सर्वोपरि समुदाय के रूप में राज्य का स्वरूप (State as the Supreme Association)
सर्वोपरि समुदाय के रूप में राज्य का स्वरूप
राज्य मुनष्यों के एक समुदाय का नाम है, पर मनुष्य राज्य के अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के समुदायों में संगठित हैं। ये समुदाय अनेक प्रकार के हो सकते हैं।
(1) धार्मिक -
ईसाई, बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम आदि धार्मिक सम्प्रदायों के अनेक प्रकार के समुदाय इस समय विद्यमान हैं व इतिहास में विद्यमान रहे हैं। एक समय था जब राज्य के समान इनकी भी अपार शक्ति होती थी। मध्यकाल में यूरोप के ईसाई चर्च असाधारण शक्तिसम्पन्न थे। यह आवश्यक था कि प्रत्येक व्यक्ति चर्च के अधीन हो और उसकी आज्ञाओं का पालन करे। चर्च राज्य के समान लोगों से बाकायदा टैक्स भी वसूल करता था। चर्च के अपने कानून थे, अपने न्यायालय थे, अपनी पुलिस थी और अपनी दण्ड व्यवस्था थी। उसके पास अपार धन था, जिसका उपयोग वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये करता था। प्राचीन भारत में बौद्धसंघ भी बहुत शक्तिशाली था। मुस्लिम देशों में राज्य सम्प्रदाय के प्रभाव में रहता था और उनके अंशों में राज्य और सम्प्रदाय एक ही सत्ता के अधीन थे। इस समय भी ईसाई, बौद्ध आदि सम्प्रदायों के चर्च व समुदाय विद्यमान हैं। भारत में आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि ऐसे समुदाय हैं, जिनके बाकायदा सदस्य, प्रबन्ध समिति, पदाधिकारी, सम्पत्ति, कोष, प्रतिनिधि सभा आदि हैं। चन्दे के रूप में ये समुदाय अपने सदस्यों व अन्य लोगों से नियमित रूप से आर्थिक आमदनी प्राप्त करते हैं और अपने अनुयायियों पर एक तरह का नियन्त्रण भी रखते हैं। अपने नियमों का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को दण्ड देने की व्यवस्था भी ये करते हैं।
(2) आर्थिक
श्रमी संघ, कृषक संघ आदि के रूप में आर्थिक दृष्टि से भी अनेक जनसमुदाय इस समय विद्यमान - है। प्राचीन समय में शिल्पियों की 'श्रेणियाँ' व व्यापारियों के 'निगम' होते थे, जिनके अपने सदस्य, अपने क़ानून, व्यवहार व चरित्र हुआ करते थे। अपने सदस्यों पर इनका नियन्त्रण भी पर्याप्त कठोर था। कोई व्यक्ति अपनी श्रेणी या निगम के नियमों का उल्लंघन करने का साहस नहीं करता था। राज्य भी इनके नियमों को स्वीकार करता था और यह उपयोगी समझता था कि शिल्पी व व्यापारी अपने 'समूहों' या समुदायों के नियमों का पालन करें।
श्रमी संघ (ट्रेड यूनियन) आदि के रूप में आजकल जो आर्थिक समुदाय हैं, वे भी मानव समाज में अत्यन्त - महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। आर्थिक जीवन में उनकी स्थिति बहुत ऊँची है। अपनी श्रेणी के हितों की रक्षा करने, व्यावसायिक उन्नति में सहायक होने व सरकार पर प्रभाव रखने में वे बड़े महत्त्व के कार्य करते हैं। उनके भी सुनिश्चित सदस्य बाकायदा नियम, स्थिर कोष, नियमित आमदनी और दण्डविधान आदि सब होते हैं। अनेक बार तो उनकी शक्ति और प्रभाव इतने अधिक बढ़ जाते हैं कि अपनी माँगों को पूरा कराने के लिये वे सरकार पर बहुत अधिक जोर डालने में भी समर्थ रहते हैं।
(3) राजनीतिक-
लोकतांत्रिक शासन के इस युग में राजनीतिक समुदायों का महत्त्व बहुत अधिक है। ये राजनीतिक समुदाय राजनीतिक दलों (पार्टियों) के रूप में है। ब्रिटेन में मजदूर, कन्जर्वेटिव और लिबरल ये तीन दल प्रधान हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट ये दो दल मुख्य हैं। इन दलों के बाकायदा सदस्य हैं, निश्चित नियम हैं, निश्चित संगठन हैं। इनके पास कोश की कमी नहीं है और ये सरकार को अपने हाथों में अधिगत करने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। इनका ढंग प्रायः वैध रहता है और ये निर्वाचकों को प्रचार द्वारा अपने पक्ष में करके उनके वोट प्राप्त करने, संसद (पार्लियामेंट) में अपना बहुमत बनाने और इस प्रकार शासनशक्ति को अधिगत करने का प्रयत्न करते रहते हैं।
पर पिछले कुछ समय से अनेक राज्यों में ऐसे राजनीतिक समुदायों का भी विकास शुरू हुआ है जो केवल वैध व शान्तिमय उपायों का अवलम्बन करना पर्याप्त नहीं समझते। समाज का संगठन किस प्रकार का हो, इस संबंध में उनके विचार अत्यंत उग्र हैं और अपने विचारों को क्रिया में परिणत करने के लिये व उग्र उपायों का अवलम्बन अनुचित नहीं समझते। जर्मनी का नाजी दल. इटली का फैसिस्ट दल और रूस का कम्युनिस्ट दल इसके उदाहरण हैं।
(4) सांस्कृतिक -
शिक्षा, ज्ञानप्रसार, खोज आदि के लिये भी मनुष्यों ने अनेक समुदायों का संगठन किया है। बहुत से समुदाय लोकसेवा के लिए भी बनाये जाते हैं। रेडक्रास सोसायटी, सर्वोदय समाज, रामकृष्ण सेवाश्रम मिशन आदि इसके उदाहरण हैं।
राज्य और अन्य समुदायों में भेद-
मनुष्यों ने राज्य के अतिरिक्त अन्य भी अनेक समुदायों में अपने को संगठित किया है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसने अपनी सामाजिकता को अनेक रूपों में अभिव्यक्त किया है। पर राज्य अन्य मानव समुदायों से सर्वथा भिन्न होता है। उसका यह भेद आधारभूत है। अन्य समुदायों से राज्य की भिन्नता को हम इस प्रकार सपष्ट कर सकते हैं-
(1) राज्य के अतिरिक्त अन्य सब समुदायों की सदस्यता मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। कोई मनुष्य चाहे, तो किसी भी धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक समुदाय का सदस्य न बने। यह भी प्रत्येक मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह जब तक चाहे किसी ऐसे समुदायों का सदस्य रहे और जब चाहे उससे पृथक् हो जाए। इसके विपरीत प्रत्येक मनुष्य के लिये यह अनिवार्य है, कि वह राज्य का सदस्य हो। कोई मनुष्य ऐसा नहीं हो सकता, जो किसी राज्यरूपी समुदाय में सम्मिलित न हो।
( 2 ) प्रत्येक मनुष्य को यह अधिकार है कि वह जितने भी समुदायों का चाहे सदस्य बन सकता है, बशर्ते कि वह उनके नियमों का पालन के लिये उद्यत हो। पर कोई मनुष्य केवल एक ही राज्य का सदस्य हो सकता है। साधारणतया, यह किसी के लिए भी संभव नहीं है कि वह एक समय में एक से अधिक राज्य का नागरिक हो सके। (3) अन्य समुदायों का क्षेत्र किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं होता। अनेक समुदाय तो विश्वव्यापी होते हैं। रेडक्रास सोसायटी, आर्यसमाज, कम्युनिस्ट पार्टी आदि की शाखायें संसार के बहुत-से देशों में व्याप्त हैं। पर राज्य का क्षेत्र एक निश्चित भूखण्ड व प्रदेश तक ही सीमित रहता है, उसके बाहर उसकी सत्ता नहीं होती ।
