भारतीय समाज की धार्मिक भाषायी, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधता
(Religious, Linguistic, Cultural and Regional Diversities of Indian Society)
भारतीय समाज की धार्मिक भाषायी, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधता
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा अद्वितीय है। धर्म (मानकीय व्यवस्था), कर्म (वैयक्तिक नैतिक वचनबद्धता) और जाति सामाजिक स्तरीकरण के सोपानीय रूप में भारतीय संस्कृति की मुख्य धारणाएँ हैं। इन तत्त्वों के संरूपण और मतैक्य के कारण भारतीय समाज में सन्तुलन और स्थायित्त्व दृढ़ बने। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में कोई मुख्य व्यवधान उत्त्पन्न नहीं हुए। यह कहा जाता है कि परिवर्तन सांस्कृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत हुआ है, न कि सांस्कृतिक व्यवस्था का। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि कुछ संशोधनों को छोड़कर मूल रूप में सांस्कृतिक और सामाजिक और सांस्कृतिक क्रियाओं का मार्गदर्शन करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि परिवर्तन व्यवस्था में हुआ है, न कि व्यवस्था का।
भारतीय समाज की अद्वितीयता का अर्थ केवल इसकी गूढ़ प्रकृति से ही नहीं है, इसका सही अर्थ समझने के लिए इसकी ऐतिहासिक और सन्दर्भता का गहरा अध्ययन करने की आवश्यकता है। सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रवृतियाँ आत्ससात और सात्मीकरण की प्रक्रियाओं द्वारा दिखाई देती हैं। आर्य और द्रविड़ एक साथ रहे। हिन्दू और मुसलमान | सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में एक-दूसरे के समीप रहे हैं। तदुपरान्त ईसाई भी इन दोनों के सम्पर्क में रहे। आज हिन्दू, सुसलमान, सिख, जैन, ईसाई और अन्य धर्मों के लोग सरकार, शासनतन्त्र और सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में एक सी सहभागी हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत में अत्यधिक विभिन्नता में भी निरन्तर एकता पाई जाती रही है। यह विभिन्नता हजारों जाति समूहों में प्रतिबिम्बित होती है, प्रत्येक जाति के अलग-अलग धार्मिक कृत्य, संस्कार, नियम और रीति-रिवाज हैं। विभिन्नता की अनुभूति हम भाषायी, धार्मिक और जातीय विभेदों क्षरा कर सकते हैं। हर क्षेत्र के लोगों के तौर-तरीकों में अन्तर पाए जाते हैं, यहाँ तक कि एक गाँव में विभिन्न जातियों और धार्मिक समूहों के बीच ऐसे अन्तर दिखाई देते हैं। सम्राट अशोक ने सांस्कृतिक, धार्मिक सामंजस्य और प्रशासनिक कुशाग्रता प्राप्त करके भारत के एकता लाने का प्रयास किया।
मुगल बादशाह अकबर ने दीन-ए-इलाही के नाम से राजकीय धर्म की अवधारणा को क्रियान्वित किया जो हिन्दूधर्म और इस्लाम का संश्लेषण था। गाँवों में अधिकतर मुसलमान इतने परिवर्तित हो गए थे कि उनकी अलग से पहचान करना कठिन हो गया था। विवाह सम्बन्ध के अलावा सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में मुसलमान हिन्दुओं के साथ स्वतन्त्र रूप से घुलमिल कर रहते थे। हिन्दू राजाओं और मुस्लिम बादशाहों ने दोनों समुदायों में साहित्यिक और कलात्मक प्रतिभा का आदर किया। कबीर और नानक पर इस्लाम के उपदेशों का बहुत प्रभाव पड़ा। इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म के अपनाने के कारण भारत में "मिश्रित" संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जीवन पर्यन्त साम्प्रदायिक मित्रभाव, गरीबों व दलितों के उत्थान और न्यायोचित सामाजिक व्यवस्था के बढ़ावे के द्वारा राष्ट्रीय एकता और अखण्डता प्राप्त करने का प्रयास किया।
उपनिवेशीय भारत के दो इतिहास थे। एक इतिहास उपनिवेशकों द्वारा निर्मित उपनिवेशवाद का और दूसरा भारत की संस्कृति और सभ्यता का था जो इसके बौद्धिक और दार्शनिक जोश पर आधारित था। भारत का इतिहास जिसमें इसकी वास्तुशिल्प निधि, साहित्य और दर्शन, संगीत, नाट्य विद्या, नृत्य और ललिता कला आदि का समावेश है। जिसका भारत के सामाजिक जीवन में निश्चित योगदान है, ब्रिटिश राज उन्हें नष्ट नहीं कर सका। यह दूसरा इतिहास अंग्रेजी काला में सुप्त अवस्था में रहा।
महात्मा गांधी भारत की परम्परा और सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए आमूल परिवर्तन लानार चाहते थे। आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू आधुनिक और धर्म निरपेक्ष विचारधारा के व्यक्ति होते हुए भी भारत की परम्परा का सम्मान करते थे। नेहरू के अनुसार “विगत सदैव हमारे साथ है और जो भी हम हैं और हमारे पास है, वह सब हमारे भूतकाल की देन है। हम इसकी देन हैं और इसमें डूबे हुए रहते हैं। विगत को वर्तमान से जोड़ना ओर भविष्य तक ले जाना जहाँ यह मिलन सम्भव नहीं है, वहाँ उसे छोड़ देना और इस सबको विचार और कार्य के लिए स्पन्दित और प्रदोलित करने का नाम ही जीवन है। "
