नगरवाद :नगरों की बसावट प्रबन्ध व्यवस्था आर्थिक जीवन
नगरवाद (Urbanism)
- नगरों की बसावट ( Dwelling of Township)
- नगरीय जीवन की कठिनाइयां (Difficulties of Life of Township)
- नगरों की प्रबन्ध व्यवस्था (Management System of Township)
- आर्थिक जीवन (Economic Life )
- ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा (Education and Science)
नगरवाद :नगरों की बसावट प्रबन्ध व्यवस्था आर्थिक जीवन प्रस्तावना
मध्यकालीन यूरोप की एक चारित्रिक विशेषता है, बड़े अथवा छोटे गाँवों का नगरों अथवा पुरों के रूप में विकसित होना। ग्यारहवीं सदी के पहले जो नगर बसे हुए थे, वे भी इस समय से करवट बदल कर नया रूप धारण करने लगे थे। धर्मयुद्धों के परिणामस्वरूप यूरोपवासियों का पूर्व के देशों के साथ व्यापार फिर से शुरू हो गया जो धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। इस बढ़ते हुये व्यापार के कारण यूरोप में पुरों और नगरों की वृद्धि भी तेजी से होने लगी। इससे पहले भूमध्यसागरीय व्यापार पर मुसलमानों (अरबों) का एकाधिकार था। सैल्युक तुर्की ने अरबों की राजनीतिक सत्ता का अन्त कर दिया, जिससे अरबों का व्यापारिक एकाधिकार लड़खड़ा गया। चूँकि तुर्क लोगों की व्यापार वाणिज्य में विशेष रुचि नहीं थी अतः यूरोपवासियों को इस क्षेत्र में आगे बढ़ने और पनपने का सुअवसर मिल गया। इटली में जेनेवा, वेनिस तथा फ्लोरेन्स आदि बड़े नगरों का विकास हुआ, जो भूमध्यसागर में व्यापार के प्रधान केन्द्र बन गये । स्पेन तथा फ्रांस के नगरों का उत्तरी अफ्रीका के अरबों के साथ और इटली के नगरों का पूर्वी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध था। पश्चिम जर्मनी में नूरेम्बर्ग और आग्सबर्ग के प्रसिद्ध नगर थे। वेनिस के बन्दरगाहों से भेजा हुआ माल इन्हीं नगरों से होकर उत्तरी यूरोप में जाता था। इंग्लैण्ड तथा बाल्टिक समुद्र के साथ व्यापार होने से हैम्बर्ग, ब्रूमेन आदि नगरों का विकास हुआ। राईन नदी के तट पर कोलन नगर अधिक प्रसिद्ध था।
दूसरा मुख्य कारण
तेजी से बदलती हुई सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ थीं। ज्यों-ज्यों बर्बर लोग
ईसाई बनते गये त्यों-त्यों उनकी लूट-खसोट और रक्तपात की प्रवृत्तियाँ शान्त होती
गईं, जिससे शान्ति और व्यवस्था की स्थापना सम्भव हो सकी। संयोगवश
बर्बर आक्रमणों के बाद यूरोप के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में सरकारें भी पहले की
अपेक्षा अधिकाधिक स्थिर होती गई और स्थिर सरकारों के परिणामस्वरूप भी शान्ति की
जड़ें सुदृढ़ हुईं। शान्ति और व्यवस्था के नये वातावरण में यूरोपीय व्यापारी और
उत्पादक अपने आपको अधिक सुरक्षित अनुभव करने लगे और उन्हें अपना-अपना व्यवसाय एवं
व्यापार बढ़ाने का प्रोत्साहन मिला।
पूर्वी देशों के
