आकलन के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण Perspectives
of Assessment in Different Paradigms
आकलन के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तावना
आकलन शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है सामान्य अर्थों में
आकलन का अर्थ है। किसी व्यक्ति या समूह से सबंधित सूचना संग्रहण की प्रक्रिया से
है ताकि व्यक्ति या समूह विशेष के सन्दर्भ में कोई निर्णय लिया जा सके। वर्तमान
समय में शैक्षिक आकलन के क्षेत्र में वृहत परिवर्तन आये हैं जिसका एक उदहारण है
आंकिक सिस्टम को क्रेडिट आधारित ग्रेडिंग सिस्टम में परिवर्तित कर दिया गया है।
वैश्विक स्तर पर हुए अनुसंधानों में योगात्मक आकलन की बजाय रचनात्मक आकलन पर जोर
दिया जाने लगा है प्रस्तुत इअकई में आप आकलन के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण यथा
व्यवहार वादी दृष्टिकोण, रचनावादी
दृष्टिकोण, संज्ञानात्मक
रचनावादी दृष्टिकोण एवं सामाजिक संस्कृतिवादी दृष्टिकोणों का अध्ययन करेंगे और यह
जानेंगे कि आकलन के क्षेत्र में आ रहे वैश्विक परिवर्तन के लिए शिक्षण अधिगम की
किस विचारधारा के प्रभाव के कारण है।
आकलन का पारंपरिक व्यवहारवादी दृष्टिकोण
आकलन के पारंपरिक व्यवहारवादी दृष्टिकोण जिसे अधिगम का आकलन
की संज्ञा भी दी जाती है का मुख्य उद्देश्य 'योगात्मक' (Summative) है जो सामान्यतः किसी कार्य या कार्य की, इकाई की समाप्ति
पर किया जाता है। वस्तुतः 'अधिगम का आकलन' विद्यार्थी की
संप्राप्ति के प्रमाण उसके माता पिता, शिक्षक, विद्यार्थी स्वयं अथवा अन्य व्यक्तियों के लिए प्रस्तुत
करता है। अधिगम का आकलन वस्तुतः व्यवहारवाद की देन है। व्यवहारवाद मनोविज्ञान का
एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है जो मानव के सभी प्रत्यक्ष व्यवहारों का अध्ययन करता
है। व्यवहारवाद का जनक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जे. बी. वाटसन को माना जाता है।
व्यवहारवाद पर आधारित अधिगम सिद्धान्तों में सबसे प्रमुख योगदान बी. एफ. स्किनर का
है। व्यवहारवाद, अधिगम को, अधिगम हेतु
प्रेरित उद्दीपक एवं अनुक्रिया के मध्य एक संबंधन के रूप में देखता है जो पुरस्कार
एवं दण्ड के द्वारा संचालित होता है। मनोविज्ञान पर व्यवहारवादी दृष्टिकोण ने गहरा
प्रभाव डाला है। शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया पर भी अधिकांश अनुसन्धान एवं
सिद्धांतों का विकास व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गए। शिक्षण एवं अधिगम
की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर 1990 के दशक तक
सर्वाधिक प्रभाव व्यवहारवाद का रहा और तदनुसार शैक्षिक आकलन एवं मूल्याङ्कन की रूप
रेखा पर भी इनका गहन प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। व्यवहार वादी मनोवैज्ञानिक
अतिवातावरण वादी (Extreme
Environmentalist) थे।
व्यवहार वादियों की मान्यताएं
व्यवहार वादियों की मान्यता थी कि
i. मानव का सम्पूर्ण अधिगम मानव एवं वातावरण के पारस्परिक अनुक्रिया के कारण विभिन्न उद्दीपक एवं उनके प्रति अनुक्रिया के संबंधन का परिणाम है।