(4) अन्य समुदायों का संगठन किसी एक व एकाधिक निश्चित उद्देश्य को सम्मुख रखकर किया जाता है। रेडक्रास सोसायटी का एक निश्चित लक्ष्य है, आर्यसमाज का संगठन भी कुछ निश्चित उद्देश्यों को सम्मुख रखकर किया गया। है। पर राज्य के उद्देश्यों को सीमित व निश्चित कर सकना संभव नहीं होता। राज्य मनुष्यों के हित. कल्याण व रक्षा के निमित्त संगठित हुआ है। पर 'हित' एक इतना व्यापक शब्द है कि उसमें बहुत-सी बातें अन्तर्गत हो जाती हैं। यही कारण है, जो राज्य का कार्यक्षेत्र निरन्तर विस्तृत होता जाता है। जहाँ वह अपनी जनता की बाह्य व आभ्यन्तर शत्रुओं से रक्षा करने की उत्तरदायित्व लेता है, वहाँ साथ ही उसकी सर्वतोमुखी उन्नति के लिये भी प्रयत्न करता है। यही कारण है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य आदि लोकहित के कार्यों को हाथ में लेता है और मानवहित की दृष्टि से अनेक व्यवसायों का नियन्त्रण व संचालन भी करता है। जनहित को सम्मुख रखकर राज्य कोई सा भी कार्य अपने हाथ में ले सकता है और मनुष्यों के किसी भी कार्य में हस्तक्षेप कर सकता है। शान्ति और व्यवस्था कायम रखना एक ऐसा कार्य है, जो कि राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई भी समुदाय नहीं कर सकता ।
(5) अन्य समुदाय अस्थायी हैं, राज्य स्थायी है। अन्य समुदाय किन्हीं निश्चित उद्देश्यों को सम्मुख रखकर स्थापित होते हैं और जब वे उद्देश्य पूर्ण हो जाते हैं, तो उनकी समाप्ति हो जाती हैं या आन्तरिक क्षीणता के आ जाने से उन समुदायों का स्वयमेव अन्त हो जाता है। पर राज्य एक ऐसा समुदाय है, जो सदा स्थायी रहता है। राज्यक्रान्ति, षड्यन्त्र आदि द्वारा सरकार में परिवर्तन हो जाते हैं। विजय, विभाजन आदि द्वारा राज्य के स्वरूप में भी परिवर्तन आ जाता है - पर राज्य की स्थिरता व स्थायित्व में अन्तर नहीं आता। मनुष्य की रक्षा व हित के लिये राज्य की सत्ता अनिवार्य है, अत: वह कभी मरता नहीं । अन्य समुदायों के अभाव में मनुष्य जीवित रह सकता है, पर राज्य के अभाव में अराजकता छा जायेगी, मत्स्य न्याय हो जायेगा और मनुष्य की जान व माल सुरक्षित नहीं रहेंगे।
(6) अन्य समुदायों को यह अधिकार नहीं होता कि वे अपनी इच्छा व आदेश का पालन कराने के लिये शक्ति का प्रयोग कर सकें। धार्मिक समुदाय अपने अनुयायियों को नरक का डर दिखा सकते हैं; आर्थिक व राजनीतिक समुदाय सामाजिक बहिष्कार व इसी तरह के अन्य उपायों से अपने सदस्यों पर जोर डाल सकते हैं; पर राज्य एकमात्र ऐसा समुदाय है, जो मनुष्यों को अपने आदेशों का पालन कराने के लिये सजा दे सकता है, गिरफ्तार कर सकता है और मृत्युदण्ड तक दे सकता है। राज्य की यह ऐसी विशेषता है, जो अन्य किसी समुदाय में हो ही नहीं सकती।
(7) मनुष्य अपने अन्य समुदाय कैसे बनाएं उनके नियम क्या हों इन बातों पर राज्य नियंत्रण रख सकता है। मनुष्यों को यह अधिकार नहीं कि वे ऐसे समुदाय बना सकें, जिनका उद्देश्य सदाचार के विरुद्ध हो व जिनसे मानव समाज का अहित होता हो । अभिप्राय यह है कि राज्य अन्य समुदायों में हस्तक्षेप कर सकता है और अन्य समुदायों को इस बात के लिये विवश कर सकता है कि वे राज्य के नियन्त्रण में रहें और उसके आदेशों का पालन करें।
राज्य सर्वोपरि समुदाय है
जिस प्रकार राज्य मनुष्यों का एक समुदाय है, वैसे ही चर्च, श्रमी संघ, रेड क्रॉस सोसाइटी आदि अन्य प्रकार के समुदायों में भी मनुष्य संगठित हैं। पर इन समुदायों से राज्यरूपी मानव समुदाय का मुख्य भेद यह है कि वह सर्वोपरि (Supreme) है, अन्य सब समुदायों को उसके नियन्त्रण में रहना पड़ता है। यदि उसके विचार में कोई अन्य समुदाय मनुष्यों के सर्वसामान्य हितों के विरुद्ध कार्य कर रहा हो, तो वह उसके विरुद्ध शक्ति का भी प्रयोग कर सकता है। सर्वोपरिता या प्रभुता राज्यरूपी समुदाय की एक ऐसी विशेषता है जो किसी भी अन्य समुदाय में नहीं पायी जाती।
राज्यरूपी समुदाय का ध्येय उत्कृष्ट जीवन है-मनुष्यों के जो अन्य अनेक प्रकार के समुदाय हैं, वे किसी एक निश्चित उद्देश्य व कतिपय निश्चित प्रयोजनों से संगठित किये जाते हैं। आर्य समाज का उद्देश्य यह है कि वेदों की शिक्षा का प्रचार करें। ईसाइयों के विविध चर्च ईसा की शिक्षाओं का प्रसार करने के लिये कायम हुए हैं। श्रमी संघों की स्थापना श्रमिकों के हितों के संपादन के लिये की गई है, यूनिवर्सिटियों का संगठन उच्च शिक्षा के लिये हुआ है। धनपति लोग कम्पनियाँ इसीलिये बनाते हैं कि परस्पर मिलकर कारोबार में पूंजी लगाएँ और उसके द्वारा धन का उपार्जन करें। विविध राजनीतिक दल इस प्रयोजन से संगठित किये जाते हैं कि अपने विचारों के अनुसार राज्य शासन का संचालन कर सकें। पर राज्यरूपी समुदाय किसी एक निश्चित उद्देश्य व कतिपय निश्चित प्रयोजनों को सम्मुख रखकर संगठित नहीं हुआ है। वह मनुष्यों की सामाजिक भावना का परिणाम है, मानव जीवन के लिये उसकी सत्ता अनिवार्य है और उसका यह यत्न रहता है कि मनुष्यों के सर्वसामान्य हितों का सम्पादन हो और उसके द्वारा मनुष्य उत्कृष्ट जीवन को व्यतीत कर सकने में समर्थ हों। इसी तथ्य को अरस्तु ने इस ढंग से प्रगट किया था- “ राज्य परिवारों और ग्रामों के एक ऐसे समुदाय को कहते हैं, जिसका उद्देश्य पूर्ण व सम्पन्न जीवन को प्राप्त करना हो, जिसका अभिप्राय यह है कि सम्पन्न और सम्मानास्पद जीवन।" इसी तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए अरस्तु ने लिखा था कि प्रत्येक समुदाय किसी-न-किसी हित व कल्याण का सम्पादन करना ही अपना उद्देश्य निर्धारित करता हैं, पर राज्य एक ऐसा समुदाय है, जो कि अन्य सब समुदायों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट है और जिसका उद्देश्य अन्य किसी भी समुदाय की अपेक्षा सर्वाधिक हित व कल्याण को सम्पादित करना है। राज्य और अन्य समुदायों में क्या भेद है, यह अरस्तु के उपर्युक्त कथन द्वारा सर्वथा स्पष्ट हो जाता है।
राज्य और अन्य समुदायों में दो मुख्य भेद हैं-
