राजनीतिक सिद्धान्तों की परम्पराएँ (Traditions of Political Theory )
उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्त (Liberal Political Theory)
पुनर्जागरण, धार्मिक सुधारवाद तथा औद्योगिक क्रान्ति ने क्लासिकी परम्परा के लम्बे सम्मोहन को तोड़ा। पुनर्जागरण ने एक नया बौद्धिक वातावरण पैदा किया जिसने आधुनिक विज्ञान, आधुनिक दर्शनशास्त्र और नये राजनीतिक विचारों को जन्म दिया जिसे समग्र रूप से उदारवाद के नाम से जाना गया। इसी नयी विचारधारा की उत्तम अभिव्यक्ति ग्रेशियम, एडम स्मिथ, हॉब्स, लॉक, जैफरसन, टॉमस पेन, बन्थम, जे.एस. मिल. हरबर्ट स्पेन्सर तथा कई अन्य लेखकों की रचनाओं में हुई। जहाँ परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्तों ने व्यक्ति के नैतिक विकास तथा समुदाय के विकास को सम्बन्धित माना, वहाँ उदारवाद ने एक 'स्वायत्त और सार्वभौम व्यक्ति' (autonomous and sovereign individual) की धारणा विकसित की। उदारवादी विचारधारा का केन्द्रीय तत्त्व इसका उग्र व्यक्तिवाद (extreme individualism) था। इसकी पहली विशेषता मानव व्यक्तित्व में पूर्ण आस्था, सभी व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता तथा मानव इच्छा की स्वायत्तता थी। दूसरे उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्तों ने व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वतंत्रता का समर्थन किया चाहे वह क्षेत्र राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक हो अथवा बौद्धिक या धार्मिक। यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ लिया गया व्यक्ति की उन सभी प्रकार की सत्ताओं से मुक्ति जो उसकी मर्जी के बिना उस पर थोपी जाती हैं और अपनी तर्कबुद्धि के आधार पर कार्य करने की स्वतंत्रता। तीसरे उदारवाद ने व्यक्ति के अधिकारों की धारणा की रचना की, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को राज्य की उत्पत्ति से पहले कुछ प्राकृतिक अधिकार मिले हुए थे जिनमें जीवन स्वतंत्रता और सम्पत्ति के अधिकार प्रमुख हैं। क्योंकि इन अधिकारों को राज्य नहीं देता, अतः वह इन्हें ले भी नहीं सकता। ये व्यक्ति के अदेय अधिकार हैं। राज्य की उत्पत्ति वास्तव में इन अधिकारों की रक्षा लिए हुई है। चौथे, उदारवादी सिद्धान्त ने यह घोषणा की कि राज्य कोई प्राकृतिक संस्था न होकर व्यक्ति द्वारा निर्मित और व्यक्ति की सहमति पर आधारित संस्था है। राज्य और व्यक्ति में सम्बन्ध उनके आपसी समझौते का परिणाम है। यदि राज्य समझौते का उल्लंघन करते हैं तो व्यक्ति का यह अधिकार ही नहीं बल्कि कर्त्तव्य भी है कि वह इसका विरोध करके तथा इसमें परिवर्तन करे। राज्य प्राकृतिक न होकर एक मशीन है जिसे व्यक्ति ने अपने विशिष्ट हितों की पूर्ति के लिए बनाया है, जैसे कानून व्यवस्था, सुरक्षा, न्याय, अधिकारों की रक्षा आदि । राज्य एक साधन है, साध्य नहीं पाँचवें, उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्तों ने 'सार्वजनिक हित' तथा 'सामूहिक समुदाय' की धारणाओं को अस्वीकार कर दिया। इसका विचार था कि वह सरकार सबसे अच्छी है जो कम से कम काम करती है और समुदाय का अर्थ है समुदाय में रहने वाले व्यक्ति । उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्तों का उद्देश्य राज्य की खोज नहीं था बल्कि व्यक्ति को सामाजिक और आर्थिक बन्धनों तथा तानाशाही और गैर-प्रतिनिधि सरकारों से मुक्ति दिलाना था। इस सन्दर्भ में इसने राज्य तथा राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों जैसी धारणाओं को पुनः परिभाषित किया तथा व्यक्ति के लिए अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, सम्पत्ति, न्याय, प्रजातन्त्र जैसी धारणाओं का विकास किया। क्योंकि उदारवादी व्यक्ति को एक स्वायत्त, अहंकारी तथा स्वार्थी जीव मानता है तथा समाज को एक ऐसा स्थान जहाँ व्यक्ति एवं हितों के लिए संघर्ष करते हैं अतः यह राजनीति को एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया मानता है जो समाज में विवादों का निबटारा करती है, क़ानून एवं व्यवस्था का निर्माण करती है, एकता तथा सामन्जस्य लाती है, समाज के सामान्य हित की सेवा करती है तथा शान्तिपूर्ण सामाजिक परिवर्तन के लिए रास्ता स्पष्ट करती है। यह सामाजिक विवादों को जिन तरीकों से हल करती है, वे हैं- (i) संवैधानिक कानून, (ii) राजनीतिक संस्थायें, (iii) सामाजिक कल्याण, (iv) सांस्कृतिक परम्परायें सामाजिक झगड़ों में संवैधानिक कानून अन्तिम निर्णायक भूमिका निभाते हैं। ये समाज में सबसे शक्तिशाली साधन होते हैं क्योंकि इनके पीछे सजा का डर होता है। इसमें मूल संवैधानिक अनुच्छेद तथा विधानमन्डल द्वारा समय-समय पर बनाये जाने वाले कानून- दोनों निहित होते हैं जो समाज में व्यक्ति एवं समूहों द्वारा की जाने वाली प्रतिस्पर्धा की सीमायें निश्चित करते हैं। इन कानूनों के अतिरिक्त उदारवाद ने पिछले 300 सालों में राजनीतिक प्रक्रिया में भागेदारी के लिए कई राजनीतिक संस्थाओं का विकास किया है जैसे प्रजातन्त्र, प्रतिनिधि संस्थायें, राजनीतिक भागीदारी राजनीतिक दल, सर्वव्यापक व्यस्क मताधिकार नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार (जैसे स्वतंत्रता, सम्पत्ति आदि), दबाव समूह जैसे स्वायत्त संस्थायें, वाणिज्यिक समुदाय, ट्रेड यूनियन समुदाय आदि। इस संस्थाओं में भागीदारी के माध्यम से लोग राजनीतिक तथा सामाजिक प्रक्रिया के साथ संघटित हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त उदारवादी राजनीति ने अब कल्याणकारी रूप ले लिया है। झगड़ों के निवारण के लिये उदारवाद व्यक्ति के आर्थिक तथा सामाजिक जीवन में भी सकारात्मक दृष्टिकोण से हस्तक्षेप करता है। पूँजीवादी समाज को नियमित करके तथा निःशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य बीमा, सामाजिक सुरक्षा जैसे तरीके अपनाकर यह समाज में झगड़ों के स्रोतों को कम करने का प्रयत्न करता है। इसके अतिरिक्त यह समाज में व्यापक सहमति का निर्माण करने के लिये शिक्षा, मास मीडिया, प्रोपेगन्डा, धर्म आदि जैसे वैचारिक तथा सांस्कृतिक साधनों का भी सहारा लेता है। यह सहयोग तथा सामन्जस्य को बढ़ावा देता है तथा वार्तालाप, चर्चा तथा समझा-बुझाकर एक स्वतंत्र एवं मुक्त वातावरण में हितों में सामन्जस्य लाने पर जोर देता है। आर्थिक स्तर पर यह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तथा कल्याणकारी राज्य का समर्थन करता है।
मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धान्त (Marxist Political Theory)
उदारवादी व्यक्तिवादी राजनीतिक सिद्धान्तों को उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मार्क्स, एंगेल्स तथा उनके अनुयायियों ने 'वैज्ञानिक समाजवाद' (Scientific Socialism) के माध्यम से चुनौती दी। आज कोई भी राजनीतिक सिद्धान्त मार्क्सवाद द्वारा की गई इतिहास, समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति आदि की व्याख्या की अवज्ञा नहीं कर सकता। मार्क्सवाद ने सामाजिक और आर्थिक विकास की प्रक्रिया को क्रमबद्ध एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बेहतर समझने में हमारी सहायता की है। सम्पूर्ण मानव मुक्ति के रूप में मार्क्सवाद ने दर्शनशास्त्र की नयी धारणा प्रस्तुत की। इसके अनुसार ज्ञान का मुख्य उद्देश्य केवल इस संसार को समझना ही नहीं है बल्कि मानव जीवन की भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करना भी है। मार्क्स का विचार था कि व्यक्ति की मुक्ति इसी संसार में हैं और यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन करके और समाजवादी समाज की स्थापना करके प्राप्त की जा सकती है। उदारवादी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध मार्क्स की मुख्य शिकायत यह थी कि यह सम्पत्ति, असमानता और कुछ सम्पत्तिशाली परिवारों के ऐश्वर्य की सभ्यता है जो जनसाधारण के लिए निम्न और शोषणकारी