ii. बालक जब पैदा होता है तब टेबुला रसा (tabula rusa) अर्थात एक खाली स्लेट के समान होता है। व्यव्हारवादियों ने चिंतन, समस्या समाधान, स्मृति जैसी मानसिक प्रक्रियाओं की जन्मजात उपस्थिति की उपेक्षा की।
iii. मानव व्यवहार मापनीय एवं निरिक्षणीय होते हैं।
iv. व्यवहारवाद के अनुसार अधिगम उद्दीपक एवं अनुक्रिया के बीच विभिन्न पुनर्बलनों की सहायता से किये गए अनुबंधन का परिणाम है।
v. दिए गए उद्दीपक पर सीखी गयी अनुक्रिया बार बार प्रदान करना अधिगम का सूचक है है।
vi. शिक्षक का प्रयास
शिक्षण के दौरान उद्दीपक एवं अनुक्रिया के मध्य के संबंधन जिसे शिक्षक उपयुक्त
समझता है, पुनर्बलन के
द्वारा मजबूत करना है
व्यवहार वाद एवं आकलन
इस प्रकार व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षण अधिगम की
सम्पूर्ण प्रक्रिया में मानव संज्ञान यथा सोचने की क्षमता, तर्क करने की
क्षमता, समस्या समाधान की
क्षमता, व्यक्ति का
सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य आदि सभी की उपेक्षा करते हु विद्यार्थी को एक
निष्क्रिय ग्रहण कर्ता के रूप में देखते हुए शिक्षण अधिगम हेतु विभिन्न विधियों
एवं तदनुसार आकलन के मानक तय कर दिए। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने अपनी विभिन्न
मान्यताओं के आधार पर आकलन के जो मानक तय किये उनके अनुसार आकलन का उद्देश्य दिए
गए उद्दीपक पर विद्यार्थी से अपेक्षित अनुक्रिया प्राप्त करना है (जो उसे अनुबंधन
के दौरान सिखाई गयी है) एवं आकलन मुख्यतः सीखी गयी अनुक्रिया के प्रत्यास्मरण पर
आधारित होना चाहिए।
अपनी विभिन्न मान्यताओं के आधार पर व्यवहारवादियों ने जो
आकलन के उपकरण सुझाये वे प्रत्यास्मरण पर आधारित थे जिनमे लिखित परीक्षा अथवा पेपर
पेंसिल टेस्ट प्रमुख । साथ ही व्यवहारवादियों ने आकलन के आधार पर विद्यार्थियों की
रैंकिंग एवं उनके संप्राप्ति के मात्रात्मक आकलन को बढ़ावा दिया। परिणामतः धीरे
धीरे योगात्मक आकलन की महत्ता बढ़ती चली गयी। आकलन का उद्देश्य विद्यार्थियों के
कथित अधिगम स्तर में विभेद करना एवं तदनुसार उन्हें विभीन्न श्रेणियों में रखना
मात्र हो गया। इस कारण विद्यार्थियों पर विभिन्न प्रकार के प्रत्यास्मरण पर आधारित
परीक्षणों का बोझ बढ़ता चला गया और उनकी रचनात्मकता की उपेक्षा होती गयी। वयवहार
वादियों द्वारा सुझाये गए आकलन एवं आकलन के उपकरण मुख्यतः विद्यार्थी केन्द्रित न
होकर पाठ्यवस्तु केन्द्रित थे। साथ ही व्यवहार वादियों ने अधिगम के संज्ञानात्मक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक पक्षों की भी उपेक्षा की और संस्कृति मुक्त (Culture Free or Culture Fair) परीक्षणों के
विकास पर ध्यान केंद्रित रखा फलतः अधिगम का उद्देश्य पाठ्यक्रम की समाप्ति पर
लिखित परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त करना मात्र रह गया।
रचनावाद / संरचनावाद (Constructivism) का संक्षिप्त परिचय
रचनावादी विचार धारा के प्रवर्तक के रूप में सुप्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे ( Jean Piaget) माना जाता है जिनके संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत ने
मनोविज्ञान एवं अधिगम के प्रति व्यवहारवादी विचारधारा को चुनौती दी और व्यवहारवादी
