युद्ध एवं संचार की तकनीक (Technologies of Warfare and Communication)
युद्ध एवं संचार की तकनीक प्रस्तावना ( Introduction)
मध्यकालीन सेनाओं की स्थिति सैनिकों की युद्ध क्षमता, तथा युद्ध की
तकनीकें समय और क्षेत्र के अनुसार विभिन्नता पर आधारित थी। लम्बे समय तक चलने वाले
युद्धों का पूर्व आकलन कर लिया जाता था। युद्ध से पूर्व युद्ध के नेतृत्वकर्ताओं
के बीच विभिन्न दौर के सलाह-मशवरे होते थे तथा योजनाएँ बनती थीं। इन सभाओं में कई
तरह के मसौदे पेश किए जाते थे, अलग-अलग रणनीतियां बनाई जाती थीं। उन पर
सामान्य बहस होती थी, यह योजनाएँ बहुमत से पारित हुआ करती थीं। युद्ध
क्षेत्र में संचार बेहद दुष्कर कार्य था। युद्ध के मैदान में किसी तरह का संदेश
देने के लिए विभिन्न परम्परागत उपाय अपनाए जाते थे जैसे कि संगीत द्वारा संकेत
देना, ऊँची आवाज में चिल्लाकर, संदेशक भेजकर, सफेद कपड़ा
लहराकर या झण्डा फहराकर ।
युद्ध क्षेत्र में सैनिकों को अवस्थित करना (जमाना) भी एक
कला थी। सबसे आगे धनुर्धारी लगाए जाते थे या उन सैनिकों को लगाया जाता था जो
अस्त्र फेंककर मारते थे। धनुर्धर सैनिक दुश्मन सेना पर सामने से हमला बोलते थे
जबकि धनुर्धरों के लिए एक सुरक्षात्मक कवच बनाते हुए घुड़सवार सैनिक दुश्मनों की
सेना पर पीछे से आक्रमण करते थे।
रकाब की खोज का मध्यकालीन यूरोप के इतिहास में एवं युद्ध के
इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। रकाब (घोड़े की पीठ पर रखी जाने वाली गद्दी
तथा पैर टिकाए रखने का पायदान) का प्रयोग होने से घोड़े का महत्त्व युद्ध में बढ़
गया। अब घुड़सवार सैनिक जीत के लिए प्रमुख सहायक बन गए।
युद्ध एवं संचार की तकनीक
1 तोप का प्रयोग (Uses of Cannons)
लम्बी नालीदार गर्दन वाली तोप का आविष्कार युद्ध के क्षेत्र
में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया। तोप में बारूद से बने गोले डालकर दागे जाते थे, जिससे प्रतिपक्षी
सेना के दर्जनों सैनिक एक बार में ही घायल हो जाते थे। युद्ध लड़ते हुए इतने सैनिक
नहीं मारे जाते थे जितने बचने के लिए मची भगदड़ में मारे जाते थे। मध्यकालीन युद्ध
में सबसे ज्यादा सैनिक तब मारे जाते थे जब वे दुश्मन से बच निकलने के लिए
हड़बड़ाहट में भागते थे।
तोप के युद्ध में प्रयोग होने से धनुर्धारी तथा बरछी - भालामार सैनिकों का महत्त्व घटता गया। युद्ध में मारे गए लोगों में सबसे ज्यादा संख्या इन्हीं लोगों की होती थी।
तोपों में पहिए लगने के बाद इसे लाना ले जाना आसान हो गया।
हालांकि गोले दागने की दर बेहद कम थी। कभी-कभी कई दिनों के युद्ध में केवल एक बार ही तोप दागी जाती थी। निशाना सटीकता से न लग पाने के कारण कई बार इसका प्रयोग घातक सिद्ध होता था। सही निशाने पर न लगने के कारण अक्सर अपने सैनिक ही हताहत हो जाते थे।
धीरे-धीरे समय के साथ तोप तथा गोला-बारूद में सुधार किया
गया जिससे इसके वजन में कमी आई। इसे घुमाना आसान हुआ। तोप के मुँह (नली) को विशेष
आकार दिया गया ताकि निशाना सटीक लगे। तोप में पहिए लगने से इसके आवागमन की सुविधा
मिली।
2 किलेबंदी (Fortification )
मध्यकाल से पूर्व बड़े-बड़े केन्द्रीकृत राज्यों में बिखराव
हुआ। छोटे-छोटे राज्यों में हमला- लूटपाट आदि आय का मुख्य स्रोत था। कई राज्य कुछ
संगठित समूहों में रहते थे। हिंसक समूहों का एक-दूसरे पर हमला, आम बात थी। हिंसक
और लूटपाट करने वाले समूहों में विशेष रूप से वाइकिंग्स, अरब, मंगोल, तुर्क आदि थे। ये
