अठारहवीं शताब्दी में जनसंख्या में बदलाव एवं प्रवृत्ति (Trends and Transition in Population)
जनसंख्या में बदलाव एवं प्रवृत्ति - प्रस्तावना (Introduction)
अठारहवीं शताब्दी के आर्थिक इतिहास में तीन
प्रवृत्तियाँ महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती हैं। इनमें प्रथम है विश्वव्यापी
अर्थव्यवस्था का उदय होना। इस शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में
जो उन्नति हुई उसे क्रांतिकारी माना जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न देशों
की आर्थिक गतिविधियाँ अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ गईं। इस व्यापार
में यूरोपीय लोगों ने प्रमुख भूमिका निभाई तथा इसका लाभ भी यूरोपीय देशों को अधिक
हुआ। दूसरी प्रवृत्ति यूरोप का संसार के सबसे समृद्ध महाद्वीप के रूप में उभरना
है। एक हद तक इसका कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में यूरोप की प्रमुखता थी जो स्वयं
सामाजिक व आर्थिक कारणों का परिणाम थी। दूसरे यूरोपीय देशों की औद्योगिक उन्नति भी
इस समृद्धि के लिए उत्तरदायी थी। इस शताब्दी की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति यह थी
कि इसी दौरान आर्थिक विकास के आधुनिक युग का प्रारंभ हुआ। आधुनिक युग से आशय उन
गतिविधियों से है, जो आने वाले समय
में स्वयं ही विकास प्रक्रिया का सृजन करती रहीं ।
जनसंख्या में वृद्धि (Growth in Population)
अठारहवीं शताब्दी तक जनगणना नहीं की जाती थी, अतः उस समय की जनसंख्या के जो भी विवरण मिलते हैं वे अनुमान पर आधारित हैं। यह
अनुमान लगाया गया है कि इस शताब्दी में यूरोप की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि
हुई। वृद्धि की दर भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही, परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि शताब्दी के अंत तक सभी देशों में पहले से
अधिक लोग थे। 1700 ई. में जहाँ यह 11 करोड़ 80 लाख रही होगी वहाँ 1750 ई. में 14
करोड़ तथा 1800 ई. में 18 करोड़ 70 लाख हो गई । यद्यपि सभी देशों में कुल जनसंख्या
का अधिक भाग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता रहा, यह वृद्धि शहरी
क्षेत्रों में अधिक हुई तथा पूर्वी यूरोप की अपेक्षा पश्चिमी यूरोप में अधि क हुई।
उस समय यूरोप में बड़े शहरों की संख्या अधिक नहीं थी। दो ही यूरोपीय नगरों को आजकल
के हिसाब से बड़ा नगर कहा जा सकता था। ये थे लंदन और पेरिस जिनकी जनसंख्या क्रमशः
10 लाख और 6 लाख थी । यूरोप में 50,000 से अधिक जनसंख्या वाले बहुत कम शहर थे।
यहाँ यह कह देना भी आवश्यक है कि शहरीकरण किसी देश की औद्योगिक उन्नति का द्योतक
नहीं था क्योंकि औद्योगिक कार्य अधिकतर गाँवों में रहने वाले लोग करते थे। स्पेन, इटली तथा बाकलन प्रायद्वीप में बड़े शहरों की संख्या अधिक थी यद्यपि औद्योगिक
विकास में ये देश कभी अग्रणी नहीं रहे।
जनसंख्या में इस वृद्धि के कारण स्पष्ट नहीं
था। आंशिक रूप से यह कृषि के उत्पादन में वृद्धि के फलस्वरूप भोजन के अधिक पौष्टिक
होने का परिणाम था। इस संदर्भ में बहुत से इतिहासकारों ने यह तर्क दिया कि सफाई
