज और केले के अतिरिक्त गेहूँ जौ की भरपूर खेती होती थी। कपास भी उगाया जाता था। लोग मछली.मुर्गा, बकरा, गाय और सूअर का मांस खाते थे। बिल्लियाँ, कुत्ते और हाथी अधिक पाए जाते थे। धोती या रॉल का प्रयोग किया जाता था। स्त्रियाँ बड़े शौक से केश सँवारती थीं, और हार, भुजबन्द, अंगूठी बाली, करधनी और पायल आदि जेवरों से अपना श्रृंगार करती थीं। सिंधु घाटी के लोग पूर्ण कांस्य युग में थे, क्योंकि यह तथ्य आरी, हँसिया, छेनी, मछली- काँटा, पिन और शीशे आदि घेरलू वस्तुओं के उपयोग होता था, परन्तु स्थानीय स्तर पर उत्पादन नहीं होता था। पूजा की वस्तुओं से मालूम होता है कि सिंधु घाटी में भूमध्यसागरीय ऐल्पीय प्रोटो- आस्ट्रेलॉय और मंगोलॉय जन भी रहते थे। वास्तव में सिन्धु सभ्यता सर्वदेशीय थी।
तदन्तर अनुसन्धानों से भी एक व्यवस्थित नागरिक जीवन के अस्तित्त्व के बारे में ज्ञात होता है। इसके अर्न्तगत जिसमें सम्पूर्ण शहर का आयोजन एक नियमित जलनिकास व्यवस्था, वजन और माप का मानकीकरण तथा लेखन पद्धति शमिल थे, कला और हस्तकला भी विकसित होने लगी थी। इन सबके होते हुए भी लोग " आदिम" युग में ही थे। अर्थववेद के समय तक आर्य पूरी तरह से धातु के बारे में जाने लग गए थे और लोहे, कांसे और ताँबे में भेद समझते थे।
भारतीय समाज में अन्य सभ्यताओं की तुलना में परिवर्तन धीरे हुए हैं। "सांस्कृतिक विकास की प्रत्त्येक अवस्था अग्रिम अवस्था में परस्पर व्याप्त रहती थी. इसलिए किंचित् निरन्तरता और स्थायित्त्व बना रहता था। " क्षेत्रीय भिन्नताओं और विदेशियों के साथ निरन्तर सम्पर्क रहने के उपरान्त भी सिंधु सभ्यता अपने स्वरूप में मुख्यतः " भारतीय " है। इस मत के बारे में वैदिक साहित्य पुराणों, जैन व बौद्ध धर्मपुस्तकों में वर्णन मिलते हैं।
मौर्य साम्राज्य और अनेक क्षेत्रीय और स्थानीय संस्कृतियों के बारे में समुचित पुरातत्त्वीय प्रलेखन उपलब्ध हैं। सम्पूर्ण भारत में लोहे के बारे में जानकारी थी। संस्कृतियों के वर्गीकरण में संस्कृत भाषा के प्रसार से भी बहुत योगदान मिला है। पुरातत्त्वीय और भाषायी अध्ययन से सर्व भारतीय संस्कृति के उद्भव का प्रमाण मिलता है। भौगोलिक अलगाव से भी संकेत मिलते हैं कि यह उपमहाद्वीप वास्तव में “ भारतीय " है। “विभिन्न समूहों के लोग जो इस देश में बाहर से आए, उनके हजारों वर्ष के संघर्ष और अन्तःक्रिया का परिणाम संश्लेषण है। " विदेशियों के साथ सम्पर्क का सबसे अधिक परिणाम भाषायी एकीकरण था। पुराणों में वर्णित कथाओं और दंतकथाओं में प्रजातीय और सांस्कृतिक संश्लेषण प्रतिबिम्बित होता है। “आर्यकरण" बिहार और बंगाल के कुछ भागों में बहु फैल गया था। साथ-साथ विदेशी संस्कृतियों का भी " भारतीयकरण" हुआ। “आर्यकरण" का अभिप्राय आर्यो (विदेशियों) का देशी लोगों पर प्रभाव पड़ने से है, और " भारतीयकरण" का अर्थ आर्यों द्वारा मूलवासियों के जीवन शैलियों का अनुकरण करने की प्रक्रिया से है। परिवर्तन की इन दोनों प्रक्रिया द्वारा व्यवस्थापन उभरकर आया और अंत में आर्य और देशी संस्कृतियों का सात्मीकरण हुआ।
1 वैदिक सभ्यता
सिंधु घाटी संस्कृति का भारतीय आर्य सभ्यता के साथ क्या सम्बन्ध है? आर. सी. मजूमदार, एच. सी. रायचौधरी और कालीकिंकर दत्ता ने अपनी पुस्तक एन एडवांस्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया में लिखा है: “ऊपरी तौर पर दोनों में बहुत अंतर है। वैदिक आर्य ग्रामीण थे, जबकि सिंधु घाटी सभ्यता के लक्षणों के अनुसारवहाँ विकसित शहरी जीवन की सुविधाएँ थीं। वैदिक आर्य सम्भवतः लोहे और रक्षा शस्त्रों के बारे में जानते थे। वैदिक सभ्यता में घोड़े की भूमिका बहुत थी परंतु सिंधु घाटी में इसके अस्तित्त्व के आरे में शंका है। दोनों सभ्यताओं में धार्मिक विश्वासों और अभ्यास के संदर्भ में भी महत्त्वपूर्ण अंतर थे। "
भारत में आर्यों के बारे में ज्ञान का वेद ही एकमात्र साहित्यिक स्रोत हैं आर्यों के बारे में ऋग्वेद संहिता सबसे पुराना ग्रंथ हैं वैदिक समाज ग्रामीण और कृषकीय था। विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक और शैक्षणिक क्रियाकलापों की मुख्य संस्थाएँ मंदिर और विद्यालय थे। गाँव एक स्वायत्त इकाई थी। मैगस्थनीज के अनुसार ईसापूर्व चौथी सदी में सात जातियाँ थीं। अन्तरजातीय विवाह आम रिवाज़ था। शराब पीने, जुआ खेलने और वेश्यावृत्ति की बुराइयों को राज्य द्वारा नियंत्रित किया जाता था।
वैदिक युग में स्त्रियों को हर क्षेत्र में ज्ञान प्राप्त करने की छूट थी। उन्होंने वैदिक भजनों की रचना भी की। उपनिषद् काल में गार्गी और मैत्रीय प्रसिद्ध दार्शनिक थीं। उच्च जाति की स्त्रियाँ अपने पतियों के साथ यज्ञ में भाग लेती थीं। उनको सम्पत्ति के स्वामित्त्व का अधिकार था और विधवाएँ पुनर्विवाह कर सकती थीं। एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था, जबकि एक स्त्री को एक ही पुरुष के साथ विवाह करने का अधिकार था। किन्तु बौद्ध काल में वेदों का अध्ययन करने का अधिकार स्त्रियों से छीन लिया गया था। गुप्त काल में स्थिति में बहु परिवर्तन हुआ। स्वयंवर ( शक्ति परीक्षण के बाद कन्या वर का चुनाव करती थी) और गांधर्व (स्वतंत्र पारस्परिक पसन्द) विवाह प्रथाएँ कमजोर पड़ गईं। स्त्री से सम्पत्ति के स्वामित्त्व का अधिकार ले लिया गया और विधवाओं को पुनर्विवाह की स्वीकृति नहीं दी गई। पर्दा और सती प्रथाएँ उभरी।
2 उत्तर - वैदिक समाज और संस्कृति