परिस्थितियाँ पैदा करती है। इसके विपरीत समाजवाद व्यक्ति की मुक्ति की यदि सारी नहीं तो काफी हद तक परिस्थितियाँ पैदा करने का प्रयास है। यह एक ऐसे समाज की स्थापना का प्रयत्न करता है जिसमें व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण समाप्त होगा और जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व एवं क्षमताएँ विकसित करने का उचित अवसर मिलेगा। यह एक ऐसा वर्ग विहीन और राज्य विहीन समाज होगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का विकास सारे समाज के विकास की आवश्यक शर्त होगा।
मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धान्त मूलतः सामाजिक परिवर्तन और समाज के क्रान्तिकारी पुनः निर्माण का सिद्धान्त है। इस सन्दर्भ में मार्क्सवाद के तीन अन्तर्सम्बन्धित तत्त्व हैं: (i) वर्तमान तथा अतीत के समाजों का परीक्षण और आलोचना। इसे द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद का नाम दिया गया है: (ii) वर्ग-विभाजित और शोषणकारी समाज के विपरीत एक नये समाज का विकल्प। यह एक ऐसा समाज होगा जो उत्पादन के साधनों के सामूहिक स्वामित्व पर आधारित होगा। यह एक वर्ग-विहीन और राज्य विहीन समाज होगा; तथा (iii) इस नये वैकल्पिक समाज का निर्माण कैसे होगा। पूँजीवादी समाज के विरुद्ध यह परिवर्तन सर्वहारा वर्ग द्वारा क्रान्ति के माध्यम से सम्पन्न होगा जो अन्य वर्गों को समाप्त करके एक वर्ग-विहीन और राज्य विहीन समाज की स्थापना करेगा।
मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धान्त के मूल तत्त्व हैं: उत्पादन का ढाँचा, वर्ग-विभाजन, वर्ग संघर्ष, सम्पत्ति सम्बन्ध, राज्य एक वर्ग के यंत्र के रूप में, क्रान्ति आदि। मार्क्सवाद ने भी अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, सम्पत्ति, न्याय, प्रजातंत्र आदि का विश्लेषण किया परन्तु यह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि एक वर्ग विभाजित समाज में ये सम्पत्तिशाली वर्ग के विशेषकारों में बदल जाते हैं। सच्ची स्वतंत्रता और समानता केवल एक वर्ग-विहीन और राज्य विहीन समाज में ही प्राप्त हो सकती है।
मार्क्सवाद के अनुसार व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है और व्यक्ति का सार उसके सामाजिक सम्बन्धों की संपूर्णता में है व्यक्ति का अर्थ है समाज में व्यक्ति (man-in society) समाज एक जीवन्त संस्था है जो उत्पादन के ढाँचे पर आधारित है। उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के आधार पर समाज ऐतिहासिक दृष्टिकोण से एक वर्ग विभाजित समाज रहा है एक ऐसा समाज जो उत्पादन के साधनों के मालिकों तथा गैर-मालिकों अथवा सम्पत्तिशाली तथा सम्पत्तिहीनों के बीच विभाजित रहा है। इन वर्गों के हित परस्पर विरोधी होने के कारण, यह वर्ग विभाजन वर्ग संघर्ष तथा झगड़ों को जन्म देता है। मार्क्सवाद के लिये भी समाज में राजनीति की धारणा झगड़े अथवा संघर्ष से ही आरम्भ होती है परन्तु यह संघर्ष एक वर्ग संघर्ष होता है जो वर्ग आधिपत्य को जन्म देता है; अर्थात् वह वर्ग जो उत्पादन के साधनों का मालिक है वह राज्य, धर्म, समाज तथा अर्थव्यवस्था पर भी प्रभुत्व जमा लेता है। राजनीति एक वर्ग का आधिपत्य होने के कारण सारे समाज के हितों की सेवा नहीं कर सकती और यह प्रभुताशाली वर्ग के हाथ में आधिपत्य का एक साधन बन जाती है। अतः वर्ग आधिपत्य के विरुद्ध संघर्ष तथा क्रान्ति के माध्यम से एक वर्ग विहीन तथा राज्य विहीन समाज की स्थापना करना राजनीति का अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इसके लिये मार्क्सवाद के अनुसार मजदूर वर्ग द्वारा क्रान्ति के माध्यम से सत्ता हथियाना, सम्पत्तिशाली वर्ग का सफाया करना, वर्ग संघर्ष को समाप्त करना, समाजवादी उत्पादन के ढाँचें तथा समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना करना आवश्यक है जो एक वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज को जन्म देगी। अतः