तथा चिकित्सा के तरीकों में सुधार के फलस्वरूप मृत्युदर कम हो गई तथा जनसंख्या
बढ़ी। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि अठारहवीं शताब्दी तक चिकित्सा का कार्य मुख्य
रूप से परंपरागत तरीकों से ही किया जाता रहा। जनसंख्या में वृद्धि अन्य कारणों का
परिणाम रही होगी। एक हद तक यह महामारियों पर विजय पाने का परिणाम थी। फ्रांस में 1704
ई. के बाद अकाल नहीं पड़ा तथा जर्मनी में 1711 ई. के बाद प्लेग नहीं फैली । कालो
सिपोला के शोधकार्य से यह निष्कर्ष निकलता है कि महामारी रोकने के प्रयत्नों का
मृत्युदर कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा होगा। इसका अन्य कारण अकाल के
प्रकोप का कम होना था क्योंकि यातायात व्यापार में वृद्धि के कारण अठारहवीं
शताब्दी में अन्य प्रदेशों से अनाज मँगाना आसान हो गया।
अठारहवीं शताब्दी में जनसंख्या वृद्धि के
कारण कुछ भी रहे हों, इसका यूरोपीय
देशों की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ा। इससे खाद्यान्न की माँग बहुत बढ़ गई
जिसके कारण कुछ क्षेत्रों (जैसे ब्रिटेन) में कृषि करने के तरीकों में सुधार को
बढ़ावा मिला तथा अन्य क्षेत्रों (जैसे रूस) में और अधिक भूमि पर खेती-बाड़ी की
जाने लगी। इस शताब्दी के अंतिम वर्षों में सर्वत्र श्रम की पूर्ति काफ़ी बढ़ गई
जिससे औद्योगीकरण को प्रोत्साहन मिला। स्कॉटलैंड तथा स्विट्ज़रलैंड जैसे कुछ अन्य
क्षेत्रों में इससे उत्प्रवास (emigration) बढ़ गया।
अठारहवीं शताब्दी में जनसंख्या वृद्धि की एक बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि इसका जनता
के जीवन स्तर पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा। आर्थिक विकास के कारण इस जनसंख्या को
आर्थिक दृष्टि से लाभकारी बनाना तथा इसका पोषण करना संभव हो गया।
जनसंख्या में बदलाव एवं प्रवृत्ति और कृषि व्यवस्था (Agriculture System)
अठारहवीं शताब्दी के यूरोप की अर्थव्यवस्था का अध्ययन करते समय इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि उस समय की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी। यूरोप के लगभग सभी देशों में जनसंख्या का अधिक भाग ग्रामों में रहता था। यदि कुछ व्यापारिक क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो लगभग 80 प्रतिशत लोग गाँवों में रहते थे। बालकन क्षेत्र में 90 से 97 प्रतिशत लोग रहते थे। अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्वपूर्ण स्थान था। लगभग सभी उद्योग कृषि के उत्पादनों पर आश्रित थे। उदाहरण के लिए कपड़ा उद्योग में ऊन तथा फ्लैक्स का प्रयोग होता था और शराब बनाने, तेल निकालने, आटा पीसने, आदि से कारखानों को कच्चा माल कृषि से ही मिलता था। शहरों में बसने वाले लोग भी अपनी पूँजी से बड़े भाग का निवेश भूमि में करते थे। कुछ भागों को छोड़कर कृषि व्यवस्था तकनीकी दृष्टि से पारंपरिक तथा पिछड़ी हुई थी। मुख्यतः कुछ खाद्यान्न (जैसे राईघास, गेहूँ, जौ, ज्वार) कुछ औद्योगिक कच्चे माल (जैसे ऊन, शराब के लिए जौ, फ्लैक्स) कुछ फल-सब्जियां उगाने का कार्य तथा पशुपालन किया जाता था। अधिकतर लोग स्थानीय रूप से उत्पादित वस्तुओं का उपभोग करते थे।