ईसा युग की आरम्भिक सदियों में विदेशी आक्रमणकारी भारतीय शासक परिवारों के साथ घुल-मिलकर उनके प्रभाव में आ गए। विदेशी राजवंशों की राजधानियाँ सांस्कृतिक संश्लेषण की केन्द्र बन गई जिससे भारतीय सभ्यता को एक विशिष्ट सर्वदेशीय स्वरूप प्राप्त हुआ। गुप्त काल में पुराणों में वर्णित हिन्दू धर्म का उठाव हुआ। महात्त्मा बुद्ध को भगवान् विष्णु का अवतार मानते थे। ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद एक-दूसरे के समीप आए । हिन्दू धर्म, आदिम आस्थाएँ अभ्यास और विदेशी धार्मिक प्रतीक भी समीप आए। "हिन्दू समाज सांस्कृतिक और सामाजिक समूहों का एक संघ बन गया जिसमें विचारों और प्रथाओं का स्वतंत्र आदान-प्रदान और अच्छे पड़ोसी सम्बन्ध पाए जाते थे। " फाहियान के अनुसार पाँचवी सदी में गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत उत्तर भारत में सर्वत्र सम्पन्नता थी। व्यापारियों के पास अतुल सम्पत्ति थी। व्यापार और बैकिंग प्रगति पर थे। धनी लोग स्कूल, बौद्ध मठ, मन्दिर, अस्पताल और भिक्षालय चलाने के लिए उदारता से धन खर्च करते थे। पाटलिपुत्र में बौद्ध मठ एक प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र बना हुआ था। लोग शकुनों में विश्वास रखते थे। उनका विश्वास ज्योतिष में भी था। सामाजिक त्यौहारों और उत्सवों के अवसरों पर नृत्य, संगीत और दावत का आम रिवाज़ था । वसन्त उत्सव खुशी से मनाया जाता था।
समाज के विभिन्न अंगों के शतिमय और सुव्यवस्थित कार्य के लिए धर्म एक वास्तविक आचार संहिता थी, न कि कानून। “धर्मशास्त्र या स्मृतियों में प्रत्त्येक जाति और व्यवसाय, समाज में प्रत्त्येक सम्बन्ध - राजा और प्रजा, पति और पत्नी, गुरु और शिष्य के बारे में नियम दिए गए थे। नियम कठोर नहीं थे, और नई परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित किए जाते थे। कभी-कभी कानून निर्माता और पुरोहित वर्ग अपने स्वयं के विचार प्रविष्ट करके नई संरचनाएँ और निषेध सुझाते थे। " एक चीनी यात्री हेनसांग सातवीं सदी में भारत आया। उसके अनुसार लोग ईमानदार थे और वादे के पक्के थे। लोगों का विश्वास था कि बुरा काम करने पर दंड अवश्य मिलता है।
शास्त्रों में उल्लेखित नियमों द्वारा सामाजिक जीवन शासित होता था। हिन्दू समाज जातियों और उपजातियों में विभक्त था। सामाजिक अन्तःक्रिया और विवाह (सहभोजित्त्व और वैवाहित) के नियमों का सख्ती से पालन किया जाता था। खेल-कूद, त्यौहारों और उत्सवों का मानना और उपनयन (जनेऊ) धारण करना सामान्य बात थी। पाशविक जाति नियमों के परिणामरूवरूप भारतीय समाज पतन की ओर अग्रसर हुआ। निम्न और अछूत जातियों को अपमानित किया गया। स्त्रियों को दबाकर रखा गया। गण (कुलीनतंत्रीय राज्य) श्रेणी (शिल्पसंघ) और संघ (बौद्धमठ श्रेणियाँ) आदि सामूहिम संगठन विघटित होने लगे। जाति प्रथा के प्रादुर्भाव के कारण आर्थिक श्रेणियों के स्थान पर सामाजिक श्रेणियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण बन गई। अलबरूनी ने लिखा है कि 11वीं सदी में भारतीय विदेशियों से घृणा करने लगे थे।
श्रम की महिमा आत्म सम्मान की सूचक नहीं रही। समाज अत्यधिक विभेदित हो गया। कर्ज के भुगतान न कर पाने पर गुलाम बनाना एक आम रिवाज़ हो गया था। ऐसे लोगों को चाण्डाल, पुल्कराज़ और निशाद के नामों से जाना जाता था । " अछूतों" को उच्च जातियों से लग रखा जाता था। जाति प्रथा और दासता में दक्षिण और उत्तर भारत में कोई अंतर नहीं था। उत्तर की तुलना में दक्षिण में ग्रामीण जीवन और शिल्पसंघों को अधिक स्वायत्तता प्राप्त थी ।
3 वर्ण व्यवस्था
यह कहना मिथक होगा कि प्रागैतिहासिक समाज जातिविहीन, समता, समृद्धि और धर्मपरायणता पूर्ण सहस्त्राविद था। ऋग्वेद में वर्णन के अनुसार आर्यों और अनार्यों में समाज का विभाजन स्तरीकृत समाज का प्रथम सूचक है। आर्य या जनजाति विभिन्न अर्थपूर्ण कार्यों जैसे कृषि, पशुपालन और व्यापार आदि के आधार पर चार समूहों में विभक्त थे। आर्थिक कार्य करने वालों को वैश्य कहा जाता था। बेशीधन को ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों के रखरखाव पर खर्च किया जाता था। ये तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) अपने व्यवसायों से न कि अपने शरीर के रंग से पहचाने . जाते थे।
समाज कल्याण के लिए ब्राह्मण धार्मिक और आनुष्ठानिक कार्य, वेदों का अध्ययन और समाज के सब वर्गों के लिए मान (धर्म) बनाने के कर्त्तव्य को पूरा करते थे। देश की रक्षा कानून और व्यवस्था बनाए रखना क्षत्रिय का कार्य था ।
समय बीतने के साथ इन तीनों वर्णों ने अपने कार्यों में दक्षता प्राप्त कर ली और एक सामाजिक सोपान में ढल गए। जिससे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान रहा। चौथा स्थान शूद्र या दास का रहा जो तीन वर्गों के लोगों की सेवा करते थे। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में एक पौराणिक कहानी के अनुसार भगवान ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जाँघों से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई।
वर्ण जाति समूहों से भिन्न हैं क्योंकि वर्ण हिन्दू समाज के वृहद भाग हैं, जबकि जातियाँ विशिष्ट अन्तः वैवाहिक समूह हैं जिनकी संख्या हज़ारों में है। वर्ण अखिल भारतीय सामान्य घटक हैं जबकि जातियाँ स्थानिक समूह हैं। विभिन्न जातियाँ जो केरल या तमिलनाडु में पाई जाती हैं, वे गुजरात और राजस्थान में नही पाई जातीं। एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले एक ही जाति के सदस्यों में विवाह करते थे क्योंकि लोग दूसरे क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के पूर्ववृतों के बारे में जानकर नहीं होते हैं।