साथ व्यापार से मुनाफा कमाने के लिये आयात के साथ-साथ निर्यात को बढ़ाना भी आवश्यक
था। निर्यात बढ़ाने के लिये स्वदेशी उत्पादन को बढ़ाना जरूरी था। संयोगवश इसी युग
में जनसंख्या की वृद्धि हुई और कृषक दास प्रथा भी चरमराने लगी। अब गाँवों से कृषक
दासों तथा खेतिहर श्रमिकों का नगरों की तरफ बड़ी तेजी से पलायन होने लगा जिससे
व्यवसायियों में सस्ती दर पर श्रमिक उपलब्ध हो गये। उद्योग-धन्धों का उत्पादन तथा
उत्पादन के खरीददारों की संख्या में भी वृद्धि होती गई। नगर औद्योगिक विकास के भी
केन्द्र बन गये। इससे नगरों का विकास द्रुतगति से होने लगा। व्यापार वाणिज्य तथा
उद्योग-धन्धों की उन्नति के परिणामस्वरूप नगरों के सम्पन्न लोगों के पास धन संचित
होने लगा। इस बढ़ती हुई समृद्धि ने पुरों और नगरों के विकास को प्रोत्साहित किया।
1 नगरों की
बसावट ( Dwelling of Township)
मध्यकालीन यूरोप के नगरों की बसावट शैली अधिक आकर्षक नहीं थी। नगर के चारों तरफ एक चहारदीवारी होती थी चहारदीवारी के प्रवेश द्वारों (अर्थात् नगर में प्रवेश करने वाले द्वार) में प्रवेश करने के लिए खाई के ऊपर एक उठाये जाने वाला पुल बना होता था। सूर्यास्त के बाद पुल को उठा लिया जाता था और प्रवेश द्वारा बन्द कर दिया जाता था। ऐसी व्यवस्था लुटेरों तथा बाह्य आक्रमणकारियों से सुरक्षा की दृष्टि से की जाती थी । चहारदीवारी नगर की बढ़ती हुई जनसंख्या को अपनी सीमा में धकेलने का काम भी करती थी। नगर की मुख्य सड़कें तो ठीक-ठाक चौड़ी थीं परन्तु गलियाँ बहुत सँकरी होती थीं। इन सँकरी गलियों के दोनों तरफ ऊँचे कंगूरे वाले मकान थे। गलियाँसँकरी थीं और मकानों की ऊपरी मंजिलें, छज्जे आदि गलियों में इतनी अधिक आगे को निकली होती थीं कि एक मकान की खिड़की के सामने वाले मकान की खिड़की में छलाँग लगाई जा सकती थी। गलियाँ कच्ची होती थीं और उनमें कूड़ा-कर्कट, गंदा पानी तथा कीचड़ जमा रहता था। रात के समय में प्रकाश रहित इन गलियों को पार करना बहुत ही कष्टदायी होता था। दिन में भी ये गलियाँ दुर्गन्ध से भरी रहती थीं।
नगर के एक बड़े खुले मैदान में स्वर्ग की ओर इंगित करते हुये शिखरों वाले भव्य कैथेड्रल (बड़ा गिरजाघर) होते थे। उसके आस-पास गिल्ड-हॉल और ऊँचे घंटाघर होते थे, जो नगर की धार्मिक और आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र थे। सार्वजनिक सभाएँ भी वहीं लगती थीं। ज्यादातर शिल्पकार तथा व्यवसायी लोग अपने घरों में ही अपना काम करते थे। चूँकि उस युग में लोग पढ़ना-लिखना कम जानते थे, अतः ये दुकानदार लोग अपने घरों के आगे मनोहारी छोटे-छोटे चिह्न टांग देते थे जिनको देखकर अनुमान लगा लिया जाता था। जैसे, ढाबा (टैबर्न) चलाने वाले का संकेत सूअर का सिर था तो मोची का एक बड़ा जूता । महाजन का चिह्न तीन सुनहरी गेंदें थीं तो नाई का चिह्न लाल धारियों वाला एक सफेद बाँस.