जहाँ उदारवादी राजनीति का उद्देश्य आधुनिक उदारवादी पूँजीवादी प्रजातांत्रिक राज्य की स्थापना करना था, वहाँ मार्क्सवादी राजनीति का सम्बंध क्रान्तिकारी माध्यम से समाजवादी राज्य की स्थापना करना तथ अन्ततोगत्वा एक वर्गविहीन तथा राज्य विहीन समाज की स्थापना करना है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सिद्धान्त और व्यवहार के रूप में मार्क्सवाद मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं से आरम्भ होता है जिसे बाद में कई दार्शनिकों, राजनीतिक नेताओं, क्रान्तिकारियों, शिक्षाशास्त्रियों आदि द्वारा समृद्ध किया गया। बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद के अन्तर्गत कई अन्य शाखाएँ और व्याख्याएँ उत्पन्न हुई। मार्क्सवाद के कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तकार हैं: लेनिन, स्टालिन, बुखारिन, माओ, रोज़ा लग्ज़मबर्ग, ग्राम्शी, लूकाच, आस्ट्रो- साम्यवादी, फ्रैन्कफर्ट स्कूल, नव- वामपन्थ, यूरो- साम्यवाद आदि । प्रथम विश्व महायुद्ध तक मार्क्सवाद अत्यधिक निश्चयवादी था और यह एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की धारणा का प्रतिनिधित्व कर रहा था जिसकी पराकाष्ठा रूसी क्रान्ति में हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मार्क्सवाद में क्रान्तिकारी पक्ष पर कम और वर्तमान सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों की आलोचना पर अधिक बल दिया जाने लगा। 'समकालीन मार्क्सवाद' के नाम से प्रचलित यह सिद्धान्त ऊपरी ढाँचे ( superstructure), संस्कृति, कला, सौन्दर्यशास्त्र, विचारधारा, अलगाववाद की समस्याओं के प्रति अधिक सचेत रहा।
राजनीतिक सिद्धान्तों की संकीर्णवादी परम्परा (Conservative Tradition)
सामान्यतः संकीर्णवाद एक ऐसा राजनीतिक दर्शन है जो वह सब कुछ संरक्षित करना चाहता है जिसे वह किसी भी समाज में श्रेष्ठ पाता है। यह किसी भी प्रकार के उग्रवादी परिवर्तन के विरुद्ध हैं। आधुनिक यूरोपीय संकीर्णवाद का विकास 1750-1850 के बीच हुआ जो यूरोपीय समाजों में होने वाले द्रुत परिवर्तनों तथा परिवर्तन की प्रवृत्ति के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया था । इन परिवर्तनों में प्रमुख थे: प्रबुद्धवाद ( Enlightenment) के विचार, फ्रांस की क्रान्ति, औद्योगीकरण (विशेषतः इंग्लैण्ड में) तथा सर्वव्यापी (मुख्यत: पुरुषों के लिए) मताधिकार इन उग्रवादी परिवर्तनों ने ऐसे लोगों में प्रतिक्रिया उत्पन्न की जिन्हें लगा कि ये परिवर्तन बहुत जल्दी और बहुत दूरगामी हो रहे हैं। संकीर्णवादी समाज में परिवर्तनों का विरोध करते हैं। उनका तर्क है कि ये परिवर्तन परम्परागत विश्वासों, परम्परागत नैतिकता तथा सामाजिक ढाँचों को क्षति पहुँचाते हैं। संकीर्णवादी का मूल मंत्र है कि जो परम्पराएँ अतीत में सफल रही है, ऐसी आशा की जाती है कि वे भविष्य में भी सफल रहेगी, जब जक कि उनके विरुद्ध कोई ठोस तर्क प्रस्तुत नहीं किया जाता और यदि ऐसी नौबत आती भी है भी किन्हीं प्रकार के परिवर्तन धीरे-धीरे तथा विकासवादी तरीके से होने चाहिए ताकि वे समाज के सहज विकास का एक अंग प्रतीत हो ।
संकीर्णवाद की प्रथम स्पष्ट अभिव्यक्ति एडमन्ड बर्क के विचारों में मिलती है। उसने फ्रांस की क्रान्ति के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में अभिव्यक्त किये। बर्क ने अपने विचार अमूर्त तर्क से प्रेरित समाज के प्रबुद्ध विचारों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में जाहिर किये, हालाँकि उसने शब्द संकीर्णवाद का प्रयोग नहीं किया। इस शब्द का प्रयोग 19वीं शताब्दी के अन्त में डच धार्मिक संकीर्णवाद लेखक अब्राहम कूपर द्वारा प्रयुक्त किया गया। बर्क प्रबुद्धवाद के युग से काफी चिन्तित था और इसके विरुद्ध उसने परम्परागत संस्थाओं तथा रीतियों का समर्थन किया। बर्फ का तर्क था कि कई लोगों का बौद्धिक विकास दूसरों से कम होता है, इसी तरह कुछ लोग, यदि वे