प्रारम्भ में वर्णों के व्यवसाय वंशानुगत नहीं थे। न केवल व्यवसायों के परिवर्तन की छूट थी, बल्कि यदि किसी व्यक्ति में आवश्यक बुद्धि और गुण थे तो वह अपनी प्रस्थिति को भी ऊपर उठा सकता था। उच्च से निम्न जाति की पदावनति भी होती थी। स्मृतियों के बाद में जाति और व्यवसाय स्थिर और बंशानुगत बनते गए। सामाजिक और आर्थिक क्रियाओं का विभाजन सामाजिक विधा का एक मानक और भाग बन गया। व्यक्ति उद्यम के उभय से वैयक्तिक सम्पत्ति का रास्ता खुल गया। इस प्रकार जाति और सम्पत्ति रूपी संस्थाओं ने राज्य का प्रादुर्भाव आवश्यक बना दिया। आर्थिक और राजनैतिक कार्यों को पूरा करने के लिए देश कुलपति और भूस्वामी प्रमुख सन्दर्भ स्तर बन गए। राजा राज्य का कुलपति बना और उसने अनेक अधिकारियों और सलाहकारों को नियुक्त किया। राज्य ने राजस्व तथा अन्य कर भी वसूल करने शुरू कर दिये। वर्ण व्यवस्था को समाज की आवश्यकताओं को के लिए एक लाभकारी व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया। पूरा करने अनेक ऋषियों ने अपनी संहिताओं में विभिन्न समूहों के बीच सामाजिक संबंधों और विवाह पर प्रतिबंध लगाने के महत्त्व पर बल देकर वर्ण व्यवस्था को कठोर बनाने में मदद की। रामायण, महाभारत और जातक कथाओं में लिखा है कि ब्राह्मण न केवल वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत सर्वश्रेष्ठ थे, बल्कि उनके पास सम्पत्ति और सत्ता भी थी। राजा ने अपने विशेषाधिकार से ब्राह्मणों को गाँवों में राजस्व वसूल करने की छूट या कर मुक्त जमीनें (ब्रह्मदेव) दी थीं। जब ब्राह्मण अनुदानग्राही वेदों के अध्ययन में व्यस्त नहीं थे। उनमें से अनेक वैश्यों का कार्य करते थे। अन्य व्यवसायों की तरह ब्राह्माणों ने भी अपने संघ बनाए। वे अपने हिस्सों के लिए झगड़ते भी रहते थे। ब्राह्मण धर्मनिरपेक्ष नहीं थे क्योंकि उन्हें राजाओ और जनसाधारण दोनों से बहुत सा दान मिलता था। मनु और नारद के अनुसार वे " भ्रष्ट" बन गए थे।
क्षत्रियों और वैश्यों पर वर्ण का वंशानुगत आधार लागू नहीं होता था। “शासन कला और सैन्य व्यवसाय एक समूह तक सीमित नहीं थे। भारत के इतिहास में ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र शाही राजवंशों के उल्लेखों की कमी नहीं है। सातवाहन ब्राह्मण थे, गुप्त वैश्य थे और नंद राजा शूद्र थे। इसके अलावा यवन, शक और कुशान राजवंश किसी जाति के नहीं थे। "
वैश्य एक बहुत अधिक विभेदित जाति समूह था क्योंकि उसमें कुछ परिवार धनी थे और अन्य छोटे किसान, कारीगर, फेरीवाले और निम्न कर्मी थे। शूद्र लोगों का प्रत्यक्ष रूप में एक वर्ग स्वरूप था। वे तीनों वर्णों की सेवा करते थे, और उनकी आर्थिक स्थिति निम्नतम थी। असलियत में वे उच्च जातियों के "नौकर" थे। फिर भी वे बाह्य जातियाँ वर्ण व्यवस्था के बाहर समझी जाती थीं । विभेदीकरण के बढ़ने और विभिन्न जातियों में विवाह द्वारा मिश्रण होने के कारण उपजातियाँ बनीं।
क्या जाति और वर्ग प्राचीन भारत में परस्पर व्याप्त थे? मनुष्य की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होने से उसकी जाति प्रस्थिति प्रभावित नहीं होती थी। जाति और वर्ग, ये दो सोपान, मेल नहीं खाते थे। वर्ग सोपान में ऊपर से नीचे तक निम्नलिखित वर्ग थे (1) उच्च अधिकारी, व्यापारी साहूकार और भूस्वामी (2) लघु उन्मुक्त भूमिधर, कारीगर और साधारण अधिकारी, (3) अधिकार और सम्पत्तिविहीन श्रमिक और (4) उपेक्षित और पृथकृत श्रमिक। अंतिम दो कोटियों में शूद्र और मलेच्छ लोग थे। परन्तु प्रथम दो श्रेणियाँ ब्राह्मणों और क्षत्रियों के समानान्तर नहीं थीं, क्योंकि जिन लोगों ने अपने व्यावयासिक कार्य लग्नता से किए वे आर्थिक रूपसे कभी भी सम्पन्न नहीं हो सके। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को बहुत सम्मान और प्रभुत्त्व प्राप्त था क्योंकि उनके व्यवसायों की उच्च सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता थी। फिर भी समाज के विभिन्न वर्गों के हितों का संतुलन और अपना आंगिक स्वरूप जाति व्यवस्था ने बनाए रखा। बौद्धधर्म के उत्थान से जाति प्रथा को गहरा आघात पहुँचा ।
4 वर्णाश्रम व्यवस्था
हिन्दू समाज का मुख्य स्तम्भ वर्णाश्रम धर्म था। वर्णाश्रम में चार वर्णों (जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है) और मनुष्य के जीवन में चार अवस्थाओं (आश्रमों) का समावेश किया गया है। चार आश्रम (अवस्थाएँ) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास थे। ब्रह्मचर्य में शिक्षा, चरित्र और व्यक्तित्त्व के निर्माण का कार्य किया जाता है। गृहस्थाश्रम में मनुष्य विवाह करके अपने परिवार का पालन एक धार्मिक कर्त्तव्य समझकर करता है। तीसरे और चौथे आश्रमों में इस संसार का परित्याग करता है और आध्यात्मिक ज्ञान तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपना जीवन समर्पित करता है। आश्रम समानता और एकता के सिद्धान्त थे। इनका उद्देश्य एक भरपूर जीवन की प्राप्ति था। इन योजनाओं से पुरुषार्थ की योजना गहराई से जुड़ी थी। पुरुषार्थ जीवन के मूल सिद्धान्त थे। पुरुषार्थों द्वारा मनुष्य को स्वयं अपने परिवार और वृहद् समुदाय के प्रति कर्त्तव्यों का बोध होता था धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। इन सिद्धान्तों को एक सोपानीय क्रम में व्यवस्थित मूल्य भाव या जीवन के उद्देश्य कहा जा सकता है। धर्म या नैतिक कर्तव्य सब मानव क्रियाओं में मूलभूत है।
समाजशास्त्री योगेन्द्र सिंह ने चार सोपानों का उल्लेख किया है, अर्थात् (1) भूमिका संस्थान (वर्ण), (2) करिश्माई प्रतिभा (गुण), (3) उद्देश्य - अभिविन्यास (पुरुषार्थ) और (4) जीवन अवस्थाएँ व मूल्य बंधन (आश्रम)। ये चार सोपान सांस्कृतिक व्यवस्था और उसकी संरचना की हिन्दू अवधारणा के भाग हैं। योगेन्द्र सिंह ने व्यवस्था और परिवर्तन दोनों को भारतीय परम्परा की मुख्य विशेषताएँ बतलाया है। सोपान. साकल्यवाद और निरन्तरता (व्यवस्था) को संकेतित करते हैं, और "परिवर्तन" की व्याख्या " अनुभवातीतता" या रूपान्तरण के संदर्भ में की जाती है। भारतीय परम्परा में प्रत्त्येक वस्तु सोपानीकृत होती है।
5 इस्लाम की परम्परा और संस्कृति