एक अन्य स्थान पर नेहरू ने भारत की सांस्कृतिक विरासत के बारे में लिखा है: “उभरते हुए मध्यम वर्ग सांस्कृतिक विरासत से जुड़कर रहना चाहते थे, क्योंकि इससे उनको अपने महत्त्व का एहसास रहता था और कुछ सीमा तक पराजय और अपमान की भावना में भी कमी आती थी जो उनमें विदेशियों की विजय और शासन के कारण उत्त्पन्न हो गई थी। भारत का अतीत जो सांस्कृतिक भिन्नता और महानता से भरपूर है, वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई व अन्य सभी भारतीय जनता की एक सामान्य विरासत है, और इसकी रचना में इन सबके पूर्वजों का योगदान रहा है। " लेकिन नेहरू भूतकाल के निरर्थक तत्त्वों का वर्तमान पर आधिपत्त्य के विरुद्ध थे। वास्तव में नेहरू अत्त्यधिक जनतांत्रिक भावना और आधुनिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे।
समाजशास्त्री श्रीनिवास के अनुसार “एकता की अवधारणा हिन्दू धर्म में अन्तर्निहित है। भारत के कोने में हिन्दुओं के पवित्र तीर्थस्थान हैं। पूरे देश के हर भाग में शास्त्रीय संस्कृति के कुछ विशिष्ट पहलू दृष्टिगोचर होते है। भारत न केवल हिन्दुओं के लिए ही पवित्र भूमि है, यह सिख, जैन और बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र स्थल है। मुसलमानों और ईसाइयों के भी भारत में अनेक तीर्थ स्थान हैं। विभिन्न धार्मिक समूहों में जाति प्रथा पाई जाती है और इससे इन सबमें एक समान सामाजिक युक्ति दिखाई देती है।"
श्रीनिवास ने यह भी कहा है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के कारण विभिन्नता का हामी है। पंचवर्षीय योजनाएँ और समतावादी आदर्श, पूरे देश के लिए एक सरकार और एक नागरिक एवं फौजदारी कानून संहिता भारत की एकता और बहुसामुदायिक समाज होने के पर्याप्त प्रमाण हैं। हिन्दू धर्म और विशेषकर जाति व्यवस्था के बारे में श्रीनिवास के उपरोक्त मत से सहमत होना आवश्यक नहीं है। इन दोनों व्यवस्थाओं की कट्टरपंथिता के कारण कभी-कभी भारत की एकता खतरे में पड़ गई है, और इसके अलावा समाज के कमजोर वर्गों (जिसमें महिलाएँ भी शामिल हैं) के दमन और शोषण करने के लिए इन व्यवस्थाओं का दुरुपयोग किया गया है।
स्वतन्त्र भारत के संविधान में पूरे देश के लिए "विधि के शासन" का प्रावधान किया गया है। सब नागारिक समान हैं और एक ही सत्ता के अधीन हैं। वंशानुगत विशेषाधिकारों का उन्मूलन कर दिया है। धर्म, भाषा, क्षेत्र, जाति या समुदाय अब विशेष सुविधाओं और विशेषाधिकारों का आधार नहीं हैं। उच्च जातियों वर्गों एवं निम्न जातियों और दुर्बल वर्गों के बीच अन्तर को पाटने के लिए अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएँ दी गई हैं। आज कोई भी जाति या सामाजिक समूह किसी भी प्रकार सामाजिक अयोग्यता से ग्रसित नहीं है। हर क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त है। ब्रिटिश शासन द्वारा निर्मित “फूट डालो और राज करो" की नीति अब समाप्त हो चुकी है। उपनिवेशीय शोषण का स्थान विकास प्रक्रियाओं और समतावादी विचारधारा ने ले लिया है।
समृद्ध सांस्कृतिक विरासत समतावादी नीतियों, कार्यक्रमों तथा “विधि-शासन" के बावजूद स्वतन्त्रता के बाद भारत में संकीर्ण निष्ठाएँ, संकुचित सम्बन्ध और आद्य हित बढ़े हैं। भारत के कई भागों में हमें विभाजक प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। भारत एक ऐसा देश है जिसमें स्पष्ट भेद हैं- उदाहरण के लिए एक छोर पर बहुत धनी, उच्च जाति और उच्च वर्ग के लोग हैं और दूसरी ओर अत्याधिक निर्धन, निम्न जाति व निम्न वर्ग के लोग हैं। दूसरी ओर अत्त्यधिक निर्धन, निम्न जाति व निम्न वर्ग के लोग हैं। विभिन्न जातियों, धर्मों, क्षेत्रों और भाषाओं के सम्बद्ध समूह पूरे देश में फैले हुए हैं।
अल्पसंख्यक समूह भी धर्म, भाषा, क्षेत्र प्रथा और परम्पराओं के आधार पर बने हुए हैं। यहाँ तक कि तथाकथित बहुसंख्यक हिन्दू भी अनेक सम्प्रदाओं, जातियों, गोत्रों और भाषायी समूहों में विभक्त हैं अपने सदस्यों के लिए बेहतर शिक्षा, रोजगार और जीवन स्तर प्राप्त करने की आकांक्षा इन समूहों में पाई जाती है। इन समूहों के सब सदस्यों को समान अवसर व पहुँच प्राप्त नहीं हैं, इसलिए वे 'वितरक न्याय' से वंचित रहते हैं। जीवन में इस प्रकार के असमान अवसरों की जड़, समाज द्वारा संरचित असमानताएँ हैं, और इनके कारण तनाव, पारस्परिक अविश्वास ओर कुठाएँ बढ़ी हैं।
ऐसी परिस्थितियों के कारण आंतरिक एकता, सम्बद्ध चेतना और भारतीयता की भावना को गम्भीर आघात पहुँचा है। यह समस्या आज भारत में सामाजिक संरचना के स्वरूप और वस्तुस्थिति में तालमेल के आभाव के कारण बनी हुई है। आदर्श और वास्तविक के बीच की खाई को पाटने की अत्त्यन्त आवश्यकता है। राष्ट्रीय एकीकरण इस अन्तर को पाटने से प्राप्त किया जा सकता है, जिसका वास्तव में अर्थ सबल और निर्बल, धनी एवं निर्धन, शिक्षित ओर अशिक्षित, उच्च जाति एवं उच्च वर्ग और निम्न जाति एवं निम्न वर्ग के बीच के अन्तर के समाप्त करने से है। “संजाति समूह" का शब्दिक अर्थ राष्ट्र से है, और " संजातीयता" की उत्पत्ति इसी शब्द से हुई है। परन्तु - " संजातीयता" का अर्थ राष्ट्रीयता से नहीं जोड़ा जाता । संजातीयता का अर्थ लोगों के एक समूह से लगाया जाता है,