(1) राज्य अन्य सब समुदायों से उत्कृष्ट है, वह सर्वोपरि है।
(2) अन्य समुदायों का उद्देश्य किसी विशेष हित का सम्पादन करना होता है, पर राज्य मनुष्यों के सर्वाधिक व सर्वोत्कृष्ट हितों को सम्पादित करता है। मनुष्यों का यह सर्वोत्कृष्ट हित क्या है, इस विषय में जनता के विचार सदा एक से नहीं रहे, समय व परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन आता रहता है पर जिस युग में मनुष्यों के सर्वाधिक हित के विषय में जो विचार हों, राज्य का उद्देश्य उन्हीं को सम्पादित करना होता है। वह उत्कृष्ट जीवन की स्थापना में तत्पर रहता है, यही बात उसे अन्य समुदायों में भिन्न व उत्कृष्ट रूप प्रदान करती है।
बहुसमुदायवाद -
राज्य और अन्य समुदायों में जिस भिन्नता का हमने ऊपर प्रतिपादन किया है, उससे यह सूचित होता है कि राज्य अन्य सब समुदायों की अपेक्षा उत्कृष्ट और सर्वोपरि है। अन्य सब समुदाय उसके अधीन हैं व उसके नियन्त्रण में रहते हैं। पर अर्वाचीन काल के अनेक विचारकों ने इस मत का विरोध किया है। उनका कहना है कि राज्य भी अन्य समुदायों के समान एक समुदाय ही है और वह अन्य समदायों का 'प्रभु' व 'नियन्ता' होने के बजाय उनका समकक्ष व सहयोगी मात्र है। उदाहरण के लिये आर्थिक व धार्मिक सम्प्रदायों को लीजिये। प्रत्येक मनुष्य का संबंध किसी-न-किसी धार्मिक समुदाय के साथ होता है। कोई व्यक्ति आर्यसमाज का सदस्य है, तो कोई ईसाई चर्च का । मनुष्य की भक्ति इन धार्मिक समुदायों के प्रति भी वैसी ही होती है, जैसी कि राज्य के प्रति । यदि कभी राज्य किसी धार्मिक समुदाय के विरुद्ध कोई कार्यवाही करना चाहे, तो अनेक मनुष्यों के सम्मुख यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि वे राज्य के प्रति भक्ति को अधिक महत्त्व दें या धार्मिक समुदाय के प्रति भक्ति को । यदि राज्य कोई ऐसा कानून बनाए या ऐसा आदेश दे, जो किसी धार्मिक समुदाय के विरुद्ध हो, तो बहुत से लोग उसका विरोध करने के लिए उद्यत हो जाएंगे। यही बात आर्थिक समुदायों के संबंध में भी कही जा सकती है। आधुनिक काल में मजदूरों और किसानों ने अनेक ऐसे संगठन बनाये हैं, जो बहुत शक्तिशाली है। इन समुदायों द्वारा उत्पादक लोग यह प्रयत्न करते हैं कि आर्थिक उत्पत्ति का संचालन व नियन्त्रण अपने हाथ में रखें। जिस प्रकार राज्य राजनीतिक जीवन का नियन्त्रण व संचालन करता है, ऐसे ही आर्थिक समुदाय आर्थिक जीवन को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। इनके सदस्यों की इन आर्थिक समुदायों के प्रति भक्ति बहुत प्रबल रहती है। प्रश्न यह है कि यह क्यों समझा जाय कि राज्य इन सब समुदायों के ऊपर है? उसे इनके सदृश ही एक समुदाय क्यों न माना जाये, जो कि इनके ऊपर न होकर इनका समकक्ष व सहयोगी मात्र है?
मध्यकालीन यूरोप में चर्च और राज्य एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी रहे हैं। उस समय प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह अनिवार्य था कि वह चर्च का सदस्य हो और चर्च के आदेशों का पालन करें। राजाओं तक पर चर्च अपना नियन्त्रण रखता था। यूरोप के जिन राजाओं ने चर्च के आदेशों की अवहेलना करने का प्रयत्न किया, उन्हें चर्च ने दण्ड भी दिया। मध्यकालीन यूरोप में राज्य एक ऐसा समुदाय था, जो चर्च की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट नहीं था। अधिक-से-अधिक उसे चर्च का समकक्ष कहा जा सकता है।
इस समय भी फासिस्ट, नाजी, कम्युनिस्ट आदि दलों के रूप में ऐसे समुदायों का विकास हो गया है, जिनके प्रति उनके सदस्यों की भक्ति व निष्ठा अत्यन्त उग्र है। अपने राजनीतिक दल के लिए कुछ लोग राज्य की अवहेलना करने में भी संकोच नहीं करते। विभिन्न देशों के कम्युनिस्ट दल अपने सिद्धान्तों के लिये विद्रोह तक करने के लिये उद्यत रहते हैं। 1939-45 के महायुद्ध से पूर्व अनेक यूरोपियन राज्यों से फैसिस्ट व नाजी दल अपने राज्य के खिलाफ इटली और जर्मनी का पक्ष लेने को तैयार रहते थे। इंग्लैण्ड जैसे लोकतन्त्र राज्य श्रमी संघ (ट्रेड यूनियन) की जो शक्ति है, उसके कारण उसके सदस्यों की अपने आर्थिक संघ के प्रति भक्ति बहुत उग्र है। यह सब दृष्टि में रखते हुए क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि राज्य भी एक जनसमुदाय मात्र है और मनुष्यों की भक्ति (एलीजियन्स) एक से अधिक समुदाय के प्रति रह सकती है। राज्य का कार्य प्रधानतया राजनीतिक जीवन का नियन्त्रण है, बाह्य और आभ्यन्तर विपत्तियों से रक्षा करना उसका मुख्य प्रयोजन है। उसे अपने इसी क्षेत्र तक सीमित रहना चाहिये । धार्मिक, आर्थिक व इसी प्रकार का अन्य मामलों में अन्य समुदायों को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने देना चाहिये। शिक्षा का स्वरूप व ढंग कैसा हो, इस विषय में राज्य को सोचने की क्या आवश्यकता है। यह काम उन विश्वविद्यालयों का है, जो कि मनुष्यों के ही समुदाय हैं। यह काम विश्वविद्यालयों को ही करना चाहिये। लोगों का नैतिक जीवन कैसा हो, उनके सदाचार-संबंधी आदर्श कौन-से हों, उनका सामाजिक व्यवहार किस तरह का हो ये सब बातें धार्मिक समुदायों के निर्णय करने की है। राज्य को इन बातों के विषय में सिरदर्दी की क्या आवश्यकता है? इसी प्रकार, आर्थिक उत्पत्ति कैसे की जाय, कारखानों व खेतों में श्रमिकों के काम करने की दशा क्या हो ये प्रश्न मनुष्यों के आर्थिक समुदायों द्वारा निर्धारित करने योग्य हैं। राज्य इनमें हस्तक्षेप क्यों करें? राज्य यह स्वीकार करना चाहिये कि अन्य समुदायों के समान वह भी एक समुदाय ही है और उसका भी एक निश्चित उद्देश्य व प्रयोजन है। राज्य की शक्ति व सत्ता का आधार मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य तो कुछ नहीं है। राज्य रूपी समुदाय को मनुष्यों ने बनाया है, अन्य समुदायों का निर्माण भी मनुष्यों ने ही किया है। जिस प्रकार मनुष्यों का राजनीतिक जीवन राज्य में संगठित है, वैसे ही मनुष्यों का धार्मिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन अन्य समुदायों में संगठित है। जिस प्रकार लोकमत द्वारा राज्य को बल मिलता है, वैसे ही लोकमत द्वारा अन्य समुदायों को भी बल मिलता है। राज्य को अन्य समुदायों के समकक्ष मानने के इस सिद्धान्त को ही "बहुसमुदायवाद" (Pluralism) कहते हैं।