मुस्लिम धर्म संस्कृति क्या है? योगेन्द्र सिंह के अनुसार: “हिन्दू दीर्घ परम्परा की संरचना के विपरीत, इस्लाम की दीर्घ परम्परा का जीवन-दृष्टिकोण ऊपरी तौर पर असोपानीय है, यह परम्परा स्वभावतः एकेश्वरवादात्मक और मसीहीऐतिहासिक है।" इस्लाम के जीवन-दृष्टिकोण में धर्म प्रचार का विशेष स्थान है। इस्लाम अनुभवातीत और समाज केन्द्रित भी है। सिद्धान्त रूप में इस्लाम में पुरोहित नहीं होते हैं। इस्लाम अनुदार और एकान्तिक धर्म है। यह मुस्लिम उल्मा की एकता ( भक्तों की सामूहिकता) पर आधारित है। इस अनुभवातीतता और साहिकता को कुरान (धर्मग्रंथ) और विभिन्न इस्लाम की परम्पराओं से योगदान मिला अतः सिद्धांततः इस्लाम धर्म में समानता और समतावाद के तत्त्व हैं। प्रारम्भ में इस्लाम का प्रसार जनजातीय लोगों में समतावादी संदेश के साथ ही हुआ था। परन्तु तदुपरान्त इस्लाम में जटिलता आ गई। खानाबदोशवाद से यह कृषीय और व्यापारिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गया। इस्लाम की जड़ें कई देशों में फैल गई। इसका स्वरूप सामन्त सत्तावादी हो गया।
भारत में संख्या की दृष्टि से मुसलमान द्वितीय स्थान पर आते हैं। हिन्दुओं को छोड़कर उनका सबसे बड़ा समूह है। एक सहस्त्राब्दी से हिन्दू और मुसलमान साथ रहते आए हैं। दोनों संस्कृतियाँ, जीवन-दृष्टिकोण और जीवन पद्धतियाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। इस्लाम और हिन्दू परम्पराओं में अन्तःक्रिया हुई है, उनका संश्लेषण हुआ है, और वे एक-दूसरे से अलग भी रही हैं। योगेन्द्र सिंह के अनुसार इस्लामिक परम्पराओं की तीन प्रमुख अवस्थाएँ हैं। ये हैं: (1) भारत में इस्लाम शासन की अवधि, (2) ब्रिटिश आधिपत्य के दौरान और (3) भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन और भारत की स्वतंत्रता तथा देश के विभाजन की अवधि में प्रथम अवस्था में हिन्दू और इस्लाम परम्पराओं में संघर्ष, तनाव तथा व्यवस्थापन और समन्वय दोनों थे। मुस्लिम शासकों ने उल्मा की मदद से धर्मयुद्ध ( जिहाद ) चलाया था। इन संघर्षो के बावजूद पारसी समाज के साथ सम्पर्क होने के कारण दोनों परम्पराओं के जनजातीय समतावादी स्परूप में परिवर्तन आ गया था। इस समय तक इस्लाम की सामाजिक संरचना में प्रस्थिति और सम्मान पर आधारित भेदभावों का समावेश हो चुका था।
इस्लामिक समाज पुरोहितों, कुलीनवर्ण और अन्य सब लोगों में विभक्त था। 12वीं सदी में मुसलमानों में वंशानुगत उत्तराधिकार भी पाया जाता था। देशी लोगों (अपरिवर्तित विदेशी) में अभिजात वर्ग समाज का उच्चतक अंग था। अशरफ मुसलमानों में चार श्रेणियाँ (सैयद शेख, मुगल और पठान ) थीं। सैयद, और शेख इस्लाम के कुलीन वर्ग में थे और उच्च धार्मिक पदों पर आसीन थे। मुगल और पठान यौद्धा सामन्त- कुलीन और शासक थे। बाद में ये समूह जाति-तुल्य संरचना में परिवर्तित हो गए, और इस्लाम की परम्परा के संरक्षक बन गए। सूफी परम्परा में सत्रह श्रेणियाँ थीं। इसमें तापसिक नीति और तत्त्वमीमांसा पर बल देने के कारण हिन्दू सूफी परम्परा से प्रभावित हुए।
6 इस्लाम का भारतीय समाज पर प्रभाव
इस्लाम के प्रादुर्भाव से पहले और हर्ष के शासनकाल के पश्चात् भारत में राजनैतिक विघटन और बौद्धिक अवरोध का एक दौर आया। देश अनेक छोटे राज्यों में बँट गया और लोगों में संकीर्ण दृष्टिकोण तथा अभिज्ञान उत्त्पन्न हो गए। धार्मिक और सास्कृतिक जीवन में औपचारिकवाद और सत्तावाद हावी थे। शैववाद और वैष्णवाद विशिष्ट धार्मिक पंथों के रूप में उभरकर आए। बुद्धिजीवी अभिजात ने कोई नवाचारिक धार्मिक लेखन, विचार या टिप्पणियाँ नहीं लिखीं। गुप्त राजवंश के स्वर्ण युग का अंत शक, हूण और गुर्जर शासकों के हाथों से हुआ। लेकिन इन विदेशियों ने धीरे-धीरे हिन्दू धर्म और संस्कृति को अपना लिया। ये आक्रमणकारी स्वयं को क्षत्रियों के वंशज कहते थे। यही समय राजपूत संस्कृति, कला, साहित्य, काव्य पाठ और नाटक का शुरुआत था। मालवा, कन्नौज, बंगाल, कश्मीर, अजमेर, ग्वालियर, चित्तौड़, रणथम्भौर और माण्डू न केवल राजपूत शीर्य के ही लिए विख्यात स्थान थे, बल्कि नई संस्कृति, वास्तुकला और साहित्य के लिए भी प्रसिद्ध थे। दक्षिण भारत इस अवधि में निश्चल रहा, और इसलिए वहाँ उत्तर भारत की तरह राजनीतिक विघटन नहीं हुआ। पूरे प्रायद्वीप में चौल वंश का शासन था । इतिहासकार ताराचन्द ने अपनी पुस्तक, भारतीय संस्कृतिक पर इस्लाम का प्रभाव (अंग्रेजी में) में लिखा है कि इस्लामिक संस्कृति के प्रभाव के कारण दक्षिण भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण आया। भारत में इस्लाम के अपने से कई सदियों पहले अरब के मुसलमानों के दक्षिण भारत के साथ व्यापारिक संबंध थे। भारत और ईरान के बीच समुद्रीय व्यापार चरम सीमा पर था। कुछ विदेशी व्यापारी तो श्रीलंका और मालाबार तट पर बस भी गए थे। कुछ अरबी मुसलमान सिंध और गुजरात में भी आए परन्तु उनका प्रभाव सीमित था । 12वीं सदी से भारतीय समाज पर इस्लामिक संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
एच. पी. श्रीनिवास मूर्ति और एस. यू. काथम ने भारतीय समाज पर इस्लाम के प्रभाव के नकारात्मक और सकारात्त्मक दोनों पहलुओं पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार “हिन्दू समाज को घोर जातिवादी और अनन्य बनाने में इस्लाम परोक्ष रूप से उत्तरदायी है। हिन्दू स्त्रियों में पर्दा प्रथा लाई गई और सती प्रथा को अधिक कठोर बनाया गया। बाल विवाह अधिक जनप्रिय हुए। "
7 हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों का संश्लेषण