जिसकी प्रकृति इसकी प्रजाति, वंश और संस्कृतिक के आधार पर विशिष्ट प्रकार की कही जा सकती है। अतः एक संजाति समूह वह सामाजिक समूह है जिसके सदस्यों की ऐतिहासिकता और कुछ लक्षण जैसे प्रजाति, जनजाति, भाषा, धर्म, वेशभूषा और खान-पान आदि एक जैसे हैं। इनमें से कुछ लक्षणों के पुंज को एक समूह में पर उसको एक संजाति समूह कह सकते हैं। इसकी अनुभूति समूह के सदस्यों व अन्य समूहों के सदस्यों को होना आवश्यक है। प्रस्थिति ओर मान्यता को एक विशिष्ट सामाजिक अस्तित्त्व के रूप में पाने के लिए इस आत्म-प्रत्त्यक्षण पाए जाने को संजातीय चेतना कहा जा सकता है। संजातीयता एक स्थिर या पूर्व-निर्धारित कोटि नहीं है। एक बहुल समाज में कुछ सदस्यों द्वारा सामान्य, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हितों की अभिव्यक्ति और उनके बचाव को संजातीयता की संज्ञा दी जा सकती है। इस प्रकार कभी-कभी संजातीयता को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जुटाव के एक साधन के रूप में काम में लिया जाता है।
संस्कृति का सम्बन्ध लोगों से है, और सब लोग अपनी संस्कृति को पसन्द करते हैं। ई. बी. टाइलर के अनुसार "संस्कृति वह जटिल सर्वयोग है जिसमें ज्ञान, आस्था कला, आचारनीति, विधि, प्रथा, अन्य क्षमताएँ और आदतें शामिल हैं जो मनुष्य ने समाज के एक सदस्य होने के नाते अर्जित की हैं।" "संस्कृति पर्यावरण का मानव-निर्मित भाग है।" अतः सभी संजातीय इकाइयाँ सांस्कृतिक समूह हैं, और इसलिए विभिन्न लोगों की मानकीय मान्यताओं के सन्दर्भ में उनकी स्थिति समान है। अतः संजातीयता एक सांस्कृतिक तथ्य है, और इस प्रकार कोई भी संस्कृति " श्रेष्ठ" या " निम्न" नहीं है। संविधान के अनुसार, भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है जिसमें जाति, मत, क्षेत्र, भाषा और धर्म आदि के आधार पर विभेद और भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है। लोगों को "मूल अधिकार" प्रदान किए गए हैं जिनके अनुसार आद्य या प्रदत्त विचारों के लिए आधुनिक भारत में कोई स्थान नहीं है।
1 संजातीयता एवं संस्कृति
एक संजातीयता समूह के सदस्य यह सोच सकते हैं कि उनका समूह एक अद्वितीय प्रकार का है। वे प्रायः समान वंशक्रम, सांस्कृतिक विरासत, भाषा, धर्म और आर्थिक हितों के आधार पर वास्तविक या काल्पनिक सामूहिकता के सन्दर्भ में सोचते हैं। सभी संजातीय समूह सामूहिकता होने के दावे के उपरान्त भी आंतरिक रूप से स्तरीकृत हैं। संजातीयता भारत की सामाजिक संरचना का एक भावुक पहलू बन चुका हैं, और इसलिए आज संजातीय दरारें, झगड़े, हिंसा और पारस्परिक नफरत पाई जाती है। क्या संजातीय समूह वर्ग हैं? क्या वे जाति समूह की तरह हैं? 'भारत में बहुसामुदायिक या बहुसंजातीय जाति और वर्ग पर आधारित समूह परस्पर-व्यापत हैं। सामाजिक स्तरीकरण और अभिज्ञान के तीन आधारों अर्थात् संजातीयता, जाति और वर्ग में विभेद समझने के लिए इन समूहों की सन्दर्भता को समझना महत्त्वपूर्ण है।
एक देश में अनेक समुदाय पाये जाते हैं, इनकी उत्पत्ति और प्रवसन के बारे में तथ्यों से इनकी सभ्यता के इतिहास का बोध होता है। आज भारत की जनसंख्या 100 करोड़ से अधिक है। आज से लगभग 80 वर्ष पहले सर हरबर्ट रिज़ले ने भारत में हिन्दुओं में 2378 मुख्य जातियों के बारे में जानकारी दी। विखण्डन और सामाजिक गतिशीलता के कारण यह संख्या अब तो निश्चय ही 3000 से अधिक हो गई है। विभिन्न जातियों में विवाह सजातीय, असंगोत्रीय और माता-पिता के समीप सम्बन्धियों के परिहार्य नियमों का पालन करते हुए किए जाते हैं। इन जाति समूहों के अतिरिक्त मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी, जैन और अनेक जानजातीय समूह समुदास हैं जिनसे विवाह और सामाजिक अन्योन्यक्रिया अपने-अपने समुदाय तक सीमित है।
कभी-कभी संजातीय समूह अपने तथाकथित वास्तविक हितों के कारण एक-दूसरे के विरुद्ध हो जाते हैं। इस तरह का टकराव साम्प्रदायिकता का रूप भी धारण कर लेता है। ऐसी अवस्था में कुछ समूह अपनी बहुसंख्या शक्ति या श्रेष्ठ सामाजिक उद्गत का लाभ उठाकर राष्ट्रीय साधनों के अधिकतम भाग को स्वयं के लिए हथियाने में सफल हो जाते हैं। अन्य लघु समुदायों को उनका उचित हिस्सा नहीं मिल पाता। इस कारण विभिन्न संजातीय समूहों में पारस्परिक अविश्वास, विरक्ति और रूखेपन की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है। संजातीय समूहों को “आद्य समूह " कहा जाता है। एक मत हो यह है कि संजातीय संघर्ष का मूल कारण “सापेक्ष वचन" है। "विरण न्याय" विभेदक -अभिगम्यता और सांस्कृति विभेद संजातीय समस्या के मुख्य आयाम हैं। कभी-कभी संजातीय संघर्ष " अंतरंगी" और " बाहरी" के बीच भेद करने के कारण भी उत्पन्न होता है। सब समाजों में "हम भावना" "वे" या बाहरी