विचारधारा से इतर मनोविज्ञान में संज्ञान वादी (Cognitive) विचारधारा की नींव रखी। वस्तुतः जीन पियाजे ने व्यवहारवादी
मान्यता कि ‘बालक सिर्फ
वातावरण से सीखता है' की बजाय यह माना
कि बालक के अधिगम में वातावरण के साथ साथ उसकी संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का योगदान
भी है और वातावरण एवं मानसिक संरचनाओं की पारस्परिक अन्तः क्रिया बालक के अधिगम
में महवपूर्ण भूमिका निभाती है बाद में दूसरे महत्वपूर्ण रचनावादी मनोवैज्ञानिक
लेव वाइगोत्सकी (Lev
Vygotsky) ने इस मान्यता को ख़ारिज किया कि बालक सिर्फ मानसिक
प्रक्रियाओं एवं वातावरण की अन्तः क्रिया से सीखता है । पियाजे से अलग वाइगोत्सकी
ने बताया की अधिगम हमेशा सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण में होता है, अतः अधिगम को
हमेशा सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। साथ ही उन्होंने
यह भी बताया कि बालक के अधिगम में उसके समाज एवं संस्कृति की महवपूर्ण भूमिका होती
है। इस प्रकार रचनावादी दृष्टिकोण दो अलग विचारधाराओं में बंट गया: पहला ज्ञान
रचनावाद (Cognitive
Constructivism) जिसके प्रसिद्ध विद्वान जीन पियाजे ( Jean Piaget), ब्रूनर (Jerome Bruner), गैने (Gagne) आदि रहे और दूसरा
सामाजिक संस्कृतिवाद (Socio-
Culturist Perspective) जिसके प्रवर्तक एवं प्रबल समर्थक वाइगोत्सकी (Lev Vygotsky) रहे ।
रचनावाद के अनुसार प्रत्येक शिक्षार्थी अपने स्वयं के लिए
ज्ञान का निर्माण करता है। रचनावादी परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत छात्र एक कोरी स्लेट
नहीं होता है बल्कि वह अपने साथ पूर्व अनुभव लाता है, वह किसी
परिस्थिति के सांस्कृतिक तत्व और पूर्व ज्ञान के आधार पर ज्ञान का निर्माण करता
है। रचनावाद परिप्रेक्ष्य में छात्रों की समालोचनात्मक चिंतन व अभिप्रेरणा को
विकसित कर उन्हें स्वतंत्र अधिगमकर्ता के रूप में ढाला जाता है। रचनावादी
परिप्रेक्ष्य में शिक्षण युक्तियां व गतिविधियां अधिगम प्रक्रिया पर आधारित होत
हैं। रचनावादी परिप्रेक्ष्य का केन्द्र है छात्र सशक्तीकरण। जैसे अभिभावक बालक के
जन्म के बाद उसके स्वतंत्र जीवन यापन के लिए हर संभव आवश्यकताओं की पूर्ति करते
हैं, ऐसे ही रचनावादी
परिप्रेक्ष्य का उद्देश्य अधिगमकर्ता का निर्माण होता है और शिक्षक उसी के लिए
प्रयासरत रहता है।
रचनावाद की मान्यताएं, रचनावाद के अनुसार शिक्षण, अधिगम, शिक्षक एवं विद्यार्थी रचनावाद की शिक्षण अधिगम से सम्बंधित प्रमुख मान्यताएं निम्नांकित हैं:
- अधिगमकर्ता ज्ञान की रचना में अपने संवेदी अंगों को इनपुट की तरह उपयोग करता है।
- अधिगम एक सामाजिक प्रक्रिया है।
- अधिगमकर्ता जितना अधिक जानता है उतना अधिक सीखता है।
- अधिगम की प्रक्रिया में समय लगता है यह अचानक नहीं होती।
- अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्ता सूचनाओं को ग्रहण करता है उन पर विचार करता है, उनका उपयोग करता है व अभ्यास करता है।
- अधिगम में प्रेरणा एक आवश्यक तत्व है जिससे अधिगमकर्ता के संवेदी संरचनाएं सक्रिय रहती हैं।
- अधिगमकर्ता दूसरे अधिगमकर्ताओं व शिक्षक से सीखता है।
रचनावाद की विशेषताएं:
1. रचनावाद के फलस्वरूप कई सारी शिक्षण विधियों का विकास हुआ है जो रचनावाद के सिद्धान्तों के अनुरूप हैं।
2. छात्रों को अपने अधिगम के लिए उत्तरदायित्व देना ।
3. छात्रों को अधिगम की तैयारी से अधिगम के मूल्यांकन तक सक्रिय रूप से सम्मिलित रखना।
4. छात्रों को सामूहिक गतिविधियों के लिए अभिप्रेरित करना ।
5. छात्रों में
जिज्ञासा को प्रोत्साहित करना व उसकी तृप्ति हेतु प्रयास करवाना।
रचनावाद की सीमायें
1. रचनावाद प्रत्येक अधिगमकर्ता को विशिष्ट मानता है जिसके अनुरूप उसके अधिगम अनुभवों का नियोजन होना चाहिए, परन्तु एक कक्षा में एक समय में एक से अधिक छात्र होते हैं जिनके अनुसार अधिगम अनुभवों का नियोजन वास्तविक में संभव प्रतीत नहीं होता।
2. पाठ्यक्रम के
विस्तार और विविधता के चलते इस परिप्रेक्ष्य के अनुसार पाठ्यक्रम समय से पूर्ण
करना भी एक चुनौती है क्योंकि इस परिप्रेक्ष्य में अधिगम में समय ज्यादा लगता है।
रचनावादी शिक्षक की विशेषतायें
- एक संरचनावादी शिक्षक विद्यार्थियों की स्चच्छदता एवं आरंभ प्रवृत्ति को स्वीकार एवं प्रोत्साहित करता है।
- एक रचनावादी शिक्षक पाथमिक स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं, अंतः क्रियात्मक शिक्षण सामग्रियों का प्रयोग करता है।
- रचनावादी शिक्षक विद्यार्थियों की अनुक्रिया के आधार पर अध्यापन, अनुदेशनात्मक युक्तियों के परिवर्तन अपना पाठ्य सामग्री में परिवर्तन करता है।
- रचनावादी शिक्षक अपनी जानकारी विद्यार्थियों से साझा करने से पहले विभिन्न संकल्पनाओं पर विद्यार्थी की समझ को जानने का प्रयास करता है।
- रचनावादी शिक्षक विद्यार्थियों को शिक्षक एवं एक दूसरे के साथ संवाद स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है।
- रचनावादी शिक्षक विद्यार्थियों की जिज्ञासा को विचारोंत्तेजक, मुक्त, प्रश्नों के माध्यम से एवं एक दूसरे प्रश्न पूछने के माध्यम से प्रोत्साहित करते है ।
- रचनावादी शिक्षक विद्यार्थियों के आरंभिक अनुक्रियाओं को आगे ले जाता है।
- रचनावादी शिक्षक विद्यार्थियों को उन अनुभवों के लिए प्रेरित करता है जो उनकी आरंभिक परिकल्पना के विपरीत हो सकते हैं और तब परिचर्चा को प्रोत्साहन देना है।
- रचनावादी शिक्षक विद्यार्थियों को (प्रश्न पूछने के बाद) उत्तर देने के लिए पर्याप्त समय देता हैं।
- संबंध निर्माण एवं मेटाफोर निर्माण के लिए समय देता है।
- अधिगम चक्र प्रतिमान का प्रयोग करते हुए विद्यार्थियों की प्राकृतिक जिज्ञासा को संपोषित करता है।
आकलन के प्रति रचनावादी दृष्टिकोण (Constructivist Views on Assessment)
रचनावादी विद्वान आकलन को एक सक्रीय प्रक्रिया के रूप में
देखते हैं जो अधिगम के साथ साथ चलती है और उसका उद्देश्य विद्यार्थियों को सतत
प्रतिपुष्टि देते हुए, आकलन की
प्रक्रिया में विद्यार्थी को सहभागी बनाते हुए उसे आगे के अधिगम के लिए तैयार करना
है। इस मान्यता ने आकलन में रचनावादी आकलन अथवा अधिगम के लिए आकलन को लोकप्रिय
बनाया। अधिगम के लिए आकलन वस्तुत: आकलन का नवीन उपागम है जो शिक्षण एवं अधिगम
प्रक्रिया के साथ समेकित है जो विद्यार्थियों के अधिगम उन्नति के लिए प्रतिपुष्टि
प्रदान करता है। वस्तुत: अधिगम के लिए आकलन 1990 के दशक से धीरे धीरे लोकप्रिय होने लगा जब यह देखा गया कि