2 नगर- जीवन की कठिनाइयाँ (Difficulties of Life of Township)
मध्यकालीन यूरोप
में नगरवासियों को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता था। सबसे बड़ी
कठिनाई पानी की थी। बहुत से लोगों ने अपने मकानों में कुएँ बनवा रखे थे परन्तु
अन्य लोगों को पैसे देकर पानी मँगवाना पड़ता था। पानी चाहे घर के कुएँ का हो अथवा
मोल लिया हुआ काफी गन्दा होता था जिससे लोगों का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था।
कभी-कभी महामारियाँ समूची आबादी का सफाया कर देती थीं। नगर के किसी एक मोहल्ले में
यदि आग लग जाती तो वह कई मोहल्लों को अपनी चपेट में ले लेती थी, क्योंकि ज्यादातर
मकान लकड़ी के बने होते थे और आस-पास सटे हुए थे। इस प्रकार एक मोहल्ले वालों का
यदि दूसरे मोहल्ले वालों से झगड़ा हो जाता तो दोनों मोहल्लों के लोगों की नींद उड़
जाती थी। हर मोहल्ले में सभी लोग बारी-बारी से रात्रि का पहरा दिया करते थे। बाह्य
आक्रमण के दिनों में नगरवासियों का जीवन अत्यधिक दयनीय हो जाता था । यदि
आक्रमणकारी लोग नगर की घेराबन्दी करके बैठ जाते तब तो कई लोग अकाल मौत के शिकार बन
जाते थे।
3 नगरों की प्रबन्ध व्यवस्था (Management System of Township)
मध्यकालीन यूरोप
में कई नगर और पुर सामन्तों की 'फीफ' में सम्मिलित थे।
ऐसे नगरों के लोगों को अपने सामन्त स्वामी को लाग-बाग तथा चाकरी देनी पड़ती थी। जब
नगरों की जनसंख्या और समृद्धि में वृद्धि हुई तो कई नगरवासियों ने अपने सामन्त
स्वामी को एकमुश्त धन देकर नगर की स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली थी। कई नगर ऐसे भी थे
जिन्होंने लड़-झगड़कर अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली। ऐसे मामलों में राजाओं का
गुप्त सहयोग नगरवासियों को प्राप्त होता था, क्योंकि शासक
अपने विरोधी सामन्त की शक्ति को कमजोर करने का अवसर खोना पसन्द नहीं करते थे।
स्वतन्त्र नगरों
को ऐसे अधिकार पत्र मिल जाते थे, जिनमें उन्हें नगर का शासन चलाने सम्बन्धी कुछ
अधिकारों की गारन्टी दी गई होती थी। सामान्यतः नगर की शासन व्यवस्था का सर्वोच्च
अधिकारी 'मेयर' (बर्गोमास्टर) कहा जाता
था। उसकी सहायता के लिये एक परिषद् होती थी जो नगर शासन से सम्बन्धित कानून बनाती
थी। परिषद् के सदस्यों का निर्वाचन अलग-अलग नगरों में पृथक् पृथक् ढंग से होता था
और परिषद् के सदस्य 'मेयर' को चुनते थे।
निर्वाचन पद्धति चाहे जो कोई रही हो, लगभग सभी नगरों
की शासन व्यवस्था में धनी व्यवसायियों व्यापारियों, - निर्माताओं, महाजनों और
कामकाजी लोगों ही का वर्चस्व कायम था। इस नये वर्ग को 'बुर्जुआ' कहा जाता था। नगर
को बुर्ग भी कहते थे। बुर्ग से ही बुर्जुआ शब्द बना प्रतीत होता है। इसी को 'मध्यम वर्ग' भी कहते हैं
क्योंकि यह न तो कुलीन था और न ही किसानों और दासों की भाँति निम्न वर्ग था। इस
वर्ग के महत्त्व का कारण उसकी धन सम्पत्ति था।
4 आर्थिक जीवन (Economic Life)
गिल्ड पद्धति -
मध्य युग में भी इनका महत्त्व तो बना रहा परन्तु व्यापार वाणिज्य और उद्योग धन्धों
ने अधिक महत्त्व प्राप्त कर लिया था। यद्यपि मध्य युग में व्यवसायियों को अनेक
प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था; फिर भी वे अपने