हिन्दी में सूफी लेखकों के लेखन से हिन्दी का विकास हुआ। हिन्दी और पारसी भाषाओं से मिलकर उर्दू एक मिश्रित भाषा के रूप में उभरकर आई। भारतीय संगीत भी इस्लाम से बहुत प्रभावित हुआ। पारसी संगीत के प्रभाव से हिन्दुस्तानी संगीत में खयाल जैसी नई शैली का प्रादुर्भाव हुआ। तबला और सितार जैसे नए वाद्य यंत्र भी विकसित हुए। वास्तुकला के क्षेत्र में भारतीय मुस्लिम शैली, जिसमें बड़े आँगन, अतिविशाल गुम्बद दरवाजे और मीनार पर ज़ोर दिया जाता है, उभरकर आई। हिन्दुओं के रहस्यवाद से सूफीवाद बहुत प्रभावित हुआ। इस्लाम के एकेश्वरवादी विचारों ने हिन्दू समाज को प्रभावित किया, विशेषकर कबीर जैसे भक्ति आन्दोलन के कुछ अग्रणियों को मुगल काल में भक्ति आन्दोलन का उदय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी । भक्ति आन्दोलन के नेता रहस्यवादी संत थे। उन्होंने कहा कि परमात्मा एक है। ईश्वर के बारे में सार्वभौमिकता, प्रेम और समानता जैसे गुणी का उन्होंने प्रचार किया। इस सम्प्रदाय के मुख्य समर्थक वैष्णवादी थे। दक्षिण भारत भक्ति आन्दोलन का मुख्य केन्द्र था। तमिलनाडु के नयनार (शैववादी) और आलवार (वैष्णववादी) समुदायों ने भक्ति संगीत गा-गाकर इस आन्दोलन को जनप्रिय बनाया। संत रामानुज और माधव इसके मुख्य कर्णधार थे। रामानुज ने विशिष्ट अद्वैत (सीमित अद्वैतवाद), और माधव ने द्वैतवाद की शिक्षा दी। 12वीं सदी में संत बसावा ने वीरशैववाद (एक उत्साही शैव सम्प्रदाय) का प्रचार किया। रामानन्द ( रामभक्ति के एक प्रचारक), कबीर ज्ञानदेव और रैदास अन्य भक्ति संत थे जिन्होंने उत्तर भारत में अद्वैतवाद का प्रचार किया। विष्णु और राम भक्ति के प्रचार में वे मुख्यतः लगे रहे। भक्ति कोई एक धर्म नहीं था। कबीर पंथ ने सार्वभौमिक विश्व बन्धुत्त्व, प्रेम और हिन्दू तथा मुसलमानों में शांति का प्रचार किया। चैतन्य प्रभु तुलसीदास सूरदास और मीरा ने भक्ति आन्दोलन और हिन्दी साहित्य को सशक्त बनाया।
एक नए धर्म, दीन-ए-इलाही का प्रचार करके मुगल बादशाह अकबर ने हिन्दू, इस्लाम, जैन और पारसी धर्मों के भी संश्लेषण को पाने की कोशिश की। साहित्यकार अमीर खुसरो ने मुस्लिम संस्कृति में हिन्दूवाद को प्रविष्ट करवाने का प्रयत्न किया। अनेक कवियों ने हिन्दी में रचनाएँ कीं। अनेक लोगों ने इन दोनों धर्मों के सांस्कृतिक एकीकरण के लिए याचनाएँ कीं। इस संश्लेषण के साथ-साथ इस्लाम प्रशासन और मुस्लिम पुरोहित वर्ग के समर्थन से रूढ़िवादी रास्ते पर चलता रहा। मुसलमान काजी (न्यायाधीश). मुफ्ती (उपदेशक), फनीदार ( जिला प्रशासन) और दरबारी (पहरेदार) आर्थिक लाभ और सत्ता के पदों पर काम करते थे। उन्होंने इस्लामी संस्कृति को बढ़ाने में योगदान दिया। ब्रिटिश काल में मुसलमानों की प्रतिष्ठा और शक्ति में कमी हुई। राजनैतिक शक्ति और वैधता के पतन के कारण मुसलमान अभिजात वर्ग और इस्लामी परम्परा को गहरा धक्का लगा। मुसलमानों में गरीबी ने घर कर लिया और उनकी शिक्षा पद्धति में भी गहरे परिवर्तन हुए। इस्लाम की समन्वयवादी और उदार प्रवृत्तिया कमजोर पड़ गई और आठवीं सदी की तरह की रूढ़िवादिता और पुनर्जागरण ने उनका स्थान ले लिया। योगेन्द्र सिंह के मतानुसार, 19वीं सदी के धर्म सुधार आन्दोलन के बारे में दो विरोधाभासी मतावलम्बी थे।: (1) उदारवाद और शांतिमय सुधार के लिए, (2) अधिक कट्टरपंथिता और सैन्यवाद के लिए। दूसरे मत- समर्थक शायद पाकिस्तान के निर्माण के लिए उत्तरदायी थे। 20वीं सदी के प्रारम्भ में स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में संबंध दो स्तरों पर थे : ( 1 ) इस्लामी परम्परा के साथ धर्मनिरपेक्ष विचारो वाले और कट्टरपंथी मुस्लिम अभिजात वर्ग के मध्य और (2) हिन्दू अभिजात का मुसलमान अभिजात के बीच संबंध स्वतंत्र भारत में मुसलमानों ने हिन्दुओं के समान सत्ता और राजनैतिक बराबरी की माँ की। उन्हें डर था कि उनके साथ स्वतंत्रता के बाद पहले जैसा व्यवहार नहीं किया जाएगा, इसलिए उन्होने एक मुस्लिम राज्य पाकिस्तान की स्थापना के लिए आंदालन किया। उन्होंने सोचा कि मुस्लिम राज्य की स्थापना से न केवल उन्हें खोई हुई सत्ता और प्रतिष्ठा ही प्राप्त होगी, बल्कि वे इस्लामी परंपरा, संस्कृति और राष्ट्रवाद का पुनर्जागरण भी कर पाएँगे।
योगेन्द्र सिंह ने लघु और दीर्घ परम्पराओं में निम्न विभेद किया है। लघु परम्परा ग्रामीण, जन-आधारित है, इसके मानने वाले अशिक्षित और कम रीतिबद्ध व्यक्ति हैं, जबकि दीर्घ परम्परा अभिजात आधारित नगरीय, मननशील और रीतिबद्ध है। इस्लामी लघु परम्परा में मुख्यतया हिन्दू धर्म से आए नवधर्मी हैं। इसमें उन मुसलमानों के वंशज भी हैं जिनकी सामाजिक प्रस्थिति निम्न हो गई थी। कम से कम तीन तरह से इस्लामीकरण एक वास्तविकता बनी हुई है: ( 1 ) इस्लाम को धर्म परिवर्तन द्वारा अपनाकर कई समूह की अपनी प्रस्थिति में अपरिमुखी सांस्कृतिक और सामाजिक गतिशीलता, (2) नवधर्मियों में कट्टरपंथिता को प्रतिस्थापित करने के लिए आन्दोलन और (3) गैर-मुसलमानों द्वारा कुछ इस्लामी सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाने के सन्दर्भ में।
ब्रिटिश शासन के आरम्भ होने तक इस्लामीकरण एक प्रकार का संस्कृतिकरण था। ब्रिटिश काल और स्वातंत्र्योत्तर भारत में यह पुनर्जागरणकारी आन्दोलन के रूप में पाया जाता है। फिर भी धर्म परिवर्तन से प्रायः सामाजिक-सांस्कृतिक प्रस्थिति में परिवर्तन आता है और यदा-कदा आर्थिक लाभ और मानसिक संतुष्टि भी प्राप्त होती है। प्रायः अधोपतित प्रस्थिति वाले निम्न हिन्दू जातियों के सदस्यों ने इस्लाम को या पिछले कुछ दशकों में ईसाई धर्म को प्रस्थिति की समानता और आर्थिक लाभों के लिए अपनाया। लेकिन नवधर्मियों को पुराने धर्मानुयायों के समान स्थान नहीं दिया गया है और न ही उन्हें उच्च स्थान दिया गया है जिनको छोड़कर वे नए धर्म में शमिल हुए हैं। अन्तर्विवाह और अनुलोम विवाह के संदर्भ में वे अपनी पुरानी जातियों समुदायों के नियमों के अनुसार ही परिवर्तन के बाद भी कार्य करते हैं।
भारत में मुसलमान आज भी एक अनुदार समुदाय है। आर्थिक असमानताएँ मुसलमानों में अधिक हैं। वे वैयक्तिक कानून, पर्दा प्रथा और परिवार नियोजन के बारे में बहुत भावुक हैं। सांस्कृतिक मामलों में मुसलमान हिन्दुओं की तुलना में अधिक "पिछड़े हुए हैं, क्योंकि हिन्दुओं में अनुशीलन क्षमताएँ अधिक पाई गई है। मुसलमान हिन्दुओं के बहुसंख्या में होने के कारण भी डर और संशय से ग्रसित रहते हैं। पाकिस्तान जीवन की मुख्यधारा में अपने आपको आत्मसात कर लेना चाहिए। मुसलमानों में आत्मविश्वास उत्पन्न करने में हिन्दू समुदाय एक रचनात्मक भूमिका अदा कर सकता है।