अपनी बुद्धि का प्रयोग करे तो अन्य से बेहतर शासन कर सकते हैं। बर्फ के अनुसार किसी भी सरकार का निर्माण अमूर्त तर्क के आधार पर नहीं किया जा सकता। इसका निर्माण अनुभव पर आधारित क्रमिक विकास तथा महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्थाओं जैसे परिवार, चर्च आदि की सतत निरन्तरता है। उसका तर्क था कि परम्परा कई पीढ़ियों के अनुभव का निचोड़ तथा समय की कसौटी पर खरी उतरी हुई होती है जबकि तर्क किसी एक व्यक्ति विशेष के पूर्वाग्रहों का एक मुखौटा हो सकता है और यह अधिक-से-अधिक किसी एक पीढ़ी की बुद्धिमत्ता की अभिव्यक्ति होती है। हालांकि बर्क ने यह भी स्वीकार किया कि कोई भी राज्य जिसके पास परिवर्तन के साधन नहीं है, वह संरक्षण के साधनों से विहीन है, तथापि उसका विचार था कि किसी भी प्रकार के परिवर्तन सहज होने चाहिए क्रांतिकारी नहीं । किसी सिद्धान्त अथवा मत के नाम पर मानवीय समाज का निर्माण करने वाले मानवीय अन्तर सम्बन्धों के क्लिष्ट ताने-बाने में परिवर्तन लाने के परिणाम काफी खतरनाक हो सकते हैं।
संकीर्णवादियों का मानना है कि परिवर्तन का कार्यान्वयन न्यूनतम तथा क्रमिक होना चाहिए। ये इतिहास के प्रशंसक है तथा आदर्शवादी न होकर यथार्थवादी है। अपने सहज स्वरूप में ये जिन तत्त्वों को निहित करते हैं, वे हैं-परम्पराओं के प्रति श्रद्धा, समुदाय स्तर विन्यास आज्ञाकारी निम्नवर्ग तथा पितृसुलभ परोपकारिता । परन्तु एक विरोधाभासी स्वरूप में संकीर्णवादी का अभिप्राय स्वेच्छाचारी विचारधारा, अत्यधिक व्यक्तिवाद, मुक्त बाजार, कानून व्यवस्था, सरकार की न्यूनतम भूमिका जिसमें समुदाय, परम्परा अथवा परोपकारिता न के बराबर है, से भी लिया जाता है। संकीर्णवाद की इन दो धाराओं में सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों स्तरों पर कोई मेल नहीं है।
राजनीतिक विचारधारा (Ideology)
संकीर्णवाद की परम्परा उदारवाद के सर्वव्यापी सिद्धान्तों तथा एकीकरण विवेक में विश्वास नहीं करती। इसके विपरीत, इसका विश्वास ऐसी संस्थाओं में है जो सदियों से आदर का पात्र रही हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से दार्शनिक संकीर्णवादी राजनीतिक व्यवहार तथा संस्थाओं के स्वरूप के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ करने के विरुद्ध है। किसी भी प्रकार के सामूहिक परिवर्तन को वे विशेषतः शंका के दृष्टिकोण से देखते हैं। ये परम्पराओं का आदर करते हैं, इसलिए नहीं कि वे परम्परा हैं बल्कि इसलिए कि उन सामाजिक मूल्यों, जिनका विकास कई पीढ़ियों के अनुभव के परिणामस्वरूप हुआ है और जिन्हें लोगों ने अपनाया हुआ है, के व्यापक स्तर पर पुनः निर्माण की मानवीय योग्यता को वे शंका के दृष्टिकोण से देखते हैं।
वैचारिक दृष्टिकोण से संकीर्णवादियों के समक्ष पहला मुद्दा यह है कि क्या संरक्षित किया जाना चाहिए, उदाहरण के लिए किसी लोकप्रिय परन्तु भटके विद्रोह के विरुद्ध । दार्शनिक संकीर्णवाद का सम्मान प्राप्त करने के लिए किसी संस्था के अस्तित्व की निरन्तरता की अवधि कितनी होनी चाहिए? जहाँ उदारवादी तर्क का सहारा लेते हैं जो उनके अनुसार, मानवीय समाजों का एकीकरणीय तत्त्व है, वहाँ संकीर्णवादी मानते हैं कि तर्क को अत्यधिक सम्मान देना गलत है क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति विशेष का होता है और यह उनकी राजनीतिक प्रवृत्तियों, गलतियों, पूर्वाग्रहों आदि से प्रेरित हो सकता है। संकीर्णवादियों के अनुसार, किसी संस्था का महत्त्व वर्तमान पीढ़ी की तार्किक विशेषता के आधार पर नहीं आंका जा सकता। बुद्धिवादी इन परम्पराओं को 'व्यक्ति के अधिकारों के आधार पर या 'अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख' या 'सामाजिक न्याय' अथवा 'महान समाज' जैसी धारणाओं से बदलना चाहते हैं। तथापि बर्क माईकल ऑकशाट तक सभी संकीर्णवादी इस बात पर जोर देते आए हैं कि इस प्रकार की राजनीति मानवीय मुक्ति की कुँजी न होकर केवल गैर लचीलेपन तथा रूढ़िवादिता का फार्मूला हैं। इनका दृढ़ विश्वास है कि तर्क किसी काल्पनिक राज्य के निर्माण का नक्शा तैयार नहीं कर सकता क्योंकि यह वर्तमान राजनीतिक परम्पराओं के निचोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। इनका मानना है कि वैचारिक राजनीतिक में अन्तर्निहित रीतिरिवाजों तथा परम्पराओं के प्रति घृणा ऐच्छिक सामाजिक बन्धनों को क्षति पहुँचाती है जिसके परिणामस्वरूप समाज को बाँधकर रखने का एकमात्र तरीका जोर-जबरदस्ती ही रह जाता है।