क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ते रहे। उनकी सफलता में श्रेणियों (गिल्ड) की भूमिका
भी उत्तरदायी थी । प्रत्येक व्यवसाय का अपना संघ (एसोसिएशन) होता था, जिसे गिल्ड कहा
जाता था। ये संघ व्यवसाय को चलाने के लिये कठोर नियम बनाते थे तथा उत्पादन का मानक
तय करते थे। गिल्ड में कारीगरों, मालिकों, प्रशिक्षणार्थियों
(अप्रेंटिस ) प्रशिक्षितों (जर्नीमैन) और उस्तादों (मास्टर) सभी का उचित
प्रतिनिधित्व होता था ।
उस्ताद अथवा
मिस्त्री के पास जो काम सीखने जाता था, उसे
प्रशिक्षार्थी कहा जाता था। उसे वेतन नहीं दिया जाता था। परन्तु उसके खाने-पीने, कपड़े तथा निवास
की व्यवस्था उस्ताद करता था। जब वह अपने काम में निपुणता प्राप्त कर लेता था तो
उसे 'जर्नीमैन' (प्रशिक्षित ) कहा जाता था
और उसको वेतन मिलना शुरू हो जाता था। जब श्रेणी अथवा गिल्ड उसे योग्यता का प्रमाण
पत्र दे देती तो वह 'उस्ताद' बन जाता था। उसके
बाद वह अपनी दुकान खोल सकता था। परन्तु सामान्यतः कई उस्ताद अपने पुत्रों को ही
प्रशिक्षित करते थे।
गिल्ड अपने
सदस्यों के कल्याण के लिये भी बहुत कुछ करती थी। बीमारी, दुर्घटना, वृद्धावस्था के
समय में सदस्यों को आर्थिक सहायता देती थी। उनकी विधवाओं तथा अनाथ बच्चों के
भरण-पोषण की व्यवस्था करती थी। सदस्यों के मनोरंजन के लिये नाटक, धार्मिक समारोह
और सहभोज का आयोजन करती थी परन्तु गिल्ड के नियमों का उल्लंघन करने वाले सदस्यों
के प्रति सख्त कदम उठाती थी। यदि कोई सदस्य घटिया स्तर का उत्पादन करता, काम करने के
घण्टों के नियमों का उल्लंघन करता अथवा ग्राहक से निर्धारित कीमत से ज्यादा पैसा
लेने का दोषी पाया जाता तो उसे गिल्ड की सदस्यता से पृथक् कर दिया जाता था। यह सजा
एक प्रकार से 'जाति से बहिष्कृत किये जाने के समान ही अपमानजनक होती थी।
मेलों का महत्व
मध्ययुगीन यूरोप
के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में मेलों का एक विशेष आकर्षण था। इन मेलों में
मनोरंजन की व्यवस्था तो होती ही थी परन्तु व्यापारिक आदान-प्रदान भी होता था।
दूर-दूर के व्यापारी लोग सामन्तीय भूमिपतियों को संरक्षण के लिये तथा मेलों में
अपना सामान बेचने का अधिकार प्राप्त करने के लिये शुल्क अदा करते थे। इन मेलों में
इंग्लैण्ड की ऊन, रूसी मसूर, स्पेनी मंदिरा, फ्लैण्डर का लिनन
और पूर्वी देशों में आयातित गर्म मसाला, रेशम तथा मलमल और
शृंगार-प्रसाधन सामग्री का विनिमय किया जाता था। अलग-अलग देशों से आने वाले
व्यापारियों के पास अलग-अलग किस्म की मुद्राएँ होती थीं, अतः उनका सही
मूल्यांकन करने के लिये 'मनी चेंजर' (नाणावादियों) की
जरूरत पड़ती थी। इनमें से कुछ ने साहूकारी का व्यवसाय भी अपना रखा था। कई व्यापारी
इन साहूकारों के पास बड़ी-बड़ी राशियाँ सुरक्षित रखने के लिए छोड़ जाते थे और
चूँकि सभी को एक साथ वापस धन देने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, इसलिए साहूकार
लोग जमा कराई गई राशि को उधार पर दे देते थे और ब्याज के रूप में मुनाफा कमा लेते
थे। ये साहूकार लोग ही आगे चलकर 'महाजन' (बैंकर) बन गये।
इन लोगों ने दूसरे देशों के बैंकरों से अपना लेन-देन का सम्पर्क बना लिया। इससे
व्यापारियों को सुविधा हो गई। वे अपने क्षेत्र के किसी प्रतिष्ठित महाजन के पास