आकलन के नाम पर विद्यार्थी धीरे धीरे अति आकलन एवं बहुत सारे परीक्षण की समस्या से
घिर गए है ताकि उन्हें क्रमवार रैंक में रखा जा सके और विद्यार्थियों की आपस में
तुलना की जा सके। प्राप्ताकों के निर्माण एवं सूचित करने की प्रक्रिया जो
विद्यार्थियों के अधिगम का निर्णय करती थी उसे अधिगम का आकलन की संज्ञा दी गयी है।
अधिगम के लिए आकलन का आधार अधिगम की समाज-रचनावादी दृष्टिकोण है जिसकी मान्यता है
कि किसी भी विषय के अधिगम के लिए जो मासिक प्रतिमान का प्रयोग करते हैं वह अत्यंत
जटिल पूर्व अनुभवों एवं सामाजिक व्यक्तिक से अंतः क्रियाओं पर आधारित होती है। इन
जटिल प्रक्रियाओं को विद्यार्थी एवं शिक्षक दोनों के लिए समझने की अवस्था उन अधिगम
सामग्रियों की प्रकृति समझने में मददगार है। इसकी यह भी मान्यता है कि शिक्षक एवं
अधिगम को उसकी गहराई के मध्य के संवाद एवं प्रतिपुष्टि की गुणवत्ता शिक्षण अधिगम
की प्रक्रिया में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
रचनावादियों के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य बालक का
सर्वांगीण विकास (बौद्धिक,
शारीरिक, सामाजिक
भावनात्मक आदि) है, अतः आकलन का भी
उद्देश्य सर्वांगीण विकास को आकलन करने वाला होना चाहिए।
रचनावाद के अनुसार आकलन के मुख्य उद्देश्य है विद्यार्थी के
अधिगम को प्रेरित करना एवं उनकी शैक्षिक संप्राप्ति को उन्नत करना। अत: अधिगम से
पूर्व विद्यार्थियों के लिए यह जानना आवश्यक है कि-
- अधिगम का लक्ष्य क्या है?
- उन्हें यह क्यों सीखना चाहिए?
- अधिगम लक्ष्यों की प्राप्ति में वे कहां है?
- अधिगम लक्ष्यों की प्राप्ति कैसे की जा सकती है?
वस्तुतः अधिगम के लिए आकलन विद्यार्थियों के अधिगम से
संबंधित सूचना प्राप्त करके एवं उनका विस्तृत विश्लेषण करने की प्रक्रिया है जिसके
द्वारा प्रत्येक विद्यार्थी एवं शिक्षक दोनों यह जानने का प्रयत्न करते हैं
विद्यार्थी अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति में कहाँ हैं एवं उन्हें अपेक्षित स्तर
तक ले जाने का सर्वोत्तम तरीका क्या है | अधिगम के लिए आकलन, अधिगम के साथ साथ चलने वाली प्रक्रिया है अतः इसके द्वारा
विद्यार्थी यह जान पाते है कि उन्हें क्या सीखना है, उनसे क्या अपेक्षित है, और शिक्षक आकलन
के द्वारा उसके आधार पर उन्हें प्रतिपुष्टि एवं सलाह प्रदान करता है कि वे अपने
अधिगम को और उन्नत कैसे बना सकते है। अधिगम के लिए आकलन में शिक्षक के द्वारा यह
जानने का प्रयास किया जाता है। कि उनके विद्यार्थी क्या जानते हैं, क्या कर सकते हैं
एवं उनकी अधिगम कठिनाइयों क्या क्या हैं।
आकलन का संज्ञानात्मक रचनावादी दृष्टिकोण (Cognitive Constructivist Approach)
संज्ञानात्मक रचनावाद के अनुसार अधिगम एक सक्रिय प्रक्रिया
है जो प्रत्येक अधिगमकर्ता के लिए विशिष्ट होती है जिसमें अधिगमकर्ता अपने पूर्व
अनुभवों व ज्ञान के आधार पर प्रत्ययों में संबंध स्थापित करे उनके अर्थों की रचना
करता है। रचनावादियों का मत है कि प्रत्येक अधिगमकर्ता ज्ञान की रचना वैयक्तिक और
सामाजिक सन्दर्भ में करता है। रचनावाद इस मान्यता पर आधारित है कि मानव, ज्ञान एवं उसके