मेकाईवर ने इस दृष्टिकोण को इस ढंग से प्रतिपादित किया है-"हम केवल इस बात से ही इनकार नहीं करते कि राज्य कोई कम्युनिटी है या कम्युनिटी का कोई प्रकार है; हमें निश्चित रूप से यह घोषित करना चाहिये कि राज्य कुटुम्ब व चर्च के वर्ग का एक समुदायमात्र ही है। इन्हीं के समान राज्य का निर्माण भी सदस्यों के एक विशेष प्रकार से संगठित समूह द्वारा, जो कि कतिपय सीमित उद्देश्यों के लिये संगठित हुआ हो, होता है। राज्य का संगठन पूर्ण समाज का संगठन नहीं है। वे सब उद्देश्य जिन्हें मानव जाति प्राप्त करना चाहती है, उन उद्देश्यों के अन्तर्गत नहीं आ जाते, जिनके लिये राज्य का अस्तित्व है। यह स्पष्ट है कि राज्य जिन उपायों द्वारा अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है, वे उन उपायों में से कुछ ही हैं, जिनके द्वारा समाज में रहते हुए मनुष्य अपनी आकांक्षा व उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रयत्नशील रहते हैं।"
बहुसमुदायवाद के इस सिद्धान्त को यदि स्वीकार कर लिया जाय, तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि राज्य में प्रभुता व सर्वोपरिता नहीं होती। पर प्रश्न यह है कि यदि किसी निश्चित भूखण्ड में विद्यमान विविध समुदायों में परस्पर विरोध हो, तो उसका समाधान किस प्रकार किया जाय। आर्थिक समुदायों को ही लीजिये। यह संभव है, कि
उपभोक्ताओं और उत्पादकों, श्रमिकों और पूंजीपतियों व जमीदारों और कृषकों के समुदायों में परस्पर विरोध उत्पन्न हो। उस दशा में इस विरोध को दूर करने के लिये, इसका फैसला करने के लिये कोई तो सर्वोपरि सत्ता होनी ही चाहिये। यह सर्वोपरि सत्ता ही राज्य है। यह भी मान लीजिये कि श्रमिकों और पूंजीपतियों, कृषकों और जमींदारों व उपभोक्ताओं और उत्पादकों में कोई भेद नहीं है; मनुष्यों का सम्पूर्ण आर्थिक जीवन एक संगठन में संगठित हो गया है; जिस प्रकार राज्य मनुष्यों का राजनीतिक समुदाय है, वैसे ही मनुष्यों का एक सर्वाङ्गपूर्ण आर्थिक समुदाय भी बन गया है। इस दशा में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है कि मनुष्यों को आर्थिक हितों और राजनीतिक हितों में विरोध उत्पन्न हो । राज्य की रक्षा व स्थिति के लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी की आवश्यकता होती है। राज्य द्वारा मनुष्यों के जीवन की वह परिस्थिति उत्पन्न होती है, जिससे वे बाह्य और आभ्यन्तर सब प्रकार के भयों से मुक्त रहते हुए अपने हित और कल्याण में व्याप्त रहें। इस स्थिति को उत्पन्न करने वाले समुदाय (राज्य) को यह अधिकार होना ही चाहिये कि वह आवश्यकता पड़ने पर मनुष्यों के अन्य समुदायों को अपने नियन्त्रण में रख सकें।
यह सही है कि आधुनिक युग में मनुष्यों के अन्य समुदायों का महत्त्व भी बहुत अधिक है। पर जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं, अन्य समुदाय किन्हीं विशिष्ट उद्देश्यों को सम्मुख रखकर संगठित होते हैं, जबकि राज्य मनुष्यों के सार्वजनिक व सर्वसामान्य हित को सम्मुख रखकर स्थापित किया जाता है। राज्य के अभाव में अराजकता छा जायेगी, मत्स्य न्याय हो जायेगा। मनुष्य के जीवन, पालन व उन्नति के लिये एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता है, जो सबको अपने नियन्त्रण में रखें, जो सर्वोपरि हो। अन्य समुदायों का मानव जीवन में चाहे कितना ही महत्त्व क्यों न हो, पर वे राज्य की समता नहीं कर सकते। मानव जीवन में एक नियन्ता व सर्वोपरि सत्ता का रहना आवश्यक है। इसी सत्ता को हम राज्य कहते हैं।
(4) समुदायों का समुदाय-राज्य (State as an association of associations)
राज्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कतिपय विचारकों ने राज्य तथा अन्य समुदायों के पारस्परिक संबंधों को विशेष महत्त्व दिया है और उन्हीं के आधार पर राज्य का लक्षण किया है। इस प्रकार के विचारकों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है - एकसमुदायवाद के समर्थक (Monists) और बहुसमुदायवाद के समर्थक (Pluralists)। एकसमुदायवाद के समर्थक राज्य को सब मानवसमुदायों में सर्वोपरि व सर्वोत्कृष्ट मानते हैं और अन्य सब समुदायों को राज्य के अधीन समझते हैं। प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक अरिस्टोटल इसी विचारधारा के अनुयायी थे। उनके अनुसार राज्य “परिवारों और ग्रामों के एक समुदाय" का नाम है। जिस युग में अरस्तु हुए, उस समय ग्रीस में बहुत-से छोटे-छोटे नगर-राज्यों (City States) की सत्ता थी। इन नगर राज्यों में अनेक ग्राम संस्थाएँ (Village Commu nities) और परिवार ( families) अन्तर्गत होते थे। प्रत्येक परिवार का एक अपना संगठन होता था, जिसके अध्यक्ष या मुखिया को 'कुलमुख्य' कहते थे। ग्राम संस्थाएँ भी पृथक् रूप से संगठित होती थीं, जिनके मुखिया 'ग्रामीण' कहलाते थे। राज्य इन दोनों की तुलना में ऊँचा समुदाय था, जिसमें ये निम्नवर्ग के समुदाय अन्तर्गत होते थे। इस प्रकार अरस्तु ने राज्य को 'समुदायों का एक ऐसा सर्वोपरि समुदाय' प्रतिपादित किया, जिसका उद्देश्य संपन्न जीवन की प्राप्ति हो। इस विचार के अनुसार अन्य सब समुदाय राज्य के समकक्ष न होकर उससे हीन स्थिति रखते हैं और राज्य की स्थिति उनकी तुलना में उत्कृष्ट व उच्चतर होती है।
सोलहवीं सदी में बोदा (Bodin) नामक फ्रेंच विचारक ने भी अरस्तु के विचार का समर्थन करते हुए राज्य के स्वरूप को इस ढंग से स्पष्ट किया था “राज्य परिवारों और उनके सामूहिक अधिकार में विद्यमान सत्ताओं का एक ऐसा समुदाय है, जिसका शासन एक सर्वोपरि शक्ति और विवेक द्वारा होता है।" बोदा के इस लक्षण के अनुसार राज्य बहुत-से पारिवारिक समुदायों की शक्ति और सम्पत्ति के उस सामूहिक स्वरूप का नाम है, जिसका शासन एक विधिवत् निर्मित सरकार द्वारा होता है।