रकम जमा कर देते थे और बदले में गन्तव्य स्थान के महाजन के नाम की हुण्डी ले लेते
थे । हुण्डी प्रस्तुत करने पर वह महाजन उस व्यापारी की जमा कराई गई रकम दे देता था
। यह पद्धति आधुनिक युग के बैंकों द्वारा जारी किये जाने वाले डिमांड ड्राफ्ट तथा
ट्रैवलर्स चेक से मिलती-जुलती है।
1500 ई. के आसपास
तो कागजी मुद्रा का प्रचलन भी शुरू हो गया। मध्यकालीन यूरोप में साहूकारी का काम
ज्यादातर यहूदी लोग करते थे। इसका एक कारण तो यह था कि चर्च ब्याज लेने-देने के
खिलाफ था । इसलिए ईसाई इस व्यवसाय से दूर रहे। दूसरा कारण यह था कि धार्मिक
असहिष्णुता के उस युग में यहूदियों के लिए श्रेणियों के द्वार बन्द थे। इसलिये
उनके लिये आजीविका का यही एकमात्र मुनाफा वाला मार्ग खुला था । कालान्तर में इटली
के लोम्बार्डी नगर के धनिक भी इस क्षेत्र में आ गये। ऐसे मेलों में इंग्लैण्ड का
सेंट इवेंस का मेला, रूस का नोवगोरोव और फ्रांस का शॉपेन का मेला
अधिक विख्यात थे।
इन मेलों से
कारीगरों, शिल्पकारों तथा हाथ से सामान बनाने वाले किसानों-सभी को
प्रोत्साहन मिलता था। उन्हें यह ज्ञात हो गया कि 15-20 दिन चलने वाले इन मेलों में
दूर से आने वाले ग्राहक मिल जायेंगे और उनके द्वारा तैयार किया गया सामान बिक
जायेगा। विद्वानों का मानना है कि इन मेलों से ही अन्ततः व्यापारिक चिह्नों (ट्रेड
मार्क) अर्थात् बेचने-बनाने के एकाधिकार का जन्म हुआ। बहीखाता रखने की पद्धति का
विकास हुआ और अच्छे तथा कुशल कारीगरों को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने का उचित
रंगमंच मिला।
एशियाई व्यापार मार्ग -
भूमध्यसागर तथा सुदूर-पूर्व के बीच तीन प्रमुख व्यापारिक मार्गों की
जानकारी मिली है और इन तीनों व्यापारिक मार्गों पर दीर्घकाल तक मुसलमानों का
एकाधिकार रहा। सबसे अधिक प्रचलित मार्ग भारत से फारस की खाड़ी तक वहाँ से ऊँटों
द्वारा दजला-फरात की घाटी में होते हुए बगदाद और वहाँ से एंटियोक की तरफ थे। कुछ
व्यापारिक काफिले बगदाद से सिकन्दरिया का मार्ग पकड़ते थे। दूसरा मार्ग उत्तरी
स्थल मार्ग था, परन्तु यह अधिक सुविधाजनक नहीं था। यह मार्ग खतरनाक पहाड़ी
दरों एवं मरुस्थल से होकर गुजरता था। चीन के मरुस्थल को पार करके भारत के उत्तरी पर्वतीय
क्षेत्र से होकर कास्पियन सागर के तट के सहारे सहारे चलते हुए कृष्ण सागर के
बन्दरगाहों तक पहुँचता था। सबसे खतरनाक मार्ग दक्षिणी मार्ग था- पूर्वी द्वीप समूह
से समुद्र द्वारा भारत के दक्षिण तट और वहाँ से लाल सागर और फिर अरब होते हुये
भूमध्यसागर के किनारे तक। लाल सागर से सामान काफिलों के द्वारा सिकन्दरिया ले जाया
जाता था।
5 ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा (Education and Science)
शिक्षा -
मध्य
युग के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी यूरोप शिक्षा की दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ था।
शौर्य प्रधान उस युग में पढ़े-लिखे लोगों की अपेक्षा शूरवीर सैनिकों की अधिक
आवश्यकता थी। न पर्याप्त संख्या में विद्यालय थे और न ही पुस्तकालय एवं पुस्तकें।
अधिकांश लोग अज्ञान, अन्धविश्वास एवं कूप-मण्डूकता के जाल में जकड़े
हुए थे। मठों और गिरजाघरों में अध्ययन-अध्यापन होता था परन्तु उसका मुख्य ध्येय बच्चों