दूसरा, उदारवादियों के विपरीत, संकीर्णवादी सामाजिक समझौते के विचार को नहीं मानते। क्योंकि मानव समाजों का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से क्रमिक विकास होता है. अतः वर्तमान समाज के केवल कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व ही है जिनकी उत्पत्ति तथा मूल तर्क अतीत में कहीं खो चुके हैं परन्तु जिन्हें कुछ लेखकों के अनुसार, अभी स्वीकार करने की आवश्यकता है। संस्थाओं एवं मूल्यों का क्योंकि विकास होता है, अतः उनकी कमजोरियाँ तथा कमियाँ उजागर होना स्वाभाविक है और जैसे-जैसे जनता का उनके विरुद्ध दबाव बढ़ता है वैसे-वैसे उनमें धीरे-धीरे परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़ती है।
तीसरी, संकीर्णवादी केवल सुधारों को रद्द ही नहीं करते बल्कि वे इस बात पर भी शंका जाहिर करते हैं कि वर्तमान पीढ़ी अथवा व्यक्तियों में इतनी योग्यता है कि वे कई पीढ़ियों के परिणामस्वरूप विकसित हुए मानव व्यवहार एवं संस्थाओं में परिवर्तन कर सकें। अतः वे किसी भी प्रकार की व्यापक योजनाओं के विरुद्ध है, चाहे वे संवैधानिक हो या आर्थिक अथवा सांस्कृतिक । अतः बर्क का अनुसरण करते हुए संकीर्णवादी किसी भी प्रकार की क्रान्ति अथवा विद्रोह की निन्दा करते हैं क्योंकि ये सभी हिंसा और खून खराबे को जन्म देते हैं।
चौथे, संकीर्णवाद का तर्क है कि एक क्रान्तिविहीन शान्तिपूर्ण समाज के लिए सामाजिक पदार्थों के पुनः वितरण का कोई तरीका होना चाहिए। जहाँ आधुनिक उदारवादी इस पुनर्वितरण के आधार को मानवीय विकास के लिए प्रारम्भिक नींव बनाने के उद्देश्य से उचित ठहराते हैं, वहाँ संकीर्णवादियों का पुनर्वितरण इस पर आधारित है कि गरीब, भूखे नंगे लोग गुस्से में आकर कहीं यथास्थिति के विरुद्ध खड़े न हो जाये, जैसा कि फ्रांस की क्रान्ति के समय हुआ था। आधुनिक संकीर्णवादी स्वीकार करते हैं कि गरीबों के विपरीत, संकीर्णवादी राज्य निर्देशित केन्द्रीय पुनः वितरण की अपेक्षा स्थानीय तथा प्रदत्त पुनः वितरण का समर्थन करते हैं।
पाँचवें, परम्परागत उदारवादियों की तरह संकीर्णवादी भी सामाजिक सम्बंधों में सम्पत्ति के अधिकार पर अत्यधिक महत्त्व देते हैं। जहाँ उदारवादी सम्पत्ति के अधिकार को उपयोगिता के आधार पर उचित ठहराते हैं, वहाँ संकीर्णवादी इसे राज्य की शक्ति अथवा किसी व्यक्ति विशेष की शक्ति पर सीमा लगाने के दृष्टिकोण से उचित ठहराते हैं। संकीर्णवादी सम्पत्ति का एक स्वतन्त्र तथा समृद्ध समाज के लिए एक पवित्र तथा मूलतः मूल्यवान आधारशिला मानते हैं। सम्पत्ति के अधिकार का व्यापक वितरण तथा संकीर्णवाद का यह सिद्धान्त कि व्यक्ति तथा सामाजिक समुदाय अपनी आवश्यकताओं तथा समस्याओं का दूर बैठे नौकरशाहों से बेहतर आकलन कर सकते हैं ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। क्योंकि संकीर्णवाद मूलतः राज्य को शंका के दृष्टिकोण से देखते हैं अतः वे सभ्य मानव जीवन की परिपक्वता के समर्थन, निर्देशन तथा सहायता के लिए वैकल्पिक सामाजिक संस्थाओं को वरीयता देते हैं जैसे परिवार, निजी सम्पत्ति, धर्म तथा व्यक्ति की स्वयं गलतियाँ कर के सीखने की स्वतन्त्रता आदि ।