आधुनिक युग में फासिस्ट विचारकों ने राज्य को अत्यधिक महत्त्व देते हुए उसे सर्वोपरि समुदाय और अन्य सब समुदायों को उसके अन्तर्गत व उसके साधनभूत रूप में प्रतिपादित किया है। फासिस्ट सिद्धान्त के अनुसार राज्य का निर्माण व्यक्तियों द्वारा न होकर 'राष्ट्रीय दृष्टि से क्रियाशील व्यक्तियों के समूहों' द्वारा होता है। जिस प्रकार शरीर के कई अवयव होते हैं, वैसे ही राज्य के भी अनेक अंग होते हैं। उपयोगी आर्थिक व सामाजिक कार्यों में लगे हुए व्यक्ति जिन समूहों या समुदायों में संगठित होते हैं, उन्हीं से मिलकर राज्य का निर्माण होता है, उन्हीं को हम राज्य के अंग समझ सकते हैं, पेशे व कार्य पर आधारित इन समूहों या ग्रुपों की सत्ता स्वाभाविक और आवश्यक है। प्रत्येक मनुष्य के लिये यह स्वाभाविक और उचित है कि जो अन्य व्यक्ति उसी के सदृश पेशे व कार्य कर रहे हों, उनके साथ मिलकर वह अपना एक समूह या समुदाय बनाए। इन समुदायों का संगठन इस ढंग से होना चाहिये कि अन्य समुदायों के साथ सहयोग करके राष्ट्रीय हित के सम्पादन में समर्थ हो सकें। राज्य की पार्लियामेंट में आर्थिक दृष्टि से संगठित इन समुदायों को ही प्रतिनिधित्व मिलना चाहिये। पार्लियामेंट में प्रतिनिधियों के चुनाव के लिये प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र (Territorial constituencies) न होकर पेशे व आर्थिक कार्य पर आधारित समुदायों को ही अपने प्रतिनिधि भेजने का अवसर दिया जाना चाहिये। इस प्रकार फासिस्ट विचारकों के अनुसार राज्य ऐसे समुदायों का सर्वोपरि समुदाय है जो कि आर्थिक कार्यों व पेशों के आधार पर संगठित हों। अन्य समुदाय राज्य के समकक्ष नहीं हैं, उनकी स्थिति राज्य की तुलना में हीन है। अन्य समुदाय आर्थिक आधार पर संगठित होते हैं और राज्यरूपी सर्वोच्च समुदाय के साथ वे राष्ट्रीय हित के लिये सहयोग करते हैं।
आधुनिक युग के बहुसमुदायवादी विचारक राज्य के इस स्वरूप का समर्थन नहीं करते। उनके अनुसार मनुष्यों की सामाजिकता के अनेक पहलू हैं। इन सबको राज्य के क्षेत्र में ला सकना संभव नहीं है। धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि दृष्टियों से भी मनुष्य अपने को अनेक समुदायों में संगठित करता है। राजनीतिक दृष्टि से मुनष्यों ने अपना जो समुदाय बनाया है, राज्य उसी का नाम है। पर धार्मिक, आर्थिक आदि दृष्टि से भी मनुष्यों ने अपने विविध समुदाय संगठित किये हैं, जिनकी स्थिति राज्य के ही समकक्ष है। राज्य को उनसे ऊँचा मानना किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। इसलिये हमें राज्य को समुदायों का समुदाय' न मानकर अन्य समुदायों का समकक्ष ही समझना चाहिये। क्योंकि अन्य समुदाय भी मनुष्यों के लिये उतने ही स्वाभाविक व उपयोगी हैं जितना कि राज्य, इसलिए राज्य को उनसे उत्कृष्ट व सर्वोपरि नहीं माना जा सकता। राज्य का कर्तव्य केवल इतना है कि वह मनुष्यों के सामूहिक संबंधों की समूची व्यवस्था में एक प्रकार की एकता व एकरूपता को स्थापित करे।
बहुसमुदायवाद के विषय में पिछले प्रकरण में विवेचना की जा चुकी है। इस विचारधारा के अनुसार राज्य के अतिरिक्त अन्य समुदायों का महत्त्व भी इतना अधिक बढ़ जाता है कि उन पर किसी नियन्त्रण के अभाव में समाज में अराजकता की दशा उत्पन्न हो सकती है। इसमें सन्देह नहीं कि प्रभुता या सर्वोपरिता राज्य की एक ऐसी विशेषता है, जो अन्य समुदायों में नहीं पायी जाती। बहुसमुदायवाद की अपेक्षा एकसमुदायवाद तथ्य के अधिक अनुकूल है। समाज में व्यवस्था कायम रखने के लिये यह आवश्यक है कि एक ऐसी सर्वोपरि सत्ता हो जो व्यक्तियों व उनके विविध समुदायों के कार्यों व गतिविधि पर नियन्त्रण रख सकें। अरिस्टोटल ने अपने युग की परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए राज्य के जिस स्वरूप का प्रतिपादन किया था, वह वर्तमान युग में भी तथ्य के अनुरूप है। आधुनिक काल में भी राज्य के संबंध में यह बात कही जा सकती है कि विविध मानव समुदाय उसके क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत है और वह उन सब पर अपना नियन्त्रण इस ढंग से स्थापित करता है ताकि वे मनुष्यों के सर्वसामान्य हितों के साधन में सहायक हों।
(5) वर्ग संगठन के रूप में राज्य का स्वरूप (State as a class structure)
कतिपय विचारकों के अनुसार राज्य एक ऐसे विशिष्ट वर्ग (Class) का संगठन मात्र है, जो कि अन्य वर्गों पर हावी हो। इस मत के प्रमुख प्रवर्तक वे समाजवादी (Socialist) विचारक हैं, जो राज्य को एक वर्ग विशेष द्वारा अन्य वर्गों का शोषण करने का साधनमात्र समझते हैं। कार्ल मार्क्स के मत में आधुनिक राज्यसंस्था पूंजीपति वर्ग द्वारा गरीबों के शोषण का साधन है। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक सामाजिक संगठन में अनेक ऐसे वर्ग होते हैं, जिनमें परस्पर संघर्ष होता रहता है। इतिहास में हमें पाँच प्रकार के सामाजिक संगठन मिलते हैं- (1) आरम्भिक समाज, (2) दासों पर आश्रित समाज, (3) सामन्तवादी पद्धति पर आश्रित समाज (4) पूंजीवाद पर आश्रित समाज और (5) समाजवादी समाज। इन विविध सामाजिक संगठनों में वर्ग संघर्ष की सत्ता स्पष्ट रूप से रही है। केवल आरंभिक समाज वर्ग संघर्ष से शून्य था, क्योंकि उसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकता के पदार्थों का स्वयमेव उत्पादन कर लेता था और किसी को दूसरों का शोषण करने का अवसर नहीं मिलता था। दासप्रथा और सामन्त-पद्धति के युगों में ऐसी दशा रही कि उत्पादन के साधन एक वर्ग विशेष के स्वामित्व में आ गये। यह वर्ग स्वयं श्रम नहीं करता था, अपितु एक ऐसे वर्ग से जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं थे, श्रम कराके स्वयं आराम से जीवन व्यतीत किया करता था। दास प्रथा के युग में कतिपय कुलीन लोग भूमि के स्वामी बन गये और दासों के श्रम से अनाज आदि का उत्पादन कराने लगे। सामन्तपद्धति के युग में खेती का कार्य अर्धदासों (Serf) द्वारा किया जाता था, जो स्वयं भूमि के स्वामी नहीं होते थे। आधुनिक पूंजीवादी युग में पूंजी आदि उत्पादन के साधन एक वर्ग विशेष के हाथों में हैं, जो सम्पत्ति व पूंजी से विहीन मजदूर वर्ग के श्रम को क्रय करके आर्थिक उत्पादन का कार्य करता है। राज्य संस्था एक ऐसा साधन रहा है, जिसकी सहायता या बल यह सम्पत्तिशाली (भू स्वामी व पूंजीपति वर्ग दासों, अर्धदासों व मज़दूरों का शोषण करता रहा है। आधुनिक पूंजीवादी युग के संबंध में कार्ल मार्क्स के ये शब्द उल्लेखनीय है - " पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य पूंजीपतिवर्ग के हाथों में एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा वह श्रमजीवी वर्ग को दासता के पाश में बांधे रखकर उस पर निरंकुश शासन करता है।" इसी कारण समाजवादी यह मानते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य जानबूझकर ऐसे साधनों, कार्यों व नीति का प्रतिपादन करता है, जिससे श्रमजीवी वर्ग का अधिक-से-अधिक शोषण हो। इसका प्रधान लक्ष्य श्रमजीवियों के श्रम का अधिकतम अतिरिक्त मूल्य (Surplus Value) प्राप्त कर लेना होता है।