के विरुद्ध पाई जाती है। आप्रवासियों के साथ "विदेशियों" जैसा व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार की समस्या उस समय उभरती है जब असमी, बंगाली, गुजराती, उड़िया, हिन्दी, कश्मीरी, पंजाबी, उर्दू, मराठी और सिन्धी भाषी लोग राष्ट्रीय सन्दर्भ में एक-दूसरे से भिन्न समझते हैं। एक राज्य के लोग दूसरे राज्यों के सदस्यों को बाहरी समझने लगते हैं। यही मत अंतरंगी ओर बाहरी के बीच भेद करने के लिए तार्किक तौर पर उपक्षेत्रों, शहरों, कस्बों और गाँवों पर लागू हो सकता है। प्रश्न है: क्या इसे हम संजातीयता कह सकते हैं? उत्तर स्पष्टतः नकारात्मक है। भारत एक बहुसंजातीय समाज हैं जिसमें प्रजाति, जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार पर भिन्नताएँ पाई जाती हैं।
2 भारतीय समाज और धर्म
1931 की जनगणना के अनुसार भारत में 10 धार्मिक समूह थे। इनमें हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, जोरास्ट्रियन मुस्लिम, ईसाई, यहूदी और अन्य जनजातीय एवं गैरजनजातीय धार्मिक समूह सम्मिलित हैं। 1961 की जनगणना में केवल सात धार्मिक कोटियों को अंकित किया गया है ये हैं हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और अन्य धर्म तथा सम्प्रदाय। भारत में धर्म वास्तव में एक जटिल तथ्य है। उदाहरण के लिए विभिन्न स्तरों पर सांस्कृतिक और जनजातीय धर्म के तत्त्व मिश्रित रूप में पाए जाते हैं। यही बात दीर्घ और लघु परम्पराओं के बीच अन्तःक्रिया की प्रकृति के बारे में कही जा सकती है। सांस्कृतिक हिन्दू धर्म और जनजातीय धर्म का एकीकरण भी पाया जाता है। उदाहरण के लिए सन्थाल उच्चजाति के कई त्यौहारों को मानते हैं, वे निम्न और "अछूत" जातियों के त्यौहार भी मनाते हैं। कुछ जनजातियाँ शिव की पूजा करती हैं। एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार विभिन्न जनजातियों में एकसमान संस्कृतिकरण नहीं होता। एक ही जनजाति के विभिन्न वर्ग में भी समान रूप से संस्कृतिककरण नहीं पाया जाता । विगत कई दशकों से ईसाई और इस्लाम धर्म को अपनाना एक विवादास्पद प्रश्न बना हुआ है। यह कहा जाता है कि इस सदी के दूसरे दशक और स्वतंत्रता के पश्चात् पिछड़े वर्गों तथा जनजातियों के सदस्यों ने धर्म परिवर्तन करके ईसाई, इस्लाम और सिख धर्मों को अपना लिया। बिहार, बंगाल, असम और अन्य भागों में बहुत से आदिवासियों ने हिन्दू धार्मिक कृत्यों और व्यवहार प्रतिमानों को स्वीकार कर लिया। हजारों हरिजनों ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म को अपना लिया। लालच देकर या दबाव डालकर धर्म परिवर्तन भारत के संविधान और देश के कानून के विरुद्ध है। धर्म परिवर्तन के अनेक कारण उत्तरदायी हो सकते हैं। परंतु अधिकतर लोगों ने धार्मिक कट्टरपंथिता से मुक्ति पाने के लिए धर्म परिवर्तन किया है।
अल्पसंख्यक धर्मों के लोगों में साक्षरता का प्रतिशत बहुसंख्यक धर्म के लोगों से अधिक है। ऐसा पारसी, जैन, यहूदी और ईसाई समुदायों में देखा गया है। ईसाइयों को छोड़कर इन समुदायों के सदस्य हिन्दुओं और मुसलमानों से अधिक संख्या (आनुपातिक आधार) में व्यापार और कारोबार में लगे हुए हैं। एक अध्ययन के अनुसार यद्यपि पारसी, यहूदी ओर जैन विविध धंधों में नहीं हैं फिर भी व्यापार में वे अन्य समुदायों से आगे हैं। चूँकि हिन्दू और मुसलमान संख्या में अधिक हैं और पूरे देश में बसे हुए हैं, इसलिए वे विविध व्यवसायों में रत हैं। अल्पसंख्यक समूह विशिष्ट क्षेत्रों, उप-क्षेत्रों और शहरों में केन्द्रित हैं, इसलिए वे व्यापार करने के लिए लाभकारी स्थिति में हैं। सीरियन ईसाई, मोपला, पारसी और दूसरे समूह केरल और महाराष्ट्र में महत्त्वपूर्ण स्थान पर हरने के कारण लाभान्वित हुए हैं।
एम. एन. श्रीनिवास ने धर्म की भूमिका की जाँच व्यक्तियों और समूहों के बीच एक बंधनकारी शक्ति के रूप में की है। लेकिन इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात देखने की यह है कि धर्म यह काम कैसे करता है, और धर्म केसे क्रियाशील रहता है। कार्ल मार्क्स की युक्ति " धर्म जनता की अफीम है", सही पाई जा सकती है, यदि धर्म कुछ चुने हुए लोगों के हाथों में शोषण का एक यंत्र बनकर रह जाता है। परंतु श्रीनिवास धार्मिक व्यवहार को सामाजिक जीवन का एक अंग मानते हैं। उन्होंने तीन बातों का जिक्र किया है: ( 1 ) ग्रामीण और अन्य स्थानीय स्तरों पर विभिन्न जातियों और धार्मिक समूहों में सम्बन्ध, (2) देश के आर्थिक विकास में धर्म की आम भूमिका, और (3) धर्म और सामाजिक-आर्थिक विशेषाधिकार ।