कृषि करने के तरीकों, उत्पादनशीलता के स्तर तथा कृषकों की दशा में यूरोप के भिन्न-भिन्न भागों में
इतनी अधिक विषमता थी कि किसी प्रकार का सामान्यीकरण करना न्यायसंगत नहीं होगा। इस
संदर्भ में यूरोपीय महाद्वीप को तीन भागों में बाँटा जा सकता है- (1) वे पिछड़े
हुए प्रदेश जहाँ कृषि के परंपरागत तरीके काम में लाए जाते थे, उत्पादनशीलता कम थी तथा कृषकों की दशा दयनीय थी; (2) वे प्रदेश
जहाँ, यद्यपि कृषि के परंपरागत तरीके ही प्रयोग में लाए जाते थे तब भी कृषकों की दशा
अपेक्षाकृत अच्छी थी और (3) कृषि की दृष्टि से प्रगतिशील देश । पहले भाग में
पूर्वी यूरोप (एल्ब नदी से एड्रियाटिक सागर तक रेखा खींची जाए तो इससे पूर्व का
क्षेत्र), इटली का टस्कनी के दक्षिण में पड़ने वाला क्षेत्र तथा स्पेन के दक्षिणी
क्षेत्र आते हैं। यहाँ निर्धनता तथा पिछड़ापन देखने में आता था। यहाँ की जनसंख्या
कुल उत्पादन के मुकाबले में अधिक थी. कृषि के लिए परंपरागत तरीक़ों का प्रयोग किया
जाता था और आर्थिक व सामाजिक ढाँचा इस प्रकार का था कि कृषकों की दशा शोचनीय हो गई
थी। भूमि की संभावित उत्पादन क्षमता का पर्यवेक्षण नहीं किया गया था। सोलहवीं तथा
सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सिसली से खाद्यान्न का निर्यात होता था तथा इसे
यूरोप का अन्न भंडार कहा जाता था। परंतु अठारहवीं शताब्दी तक यह बहुत कम हो गया
था। इस सारे क्षेत्र की निर्धनता तथा खाद्यान्न के अभाव का अनुमान इस तथ्य से
लगाया जा सकता है कि 1763-64 में सिसली में जब अकाल पड़ा था तो 30,000 लोगों की
मृत्यु हो गई थी। कुछ क्षेत्रों से कृषि उत्पादन का निर्यात भी होता था जैसे
बाल्टिक सागर के तटीय प्रदेशों से अनाज, फ्लैक्स तथा
पटसन का निर्यात किया जाता था। कृष्ण सागर मार्ग के खुलने तथा पश्चिम यूरोप के
शहरीकरण से रूस में निर्यात के लिए अनाज का उत्पादन किया जाने लगा, परंतु इसका लाभ स्थानीय जनता को नहीं हुआ, केवल अभिजात
वर्ग के लोगों को हुआ जिन्हें अनाज के निर्यात के बदले विलासिता की आयातित वस्तुएँ
उपलब्ध होने लगीं। वास्तव में कच्चे माल तथा खाद्यान्न का उत्पादन करके तथा
उत्पादित माल को मंडी में बेचने का कार्य करके पूर्वी यूरोपीय प्रदेशों ने पश्चिमी
यूरोप की आर्थिक उन्नति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इतिहासकार ई. चे. हॉब्सबाम
ने तो यहाँ तक कहा कि पूर्वी यूरोप के दासप्रथा वाले क्षेत्र को इसीलिए समुद्रपार
के उपनिवेशों के समान खाद्यान्न तथा कच्चे माल का उत्पादन करने वाली पश्चिमी यूरोप
की 'आश्रित अर्थव्यवस्था' कहा जा सकता है।
1801 के मास्को गज़ट में निकले इस इश्तहार से उनकी स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है-
बिक्री के लिए, दो गाड़ीवान
प्रशिक्षित तथा निपुण; दो लड़कियाँ भी
आयु 15 तथा 18 वर्ष, देखने में अच्छी
तथा विभिन्न प्रकार के कामों में कुशल । उसी घर में बिक्री के लिए... प्यानो तथा
अन्य वाद्य भी हैं।
तुर्क साम्राज्य के अंतर्गत पड़ने वाले बाकलन
क्षेत्र में वंशानुगत जमींदारियाँ स्थापित हो गई थीं। इनका स्थान राज्य द्वारा
नियुक्त ज़मींदारों ने ले लिया था जिनका उद्देश्य भूमि की उत्पादन शक्ति में सुधार
करना नहीं बल्कि अतिरिक्त उत्पादन को हस्तगत करना होता था। इस क्षेत्र में किसान