लेनिन के अनुसार राज्य सदा ही एक विशिष्ट वर्ग का संगठन मात्र रहा है और उसका स्वरूप सदा ही ऐसा रहेगा, जिससे कि किसी एक विशिष्ट वर्ग का हित साधन होता रहे राज्य कभी ऐसा रूप प्राप्त नहीं कर सकता, जिसके कारण कि सम्पूर्ण जनता के हित का साधन हो सके या जिसमें विविध आर्थिक वर्ग परस्पर सहयोग या समझौते से कार्य कर सकें । लोकतन्त्रवादी लोग राज्य से जो यह आशा करते हैं कि वह जनता के सार्वजनीन हितों का साधक हो सकता है, सर्वथा निरर्थक है। इसीलिये जब पूंजीवादी व्यवस्था का अन्त होकर समाजवादी व्यवस्था स्थापित हो जायेगी, तब भी राज्य एक विशिष्ट वर्ग के हितों का ही साधक रहेगा। उस व्यवस्था में राज्य सर्वसाधारण किसान मज़दूर वर्ग के हितों का साधन करेगा। तब वह पूंजीपतियों या ऐसे वर्गों को, जो श्रमजीवी न हों, हितसाधन नहीं कर सकेगा। इसी कारण समाजवादी रूस के संविधान में केवल उन बालिग पुरुषों व स्त्रियों को वोट का अधिकार दिया गया है, जो 'समाज' के लिये हितकारी व उत्पादन कार्य में सहायक श्रम करके अपनी आजीविका कमाते हों। समाजवादी विचारक इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि रूस से स्थापित व्यवस्था भी सब वर्गों के हितों का संपादन न करके केवल एक वर्ग ( श्रमजीवी वर्ग) के हितों का ही सम्पादन करती है। यह स्वाभाविक व उचित भी है. क्योंकि राज्य सदा किसी विशिष्ट वर्ग के हितों का प्रतिपादक रहा है और राज्यसंस्था का स्वरूप ही ऐसा है कि वह किसी विशिष्ट वर्ग के हितों का ही सम्पादन कर सकती है। पुराने राज्यों (दासप्रथा, सामन्त पद्धति और पूंजीवाद पर आश्रित) द्वारा जिस वर्ग का हित होता था वह अल्पसंख्यक था, उसमें श्रमजीवी वर्ग का शोषण होता था। पर समाजवादी राज्य जिस वर्ग के हितों का सम्पादन करता है वह बहुत विशाल है और इस राज्य का ध्येय यही रहता है कि अन्य वर्गों का अन्त कर एक वर्गविहीन समाज की स्थापना की जाए। पर जब यह समय आ जायेगा, जब श्रमजीवियों के अतिरिक्त मानव समाज में कोई अन्य वर्ग रह ही नहीं जायेगा, तो राज्य की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इस प्रकार समाजवादियों और अराजकतावादियों (Anarchists ) में इस प्रश्न पर कोई मतभेद नहीं है कि अन्त में एक ऐसी दशा उत्पन्न कर दी जानी चाहिये, जिसमें राज्य स्वयमेव समाप्त हो जाए। श्रमजीवी वर्ग को भी राज्य की तभी तक आवश्यकता है, जब तक कि श्रमजीवी वर्ग का शोषण करनेवाले पूंजीपति तत्व नष्ट नहीं हो जाते। उनका अन्त होते ही राज्य को भी आवश्यकता नहीं रहेगी।
इस प्रकार समाजवादियों के मत में राज्य का आधार वर्ग-व्यवस्था ही है। क्योंकि समाज में अनेक वर्ग है और इन वर्गों के हितों में विरोध रहता है, अतः राज्य केवल उस वर्ग के हितों का साधन करता है, जिसके हाथों में शक्ति हो। यह शक्ति सदा एक ही वर्ग के हाथों में नहीं रहती । मध्ययुग में यह शक्ति जागीरदारों या सामन्तों के हाथों में थी। आधुनिक युग में यह शक्ति पूंजीपति वर्ग के हाथों में आ गई और अब समाजवादी राज्यों में यह शक्ति किसान-मजदूर वर्ग के हाथों में आती जा रही है। जब तक समाज में विविध वर्गों की सत्ता रहेगी, राज्य की आवश्यकता भी बनी रहेगी, क्योंकि राज्य द्वारा एक विशिष्ट वर्ग अपने हितों के साधन में समर्थ रहता है।
राज्य का शक्तिमूलक रूप (State as power system) -
कतिपय विचारकों ने राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए शक्ति के सिद्धान्त को बहुत महत्त्व दिया है। उनके अनुसार राज्य संस्था शक्ति पर आधारित है। इस विचारधारा का प्रारंभ इटली के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ मैकियावली (1461-1527) द्वारा किया गया था। मैकियावली के अनुसार मनुष्य को प्रेरणा देने वाली दो शक्तियां हैं, स्वार्थ और भय मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी और लालची होता है। पर साथ ही, भय भी मनुष्य के जीवन को प्रभावित करता है। मनुष्य जो राज्य संस्था में संगठित हुए, उसका कारण भय ही था। अतः राजा को ऐसी नीति बरतनी चाहिये, जिससे प्रजा उससे डरती रहे। राज्य का आधार शासकों की शक्ति ही है। जर्मन विचारक नीत्से का कथन था कि राज्य की आज्ञाओं का पालन इसलिए किया जाता है, क्योंकि वह सबसे अधिक शक्तिशाली है। यदि उसकी आज्ञाओं का पालन न किया जाए, तो उसके पास वह शक्ति है जिससे वह बलात् अपनी आज्ञाओं को मनवा सकता है। एक अन्य जर्मन विचारक ट्रीट्स्के ने भी इसी बात का प्रतिपादन किया है। वह राज्य को 'शक्ति का साक्षात् रूप' कहा करता था। अंग्रेज दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर ने भी राज्य को शक्ति का परिणाम बताया है। यूरोप के अन्य भी बहुत से विचारकों ने राज्य के स्वरूप पर विचार करते हुए शक्ति के तत्व को बहुत महत्त्व दिया है। भारत के प्राचीन राजनीतिकार भी राज्य में 'दण्ड' या शक्ति को बहुत महत्त्व देते थे और 'दण्ड' को ही राज्य का आधार मानते थे। हिटलर के नेतृत्व में जब जर्मनी में नाजी व्यवस्था कायम हुई, तो वहाँ के नाजी विचारकों ने भी अपने सिद्धान्त का आधार शक्ति को ही माना ।
वर्ग संगठन और शक्ति सिद्धान्त में सामंजस्य
जो लोग राज्य को एक वर्ग संगठन मानते हैं, वे भी यही प्रतिपादित करते हैं कि राज्य में एक ऐसा शक्तिशाली वर्ग रहता है जो अन्य वर्गों का शोषण करता है और उन्हें अपने हित के लिये प्रयुक्त करता है। ओपेनहोमर के अनुसार जो वर्ग राज्य स्थापित करता है, उसे हम विजेता वर्ग कह सकते हैं। अन्य वर्ग उसकी प्रजा होते हैं। राज्य संस्था के लिये यह आवश्यक है कि एक वर्ग विजेता या शासक हो और अन्य वर्ग पराजित, शासित या प्रजा हों। क्योंकि विजेता शक्ति द्वारा विजय प्राप्त करता है, अतः वर्ग- संगठन रूपी राज्य का आधार शक्ति ही होती है। कार्ल मार्क्स सदृश समाजवादियों का वर्ग संघर्ष का विचार भी शक्तिसिद्धान्त का ही एक रूप है। इसलिए वर्ग, संगठन और शक्ति के सिद्धान्तों में बहुत कुछ समता व सामंजस्य है।