को मठवासी अथवा पुरोहित बनाना था। इसलिये उन्हें उसी दृष्टिकोण से पढ़ाया जाता था।
सम्राट् शार्लमेन ने शिक्षा के प्रसार के लिये अवश्य ही कुछ कार्य किया था परन्तु
लोग उसके परिश्रम का अधिक लाभ नहीं उठा पाये। चर्च के विद्यालयों में मुख्यत:
लेटिन व्याकरण, चर्च - संगीत, सामान्य गणित, खगोल शास्त्र और
दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। गिल्ड ने भी अपने सदस्यों के बच्चों की शिक्षा के
लिये कुछ विद्यालयों की स्थापना की थी। सम्पन्न परिवार अपने बच्चों की प्रारम्भिक
शिक्षा की व्यवस्था अपने घरों पर ही कर लेते थे। इसके लिए दो-चार शिक्षकों की
व्यवस्था कर ली जाती थी।
व्यापार वाणिज्य
की उन्नति के परिणामस्वरूप जब यूरोपीय देशों की समृद्धि का विकास हुआ तो नगरवाद के
साथ-साथ विश्वविद्यालयों का भी भाग्योदय हुआ और अब हजारों छात्र अपनी ज्ञान-पिपासा
को तृप्त करने के लिये वहाँ आने लगे। यह परिवर्तन धर्मयुद्धों के द्वारा पूर्वी
देशों के साथ सम्पर्क के कारण भी आया। क्योंकि यूरोपवासी उन दिनों में विद्वान्
मुसलमानों यहूदियों और बाइजेन्टाइन लोगों के सम्पर्क में आये थे और उनकी विद्वता
से काफी प्रभावित हुये थे। ये विश्वविद्यालय किसी पूर्व योजना के अन्तर्गत विकसित
नहीं हुये थे। अनायास ही उनका उद्भव और विकास होता चला गया। चर्च के कुछ बड़े
विद्यालय, विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गये। इनमें से कुछ
विश्वविद्यालयों ने किसी खास क्षेत्र अथवा विषय में अपनी अलग पहचान बना ली थी।
उदाहरण के लिये पारी (पेरिस ) का विश्वविद्यालय धर्म की शिक्षा के लिये विख्यात हो
गया।
इंग्लैण्ड के
ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भी प्रसिद्ध हुये जर्मनी का हाइडलबर्ग
विश्वविद्यालय भी शिक्षा का विख्यात केन्द्र बन गया था। अधिकांश विश्वविद्यालय
कलावर्ग संकाय से सम्बन्धित विषयों के साथ-साथ धर्म, विज्ञान, कानून और
चिकित्सा की शिक्षा प्रदान करते थे। पाठ्यक्रम के विषयों में व्याकरण, अलंकार - शास्त्र, तर्कशास्त्र, ज्यामिति, अंकगणित, खगोल विज्ञान, संगीत आदि अधिक
लोकप्रिय थे। इसी युग में बी. ए. ' तथा 'एम. ए.' की उपाधियों का
भी प्रचलन शुरू हुआ था। एम. ए. की उपाधि प्राप्त करने वाला व्यक्ति प्राध्यापक
बनने की योग्यता प्राप्त कर लेता था।
पाठ्य पुस्तकों की कमी के कारण विद्यार्थियों को नोट लेना बहुत जरूरी था क्योंकि अध्यापन व्याख्यान-पद्धति से होता था । जटिल समस्याओं पर वाद-विवाद भी होते थे। विद्यार्थियों से शुल्क वसूल किया जाता था और जो लोग बहुत निर्धन होते थे वे अपने शिक्षकों से अनुमति लेकर भिक्षा माँगकर फीस चुकाते थे। समाज में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे और वे विभिन्न राजकीय करों से मुक्त रखे जाते थे। दोषी शिक्षकों और विद्यार्थियों पर केवल चर्च के न्यायालयों में ही मुकदमा चलाया जा सकता था। अवकाश के क्षणों में आजकल के विद्यार्थियों की भाँति मौज मस्ती भी मारते थे।
नगरवाद सारांश (Summary)
गाँवों से कृषक
दासों तथा खेतिहर श्रमिकों का नगरों की तरफ बड़ी तेजी से पलायन होने लगा जिससे
व्यवसायियों में सस्ती दर पर श्रमिक उपलब्ध हो गये। उद्योग-धन्धों का उत्पादन तथा