कानूनी तौर पर इसलिए स्वतंत्र नहीं थे क्योंकि वे ईसाई थे तथा व्यावहारिक रूप में
इसलिए स्वतंत्र नहीं थे क्योंकि वे भूमि के मालिक नहीं थे। दक्षिणी इटली तथा
दक्षिणी स्पेन में किसानों की स्थिति कानूनी दृष्टि से कुछ अच्छी अवश्य थी, परंतु वे भी जमींदारों द्वारा शोषण के शिकार थे और उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय
ही थी।
नीदरलैंड, इंग्लैंड का
अधिकतर भाग, स्कॉटलैंड के निचले इलाके तथा फ्रांस के कुछ
प्रदेश प्रगतिशील क्षेत्र कहे जा सकते थे। कृषि की दृष्टि से नीदरलैंड को सर्वाधिक
विकसित क्षेत्र कहा जा सकता था जहाँ फ्लैडर्स, पश्चिमी
ब्रावांत, जीलैंड तथा दक्षिणी क्षेत्र में सत्रहवीं शताब्दी के दौरान भी कई किसान केवल
नकदी फसलों (फ्लैक्स, सन, तंबाकू इत्यादि) का उत्पादन करते थे। आलू की खेती व्यापक स्तर पर सबसे पहले
यहीं की गई। 1802 में एक समकालीन जर्मन प्रेक्षक ने यह निष्कर्ष दिया कि कृषि
उत्पादन की दृष्टि से नीदरलैंड की उत्पादन क्षमता ब्रिटिश उत्पादन क्षमता से 30
प्रतिशत अधिक थी। ब्रिटेन में कृषि के क्षेत्र में परिवर्तन 18वीं शताब्दी के
प्रारंभ से ही देखने में आते हैं। इस शताब्दी के तीसरे दशक में नौरफॉक में शलगम की
खेती की जा रही थी और पशुपालन तथा भूमि से पानी निकालने की दिशा में नए-नए प्रयोग
किए जा रहे थे। इस दिशा में ब्रिटिश जमीदारों ने अत्यंत सराहनीय कार्य किया। 1688
की क्रांति के पश्चात् इस वर्ग का स्थान राजनीति तथा समाज दोनों में ही बहुत ऊँचा हो
गया था। ये ज़मींदार पशुओं की नस्ल तथा बीजों की किस्में सुधारने का भी उतना ही शौक
रखते थे जितना कि शिकार व जुआ खेलने का। जिन लोगों ने कृषि के क्षेत्र में नए-नए
प्रयोग किए उनमें जैथरी टल, रोबर्ट ओवन, थॉमस कॉक तथा टाउनशैड के नाम उल्लेखनीय हैं। ब्रिटिश जमींदारों ने अपनी
राजनीतिक शक्ति तथा खाद्यान्न संबंधी आवश्यकताओं का लाभ उठाकर “बाड़बंदी अधिनियम" पास करवाए जिसके अंतर्गत उपजाऊ तथा बंजर दोनों ही
प्रकार की भूमि हथियाई गई। आर्थिक दृष्टि से यह आंदोलन लाभकारी सिद्ध हुआ क्योंकि
कृषि के उन्नत तरीके प्रयोग में लाने के लिए खेतों का बड़ा होना आवश्यक था। इस समय
कृषि उत्पादन में इतनी वृद्धि हुई कि कृषि एक अत्यंत लाभप्रद व्यवसाय बन गया। इसका
एक परिणाम यह हुआ कि बढ़ती हुई जनसंख्या को खाद्यान्न - संबंधी आवश्यकताओं को पूरा
करना आसान हो गया। बाड़बंदी का छोटे कृषकों पर क्या प्रभाव हुआ, यह इतिहासकारों में अभी विवादपूर्ण प्रश्न बना हुआ है। पहले यह माना जाता था
कि बाड़बंदी से छोटे किसानों का उन्मूलन हुआ। परंतु ब्रिटेन में छोटे किसानों की
संख्या 1815 के पश्चात् कम होनी शुरू हुई। इसके अतिरिक्त इन किसानों के लिए आर्थिक
कठिनाई का समय बहुत लंबा रहा होगा क्योंकि औद्योगिक क्रांति के कारण श्रम की माँग
बढ़ रही थी ।
अठारहवीं शताब्दी में डच कृषि व्यवस्था बहुत
विकसित थी। यह किसानों के लिए जीवन-यापन का एक पिछड़ा हुआ साधन मात्र नहीं थी वरन्
यह एक स्वतंत्र व्यावसायिक उद्यम थी। तकनीकी दृष्टि से भी यह उद्योगों की भाँति
काफी विकसित तथा साधन-संपन्न थी। इसमें केवल खाद्यान्न का ही नहीं वरन् नकदी फसलों