इन सिद्धांतों की आलोचना-
राज्य को वर्गसंगठन मानना या शक्तिमूलक समझना सर्वथा सत्य नहीं है, यद्यपि राज्यसंस्था में इन तत्वों का पर्याप्त स्थान है। यह सही है कि वर्ग संगठन व शक्ति राज्य के महत्त्वपूर्ण तत्व हैं, उन्हें राज्य का आधार नहीं माना जा सकता। पर उनका पालन वे इसलिये भी करते हैं, क्योंकि वे सार्वजनिक इच्छा के मूर्तरूप होते हैं। राज्यसंस्था मनुष्यों की समाजिकता का परिणाम है। समाज या समुदाय बनाकर रहने का मनुष्य का जो स्वभाव है, उसी के कारण राज्य का संगठन हुआ है। अतः राज्य का ऐसा स्वरूप तथ्य के अनुकूल नहीं है, जिसमें केवल शक्ति के तत्व को महत्त्व दिया गया हो।
( 6 ) कानूनी व्यवस्था के विधायक के रूप में राज्य का स्वरूप
कतिपय विचारकों ने राज्य के स्वरूप का विवेचन करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि राज्य ही एकमात्र ऐसी संस्था व समुदाय है जिसे क़ानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। मानव समाज में जो कानूनी व्यवस्था विद्यमान है उसका विधायक राज्य ही है। राज्य ही कानून का उद्गम स्थान है। राज्य रूपी समुदाय में जो व्यक्ति सम्मिलित होते हैं, वे सब राज्य द्वारा निर्मित व स्वीकृत कानूनों को स्वीकार करने के लिये विवश रहते हैं, अतः राज्य को हमें कानूनी व्यवस्था के विधायक के रूप में ही मानना चाहिये। इस विचारसरणी के प्रमुख प्रतिपादक श्री विलोबी हैं। इसी दृष्टिकोण को सम्मुख रखकर उन्होंने राज्य का लक्षण इस प्रकार किया है- “ राज्य वह राजनीतिक व्यक्ति व सत्ता है जिसे क़ानून बनाने का अधिकार प्राप्त हैं। " राज्य के अतिरिक्त किसी अन्य समुदाय को यह अधिकार प्राप्त नहीं होता कि वह क़ानूनों का निर्माण कर सके। अन्य समुदाय नियम अवश्य बनाते हैं, पर उनका पालन कराने के लिये वे शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते। नियमों और क़ानूनों में मुख्य भेद यही है कि नियमों का पालन व्यक्ति की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है। उनका पालन कराने के लिये शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता। पर क़ानूनों के पालन के लिये व्यक्ति विवश होते हैं और उनके लिये शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है। एक अन्य स्थान पर विलोबी ने कानूनी व्यवस्था के विधायक के रूप में राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए अपने विचार को इस ढंग से स्पष्ट किया है- “मानवस्वरूप व्यक्तियों के उस समूह को राज्य कहते हैं जिसे ऐसी सुसंगठित सामूहिक कम्युनिटी का रूप प्राप्त हो और जिसके ऊपर एक ऐसी शासक शक्ति विद्यमान हो जो उन आदेशों का उद्गम स्थान मानी जाती हो, जो कि क़ानूनी रूप से और साधारणतया नैतिक रूप से कम्युनिटी के अन्तर्गत सब व्यक्तियों पर अनिवार्य ढंग से लागू होते हैं।" इस लक्षण के अनुसार राज्य व्यक्तियों का एक ऐसा सुसंगठित समुदाय है, जिसमें एक ऐसी शासक-शक्ति की सत्ता हो जिस द्वारा जारी किये गये आदेशों का पालन करना सब व्यक्तियों के लिये क़ानूनी व नैतिक रूप से आवश्यक हो। राज्य के इस स्वरूप में उसकी प्रभुत्व शक्ति सम्पन्नता पर ही विशेष बल दिया जाता है और यह प्रतिपादित किया जाता है कि राज्य ही मानव समाज में ऐसी व्यवस्था को स्थापित करने वाला है जिसको स्वीकार करना प्रत्येक व्यक्ति के लिये कानूनी व नैतिक रूप से अनिवार्य है।
इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि सर्वोपरिता व कानूनी व्यवस्था का संस्थापक होना राज्य की एक अनिवार्य विशेषता है । पर राज्य के स्वरूप को केवल क़ानून को अत्यधिक महत्त्व देने से स्पष्ट नहीं किया जा सकता। क़ानून का भी राज्य में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, पर राज्य संस्था में वही सब कुछ नहीं है। आधुनिक युग में राज्य की सत्ता का प्रयोजन केवल क़ानूनी व्यवस्था को स्थापित करना ही नहीं रह गया है, वह लोकहित व सामूहिक कल्याण के लिये भी प्रयत्न करता है और जनता राज्य से ऐसे अनेक कार्यों की आशा करती है जिनका क़ानूनी व्यवस्था के साथ कोई संबंध नहीं है। इस दशा में क़ानूनी व्यवस्था के विधायक के रूप में राज्य के स्वरूप का प्रतिपादित करना समुचित नहीं समझा जा सकता। पर यह स्पष्ट है कि कानूनी व्यवस्था स्थापित करना राज्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य अवश्य है।
(7) राज्य का स्वरूप उपसंहार
राजनीतिशास्त्र के विविध विद्वानों ने राज्य के लक्षण किस प्रकार किये हैं, इस पर हम इसी अध्याय में पहले प्रकाश डाल चुके हैं। साथ ही, हम यह भी प्रतिपादित कर चुके हैं कि विविध दृष्टिकोणों से विभिन्न विचारकों ने राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन किस ढंग से किया है। राज्य क्या है, उसका क्या स्वरूप है इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर सब विचारक एकमत नहीं है। युग की परिस्थिति और विचारधारा के विशिष्ट दृष्टिकोण के प्रभाव से राजनीतिशास्त्र के विविध विद्वानों ने राज्य के स्वरूप को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रतिपादित किया है। एक और कार्ल मार्क्स जैसे विचारक राज्य को वर्ग संगठन हित व लोककल्याण का सम्पादन करनेवाला सर्वोत्कृष्ट मानव समुदाय समझते हैं। राज्य के
स्वरूप के सम्बन्ध में इन विविध दृष्टिकोणों व विचारधाराओं का हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं और इस ग्रन्थ के अगले अध्यायों में हम इन पर विशद रूप से भी प्रकाश डालेंगे। पर यहाँ उनका फिर से संक्षेप के साथ उल्लेख करना पाठकों के लिये उपयोगी सिद्ध होगा
(1 ) ध्येय और कार्यों के आधार पर राज्य का स्वरूप-
राजनीतिशास्त्र में व्यक्तिवाद (Individualism), समाजवाद (Socialism), उपयोगितावाद (Utilitarianism), भाववाद ( Idealism), अराजकतावाद (Anar-chism) आदि अनेक विचारधाराएँ हैं। इनके विचारों में बहुत अधिक भेद है। राज्य के स्वरूप के विषय में भी इनके मत भिन्न-भिन्न हैं।
व्यक्तिवादी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं। अतः उनके अनुसार उसके कार्यक्षेत्र को अधिक-से-अधिक सीमित रखना चाहिये। उसका कार्य केवल इस अंश तक परिमित रहना चाहिये कि वह देश की बाह्य और आभ्यन्तर शत्रुओं से रक्षा कर सके। उसका स्वरूप केवल 'पुलिस' के दृश्य ही होना चाहिये।