8 ब्रिटिश काल में समाज
ब्रिटिश घुसपैठ के समय भारतीय समाज लगभग निश्चल था। ब्रिटिश शासकों को सलाह दी गई थी कि उन्हें हिन्दुओं के सामाजिक रिवाजों और धार्मिक आस्थाओं में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। एल अब्बे डूबोई का मत था कि जिस दिन ब्रिटिश शासन ने हस्तक्षेप किया, वही एक राजनैतिक शक्ति के रूप में इसके अस्तित्त्व का अंतिम दिन होगा। मुगल शासक भी प्राय: धर्म परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन का एक साधन मानने के पक्ष में नहीं थे। इस अध्याय के पहले अनुभाग में हमने कहा है कि मध्यकालीन युग में एक प्रकार के संश्लेषण का प्रादुर्भाव हुआ। ग्रामीण भारत में जाति और वर्ग संरचनाएँ ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ में कठोर व निश्चल थीं। व्यक्ति को जाति, परिवार और गाँव के अधीनस्थ समझा जाता था । अर्थव्यवस्था पुरातन थी। लोगों में राष्ट्रीय चेतना की कमी थी। ऐसे समय पर ब्रिटिश शासन के आगमन से नई स्थिति उत्पन्न हुई।
ब्रिटिश सरकार, ईसाई मिशनरी और अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ा है। ब्रिटिश सरकार ने देशी प्रशासन एवं अभिशासन का स्थान ग्रहण कर लिया। मिशनों ने भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तन करने का प्रयत्न किया। शिक्षाविदों ने देशी जनता के दृष्टिकोण में इच्छा परिवर्तन लाने हेतु शिक्षा प्रसार के लिए प्रयत्न किए। भारत में अंग्रेज समुदाय ने भी देश के विभिन्न भागों में लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया। ब्रिटिश शासन के कुछ ठोस परिणामों में राष्ट्रीय चेतना का प्रादुर्भाव, संगठन के महत्त्व को समझना, और इसके पश्चात् आन्दोलन के महत्त्व को समझकर 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। के. एम. पणिकर के अनुसार, "ब्रिटिश शासन की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि भारत का एकीकरण था।" भारतीय लोगों के हित को ध्यान में रखकर ब्रिटिश शासन ने ऐसा जानबूझकर नहीं किया। वास्तव में उनकी रुचि पूरे भारत में अपने शासन के प्रसार और उसको दृढ़ करने में थी। पश्चिमी शिक्षा, यातायात और संचार के साधन, प्रौद्योगिकी और न्यायपालिका के प्रारम्भ करने में भी ब्रिटिश शासन का स्वयं का हित प्रमुख था।
योगेन्द्र सिंह के मतानुसार, “पश्चिम के साथ भारतीय (हिन्दू) परम्परा का सम्पर्क भिन्न और मौलिक समाजशास्त्रीय महत्त्व का था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह सम्पर्क एक पूर्व आधुनिक और आधुनिकीकृत सांस्कृति व्यवस्था के बीच का था । " पश्चिमी परम्परा में तर्कणावाद, समानता और स्वतंत्रता पर आधारित वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक विश्व-दृष्टि पाई जाती थी। परिणामस्वरूप भारतीय परम्परा, जिसमें पहले ही एक प्रकार का “बिगाड़" आ गया था, खुली उदार, समानतावादी और मानवतावादी बनी। इस प्रकार पश्चिमी (ब्रिटिश) परम्परा भारतीय परम्परा के सामने एक चुनौती बनकर आई। सोपान, जो एक जाति समूह में जन्म पर आधारित सामाजिक सोपान का सिद्धांत था, और साकल्यवाद जो विभिन्न समूहों को प्रदत्त प्रकार्यों और कर्त्तव्यों के सम्पन्न करने के मानकों पर आधारित भिन्न-भिन्न जाति समूहों के बीच सावयवी अन्तर्निर्भरता था, पश्चिमी परम्परा द्वारा बहुत प्रभावित हुए।
9 पश्चिमीकरण
एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार पश्चिमीकरण वह परिवर्तन है जो भारत में ब्रिटिश शासन के प्रभाव के कारण आया है। यह परिवर्तन तकनीक, वेशभूषा, खान-पान और लोगों की आदतों और जीवन शैलियों आदि में दिखाई देता है। तीन स्तरों पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया काम करती है: (1) प्राथमिक (2) द्वितीयक और (3) तृतीयक प्राथमिक स्तर पर कुछ लोग थे जो पश्चिमी संस्कृति के साथ सम्पर्क में आए और इससे लाभान्वित होने वालों में भी प्रथम थे। द्वितीयक स्तर के पश्चिमीकरण का अभिप्राय भारतीय समाज के उन वर्गों से है जो प्रथम लाभ भोगियों के साथ प्रत्त्यक्ष सम्पर्क में आए। तृतीयक स्तर पर वे लोग हैं जो ब्रिटिश द्वारा शुरू की गई तरकीबों के बारे में अप्रत्यक्ष रूप से जानकारी प्राप्त कर पाए। इस प्रकार पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के तीन स्तर हैं। भारतीय समाज के विभिन्न अनुभागों में इस प्रक्रिया का प्रसार असमान और असमानतावादी भी रहा है। यद्यपि श्रीनिवास ने इस प्रक्रिया की अच्छाइयों में मानवतावाद और समतावाद का उल्लेख किया है परन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार पश्चिमीकरण सांस्कृतिक और ज्ञानात्मक उपनिवेशवाद की प्रक्रिया है और अवैयक्तिक असांस्कृतिक और असार्वभौम राज्य का एक नमूना है। "
पश्चिमीकरण ने नए आधारों पर एक अखिल भारतीय संस्कृति के पुनः प्रादुर्भाव में योगदान दिया है। पश्चिमीकरण का प्रभाव शिक्षा, कानून, विज्ञान और तकनीकी राजनीतिकरण के नए प्रकारों, नगरीकरण औद्योगीकरण, प्रेस और यातायात और संचार के साधनों के क्षेत्रों में हुआ है। इन संस्थापक केन्द्रों के प्रादुर्भाव को योगेन्द्र सिंह ने “ सांस्कृतिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की संज्ञा दी है। पश्चिमी प्रभाव द्वारा आधुनिकीकरण की एक महान् परम्परा उत्पन्न " हुई है। निश्चय ही, इसके कारण देशज परम्परा और पश्चिमी परम्परा के बीच संघर्ष की समस्या बन गई है। भारतीय समाज के अभिजात अनुभागों के सन्दर्भ में इन दोनों परम्पराओं में संश्लेषण पाया जाता है।
