राजनीति में शक्ति और सत्ता (Power and Authority in politics)
राजनीति में शक्ति और सत्ता (Power and Authority in politics)
राजनीतिक संगठन उन संरचनाओं द्वारा निर्मित होते हैं जो कि बल के प्रयोग का नियमन करती हैं तथा सामाजिक सहयोग और नेतृत्व से सम्बन्धित होती हैं। इनमें शक्ति और सत्ता का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है शक्ति व्यक्तियों समूहों तथा भौतिक परिस्थितियों के प्रतिरोध के होते हुए भी स्वतन्त्र कार्य करने की क्षमता का नाम है। यह आदेश देने की क्षमता है। उसे अपनी इच्छा को प्रभावशाली ढंग से पूर्ण करने की योग्यता के रूप में देखा जा सकता है। और यदि आवश्यकता पड़े तो दूसरों पर थोपा जा सकता है। इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनमें दूसरे राज्यों पर अनधिकृत रूप से अधिकार किया गया अथवा उन पर विजय प्राप्त की गयी, किन्तु बाद में धीरे-धीरे उन्हें जनस्वीकृति प्राप्त हो गयी और वे सत्ता बन गये। सत्ता के बिना शक्ति असंस्थायीकृत, असाधनात्मक, परिस्थितिजन्य एवं अनिश्चित होती है। सत्ता संस्थायीकृत होने के कारण विषय क्षेत्र और प्रकृति से निश्चित होती है। उसके निर्देशों को बाध्यकारी मानकर पालन किया जाता है। सत्ता निश्चित स्पष्ट तथा प्रकट होती है, इसलिए उसका विभिन्न स्तरों पर व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा समूहों में प्रत्यायोजन किया जा सकता है। शक्ति में इस प्रकार की स्पष्टता एवं निश्चितता का अभाव होता है।
चार्ल्स ई. मेरियम ने 'Political Power' में शक्ति और सत्ता का कोई भेद नहीं किया है, लेकिन वास्तव में इस प्रकार का दृष्टिकोण उचित नहीं है। शक्ति दमन का एक यन्त्र है और इसका प्रभाव भौतिक होता है। सत्ता सहमति पर आधारित हो सकती है और इसके साथ ही अधिक प्रभावदायक हो सकती है अनेक राजनीतिक और सामाजिक संस्थाएँ ऐसी हैं जो कि बहुत अधिक सत्ता का प्रयोग करती हैं, किन्तु केवल सहमति पर आधारित हैं। शिक्षक, पत्रकार और जनसेवक की सत्ता शक्ति पर आधारित नहीं होती, फिर भी उसका बहुत अधिक सम्मान किया जाता है।
राजनीतिक व्यवस्थाओं और संगठनों में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि वरिष्ठ व्यक्ति के पास शक्ति, लेकिन यह अवांछित स्थिति ही है। इन दोनों का उचित सन्तुलन राजनीति की एक शाश्वत समस्या है, जिसे सफल नेतृत्व के द्वारा ही सुलझाया जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था और संगठनों में सत्ता और शक्ति को सामान्य रूप से संयुक्त किया जाता है। और ऐसा किया जाना आवश्यक है क्योंकि अत्यन्त लोकप्रिय शासक को भी शासन सत्ता के संचालन के लिए सत्ता और शक्ति दोनों की आवश्यकता होती है।
राजनीति में शक्ति के स्रोत
शक्ति का अर्थ स्पष्टता के साथ समझने के लिए शक्ति के स्रोतों का अध्ययन किया जा सकता है। वस्तुतः शक्ति अनेक स्रोतों से उत्पन्न होकर विभिन्न रूपों में अपने-आपको प्रकट करती है। नेपोलियन, हिटलर, लेनिन और गाँधी ये सभी शक्तिशाली थे, लेकिन इतनी शक्ति के स्रोतों में भेद था। शक्ति के स्रोतों की कोई पूर्ण सूची तो देना सम्भव नहीं है, क्योंकि विचारकों में इस सम्बन्ध में बहुत अधिक मतभेद हैं फिर भी शक्ति के कुछ प्रमुख स्रोतों का उल्लेख निम्न रूपों से किया जा सकता है:
(1) ज्ञान (Knowledge ) -
शक्ति का प्रथम स्रोत ज्ञान है। ज्ञान अपने साधारण अर्थ में व्यक्ति को अपने लक्ष्यों को पुनः प्रबन्धित करने और मिलने की योग्यता प्रदान करता है। ज्ञान द्वारा व्यक्ति की अन्य विशेषताओं को इस प्रकार संचलित किया जाता है कि वे शक्ति का साधन बन सकें। व्यक्ति के नेतृत्व का गुण उसकी इच्छा-शक्ति, उसकी सहन-शक्ति, अपने-आपको अभिव्यक्त करने की शक्ति आदि विभिन्न तत्व शक्ति के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। इन तत्वों में से किसी भी एक की कमी शक्ति के समस्त रूप को अकार्यकुशल बना सकती है और उसे पूरी तरह नष्ट कर सकती है।