छठे, संकीर्णवादी इस धारणा की भी आलोचना करते हैं कि राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सामन्जस्य के लिए आधुनिक लोक प्रभुसत्ताधारी राज्य एक केन्द्रीयभूत संस्था है। इसका अभिप्राय है कि लोक प्रभुसत्ता स्वयमेव अच्छी सरकार तथा विश्व शान्ति को आश्वस्त कर देती है क्योंकि इसका अर्थ यह निकलता है कि आत्म-शासन तथा आत्म-शासित लोग एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करते। इसके विपरीत संकीर्णवादियों का तर्क है कि प्रजातंत्र को स्वयमेव स्वतन्त्रता तथा अच्छी सरकार के साथ नहीं जोड़ा जा सकता, जनमतसंग्रह का सहारा लेकर कुछ व्यक्ति को भी वैध ठहरा सकते हैं।
संकीर्णवाद के स्वरूप (Forms of Conservatism )
1789 से लेकर 1945 तक क्रान्तिकारी राजनीति बार-बार उभरती रही जैसे बोलशेविक क्रान्ति, फासीवादी आन्दोलन, कल्याणकारी उदारवादी आदि, जिनसे संकीर्णवादी काफी दुःखी रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दशकों में इसे उदारवादी पूँजीवादी राज्यों में कल्याणकारी राज्य के रूप में समाजवादी चुनौती का सामना करना पड़ा। इन सभी घटनाओं के प्रति संकीर्णवादी प्रतिक्रिया अलग-अलग रही परन्तु इन सबका समान आधार था परिवर्तन के लिए दिए जाने वाले कुछ औचित्यों का विरोध जो आदर्शवादी थे या जिन्हें अमूर्त विचारों के आधार पर किया गया था और जो वर्तमान व्यवहारों के विकास का परिणाम नहीं थे। वैचारिक दृष्टिकोण से संकीर्णवाद के कई रूप हो सकते हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
(i) उदारवादी संकीर्णवाद:
संकीर्णवाद का यह रूप संकीर्णवादी नीतियों एवं मूल्यों के साथ कुछ उदारवादी तत्त्वों का मिश्रण है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस शब्दावली में आर्थिक उदारवाद, जो स्वेच्छाचारी बाज़ार व्यवस्था का समर्थन करता है तथा परम्परागत संकीर्णवाद, जो स्थापित परम्परागत उदारवाद से भिन्न है जिसने आर्थिक तथा सामाजिक दोनों क्षेत्रों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता का समर्थन किया। अधिकतर इसे मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था तथा व्यैक्तिक उत्तरदायित्व, नागरिक अधिकारों की सुरक्षा तथा सीमित कल्याणकारी राज्य के साथ जोड़ा जाता है।
(ii) संकीर्णवादी उदारवादः
यह उदारवाद का वह स्वरूप है जिसमें कुछ संकीर्णवादी तत्त्वों का मिश्रण किया गया है। यह परम्परागत उदारवाद का अधिक सकारात्मक परन्तु कम उग्रवादी रूप है।
(iii) इच्छास्वातंत्र्यवादी संकीर्णवादः
इस प्रकार का संकीर्णवाद अमेरीका तथा कनाडा में लोकप्रिय है जिसमें इच्छास्वातंत्र्यवादी आर्थिक मुद्दों को संकीर्णवाद के कुछ तत्त्वों के साथ जोड़ा गया है। ये स्वेच्छाचारी नीतियाँ जैसे मुक्त व्यापार का समर्थन, संघीय निधि (Federal Reserve) का विरोध तथा सभी प्रकार के व्यापारिक नियन्त्रणों का विरोध करता है। इसी तरह ये सभी प्रकार के पर्यावरण नियमों, सामूहिक कल्याण, सब्सिडी तथा अन्य आर्थिक हस्तक्षेप का भी विरोध करते हैं।
(iv) सांस्कृतिक संकीर्णवाद:
संकीर्णवाद का यह स्वरूप किसी देश अथवा संस्कृति की विरासतों को संरक्षित करने का समर्थन करता है। इस प्रकार की संस्कृति पश्चिमी चीनी अथवा भारतीय जैसी विशाल संस्कृति हो सकती है या तिब्बत जैसी छोटी। सांस्कृतिक संकीर्णवाद अतीत् के नैतिक नियमों का पालन करने के पक्ष में है और ये नैतिक नियम रोमान्टिक, सांस्कृतिक, संस्थागत, आर्थिक अथवा राजनीतिक कुछ भी हो सकता है। सामाजिक संकीर्णवाद के संदर्भ में, ये नियमों की नैतिकता से जुड़े सवाल भी हो सकते हैं कुछ एक संस्कृतियों में समलैंगिकता को अनैतिक माना जाता है। सांस्कृतिक संकीर्णवादी का तर्क है कि पुरानी संस्थाएँ किसी एक सांस्कृतिक तथा स्था से जुड़ी हुई होती है, अतः उन्हें संरक्षित किया जाना आवश्यक है। कुछ अन्य लेखकों का विचार है कि लोगों को अपने सांस्कृतिक सिद्धान्तों, अपनी भाषा तथा अपनी परम्पराओं को संरक्षित करने का अधिकार है।
(v) धार्मिक संकीर्णवाद:
इस प्रकार का संकीर्णवाद किसी विशिष्ट विचारधारा को संरक्षित करना चाहते हैं, कभी सामाजिक स्तर पर इसके नैतिक मूल्यों का प्रचार करके अथवा कई बार इन्हें राज्य के क़ानून का एक भाग बनाकर। धार्मिक संकीर्णवाद धर्मनिरपेक्ष रीति-रिवाजों का भी समर्थन कर सकते हैं या इसे उनका समर्थन भी मिल सकता है। कई बार और कई स्थानों पर धार्मिक संकीर्णवाद को उन संस्कृतियों से चुनौती भी मिल सकती है जहाँ वे कार्यरत होते हैं।
(vi) हरित संकीर्णवाद:
इस शब्द का प्रयोग उन संकीर्णवादियों के लिए किया जाता है जिन्होंने पर्यावरण को अपनी विचारधारा का एक अंग बना लिया है। ये लोग एक ऐसे हरित कार्यक्रम का समर्थन करते हैं जिसमें कार्यालय स्थानों पार्किंग स्थलों पर अधिकाधिक टैक्स लगाया जाये, हवाई अड्डों के विकास को रोका जाये तथा भारी एवं हल्के सभी वाहनों पर टैक्स लगाया जाये।
समग्र रूप से, संकीर्णवाद मानव प्रकृति के नकारात्मक तथा निराशावादी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए परम्परागत शासन व्यवस्था का समर्थन इस विचार पर आधारित है कि व्यक्ति मूलत: स्वार्थी, अविवेकी तथा हिंसात्मक प्रकृति वाला प्राणी है। इन घटिया प्रवृत्तियों को समाज में खुले तौर पर कार्य करने की छूट नहीं दी जा सकती है और इनके विरुद्ध केवल एक ही विकल्प है - शक्तिशाली सरकार तथा परम्परागत मूल्य क्योंकि इन्होंने ही अभी तक समाजों को जिन्दा तथा सुरक्षित रखा है। इस विचार की उदारवाद के साथ तुलना की जा सकती है जिसका मानना है कि यदि उचित वातावरण तैयार किया जाये तो व्यक्ति को आदर्श व्यक्ति बनाया जा सकता है (सामान्यतः सामाजिक इन्जिन्यरी के तरीकों द्वारा ) । संकीर्णवाद के आलोचकों का मानना है कि यह धनिक वर्ग की निम्न वर्ग के विरुद्ध अपना वंशानुगत सम्मान तथा विशेषाधिकारों को बनाये रखने की चाल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 19वीं शताब्दी में संकीर्णवाद की सबसे बड़ी चिन्ता थी कि अधिकारों का विस्तार निम्न वर्ग की ओर किया जा रहा है जबकि 20वीं शताब्दी में यह समाजवाद के विरुद्ध संघर्ष में इतना उलझा रहा कि कुछ लोगों ने संकीर्णवाद को सभी प्रकार की विरोधी (anti ) प्रवृत्तियों के साथ जोड़ना आरम्भ कर दिया। वर्तमानकाल के सभी विचार एवं आन्दोलन-जैसे नारीवाद, पर्यावरण, उग्रवादी प्रजातान्त्रिक सिद्धान्त मानव अधिकार-संकीर्णवादी विचारधारा के विरुद्ध है।
क्लासिकी राजनीतिक सिद्धांत (Classics Political Theory)
जो राजनीतिक सिद्धांत छठी सदी ई. पूर्व में उदित होकर यूनानियों, रोमनों तथा प्रारंभिक यूरोपीय चिंतकों और दार्शनिकों के माध्यम से विकसित हुआ उसे क्लासिकी राजनीतिक सिद्धांत कहते हैं। यूनानियों में अफलातून और अरस्तु दो ऐसे चिंतक हैं जिनके विचारों को आज भी पढ़ा जाता है और जिनका प्रभाव आज तक है। क्लासिकी राजनीतिक सिद्धांत पर दर्शन का गहरा प्रभाव था और पूरा जोर सर्वाधिक सामान्य सत्यों की तलाश के लिए जीवन की समग्रता में देखने पर था। इसलिए दार्शनिक, धर्मतात्विक और राजनीतिक प्रश्नों के बीच भेद करना कठिन था और राजनीति विज्ञान या राजनीतिक चिंतन को विधा की एक अलग शाखा के रूप में नहीं देखा जाता था। राजनीतिक सिद्धांत का काम प्रश्नों की छानबीन करना महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछना और राजनीति के सद्विवेक के एक प्रकार के रक्षक का था। अंतर्निहित तलाश सरकार के यथासंभव अच्छे से अच्छे रूप की थी। राज्य और सरकार को भी मनुष्य और समाज के नैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति और अच्छाई को बढ़ावा देने के साधन माना जाता था। इस प्रकार राज्य को समुदाय के सदस्यों में उच्च नैतिक मानों के प्रतिष्ठापक का काम करना था। इस संबंध में कुछ बहस चली कि व्यक्ति की भलाई को प्राथमिकता दी जाए या सामान्यतः सबकी भलाई को सबकी भलाई को व्यक्ति की निजी भलाई से ज्यादा जरूरत महसूस की गई। क्लासिकी परंपरा ने एक आदर्श राज्य और स्थिर प्रणाली के उपायों की
भी तलाश की। क्लासिकी परंपरा ने जो मुख्य प्रश्न पूछे वे ये थे सबसे अच्छी सरकार कौन है? शासन किसे करना चाहिए और क्यों? विभेद की स्थितियों का समाधान कैसे किया जाए?