का उत्पादन भी किया जाता था। यह व्यापार तथा उद्योगों से संतुलित रूप में संबद्ध
थी। नीदरलैंड में इसीलिए ग्रामीण गरीब लोगों का वर्ग देखने में नहीं आया जिससे
ब्रिटेन के उद्योगों में बहुत संख्या में श्रमजीवी आए थे। इस संदर्भ में ने यह
तर्क भी दिया है कि सोलहवीं व सत्रहवीं शताब्दी के आर्थिक विकास के कारण संस्थागत
अवरोध पैदा हो गए थे जिन्होंने नीदरलैंड में अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक विकास
के मार्ग में बाधा डाली कुछ अर्थशास्त्रियों
जनसंख्या में बदलाव एवं प्रवृत्ति -व्यापार तथा वाणिज्य (Trade and Commerce)
अठारहवीं शताब्दी में व्यापार के क्षेत्र में दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इससे पहले अधिक व्यापार यूरोपीय देशों के मध्य ही होता था। परंतु इस समय यूरोपीय देशों के अन्य देशों के साथ व्यापार में बहुत अधिक वृद्धि हुई तथा अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का उदय हुआ। दूसरे सत्रहवीं शताब्दी में नीदरलैंड की प्रमुखता का अंत हो गया तथा ब्रिटेन और फ्रांस प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने आए। इन दोनों के मध्य चलने वाले संघर्ष में अंत में ब्रिटेन विजयी रहा। इस समय होने वाले आयात तथा निर्यात संबंधी आँकड़े तो दे पाना संभव नहीं है परंतु यदि जहाजरानी को इसका द्योतक माना जाए तो यह देखने में आता है कि ब्रिटेन में 1702 ई. में कुल टन भार 2,60,000 था जो 1776 ई. तक बढ़कर 6,95,000 हो गया था। यह टन भार अन्य यूरोपीय देशों के कुल टन भार का 33 प्रतिशत था। अनुमान लगाया गया है कि फ्रांस में भी कुल व्यापार मूल्य में चार गुना वृद्धि हुई। इस समय वाणिज्य-संबंधी प्रश्नों पर काफी साहित्य लिखा गया तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में व्यापारिक प्रश्नों को काफ़ी महत्त्व देने की प्रवृत्ति देखने में आई । यद्यपि हॉलैंड, बेल्जियम, ब्रिटेन तथा फ्रांस को छोड़कर अन्य देशों के लिए व्यापार का बहुत अधिक महत्त्व नहीं था, फिर भी इन देशों में वाणिज्य के क्षेत्र में जो परिवर्तन हो रहे थे, उन्हें क्रांतिकारी अवश्य कहा जा सकता था। व्यापार में वृद्धि से नए उद्योगों तथा व्यापार केंद्रों को बढ़ावा मिला तथा समाज में उपयोग की नई-नई वस्तुओं का उपभोग बढ़ गया।
यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापार
मुख्यतः यूरोप में उत्पादित वस्तुओं में किया जाता था, जैसे बाल्टिक क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले अनाज तथा टिम्बर, ब्रिटिश कपड़ा तथा धातु का सामान, फ्रांस का कपड़ा
तथा शराब, स्पेन की ऊन तथा पुर्तगाली शराब | धीरे-धीरे इस
व्यापार में अन्य महाद्वीपों से लाई जाने वाली वस्तुएँ भी शामिल हो गई तथा लाभदायक
पुनर्निर्यात व्यापार शुरू हुआ। इस व्यापार का मुख्य उद्देश्य खरीद व बिक्री की
वस्तुओं में अदला-बदली करके भुगतान संबंधी समस्या को हल करना था। इस शताब्दी में
अंतर्महाद्वीपीय व्यापार के साथ-साथ यूरोप के अंतर्राज्यीय व्यापार में भी काफ़ी
बढ़ोतरी हुई। 1790 ई. में ब्रिटेन रूस से 1700 ई. के मुकाबले 15 गुनी अधिक वस्तुओं