भारत में बहुजातीय गाँवों की तरह बहुतायत में नहीं हैं। फिर भी, उत्तर प्रदेश में हिन्दू काश्तकार और मुसलमान भूस्वामी, और हिन्दू भूस्वामी तथा मुसलमान काश्तकार मिलते हैं। कर्नाटक के रामपुर गाँव में कुछ बड़के हिन्दू जमींदारों के काश्तकार और नौकर मुसलमान थे, और मुसलमान जमींदार के काश्तकार व नौकर हिन्दू थे। चूँकि मुसलमानों के पास जमीन पर्याप्त नहीं थी, वे अनेक तरह के आर्थिक कामों में लगे हुए थे। हिन्दू आम के बगीचों के मालिक थे, लेकिन मुसलमान आम का व्यापार करते थे। हिन्दू और मुसलमान त्यौहारों, विवाहों और अन्य अवसरों पर एक दूरे के साथ क्रियाशील पाए गए हैं। जब भी किसी समुदाय के लोग आर्थिक क्षेत्र में कुशलता प्राप्त करते हैं, तो दूसरे धर्मों के लोग उसके उपभोक्ता या ग्राहक बन जाते हैं।
होली, दीवाली, दशहरा, ईद, नव वर्ष आदि अनेक अवसरों पर शहरों में हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं। दंगों और संकट की परिस्थितियों में उन्होंने एक-दूसरे की रक्षा की है। नवम्बर 1984 के दिल्ली व अन्य सीनों पर हुए दंगों में हिन्दुओं ने बहुत से सिखों का बचाव किया और उन्हें शरण दी। पंजाब में सिख और हिन्दू सदियों से शांति के साथ रहे हैं।
धार्मिक समुदायों और उनके व्यवसायों तथा धन्धों में सम्बन्ध होता है। उदाहरण के लिए मदिरा के व्यापार पारसियों के हाथों में है। मोपला व्यापारी प्राय: केरल, मैसूर, मद्रास ओर बम्बई में पास जाते हैं। इसी प्रकार जैन व्यापारी बम्बई, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक और बंगाल में रहते हैं। इस तरह का सम्बन्धा गाँवों में भी पाया जाता है। हिन्दू धर्मावलम्ब में गुजराती, बनिया, तेलुगू कोमती, तमिल, बेट्टियार और राजस्थानी बनिया समुदायों ने आर्थिक गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। फिर भी कई नए जाति समूह व्यापार और अन्य कारोबार करने लगे हैं। जाति के बंधन कमजोर पड़े हैं। और स्थानिक गतिशीलता अधिक तेज हो गई है। पूरे देश में विभिन्न समुदायों के फैलाव ओर उनके आर्थिक कार्यों की विविधता के परिणामस्वरूप सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया को बल मिला है।
मैक्स वेबर प्रथम समाज वैज्ञानिक थे जिन्होंने हिन्दू नीतिपरक और इसके दो सिद्धान्तों सम्सार (पुनर्जन्म में विश्वास ) और कर्म (क्षतिपूर्ति सिद्धान्त) का उल्लेख किया। इन दोनों सिद्धान्तों के द्वारा जाति व्यवस्था का ईश्वरीय न्याय मंडल बना। इसके परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था में इहलोक की विवेकपूर्ण नीति उभर कर नहीं आई। वेबर के विश्लेषण का आधार हिन्दू धर्म ग्रंथों में व्याप्त धारणाओं का बहिर्वेशन था। सम्भवतः वेबर ने हिन्दू धर्म में परम्परावाद और अतार्किकता की व्याख्या, उसके अपने समाज में प्रोटेस्टेण्ट आचार पूँजीवाद के सम्बन्धों की दृष्टि के आधार पर की थी। मिल्टन सिंगर के अनुसार वर्ण जाति व्यवस्था पंथ और जनजातीयवाद और आधुनिकीकरण, राष्ट्रवाद औद्योगीकरण तथा शासनतंत्र के साथ सम्बन्ध का आधार धार्मिक वैचारिक है। लेकिन इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि हिन्दू नीति और जाति व्यवस्था ने आर्थिक विकास में सक्रिय योगदान दिया है, अतः उनमें परिवर्तन लाने की आवश्यकता नहीं है, एक बिल्कुल गलत मत है। भारतीय अर्थव्यवस्था ओर नीति के अनुरूप हिन्दू धर्म व जाति व्यवस्था में अनुशीलनकारी परिवर्तन आए हैं।
हिन्दू धर्म की प्रकृति स्थिर नहीं है। वैज्ञानिक ज्ञान, प्रौद्योगिक प्रगति संचार के साधन और धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया के प्रसार के कारण हिन्दू धर्म में भी बहुत से परिवर्तन आए हैं। परिवर्तन के इन कारणों के बावजूद हिन्दू धर्म एक जटिल प्रघटना बनी हुई है। पूरे भारत में शिक्षा, जन संचार, प्रेस और प्रवसन से धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा मिला है। परंतु स्थानीय स्तर पर धार्मिक प्रवृत्तियों बहुत हद तक अक्षुण्ण बनी हुई हैं।
भारत को एक "प्राथमिक" या " आदिजनित" सभ्यता की संज्ञा दी गई है, क्योंकि विदेशी आक्रमणों और देश के अन्दर विभिन्न शासकों के बीच युद्ध होने के उपरान्त भी भारतीय सभ्यता में निरन्तरता है, इसका इतिहास अवरोधविहिन है। भारतीय परम्परा के विभिन्न अंगों में अन्तःक्रिया इसकी शक्ति का मुख्य स्रोत है। जो परम्पराएँ लिखित हैं और जिनका उल्लेख हिन्दू या मुस्लिम साहित्त्य, धार्मिक पुस्तकों व ग्रंथों में मिलता है, उन्हें "दीर्घ परम्पराएँ" कहते हैं। जो परम्पराएँ अलिखित हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनपढ़ जनसमूहों द्वारा संचारित की जाती हैं, उन्हें “लघु परम्पराएँ" कहा जाता है। इन दोनों परम्पराओं में निरन्तर अन्तःक्रिया पाई जाती है। जब एक दीर्घ परम्परा के तत्त्व लोकसमूहों तक संचारित होते हैं तो इस प्रकार की प्रक्रिया को संकीर्णताकरण या स्थानीयकरण कहते हैं, और जब एक अघु परम्परा के तत्त्व दीर्घ (सांस्कृतिक) परम्परा के अंग बन जाते हैं तो इस प्रक्रिया को सार्विकीकरण या सार्वभौमीकरण कहते हैं। किसी परम्परा को दीर्घ या लघु कहने का अर्थ लोगों को दीर्घ या लघु कहने से है क्योंकि लोग ही शिक्षित या अशिक्षित हैं। परम्पराएँ अपने आपमें दीर्घ या लघु नहीं हैं। परम्पराओं का अभिप्राय व्यवहार के मानकों और पारस्परिक सम्बन्धों