आरम्भिक अवस्था में पश्चिमी प्रभाव परिधीय और स्थानीकृत था क्योंकि यह कोलकाता, बम्बई और मद्रास शहरों में मध्यम वर्गीय लोगों तक सीमित रहा। शैक्षिक संस्थाएँ भी इन तीन शहरों में केन्द्रित थीं। अंग्रेजी शिक्षा का दोहरा प्रभाव पड़ा: (1) शिक्षित लोगों में पश्चिमी मूल्यों और विचारधाराओं का अंतर्निवेशन, (2) सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार आन्दोलनों का आरोह । सुधार आन्दोलनों के बारे में हम एक अन्य अध्याय में चर्चा करेंगे। शिक्षा भी उच्च और मध्यम वर्गीय शहरी लोगों तक सीमित थी। ब्रिटिश शासन ने एक नई चेतना और मूल्यों की संरचना की रचना की। योगेन्द्र सिंह के अनुसार पश्चिमीकरण के निम्न प्रभाव हैं:
1. एक सर्वव्यापी विधि अधि- संरचना का विकास
2. शिक्षा प्रसार
3. नगरीकरण और औद्योगीकरण
4. संचार का वृहद् जाल
5. राष्ट्रीयवाद का विकास और समाज का राजनीतिकरण ।
सम्पूर्ण देश में इन तत्त्वों से आधुनिकीकरण में योगदान प्राप्त हुआ। न्यायपालिका, न्यायालय, कानून (बाल विवाह, बाल हत्त्या और सती इत्यादि को रोकने के लिए), विधि आयोग बनाए गए और विवाह, परिवार, तलाक, दत्तकग्रहण, सम्पत्ति हस्तान्तरण, अल्पसंख्यक, भूमि अधिकार, लेन-देन, व्यापार, उद्योग और श्रम आदि के बारे में नए कानून लागू किए।
10 शिक्षा पर प्रभाव
अंग्रेजी शिक्षा और भाषा को बढ़ावा देने के लिए 1835 की मैकाले की नीति, शिक्षा के प्रसार में मिशनों की भूमिका और 1882 का प्रथम शिक्षा आयोग ब्रिटिश काल की मुख्य विशेषताएँ हैं। ब्रिटिश नीति के अर्न्तगत उच्च शिक्षा पर अधिक बल दिया गया था। प्राथमिक और द्वितीयक स्तरों पर शिक्षा की अवहेलना की गई थी। पाठयक्रम सामग्री और शिक्षण संस्थाओं के प्रबंध के स्नदर्भ में आज भी भारत ब्रिटिश नमूने का अनुकरण कर रहा है। 1948 और 1964 के शिक्षा आयोगों ने जो क्रमशः डा. रास. राधाकृष्णन और डा. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में बने थे, इच्छित फलपूर्ति नहीं की है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान कुछ विश्वविद्यालयों में समाज विज्ञानों और मानविकी में पाठयक्रम का देशीकरण किया गया है।
भारत में नगरीकरण और औद्योगीकरण प्राय: सहवर्ती हैं। अनेक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि ये दोनों प्रक्रियाएँ को सबल करती हैं। विकसित देशों की तुलना में भारत में नगरीकरण एक धीमी प्रक्रिया है। फिर भी नगरीय जनसंख्या में वृद्धि है। शहरों में सभी प्रमुख संसाधनात्मक सुविधाओं और उच्च प्रशिक्षित व्यवसायियों का केन्द्रीकरण पाया जाता हैं यह प्रक्रिया विभिन्न शहरों और क्षेत्रों में असमान रही है, और यही बात औद्योगीकरण के बारे में लागू होती है। भूतकाल में औद्योगीकरण के तीव्र विकास में अनेक संस्थात्मक कारक बाधक रहे हैं। रिचार्ड लैम्बर्ट, मिल्टन सिंगर और एन. आर. सेठ के अध्ययनों से पता चलता है कि जाति संयुक्त परिवार और अन्य परम्परात्मक मूल्य कारखानों और औद्योगिक संगठनों में सामाजिक संबंधों के स्वस्थ प्रतिमान में बाधित नहीं हुए हैं।
यातायात संचार के साधनों से वास्तव में नए सामाजिक और सांस्कृतिक सम्पर्कों के युग का सूत्रपात हुआ है। नए समाचार पत्र और विशेषकर क्षेत्रीय भाषाओं में डाक सेवाएँ चलचित्र और रेडियो आदि सभी ब्रिटिश द्वारा प्रारम्भ किए थे। यही बात रेलवे और हवाई यातायात के बारे में सही है। इन नई युक्तियों ने जाति पवित्र अपवित्र की अवधारणाओं और प्रवसन में आने वाली कठिनाइयों को कमजोर बनाया। निःसंकोच स्थानिक गतिशीलता इन साधनों की उपलब्धि के कारण अवश्य बढ़ी, परन्तु " मानसिक गतिशीलता" की जीवन का एक भाग बन गई।
अंत में कह सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के परिणामतः राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना आई। राजा राममोहन राय और महात्मा गांधी ने ब्रिटिश परम्परा के अनेक मानवतावादी तत्त्वों को अपनाया और उनको राष्ट्रीय भावनाओं तथा राजनैतिक चेतना को उभारने के लिए उपयोग में लिया। पश्चिमी दार्शनिकों के साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षवाद और राष्ट्रवाद के विचार बहुत लाभदायक सिद्ध हुए।
11 स्वातंत्र्योत्तर भारत
मुख्यतः तिलक, गांधी, नेहरू और बोस के नेतृत्त्व में हजारों लोगों के त्याग और तपस्या के फलस्वरूप भारत ने एक निरन्तर अहिंसक संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त की।
भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ। भारत विभक्त हुआ और इसलिए अविभाजित भारत के मुसलमानों के लिए एक नए राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का निर्माण हुआ। भारत ने विकास और प्रगति के लिए प्रजातांत्रिक समाजवादी मार्ग अपनाया। भारत ने एक नया संविधान बनाया जिसको 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। संविधान में भारत के नागरिकों के अतिरिक्त समानता, परिवर्तन को समाजवादी दिशा देने मे लिए मूल अधिकारों के अतिरिक्त, राज्य के लिए नीति निर्देशक सिद्धान्तों का भी संविधान में समावेश किया गया है।
भारत में आज " कानून का शासन" है। सब नागरिक समान हैं और एक ही सत्ता क्षेत्रमें रहते हैं। यहाँ तक कि राजा-महाराजाओं और सामन्तों को दिया जाने वाला राजभत्ता भी 1969 में समाप्त कर दिया गया। प्रस्थिति और शक्ति का निर्धारण अब जन्म के आधार पर नहीं होता है। सामाजिक सम्मान और विशेषाधिकार पाने के लिए धर्म, भाषा, जाति या संजातीयता आधार नहीं रहे हैं। परन्तु भारतीय समाज के प्रभु- अनुभागों के द्वारा किए जा रहे भेदभाव और शोषण से रक्षा करने हेतु कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशिष्ट सुविधाएँ और व्यवस्थाएँ दी गई हैं। स्त्रियों को पुरुषों के साथ समानता दी गई है। भारत के सब नागारिकों को गाँव, विधानसभा क्षेत्र, राज्य और केन्द्रीय स्तरों पर मत देने का अधिकार प्राप्त है।