का आयात तथा छह गुनी अधिक वस्तुओं का निर्यात करता था। फ्रांस तथा ल्वाप्ट प्रदेश
के मध्य व्यापार में भी काफ़ी वृद्धि हुई ।
परंतु अठारहवीं शताब्दी की विशेषता
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में बढ़ोतरी थी। अंध महासागरीय समुद्रमार्ग ने जो अमरीका, एशिया और अफ्रीका की ओर जाने थे- पश्चिमी यूरोप के सभी देशों को 'इंडीज' से व्यापार के लिए प्रेरित किया। उस समय यूरोप
में इंडीज शब्द का प्रयोग सुदूर समुद्रपार के सभी देशों के लिए किया जाता था।
अँग्रेजी तथा फ्रांसीसी दोनों ही ईस्ट इंडिया कंपनियों को पुनः संगठित किया गया
तथा इसमें निवेश की गई पूँजी में वृद्धि हुई अन्य बहुत से स्थानों, जैसे स्कॉटलैंड, स्वीडन, हॉलैंड, हैमबर्ग, वेनिस, प्रशा तथा ऑस्ट्रिया में भी ऐसी कंपनियों का गठन किया गया। परंतु ये अधिक सफल
नहीं हो सकी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि सरकार के समर्थन के बिना व्यक्तियों के लिए
सुदूर देशों के साथ व्यापार करना संभव नहीं था ।
इस शताब्दी में अमरीका से किए जाने वाले व्यापार
की मात्रा एशिया से किए जाने वाले व्यापार से भी अधिक थी। यहाँ से मुख्यतः चीनी का
आयात किया जाता था। 17वीं शताब्दी में पहली बार पूर्व से गन्ना लाकर वेस्ट इंडीज़
में लगाया गया। यह प्रयोग अत्यंत सफल रहा तथा वहाँ बागान अर्थव्यवस्था का
प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद इस क्षेत्र को व्यापक बनाया जाने लगा। 1713 ई. से 1792
ई. तक ब्रिटेन ने वेस्ट इंडीज़ के अपने ही द्वीपों से 16,20,00,000 पौंड के सामान
का आयात किया जब कि इसी दौरान भारत से 10.40,00,000 पौंड का आयात किया गया। बागान
अर्थव्यवस्था का एक प्रभाव अफ्रीका को अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का भाग बनाना
हुआ। अँग्रेज़ लोग दास व्यापार में अग्रणी थे। इनके बाद फ्रांसीसियों का नंबर आता
था। 18वीं शताब्दी में दास व्यापार बहुत व्यवस्थित रूप से किया गया। अफ्रीका में
यूरोपीय माल के बदले में दास खरीदे जाते थे जिन्हें उत्तरी अमरीका में बेचा जाता
था तथा इससे प्राप्त होने वाली पूँजी का ब्रिटिश उद्योगों में निवेश किया जाता था।
1713 ई. में और 1792 ई. के मध्य दासों के बदले अफ्रीका को भेजे जाने वाले माल में
दस गुना वृद्धि हुई ।
अठारहवीं शताब्दी ब्रिटेन व फ्रांस के मध्य
तीव्र प्रतिद्वंद्विता का समय था। यूरोपीय देशों में लड़े गए दोनों युद्धों-
ऑस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध तथा सप्तवर्षीय युद्ध में ये देश विपरीत पक्ष में
रहे थे। इन युद्धों में भाग लेने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण व्यापार संबंधी
प्रतिद्वंद्विता थी। प्रारंभ में दोनों देश वेस्ट इंडीज़ से व्यापार को बहुत अधिक
महत्त्व देते थे तथा इन युद्धों में दोनों देशों ने एशिया तथा अमरीका में एक-दूसरे
के व्यापार को नष्ट करने का मौक़ा देखा। अंत में विजय ब्रिटेन की हुई । 1761 ई. तक
भारत में फ्रांसीसी प्रभाव को लगभग समाप्त कर दिया गया। जहाँ तक वेस्ट इंडीज़ का
प्रश्न है, धीरे-धीरे अँग्रेज उत्तरी अमरीका के
उपनिवेशों को अधिक महत्त्व देने लगे थे, क्योंकि वहाँ पर