से है। अशिक्षित लोगों को “लघु" और शिक्षित को “दीर्घ " की संज्ञा देने में एक मूल्य निर्णय निहित है। इस प्रकार धर्म एक बहुत जटिल घटक है। यह उचित होगा कि उन धर्मसूत्रों के बारे में हम जानकारी दें जिनके आधार पर (जाति, क्षेत्र, सांस्कृतिक विरासत, आर्थक स्थिति और शैक्षणिक प्रस्थिति आदि के रहते हुए भी) सब लोगों को किसी भेदभाव के बिना समान स्तर पर आँका जाता है। यद्यपि धर्म एकीकरण का एक यंत्र है फिर भी इसका उपयोग संकीर्ण सामाजिक और राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया है। विशिष्ट धार्मिक समूह के सदस्यों का समर्थन प्राप्त करने के लिए अनेक संगठनों और समूहों के धार्मिक नाम रखे गए हैं ताकि उनमें धार्मिक चेतना जाग सके। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग इस प्रयोग के ज्वलन्त उदाहरण हैं। यहाँ तक कि शैक्षणिक संस्थाओं के नाम भी हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन और सिख धर्मों से जुड़े हुए हैं। धार्मिक समूहों की तरह अनेक जातियों ने राजनीति में भी अपने सदस्यों को सक्रिया किया है।
भाषा - सामाजिक एकीकरण में भाषा की भूमिका
'भाषा विवेकाधीन मुखरित प्रतीकों की एक व्यवस्था है जिसके द्वारा एक समूह के सदस्य अन्तःक्रिया और सहयोग 44 करते हैं। " भाषा में एक व्यवस्था के रूप में अनेक प्रतीक पाए जाते हैं, जो लोग उस भाषा का उपयोग करते हैं उनको उन प्रतीकों का अर्थ समझना चाहिए। भाषा संस्कृति का एक पहलू है, जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया प्रभावित होती है। और जीवन पद्धति में निरन्तरता तथा परिवर्तन का समावेश होता है। ज्ञान संचय भाषा के बिना असम्भव है।
कुछ लोगों का भाषा के लिखित और मौखिक दोनों पक्षों पर आधिपत्य है, जबकि साधारण जन-समाज की केवल मौखिक पहलू तक ही पहुँच रहती है। सांस्कृतिक भाषा या अन्य कोई भाषा कुछ व्यक्तियों के लिए एक साधन बन सकती है जबकि अन्य लोगों के लिए भाषा के ज्ञान की कमी सामाजिक और सांस्कृतिक गतिशीलता में एक बाधा प्रमाणित हो सकती हैं। कभी-कभी भाषायी समूह या संगठन दृढ़ आद्यशक्ति बनकर एक संजातीय या साम्प्रदायिक समूह में परिवर्तित होकर अन्य ऐसे ही समूह का विरोध करने पर आमादा हो सकता है।
भाषा एक जीवन्त शक्ति है, यह एक स्थिर प्रघटना नहीं है। सामाजिक संरचनाओं, शासक वर्गों और विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों में परिवर्तनों के अनुरूप भाषा में भी परिवर्तन हुआ है। प्राचीन भारत में पाली और प्राकृत भाषाओं का महत्त्व था। संस्कृत भाषा ने पूरे देश में हिन्दू शास्त्रीय संस्कृति के वाहक का कार्य किया। संस्कृत के बाद असमी, बंगाली, गुजराती, हिन्दी कश्मीरी, मराठी, उड़िया, पंजाबी सिन्धी और उर्दू आदि आधुनिक भारतीय- आर्य भाषाओं का स्थान था। मराठी के अलावा भारतीय प्रायद्वीप में सभी भाषाएँ द्रविड़ वंश की हैं, इनमें मुख्य तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ हैं। इन दोनों तरह की भाषाओं में कई लोक बोलियाँ हैं जिन्हें विभिन्न भाषायी क्षेत्रों के लोग बोलते हैं।
प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की तुलना में मध्यकालीन शासकों ने नए प्रकार के धर्म, भाषा, व्यवहार के ढंग और प्रथाएँ प्रारम्भ की। सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक संरचना का संस्थानिक आधार बहुत हद तक अपरिवर्तित रहा। जाति व्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था मध्यकालीन भारत में बिना किसी हस्तक्षेप के कार्य करती रहीं। लेकिन भारतीय संस्कृति और राजनैतिक सत्ता का रूपान्तरण हुआ जिसका प्रभाव भाषा संस्कृति और धर्म पर भी पड़ा। उत्तर भारत में "हिन्दुस्तानी" जीवन पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ । इस्लामिक देशों से आए विदेशी यात्रियों द्वारा लिखित वर्णनों से अरबी और परसियन भाषाओं का विकास हुआ। विदेशी शासन के बावजूद हिन्दू संस्कृति, जाति प्रथा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था निरन्तर बनी रही। भारतीय आर्य भाषाएँ शीघ्र साहित्त्यिक भाषाएँ बन गई। इन भाषाओं के आविर्भाव के फलस्वरूप उच्च जाति आधिपत्य में गिरावट, संस्कृत भाषा की अवनति, जनसाधारण की भाषा और लोकप्रिय मुहावरों के प्रयोग के साथ धार्मिक और सामाजिक सुधार की लहरें आदि सांस्कृतिक परिवर्तन हुए। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों के टकराव के कारण कई रुचिकर परिणाम निकले, जिनसे उत्तर भारत में एक मिली-जुली संस्कृति का जन्म मुख्य परिणाम था।