शिक्षा के क्षेत्र में जबरदस्त प्रगति हुई है। प्राथमिक स्तर पर दस करोड़ से भी अधिक बालक-बालिकाएँ शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इसी प्रकार द्वितीयक स्तर पर संख्या में वृद्धि हुई है । महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तरों पर भी शिक्षा में अत्त्यन्त प्रगति हुई है। भारत सरकार द्वारा सीनियर स्कूल, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तरों पर शिक्षा का नाना रूपकरण किया गया है। प्राथमिक स्तर पर बुनियादी शिक्षा दी जा रही है। शिक्षित युवकों और युवतियों में बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए आज सीनियर स्कूल और विश्वविद्यालय स्तरों पर व्यवसायीकरण, कम्प्यूटर सिस्टम अनुप्रयुक्त विज्ञान प्रबंध और कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण तथा लाभकारी ज्ञान के क्षेत्रों पर बल दिया जा रहा है। भारत सरकार ने 1986-87 से नई शिक्षा नीति लागू की है नई नीति में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, स्त्रियों और पिछड़े वर्गों को शिक्षित करने के लिए विशेष प्रावधान किया गया है। शिक्षा के कारण गाँवों से शहरों और कस्बों में प्रवसन में नगरीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिला है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी और अन्य राष्ट्रीय भाषाओं के उत्थान पर बल दिया गया है। स्कूल स्तर पर तीन भाषा सीखने की नीति सभी राज्यों में क्रियान्वित कर दी गई है।
राज्य पुनर्गठन अयोग की सिफारिशों के आधार पर 1955 में राज्यों का पुनर्गठन किया गया था। यह कार्य लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा की पहचान पर आधारित है। प्रत्त्येक राज्य में कुछ सांस्कृतिक संसक्तिशीलता पाई जाती है। भारत में एक अद्भुत प्रकार का सामन्तवाद था, जिसके अन्तर्गत राजाओं, ठिकानेदारों, जागीरदारों और जमींदारों को + माई - बाप की तरह माना जाता था। सरकार ने सर्वप्रथम इस प्रकार के पैतृक सामन्तवाद का उन्मूलन किया और तदुपरान्त सामन्तों को प्रदत्त राजभत्ता और मुआवजों को समाप्त किया। यह वास्तव में एक क्रान्किारी कदम था क्योंकि कृषकों को स्वामित्त्व के अधिकार स्वीकृत किए गए थे। जमींदारों को मध्यस्थों के रूप में कानून द्वारा समाप्त कर दिया गया था। इसके पश्चात् छोटी जोतों की चकबन्दी और अधिकतम जोतों पर सीमा निर्धारण का कार्य भूमि सुधार उपायों के अर्न्तगत किया गया था। इन सुधारों के फलस्वरूप “हरित क्रान्ति", नई तकनीकी का अभिग्रहण, उर्वरक और बीज आदि खेती के क्षेत्र में सम्भव हुए हैं। भारत खद्यान्नों में आज आत्मनिर्भर है जबकि 1950 और 1960 के दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका और कुछ अन्य देशों पर अपने खाद्यान्नों की आवश्यकता के लिए निर्भर था। स्वतंत्रता के बाद देश ने औद्योगिक क्षेत्र में भी बहुत प्रगति की है। 1950 और 1960 के वर्षों में हटिया, राउरकेला, बोकारो, सिंदरी, बंगलौर और अन्य स्थानों पर भारी उद्योगों की स्थापना की गई थी। सरकार ने लघु और कुटीर उद्योगों की प्रगति पर भी बहुत ध्यान दिया है। चूँकि भारत में नियोजित आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन का मार्ग अपनाया गया है, औद्योगीकरण सम्भव हो सका है। आयोजन कार्य भारत के योजना आयोग द्वारा किया जा रहा है। सातवीं योजना को बनाने का कार्य पूरा कर लिया गया है। सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनाई है, जिसके अर्न्तगत निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों व संयुक्त क्षेत्र के संतुलित विकास पर बल दिया गया है। ग्रामीण जनता के उत्थान के लिए 2 अक्टूबर, 1952 को लागू की गई सामुदायिक विकास योजनाओं की क्रियान्विति में आने वाली समस्याओं पर काबू पाने के लिए, पंचायती राज योजना 2 अक्टूबर, 1959 को (प्रारम्भ में राजस्थान और आंध्र प्रदेश में) लागू की गई थी। ग्रामीण जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ग्रामीण विकास खण्ड और जिला, तीनों स्तरों पर लोगों की अनुभव की गई आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विकास योजनाओं को क्रियान्वित करते हैं। कई योजनाएँ शहरी जनता और उद्योगों में काम करने वालों के कल्याण हेतु भी लागू की गई हैं।
ब्रिटिश शासन ने बाल विवाह, सती प्रथा और बाल हत्त्या को रोकने तथा विधवा विवाह को प्रात्साहित करने के लिए सामाजिक विधान पारित किए। भारत सरकार ने हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 और हिन्दू उत्तराधिकार अधि नियम 1956 पारित किए। बाल श्रम को निरुत्साहित करने के लिए कानून पास किया गया। दहेज प्रथा के विरूद्ध
कठोर कानून पास किया गया है। भारत के संविधान के अनुसार अस्पृश्यता पहले से ही एक दंडनीय अपराध है। श्रमिकों को उचित मजदूरी देने और जमीदारों की प्रथा को समाप्त कर बिचौलियों को हटाने संबंधी कानूनों के पारित करने से शहरों और कस्बों में श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी मिलने लगी है।
स्वतंत्र भारत में इन उपरोक्त लाभकारी विकास प्रवृत्तियों के उपरान्त भी कुछ थोड़े परिवारों और व्यक्तियों के पास आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण हुआ है। निर्धन को उसका उचित हिस्सा नहीं मि पा रहा है। उसका जीवन बहुत ही दयनीय है। गरीब आज भी उच्च जाति और वर्ग के धनी लोगों के प्रभुत्त्व का शिकार है। शहरों में दहेज प्रथा एक गम्भीर समस्या बन गई है। इन समस्याओं के बारे में सामाजिक चेतना का अभाव पाया जाता है। चुनावों में धर्म, संजातीयता और जाति महत्त्वपूर्ण कारक माने जाते हैं। चुनावों में विजय प्राप्त करने के लिए स्वयं की जाति के सदस्यों पर अधिक भरोसा किया जाता है। जाति, धर्म और समुदाय पर आधारित संबंधों पर निर्मित सहसम्बन्धों के आधार पर गुटों के बीच झगड़ उत्पन्न होते हैं। यहाँ तक कि नगरीय और शिक्षित लोग भी इन समस्याओं से परे नहीं हैं