लूटपाट आदि समूह आमतौर पर छोटे थे तथा यायावर प्रवृत्ति के थे। विशेष अन्तराल पर
अपना स्थान (डेरा) बदलते रहते थे। अक्सर एक समूह दूसरे समूह पर रात में सोते समय
हमला कर देता जिससे जान-माल के साथ ही अपार धन की हानि होती थी।
दुर्ग या महल अचानक या रात में होने वाले आक्रमणों से बेहतर रक्षा करता था । महल या किलेबंदी वह संरचना थी, जो मध्यकालीन सामन्त वर्ग के लिए, अभिजनों तथा शासक वर्ग के लिए कवच का कार्य करती थी। एक महल के अन्दर वे हमलावरों, बाहरी आक्रमणकारियों आदि से सुरक्षित थे साथ ही अन्न पानी रसद आदि भी महफूज थे। किलेबन्दी सुरक्षा के साथ-साथ युद्ध का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। राजा, शासक वर्ग, राजपरिवार तथा महलवासियों को संरक्षण देने के साथ ही किलेबंदी खुली लड़ाइयों में सामना करने के लिए सेनाओं को शरण प्रदान करती थी। विशाल घुड़सवार सेना एक अच्छी किलेबन्दी के समक्ष बेकार थी। किलेबन्दी एक-दो दिन में नहीं हो जाती थी बल्कि इसमें महीनों सालों का समय लग जाता था।
घेराबन्दी युद्ध (Siege Warfare)
मध्यकाल युग में शत्रु सेना को परास्त करने के लिए
घेराबन्दी तकनीक अपनाई जाती थी। घेराबन्दी की विधियों में स्केलिंग सीढ़ी, ऊँची मेढ़ें
बनाना और घेराबन्दी करना आदि शामिल था। घेराबन्दी के दौरान शत्रु सेना पर
बड़े-बड़े भारी पत्थर फेंकने वाली गुलेल (मशीन) लगाई जाती थीं। शत्रु के आने वाले
मार्ग पर पहले से बड़ी बड़ी खाई (गहरी खाई) सुरंग आदि खोद दी जाती थी और उसे
मिट्टी आदि से ऐसे ढंक दिया जाता था जिससे उसके होने का पता न चले। धोखे से शत्रु
सेना को खाई में गिरा दिया जाता था।
घेराबन्दी विधि में माइनिंग (सुरंग) भी शामिल थी। बड़ी-बड़ी
बाहरी दीवारों के नीचे लम्बी और गहरी सुरंग खोद दी जाती थी, जिससे दीवार की
नींव एकदम कमजोर हो जाए और जब शत्रु सेना उस दीवार तक पहुँचे, उस दीवार को
अचानक शत्रुओं पर गिरा दिया जाता था। इन विधियों का प्रयोग रोमन सेना किया करती थी, परन्तु इसका बड़े
पैमाने पर प्रयोग धर्मयुद्धों के दौरान किया गया।
घेराबन्दी के उन्नत तथा रक्षात्मक उपायों को विभिन्न साम्राज्य प्रोत्साहित किया करते थे। मध्ययुगीन किलेबन्दी व घेराबन्दी उत्तरोत्तर मज़बूत बनती गई। उदाहरण के लिए कंक्रीट की मजबूत दीवारें बनाई जाने लगीं, इन दीवारों के साथ ऊँचे-ऊँचे लम्बे-चौड़े गुम्बद बनाए गए के जिनमें बड़े छेद बने होते थे जिनके पीछे छिपे सैनिक शत्रु सेना पर बड़े व भारी पत्थर फेंकते थे। इन बड़े छेदों को मौत के छेद' के नाम से जाना जाता था। इस तरह के छेद गुम्बदों का प्रयोग फ्रांस तथा उसके समकालिक इंगलिश साम्राज्यों में होता था।
3 सैन्य संगठन (Military Organization)
मध्यकालीन योद्धा सामान्य तौर पर एक बख्तरबन्द सैनिक होता था। इनकी कई श्रेणियाँ होती थी। कुछ सैनिक केवल धनुर्धर या तीर-भाला चलाने वाले पैदल सैनिक होते थे। जबकि कुछ तलवार तथा अन्य उन्नत अस्त्र चलाने वाले बख्तरबन्द (कवचधारी) घुड़सवार सैनिक थे।