ग्रियरसन के अनुसार भारत में 179 भाषाएँ और 544 लोक भाषाएँ हैं। किंतु इस अनुमान को अधिकृत नहीं मान सकते क्योंकि " भाषाओं" के अन्तर्गत लोक बोलियों की गिनती भी की जाती है। भारतीय संविधान के आठवें अनुच्छेद के अनुसार पन्द्रह मान्य भाषाएँ हैं। ये हैं: असमी, बंगाली, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू और उर्दू अंग्रेजी के साथ हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है। राजस्थानी, मैथिली, मणिपुरी और नेपाली भाषाएँ बोलने वाले लोगों ने माँग की है कि उनकी भाषाओं को भी आठवें अनुच्छेद में शामिल किया जाए। बहुत से लोगों की भाषा सन्थाली मुण्डारी और हो है। अविभाजित भारत " में 73 प्रतिशत भारतीय आर्य भाषाएँ 20 प्रतिशत द्रविड़ भाषाएँ, इन तीन भाषा समूहों के बीच अन्तःक्रिया होती रही है।
भारत के राज्यों की वर्तमान संरचना भारत के भाषायी नक्शे के समान है। राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषायी एकरूपता और सामीप्य के आधार पर राज्यों के निर्माण की सिफारिश की थी। लेकिन हिन्दी भाषी राज्यों अर्थात् बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और पंजाब के बारे में एक विडम्बना है। इन राज्यों में लोगों की बोलियों को हिन्दी के साथ मिला दिया गया है। इस प्रकार पूरा क्षेत्र हिन्दी क्षेत्र है जिसमें 6 राज्य हैं। अन्य राज्यों अर्थात् असम, बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में उन लोगों की संख्यात्मक बाहुलता है जो क्रमशः अपने प्रदेश की भाषा बोलते हैं।
उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान आकार में बड़े राज्य हैं। इन राज्यों के लोगों ने समय-समय पर छोटे राज्यों के बनाने की माँग की है। बिहार में छोटा नागपुर और संथाल परगना तथा बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के सटे हुए क्षेत्रों के आदिवासी अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति, प्रशासनिक क्षमता और भौगोलिक सामीप्य के आधार पर एक अलग झारखण्ड राज्य की स्थापना की माँग करते रहे हैं। डिकुओं (शोषकों) द्वारा शोषण करने के आधार पर इन आदिवासियों ने झारखण्ड राज्य की स्थापना की माँग की हैं। इन शोषकों में वे गैर-आदिवासी जमींदारी, साहूकारों ओर अन्य बाहरी शोषकों को शामिल करते हैं।
भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा अंग्रेजी का आरोपण भाषा की समस्या का मुख्य कारण है। लॉर्ड मैकोले ने कहा: “हमें एक ऐसे वर्ग को बनाने का प्रयत्न करना चाहिए जो हमारे और हमारे द्वारा शासित लाखों लोगों के बीच दुभाषित का कार्य कर सके। यह एक ऐसा वर्ग हो जो रक्त और रंग से भारतीय हो, परंतु स्वभाव, विचार, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज जैसा हो।" मैकोले ने आगे कहा: “देश की देशी भाषाओं को सुधारने के लिए उन भाषाओं में पश्चिमी नामावती से वैज्ञानिक शब्द लेकर प्रविष्ट करना उस वर्ग का उत्तरदायित्त्व था इस वर्ग के लोगों को उपाधियाँ देकर जन-समुदाय को ज्ञान देने का कार्य भी किया गया था।" इस प्रकार अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने की नीति से ब्रिटिश राज को लाभ हुआ न कि भारत की जनता को विश्वविद्यालय और महाविद्यालय अधीनस्थ पदों पर काम करने के लिए लोगों को प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से स्थापित किए गए थे। राष्ट्रीय नेताओं ने इस नीति को अंग्रेजों की "बाबू वर्ग" बनाने की एक तरकीब समझी थी। नेहरू ने लिखा है: “ अंग्रेजी-शिक्षित वर्ग एक नव जाति या वर्ग " के रूप में ब्रिटिश राज ने उत्पन्न किया था, यह वर्ग अपनी ही दुनिया में रहता था जनता से इसका सम्बन्ध नहीं था और हमेशा यहाँ तक कि विरोध करने के लिए भी अपने शासकों पर निर्भर रहता था। इस प्रकार देशी अभिजात को 19वीं शताब्दी के प्रथम पचास वर्षों में भारत में मैकोले की अंग्रेजी भाषा की शिक्षा नीति द्वारा लिपिकों के एक वर्ग में रूपान्तरित कर दिया गया था। "
प्रतिमत यह भी है कि अंग्रेजी शिक्षा द्वारा भारत का सम्बन्ध विश्व समुदाय से जुड़ा। देशी भाषाओं का बढ़ावा भारत - की एकता के लिए खतरा हो जाता है। अंग्रेजी भाषा जानने के लाभ के कारण भारत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अध्ययन प्रभावकारी ढंग से किया। " भावात्मक एकीकरण" और "राष्ट्रीय समेकर" में देशी भाषाओं की भूमिका निश्चयात्मक नहीं है - इस मत की सीमाओं के बारे में हम पहले बता चुके हैं कि यह मत सही नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार: “ भाषा एक छतरी या ओवरकोट की तरह नहीं है जिसको अनजाने या जानकर गलती से उधार ले सकते हैं, यह तो जीवित त्त्वचा के समान है। "
भारत में सदैव बहुभाषायी सभ्यता रही है। जिसमें अभिजात लोगों की अपनी विशिष्ट भाषा थी और इसमें स्थानीय, क्षेत्रीय तथा अखिल भारतीय भाषाओं में निरंतर अंतःक्रिया रही है। भारतीय उप महाद्वीप की विशिष्ट विशेषता अंतःक्रियायी स्तरों पर एकता और सात्मीकरण का पाया जाना है। विभिन्नताओं के कारण राष्ट्रीय पहचान सम्बद्धता ओर एकता के लिए एक भाषा के सिद्धान्त को समय-समय पर चुनौती दी गई है। रजनी कोठारी का सुझाव है कि 'भाषा की उलझी का उपाय "बहुलवादी हल" ही है।