अर्थ की रचना अनुभवों के आधार पर करता है। रचनावाद के क्षेत्र में पियाजे व
वाइगोत्सकी का नाम उल्लेखनीय है। रचनावाद का मूल जीन प्याजे द्वारा किये गये
अध्ययन हैं। पियाजे ने रचनावाद के संज्ञानात्मक रचनावाद का विचार रखा जिसके अनुसार
ज्ञान की रचना सक्रिय रूप से अधिगमकर्ता द्वारा की जाती है। ज्ञान को निष्क्रिय
रूप में बाह्य वातावरण से ग्रहण नहीं किया जाता। पियाजे के अनुसार प्रत्येक अधिगम
के फलस्वरूप अधिगमकर्ता की मानसिक संरचनाओं (स्कीमा) का निर्माण होता है व जब नई
परिस्थिति में अधिगमकर्ता पहुंचता है तो उसके अनुसार व अपनी इन संरचनाओं में
संशोधन कर परिस्थिति के साथ समायोजन स्थापित करता है। वाइगोत्सकी ने सामाजिक
रचनावाद का विचार दिया जिसके अनुसार अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्ता द्वारा अन्य
सहपाठियों, शिक्षकों तथा
वातावरण साथ अंतः क्रिया प्रमुख होती है। अधिगम अतः क्रियाओं पर आधारित होता है।
रचनावाद परिप्रेक्ष्य भी अधिगम की प्रक्रिया के केन्द्र में बालक को रखता है व
शिक्षक की भूमिका अधिगम के सुगमकर्ता के रूप में होती है। पियाजे ने अपने
संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त को बताया कि व्यक्ति का अधिगम सम्मिलन (Assimilation) और आत्मसातीकरण (
Accomodation) की प्रक्रिया
द्वारा होता है। व्यक्ति नये अनुभव को मस्तिष्क में उपस्थित पुरानी रचनाओं (Scheme) से मिलान करता है
(Assimilation) और यदि यह पुरानी
रचनाओं से मिलता नहीं है तब व्यक्ति एक नयी संरचना विकसित करता है और इस प्रकार
विभिन्न रचनाओं का मिलान एवं निर्माण करते हुए व्यक्ति का वातावरण से मानकि
अनुकूलन (Adaptation) होता है जो उसे
साम्यावस्था में बनाये रखने में मदद करता है। शैक्षिक आंदोलन यथा: पूछताछ आधारित
अधिगम ( Inquiry-based
learning), सक्रिय अधिगम (Active learning), अनुभव आधारित (Eexperiential learning, अधिगम ज्ञान रचना
(Knowledge Building) आदि सभी वस्तुत:
रचनावाद से व्यत्पन्न है। रचनावाद के अनुसार शिक्षक ज्ञान के स्रोत के रूप में
नहीं बल्कि ज्ञान प्राप्ति के सहयोगी की भूमिका अदा करता है।
1 संज्ञानात्मक रचनावाद एवं आकलन
- संज्ञानात्मक रचनावाद आकलन को एक रचनात्मक प्रक्रिया के रूप में देखता है।
- इसके अनुसार चूकी विद्यार्थी अपने ज्ञान की रचना करता है अतः उसके आकलन में भी विद्यार्थी की सहभागिता होनी चाहिए।
- संज्ञानात्मक रचनावाद आकलन की प्रक्रिया में योगात्मक आकलन (Summative Assessment) की बजाय सतत रचनात्मक आकलन (Formative Assessment) को ज्यादा महत्वपूर्ण माना।
- संज्ञानात्मक रचनावाद के अनुसार आकलन का उद्देश्य वर्ष के अंत में विद्यार्थी ने अन्य विद्यार्थी की तुलना में कितना सीखा की बजाये विद्यार्थी की अधिगम समस्याओं को जानना एवं तदनुसार नैदानिक शिक्षण प्रदान करना है।
- संज्ञानात्मक रचनावाद व्यक्तिगत संज्ञानात्मक भिन्नताओं के अनुसार आकलन में लचीलापन रखने की बात करता है।
- इस प्रकार आपने देखा कि संज्ञानात्मक रचनावाद आकलन को विद्यार्थी के विकास के व्यापक उपकरण के रूप में देखता है परन्तु संज्ञानात्मक रचनावाद ने आकलन एवं अधिगम में समाज एवं संस्कृति की भूमिका की उपेक्षा की।