सेना में भर्ती सामान्यतः अच्छे और उच्च वर्गों से होती थी, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर निम्न वर्ग और यहाँ तक कि दासों (गुलामों) को भी सेना में भर्ती कर लिया जाता था। घुड़सवारों की अधिकतम संख्या का किसी सेना में होना, उसकी जीत को सुनिश्चित करता था । सामन्त अपनी सेना आवश्यकता पड़ने पर राजा को देता था। अपनी सेना को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने के लिए सामन्त सदैव सतर्क रहता था। सामन्त केवल उन्हीं लोगों को सेना में भर्ती करता था, जो ज्यादातर अपने खर्चे स्वयं उठा सकते थे। अपने घोड़े, कवच, हथियार आदि की व्यवस्था और देखभाल योद्धा को स्वयं करनी पड़ती थी। अच्छे व महँगें घुड़सवारों को, जो बख्तरबन्द और सशस्त्र होते थे युद्ध में भेजा जाता था। जो योद्धा अपनी सैन्य उपाधि को लगातार बनाए नहीं रख पाता था उससे पदवी छीन ली जाती थी।
सेना में भर्ती भर्ती (Recruitment)
मध्यकाल में प्रत्येक सामन्त या 'नोबल' का यह दायित्व था कि युद्ध में आवश्यकता पड़ने पर तथा बुलाए जाने पर वह स्वयं के घोड़े, बख्तरबन्द तथा शस्त्रों के साथ उपस्थित हो। उस काल में इस प्रणाली को सैन्य विकेन्द्रीकरण कहा जाता था।
राजा या सम्राट के पास अपनी कोई सेना नहीं थी। सैन्य व्यवस्था सामन्त या जागीरदार करते थे। भर्ती से लेकर युद्ध स्थल तक सेना भेजना सामन्त का कार्य था। आवश्यकता पड़ने पर सामन्त खुद भी युद्ध में भाग लेता था । सामन्त दूसरे सामन्तों से सैन्य सेवा भाड़े पर भी लेता था। अत्यधिक सैन्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए दासों व किसानों को भी पैदल सैन्य कोर में शामिल कर लिया जाता था। युद्ध के दौरान मरने वालों और हताहत होने वालों की संख्या में यही सबसे अधिक होते थे।
जब केन्द्रकृत सरकारें बनी, सामन्त प्रथा का विघटन हुआ तब सेना में नागरिकों की भर्ती शुरू हुई। सेना स्थायी होती थी तथा राजा या शासक के सीधे नियन्त्रण में थी । आवश्यकता पड़ने पर राजा सहायक राजाओं से भाड़े पर सैनिक लेता था।
यह माना जाने लगा कि सबसे अच्छा सैन्य कर्मी एक स्वतन्त्र
किसान का बेटा हो सकता है। अतः किसान 'केन्द्रीय भर्ती
उपकरण' के रूप में उभर कर सामने आया। किसानों के बेटे
अच्छे तीरन्दाज तथा सैनिक साबित होने लगे। मध्य युग में इंग्लैण्ड सर्वाधिक
केंद्रीकृत राज्य था। सैद्धान्तिक रूप से प्रत्येक इंग्लैण्डवासी को चालीस दिन तक
सैन्य सेवा देनी पड़ती थी, लेकिन चालीस दिन किसी अभियान के लिए पर्याप्त
समय नहीं था, खासकर एक महाद्वीप पर। अतः भाड़े के सैनिकों की प्रथा-सी चल
पड़ी। मध्य युग में यूरोप में सबसे ज्यादा भाड़े के सैन्यकर्मियों का इस्तेमाल
किया गया। 12वीं शताब्दी तक यूरोप भाड़े के सैनिकों की एक विशाल मण्डी (बाजार ) बन
चुका था।
4 प्राचीन इतिहास काल में संचार व्यवस्था ( Communication System)
मध्यकाल से पहले सन्देश भेजने के कई परिष्कृत उपाय व
विधियाँ अपनाई जाती थीं। जैसे-पर्शियन साम्राज्य में दूत भेजने की प्रथा, इंका साम्राज्य
में रिले धावक प्रणाली आदि। रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद यूरोपीय साम्राज्यों
ने दूत व्यवस्था तथा निजी या सामूहिक रूप से भेजी सन्देश प्रणाली पर भरोसा करना कम
कर दिया।
मध्यकाल में संदेश व संचार व्यवस्था
मध्यकाल में यात्रा करना एक खतरनाक कठिन, महँगी तथा अधिक
समय गँवाने वाला कार्य था। शासक, बिशप, अमीर सामंत आदि
लोगों के पास समय का अभाव था अतः अपने सन्देश, सूचनाओं को भेजने
के लिए उन्हें विश्वसनीय संदेशवाहक नियुक्त करने पड़ते थे, जो उनकी ओर से
उनका कार्य पूरा करें।
मध्यकाल में राजाओं, संस्थाओं, विशपों मठों, विश्वविद्यालयों, पोप, व्यापारिक
कम्पनियों आदि के अपने स्वयं के सन्देशवाहक (दूत) थे। इनमें से कुछ को शाही डीक्री
द्वारा संरक्षित किया गया था। पोप का स्वयं का एक संचार तन्त्र था, जिसमें कई दूत थे, जिनकी मदद से पोप