श्वेत लोगों के बस जाने के कारण वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी थी। 'यही कारण है कि सप्तवर्षीय युद्ध के बाद 1763 ई. में की गई पेरिस की संधि में
वेस्ट इंडीज़ द्वीपसमूह फ्रांस के पास रहने दिया गया। यद्यपि इस युद्ध में फ्रांस
की हार हुई थी।
अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक परिवर्तन (Industrial Changes )
अठारहवीं शताब्दी में सभी देशों की
अर्थव्यवस्था में उद्योगों का महत्त्व बढ़ा। उत्तर-पश्चिमी यूरोप में इस दिशा में
काफ़ी विकास हुआ तथा कई बड़े कारखाने स्थापित किए गए। फ्रांस में छठे दशक में
आज़िन (Anzine) कोल माइनिंग कंपनी की स्थापना की गई जिसमें क्रांति से पूर्व 4,000 श्रमिक
कार्य करते थे। एबीविल (Abbeville) की फॉन रोबायस
कपड़ा मिल (Van Robais Textile Factory) में, जो उस समय की प्रदर्शन वस्तु मानी जाती थी, 3000 श्रमिक
कार्य करते थे और हज़ारों लोग इसके लिए घरों में सूत तैयार करने का काम करते थे।
ब्रिटेन में थॉमस लाम्ब ने 1717-21 ई. के दौरान रेशमी कपड़े का कारखाना लगाया
जिसमें 300 कारीगर काम करते थे। तथा इसकी मशीनों में 26,000 चक्रियाँ लगी थीं ।
परंतु ये बड़े उद्योग गिने-चुने ही थे। अधिकतर उद्योगपति छोटे पैमाने पर कार्य
करते थे। 1764 ई. में नीदरलैंड में (जो इस समय का औद्योगिक दृष्टि से सर्वाधिक
विकसित क्षेत्र था) एक सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वेक्षण के अनुसार ऐसे
औद्योगिक प्रतिष्ठान जहाँ 45 लोग कार्य करते थे, काफ़ी बड़े माने
गए। अधिकतर उत्पादक उत्पादन के पारंपरिक तरीके ही अपनाते थे घरेलू उद्योग काफ़ी
महत्त्वपूर्ण . भूमिका निभाते थे तथा बहुत से कारखानों में माल को केवल अंतिम रूप
दिया जाता था। भाप की शक्ति का प्रयोग विस्तृत रूप से उन्नीसवीं शताब्दी में ही
किया गया। नए उद्योग स्थापित करने में जल शक्ति की उपलब्धि का सर्वाधिक ध्यान रखा
जाता था। इस शताब्दी के बड़े शहर लंदन, पेरिस, इस्ताम्बूल, सेंट पीटर्सबर्ग, एम्सटरडम, नेपल्स या तो राजधानियाँ थीं या बंदरगाह -
औद्योगिक केंद्र नहीं।
सभी देशों में उत्पादन साधारणतः घरेलू व्यवस्था के अंतर्गत किया जाता था। यहाँ तक कि ब्रिटेन में भी, जो औद्योगीकरण के क्षेत्र में संसार का अग्रणी बना, शताब्दी के अंत तक कपड़े के क्षेत्र में भी कारखाना व्यवस्था प्रारंभिक चरण में ही था। अधिकतर श्रमिक उत्पादनकर्ता या उनके मध्यस्थ द्वारा दिए गए कच्चे माल को लेकर उत्पादन करते थे। उनके पास औज़ार या तो अपने होते थे या वे उधार लेते थे। घरेलू उत्पादक उत्पादित वस्तुओं को कुछ अपरिष्कृत छोड़ देते थे जिन्हें कारखाने में तैयार किया जाता था। इस व्यवस्था ने हथकरघा प्रणाली का स्थान ले लिया था। इसके अंतर्गत अधिकतर श्रमिक कृषि तथा उद्योग दोनों पर आश्रित रहते थे। इसमें श्रमिकों से आवश्यकतानुसार काम लिया जाता था और जब काम नहीं होता था तब वे कृषि पर या सहायतार्थ संस्थानों पर आश्रित हो जाते थे। इस व्यवस्था में अधिक पूँजी तथा काफ़ी व्यवस्थित कार्यप्रणाली की आवश्यकता होती थी। बड़े उद्योगों में श्रमिक अपनी इच्छा से कार्य नहीं करते थे बल्कि इसलिए करते थे क्योंकि उनके पास अन्य विकल्प नहीं था। सभी देशों में प्रायः उन लोगों