लगभग 90 प्रतिशत लोग 15 " राष्ट्रीय भाषाओं" को अपनी मातृभाषाएँ बतलाते हैं। भारत के संविधान के आठवें अनुच्छेद हिन्दी और अंग्रेजी भाषा आज भी लाभप्रद और प्रतिष्ठावान नौकरियाँ पाने के लिए एक अनुज्ञापत्र माना जाता है। अंग्रेजी के कारण अभिजात और जन साधारण के बीच एक खाई पड़ गई है। कई बार क्षेत्रीय और स्थानीय नेताओं ने “ भाषायी स्वायत्तता" की माँग की है ताकि वे अंग्रेजी को हटाकर उसके स्थान पर हिन्दी या कोई अन्य राष्ट्रीय (क्षेत्रीय) भाषा प्रतिस्थापित कर सके। भाषा के आधार पर राज्यों के निर्धारण से क्षेत्रीय भाषायी स्वायत्तता को बढ़ावा मिला है। “सिर्फ हिन्दी " भाषा की माँग का प्रतिकार कने के लिए "त्रि-भाषायी सूत्र " सोचा गया था, हिन्दी तथा अंग्रेजी के स्थान पर एक राज्य में एक "राष्ट्रीय " (क्षेत्रीय) भाषा के उपयोग की बात भी कही गई थी। उदाहरण के लिए इन तीन भाषाओं में हिन्दी, अंग्रेजी और तेलुगू या तमिल शामिल की गई थी।
आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, बंगाल और असम के गैर हिन्दी राज्यों में हिन्दी को राजभाषा बनाने की दलील पर तीव्र विरोध प्रकट किए गए हैं। बल्कि देशी भाषाओं का परिरक्षण और संवर्धन करने के लिए बहुत उत्साह प्रदर्शित किया गया है। एक मत तो यह है कि देशी भाषाओं के उपयोग को बढ़ाने से " भावात्मक एकीकरण " और " राष्ट्रीय समेकन" लाया जा सकता है क्योंकि इस परिवर्तन से उस अल्पसंख्यक उच्च वर्ग पर प्रत्त्यक्ष आघात होगा जो अंग्रेजी भाषा को संचार का साधन बनाकर प्रशासन, विधि, व्यापार, उद्योग, और 'कानून प्रभावी व्यवसायों में संस्थापित है। यदि प्रतिनिधि नहीं माने जा सकते। अतः देशी भाषाओं का उपयोग प्रशासन और आयोजन में अधिक होना चाहिए। ऊपरी तौर से यह मत विश्वसनीय प्रतीत होता है, परंतु इसको क्रियान्विति से विभिन्न "राष्ट्रीय भाषाओं" के समर्थकों में उचित संचार होने में अवरोध उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार की गलाकाट प्रतियोगिता से अन्तभांषीय प्रतिद्वंद्विताएँ भी उभर सकती है।
इस तरह भारत में भाषा संबंधी परिस्थिति राष्ट्रीय समेकन और विकास के लिए बहुत उलझी हुई तथा संकटमय है। भारत में भाषायी राज्यों का निर्माण बहुत अधिक कटुता ओर द्वेषता के वातावरण में किया गया था। अविभाजित महाराष्ट्र में हुए भाषायी दंगे और तमिलनाडु में हिन्दी-विरोधी उपद्रव आज भी हमारी याद में ताजा है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू ने एक बार सुझाव दिया था कि स्वेच्छा से उत्तर भारत के लोगों को एक दक्षिणी भारतीय भाषा और भारत के लोगों को हिन्दी भाषा सीखनी चाहिए।
उत्तर भारत में (जो हिन्दी का नाभिक है) स्वतन्त्रता के 40 वर्ष पश्चात् भी सफेदपोश नौकरियों, व्यवसायों, प्रशासन ओर अन्य प्रभावकारी सेवाओं में अंग्रेजी भाषा जानने वाले लोगों को प्राथमिकता दी जाती हैं अंग्रेजी के पतन से देशी भाषाओं का उत्थान सुनिश्चित है। एकीकरण की शक्ति के रूप में एक अखिल भारतीय भाषा के अभाव के कारण, भाषायी राज्यों की रचना ने देश को संकीर्ण क्षेत्रीयता, प्रांतीयवाद और संकीर्णतावाद की ओर मोड़ देश्कर राष्ट्रीय एकीकरण को खतरे में डाल दिया हैं भारत में बहुत हद तक जाति, क्षेत्र और भाषा का संयोग पाया जाता है। सामान्यतः जाति संरचना क्षेत्रीय और भाषायी सीमाओं के अनुरूप है। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश में बहुत सी उप जातियां हैं, वे आंध्र प्रदेश के बाहर से बराबर की जातियों में विवाह नहीं करती हैं। वे विभिन्न भाषाएँ भी बोलते हैं। इस प्रकार जाति, क्षेत्र और भाष विशेष सीमाओं के अनुरूप हैं। भारत में एक लिपि के अभाव के कारण अनेक बार भाषायी उपद्रव हुए हैं।
भाषा लोगों के जीवन का एक भावुक पहलू है। 1963 के राजभाषा कानून के अन्तर्गत जब 26 जनवरी, 1965 के दिन हिन्दी को राज्यभाषा घोषित किया गया तो तमिलनाडु में दंगे शुरू हो गए जो बाद में अन्य गैर हिन्दी भाषी राज्यों में भी फैल गए। परिणामतः अंग्रेजी को सहायक राजभाषा के रूप में रखा गया, जब तक गैर-हिन्दी भाषी लोग ऐसा चाहें। इस संकटकाल में त्रिभाषा सूत्र को चालू किया गया।
संजातीयता और क्षेत्र की तरह भाषा भी समूहिता का एक आद्य आधार है, और इसलिए सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों जैसे सामाजिक स्तरीकरण, आर्थिक विकास, शिक्षा और राजनीति में भाषा की वैसी ही भूमिका है जैसी संजातीयता और क्षेत्र की है। भाषा एक सांस्कृतिक प्रघटना होने के कारण कई बार एक भावुक प्रश्न बन जाती है। भाषायी कटुता, झगड़ों और दंगों के कारण कभी-कभी राष्ट्रीय एकता व एकात्मता को भी खतरा उत्पन्न हो जाता है । त्रिभाषा सूत्र ऐसी ही समस्याओं को कम करने और राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की ताकतों को दृढ़ करने के लिए लागू किया गया था। भाषा जो संचार और ज्ञान-वृद्धि का साधन है, उसे कुछ लोगों के हाथों में सत्ता का साधन नहीं बनने देना चाहिए। भाषा तक पहुँच उन सब लोगों को प्राप्त होनी चाहिए जो उसे सीखना चाहते हैं।