छोटे कलग (पादरी) को सन्देश भिजवाते थे। रोम से निरंतर अन्तराल पर सन्देश भेजें व
प्राप्त किए जाते थे।
धनी व सम्पन्न लोग तथा संगठन ही कूरियर व्यवस्था को वहन कर
पाते थे। घोड़े, आवास तथा यात्रा का खर्च जो वहन कर पाता था, वही कूरियर वाहक
रखता था।
पुरुष दूत
युद्ध जैसे संवदेनशील हालातों में सन्देश अक्सर कोड (गुप्त) रूप से भेजे जाते थे। भेष बदलकर सेना में जाना और रणनीति ज्ञात करना।
इस तरह की स्थितियों में प्रायः सन्देशवाहक अपना असली रूप नहीं दिखाता था। अक्सर वह तीर्थयात्री, राही या अन्य रूप धरकर पहुँचता था । सन्देश कोड भाषा में होता था, या लिखित भाषा में होता था जिसे दूत अपने जूतों में या कपड़ों में छिपा कर रखता था।
संदेशवाहक दूत को अक्सर विशेष तरह के उपहार ले जाने पड़ते
थे जो कि स्वयं में गुप्त संदेश होते थे। यात्रा के दौरान दूत को इन उपहारों का
अपनी जान से भी ज्यादा ख्याल रखना पड़ता था । सन्देशवाहक (दूत) में कुछ अनिवार्य
योग्यताओं का होना जरूरी था। उसे अच्छा घुड़सवार होना चाहिए, तैराक होना चाहिए, रूप - भेष बदलने
में माहिर होना चाहिए, दो से अधिक भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए इत्यादि
।
युद्ध एवं संचार की तकनीक सारांश (Summary)
युद्ध के मैदान में किसी तरह का संदेश देने के लिए विभिन्न परम्परागत उपाय अपनाए जाते थे, जैसे कि- संगीत द्वारा संकेत देना, ऊँची आवाज में चिल्लाकर, सन्देशक भेजकर, सफेद कपड़ा लहराकर या झण्डा फहराकर ।
रकाब की खोज का मध्यकालीन यूरोप के इतिहास में युद्ध के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। रकाब (घोड़े की पीठ पर रखी जाने वाली गद्दी तथा पैर टिकाए रखने का पायदान) का प्रयोग होने से घोड़े का महत्त्व युद्ध में बढ़ गया। अब घुड़सवार सैनिक जीत के लिए प्रमुख सहायक बन गए।
छोटे-छोटे राज्यों में हमला- लूटपाट आदि आय का मुख्य स्रोत था। कई राज्य कुछ संगठित समूहों में रहते थे। हिंसक समूहों का एक-दूसरे पर हमला, लूटपाट आदि आम बात थी। हिंसक और लूटपाट करने वाले समूहों में विशेष रूप से वाइकिंग्स, अरब, मंगोल, तुर्क आदि थे।
घेराबन्दी के दौरान शत्रु सेना पर बड़े-बड़े भारी पत्थर
फेंकने वाली गुलेल (मशीन) लगाई जाती थीं। शत्रु के आने वाले मार्ग पर पहले से
बड़ी-बड़ी खाई (गहरी खाई) सुरंग आदि खोद दी जाती थी और उसे मिट्टी आदि से ऐसे ढग
दिया जाता था जिससे उसके होने का पता ना चले। धोखे से शत्रु सेना को खाई में गिरा
दिया जाता था।
सेना में भर्ती सामान्यतः अच्छे और उच्च वर्गों से होती थी, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर निम्न वर्ग और यहाँ तक कि दासों (गुलामों) को भी सेना में भर्ती कर लिया जाता था। घुड़सवारों की अधिकतम संख्या का किसी सेना में होना, उसकी जीत को सुनिश्चित करता था।
राजा या सम्राट के पास अपनी कोई सेना नहीं थी। सैन्य
व्यवस्था सामन्त या जागीरदार करते थे। भर्ती से लेकर युद्ध स्थल तक सेना भेजना
सामन्त का कार्य था । आवश्यकता पड़ने पर सामन्त खुद भी युद्ध में भाग लेता था।
सामन्त दूसरे सामन्तों से सैन्य सेवा भाड़े पर भी लेता था ।
मध्ययुग में इंग्लैण्ड सर्वाधिक केन्द्रीकृत राज्य था । सैद्धान्तिक रूप से प्रत्येक इंग्लैण्ड वासी को चालीस दिन तक सैन्य सेवा देनी पड़ती थी, लेकिन चालीस दिन किसी अभियान के लिए पर्याप्त समय नहीं था, खासकर एक महाद्वीप पर । अतः भाड़े के सैनिकों की प्रथा - सी चल पड़ी।