उपयोगितावादी विचारधारा के अनुसार राज्य एक ऐसी संस्था है, जिसका प्रयोजन अधिकतम मनुष्यों का अधिकतम सुख सम्पादित करना है। उसके उद्देश्य, कार्य व स्वरूप क्या हों, इसका निर्धारण उपयोगिता को दृष्टि में रखकर ही किया जाना चाहिये।
समाजवादी राज्य को एक वर्गसंगठन के रूप में मानते हैं। उस द्वारा केवल किसी विशिष्ट वर्ग के हितों का ही सम्पादन होता है। ऐतिहासिक विकास के साथ -साथ राज्य संस्था द्वारा अपने हितों को सम्पादित करने वाले इस वर्ग में अन्तर आता जाता है
भाववादी विचारकों के अनुसार राज्य एक ऐसी संस्था है जिसका अपना पृथक् व्यक्तित्व व अपनी पृथक् इच्छा होती है और जिसके व्यक्तित्व व इच्छा में राज्य के अन्तर्गत सब व्यक्तियों के व्यक्तित्व व इच्छाएं अन्तर्हित रहती हैं।
राज्य के स्वरूप के संबंध में ये सब मन्तव्य विशिष्ट दृष्टिकोण व विचारधारा के परिणाम हैं। पर इन द्वारा राज्य का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता और न इनके आधार पर राज्य का कोई ऐसा लक्षण ही किया जा सकता है जिससे उसका स्वरूप भलीभाँति स्पष्ट हो सके।
(2) क़ानून की दृष्टि से राज्य का स्वरूप
अनेक विचारकों ने राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कानून के दृष्टिकोण को महत्त्व दिया है। मनुष्यों के जिस समुदाय में ऐसे आदेश या क़ानून जारी करने की शक्ति हो, जिनका पालन करना उस समुदाय के अन्तर्गत सब व्यक्तियों के लिये अनिवार्य हो, उसी का नाम 'राज्य' है। विलोबी ने इस दृष्टिकोण से राज्य का लक्षण इस प्रकार किया है- “राज्य वह राजनीतिक व्यक्ति व सत्ता है, जिसे क़ानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। " राज्य के क़ानूनी आधार को महत्त्व देने वाले विचारक राज्य को अन्य समुदायों से इसी आधार पर भिन्न करते हैं कि वह आदेश दे सकने या कानून जारी कर सकने की शक्ति रखता है। राज्य अपने आन्तरिक क्षेत्र में प्रभुत्वशक्ति रखता है अपने आदेशों को सबसे मनवा सकने की सामर्थ्य रखता है। यही उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि से भी राज्य एक पृथक् इकाई होता है और अन्य राज्यों के साथ उसका क्या संबंध हो, इस विषय में भी उसकी प्रभुता निर्विवाद होती है। अतः यदि राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन करना हो, तो हमें क़ानूनी दृष्टिकोण से ही उस पर विचार करना चाहिये। कानून की दृष्टि से राज्य की सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्नता को महत्त्व देनेवाले ये विचारक राज्य की एक उत्तम लक्षण कर सकने में अवश्य समर्थ होते हैं, पर उससे राज्य का स्वरूप भलीभाँति स्पष्ट नहीं हो पाता।
(3) अन्य समुदायों के साथ संबंध के आधार पर राज्य का स्वरूप-
राज्य का अन्य मानव समुदायों के साथ क्या संबंध है, अन्य समुदायों और राज्य में क्या भेद है इसका विवेचन करके अनेक विचारक राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। इसीलिये राज्य को समुदायों का समुदाय' माना गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि जबकि अन्य सब समुदाय मनुष्यों के किसी विशिष्ट हित का संपादन करते हैं, राज्य उनके सार्वजनिक व व्यापक हितों के संपादन द्वारा उन्हें उत्कृष्ट व श्रेष्ठ जीवन को प्राप्त कराने में साधक होता है। इसी दृष्टि से वह अन्य समुदायों के उद्देश्यों, कार्यों व गतिविधि पर नियन्त्रण भी रखता है। इन विचारकों के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं, जो समुदाय बनाकर रहता है और समुदाय द्वारा ही अपनी उन्नति करता है। राज्य मनुष्यों की सामाजिकता की ही सर्वोत्कृष्ट रूप है।
(4) आवश्यक तत्वों के आधार पर राज्य का स्वरूप-
हम इसी अध्याय में ऊपर लिख चुके हैं कि राज्य के चार मुख्य व आवश्यक तत्व हैं जनता, भूमि, शासन और प्रभुता इनके अतिरिक्त स्थायित्व और समानता को भी - राज्य का तत्व माना गया है। जिस मानव समुदाय में ये सब तत्व विद्यमान हों, वही राज्य है। इस आधार पर राज्य के जो विविध लक्षण किये गये हैं, वे राज्य के स्वरूप को भलीभाँति स्पष्ट कर देते हैं। गार्नर के अनुसार, “राज्य मनुष्यों के उस समुदाय का नाम है, जो संख्या में चाहे अधिक हो या न्यून, पर जो किसी निश्चित भूखण्ड पर स्थायी रूप से बसा हुआ हो, जो किसी भी बाह्य शक्ति के नियन्त्रण से पूर्णतया व प्रायः स्वतन्त्र हो और जिसमें एक ऐसी सुसंगठित सरकार विद्यमान हो जिसके आदेशों का पालन करने के लिए उसे भूखण्ड के प्रायः सब निवासी अभ्यस्त हो।" राजनीतिशास्त्र के अन्य भी अनेक विद्वानों ने राज्य के लक्षण इन्हीं आवश्यक तत्वों के आधार पर किये हैं। इन लक्षणों को हम इसी अध्याय में ऊपर उद्धृत कर चुके हैं। गेटल के शब्दों में, “यदि इनमें से किसी एक भी तत्व का अभाव हो, तो राज्य नष्ट हो जाता है। राज्य में इन सबका सम्मिलित रूप से रहना आवश्यक है। राज्य न जनता है, न भूमि है, न सरकार है पर इन सबसे मिलकर बना है। साथ ही, राज्य में वह एकता भी होनी चाहिये जिसके कारण वह एक पृथक् व स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता बनता है। अतः हम राज्य का यह लक्षण कर सकते हैं। कि वह व्यक्तियों के ऐसे समाज का नाम है, जो एक निश्चित प्रदेश पर स्थायी रूप से बसा हुआ हो, जिस पर कोई बाह्य क़ानूनी नियन्त्रण न हो और जिसमें एक ऐसी सुसंगठित सरकार की सत्ता हो जो कि अपने अधिकार क्षेत्र में विद्यमान सब व्यक्ति व समुदायों के लिए कानून बनाये व उनका प्रयोग करें। "
राज्य को चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए. उसमें राज्य का यह लक्षण अवश्य लागू होगा। इतिहास के विभिन्न युगों में राज्य के जो स्वरूप रहे हैं, उन सबमें भी यह लक्षण समान रूप से लागू होता है। अतः राज्य के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये यही आधार सर्वोत्तम है कि उसका निर्माण किन आवश्यक तत्वों द्वारा होता है। राज्य के ध्येय, प्रयोजन व कार्यक्षेत्र के संबंध में मतभेद हो सकता है, पर उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये इससे अधिक उत्तम अन्य कोई आधार नहीं है।