उत्पादन के खरीददारों की संख्या में भी वृद्धि होती गई। नगर औद्योगिक विकास के भी
केन्द्र बन गये। इससे नगरों का विकास द्रुतगति से होने लगा। व्यापार वाणिज्य तथा
उद्योग-धन्धों की उन्नति के परिणामस्वरूप नगरों के सम्पन्न लोगों के पास धन संचित
होने लगा। इस बढ़ती हुई समृद्धि ने पुरों और नगरों के विकास को प्रोत्साहित किया।
मध्यकालीन यूरोप के नगरों की बसावट शैली अधिक आकर्षक नहीं थी। नगर के चारों तरफ एक चहारदीवारी होती थी। चहारदीवारी के प्रवेश द्वारों (अर्थात् नगर में प्रवेश करने वाले द्वार) में प्रवेश करने के लिए खाई के ऊपर एक उठाये जाने वाला पुल बना होता था। सूर्यास्त के बाद पुल को उठा लिया जाता था और प्रवेश द्वारा बन्द कर दिया जाता था। ऐसी व्यवस्था लुटेरों तथा बाह्य आक्रमणकारियों से सुरक्षा की दृष्टि से की जाती थी।
मध्यकालीन यूरोप में नगरवासियों को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता था। सबसे बड़ी कठिनाई पानी की थी। बहुत से लोगों ने अपने मकानों में कुएँ बनवा रखे थे परन्तु अन्य लोगों को पैसे देकर पानी मँगवाना पड़ता था।
मध्यकालीन यूरोप में कई नगर और पर सामन्तों की 'फोफ' में सम्मिलित थे। ऐसे नगरों के लोगों को अपने सामन्त स्वामी को लाग-बाग तथा चाकरी देनी पड़ती थी। जब नगरों की जनसंख्या और समृद्धि में वृद्धि हुई तो कई नगरवासियों ने अपने सामन्त स्वामी को एकमुश्त धन देकर नगर की स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली थी। कई नगर ऐसे भी थे जिन्होंने लड़-झगड़कर अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली। ऐसे मामलों में राजाओं का गुप्त सहयोग नगरवासियों को प्राप्त होता था, क्योंकि शासक अपने विरोधी सामन्त की शक्ति को कमजोर करने का अवसर खोना पसन्द नहीं करते थे।
मध्ययुगीन यूरोप के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में मेलों का एक विशेष आकर्षण था। इन मेलों में मनोरंजन की व्यवस्था तो होती ही थी परन्तु व्यापारिक आदान-प्रदान भी होता था। दूर-दूर के व्यापारी लोग सामन्तीय भूमिपतियों को संरक्षण के लिये तथा मेलों में अपना सामान बेचने का अधिकार प्राप्त करने के लिये शुल्क अदा करते थे।
1500 ई. के आसपास तो कागजी मुद्रा का प्रचलन भी शुरू हो गया । मध्यकालीन यूरोप में साहूकारी का काम ज्यादातर यहूदी लोग करते थे। इसका एक कारण तो यह था कि चर्च ब्याज लेने-देने के खिलाफ था। इसलिए ईसाई इस व्यवसाय से दूर रहे। दूसरा कारण यह था कि धार्मिक असहिष्णुता के उस युग में यहूदियों के लिए श्रेणियों के द्वार बन्द थे । इसलिये उनके लिये आजीविका का यही एकमात्र मुनाफा वाला मार्ग खुला था।
मध्य युग के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी यूरोप शिक्षा की दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ था। शौर्य प्रधान उस युग में पढ़े-लिखे लोगों की अपेक्षा शूरवीर सैनिकों की अधिक आवश्यकता थी । न पर्याप्त संख्या में विद्यालय थे और न ही पुस्तकालय एवं पुस्तकें। अधिकांश लोग अज्ञान, अन्धविश्वास एवं कूप- मण्डूकता के जाल में जकड़े हुए थे। मठों और गिरजाघरों में अध्ययन-अध्यापन होता था परन्तु उसका मुख्य ध्येय बच्चों को मठवासी अथवा पुरोहित बनाना था। इसलिये उन्हें उसी दृष्टिकोण से पढ़ाया जाता था।