को उद्योगों में लगाया जाता था जिन्हें अनुपयोगी या समाज के लिए खतरनाक समझा जाता था। अनाथ, अपराधी, कंगाल तथा आवारा लोगों से कारखानों में काम करवाया जाता था। बोहेमिया में साल में दो बार ऐसे लोगों को इकट्ठा करके ले जाया जाता था। फ्रैडरिक विलियम के समय में तो शांति के समय में सिपाहियों को इस कार्य में लगाया जाता था जिसके फलस्वरूप सेना की बैरक ही कारखानों में परिवर्तित हो जाती थी। कुछ लोगों को 1730-1770 की अवधि में बढ़ती हुई क़ीमतों के कारण श्रमजीवी बनना पड़ रहा था। शहरों में श्रमिकों की कमी का एक प्रभाव यह हुआ कि उद्योग अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाने लगे जिससे कई पुराने शहरों का ह्रास होने लगा ।
यह कहना कठिन है कि कुल उत्पादित माल का
कितना भाग निर्यात किया जाता था और कितना स्थानीय रूप से प्रयोग किया जाता था।
लेकिन कुल उत्पादन के अधिक भाग का उपयोग, विभिन्न देशों
के भीतर ही कर लिया जाता था। अधिक व्यापार विभिन्न नगरों या विभिन्न क्षेत्रों के
मध्य होता था। ब्रिटेन में आंतरिक व्यापार लगभग स्वतंत्र था तथा फ्रांस में भी
बहुत कम स्थानों पर रुकावटें थीं । परंतु बड़े उद्यमियों के लिए विदेशी व्यापार
अधिक महत्त्वपूर्ण था। इसी में वे पैसा कमाते थे। अधिकतर पूँजी का संचयन भी इसी से
किया गया। यह विदेशी व्यापार अंतर्राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता तथा युद्धों का
महत्त्वपूर्ण कारण बना।
इस समय औद्योगीकरण के क्षेत्र में विभिन्न
देशों की सापेक्षिक स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आया। शताब्दी के प्रारंभ में यूरोप
के सर्वाधिक विकसित भाग बेल्जियम, नीदरलैंड तथा
फ्रांस, जर्मनी और इटली के कुछ हिस्से थे। ब्रिटेन ऊनी कपड़ों, टिन तथा सिक्कों का निर्यात करता था। ब्रिटेन के व्यापार तथा उद्योगों का
महाद्वीपीय अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था परंतु शताब्दी के अंत तक
जहाँ ब्रिटेन औद्योगीकरण के क्षेत्र में अग्रणी बन गया था। और फ्रांस तथा जर्मनी
के कुछ भागों ने (विशेषकर बोहेमिया) ने काफ़ी प्रगति कर ली थी वहाँ बेल्जियम तथा
नीदरलैंड का महत्त्व पहले से कम हो गया था और इटली काफ़ी पिछड़ गया था। कुछ
क्षेत्रों में रूस में भी काफ़ी विकास हुआ, विशेषकर धातु
उद्योग में वहाँ बहुत उन्नति हुई। पीटर महान के समय दक्षिणी उराल प्रांत में लकड़ी
को शक्ति के साधन के रूप में प्रयोग करके तथा कृषि दासों का श्रमिकों के रूप में
प्रयोग करके लोहे तथा पीतल का उत्पादन काफ़ी बढ़ा लिया गया। कैथरीन के समय यद्यपि
1773-1775 ई. में कृषक विद्रोह हुआ, तब भी विकास की
गति बनाए रखी गई। इस शताब्दी के अंत तक ब्रिटेन 26,000 मीट्रिक टन
लोहे का निर्यात कर रहा था, परंतु रूस में
धातुओं तथा जहाज़ों पर पाल बाँधने के कपड़े को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में विशेष
प्रगति नहीं हुई यद्यपि इसके लिए काफ़ी प्रयास किया गया। विदेशी प्रतिस्पर्धा, प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी तथा कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था कुछ ऐसे घटक थे, जिन्होंने इन प्रयत्नों को विफल कर दिया।