(2) प्राप्तियाँ (Possessions ) -
ज्ञान शक्ति का आन्तरिक स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त शक्ति का निर्धारण करने वाले बाहरी तत्व भी होते हैं, जिनमें प्राप्तियाँ सर्वाधिक प्रमुख हैं। साधारण बोलचाल के अन्तर्गत इसे ही आर्थिक शक्ति का नाम दिया जा सकता है प्राप्तियों के अन्तर्गत भौतिक सामग्री, स्वामित्व एवं सामाजिक सामग्री की शक्ति, एक व्यक्ति को समाज में प्राप्त स्थिति और स्तर आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। प्राप्तियाँ या सम्पत्ति शक्ति का एक स्रोत अवश्य है, लेकिन न तो यह एकमात्र स्रोत है और न ही निश्चित रूप से प्रभाव डालने वाला स्रोत । बिना सम्पत्ति के भी एक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के कार्यों को प्रभावित कर सकता है और सम्पत्ति के होने पर भी आवश्यक नहीं है कि वह दूसरों के कार्यों को प्रभावित कर सकेगा।
(3) संगठन
संगठन अपने आप में शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। कहावत भी है कि 'संगठन ही शक्ति है। (Unity is strength ) । विभिन्न प्रतिद्वन्द्वितापूर्ण इकाइयाँ आपस में मिलकर संघ बना लेती हैं, तो उनकी शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। आधुनिक युग के मजदूर संघ तथा व्यापारिक संघ इसके उदाहरण हैं। शक्ति की दृष्टि से सबसे बड़ा संघ स्पष्टतया राज्य ही है और इसका एक प्रमुख कारण राज्य का सर्वाधिक संगठित स्वरूप ही है।
(4) आकार -
अनेक बार आकार को शक्ति का परिचायक मान लिया जाता है और यह सोचा जाता है कि एक संगठन का जितना बड़ा आकार होगा, उसके द्वारा उतनी ही अधिक शक्ति का परिचय दिया जा सकेगा। आकार के साथ यदि संगठन का मेल हो तो ऐसा होता भी है, लेकिन सभी परिस्थितियों में ऐसा नहीं होता अनेक बार ऐसा भी होता है कि उसका बड़ा आकार उसे उलझा दे, उसे असन्तुलित बना दे और उसे परिस्थितियों के अनुकूल न रहने दे। इसी कारण अनेक बार कुछ राजनीतिक दलों द्वारा अपने आकार को घटाने के लिए 'शुद्धि आन्दोलनों' (Purges ) का आश्रय लिया जाता है।
शक्ति के स्रोत एवं आधार के रूप में विश्वास का भी पर्याप्त महत्त्व है। तलवार की शक्ति भी अन्तिम रूप से विश्वास पर ही आधारित होती है। शक्ति का एक अन्य स्रोत सत्ता होती है। शक्ति की महानता इस बात से निर्धारित की जाती है कि वह मानव मस्तिष्क पर प्रभाव डालने में कितनी सक्षम है। प्रो. मैकाइबर ने शक्ति के इन विभिन्न तत्वों का वर्णन करने के बाद कहा कि “शक्ति की कार्य कुशलता उन विभिन्न परिस्थितियों के द्वारा बढ़ती या कम होती रहती है, जिनके अधीन उसे कार्य करना है। "
शक्ति के प्रकार
शक्ति नानारूपिणी होती है तथा इसके विभिन्न प्रकार होते हैं। शक्ति के प्रकार के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा भी अलग-अलग विचार व्यक्त किये गये हैं। गोल्डहेमर एवं एडवर्ड शिल्स के अनुसार, “एक व्यक्ति की शक्ति उतनी ही कही जा सकती है, जितनी मात्रा में वह अपनी इच्छा के अनुसार दूसरे के व्यवहार को परिवर्तित कर सके।" व्यवहार में परिवर्तन की इस धारणा के अनुसार शक्ति तीन प्रकार की होती है: बल, प्रभुत्व और चातुर्य (Manipulation ) । शक्तिवान व्यक्ति बल का प्रयोग करता हुआ उस समय कहा जाता है, जिस समय वह अधीनस्थ व्यक्तियों के व्यवहार को भौतिक शक्ति के माध्यम से प्रभावित करता है। जब शक्तिवान व्यक्ति अपनी इच्छा को प्रकट कर दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करता है, तो वह प्रभुत्व कहलायेगा। 'प्रभुत्व' आदेश या आग्रह के रूप में हो सकता है। चातुर्य दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने का तरीका है जिसमें प्रभावित होने वाले व्यक्तियों को स्पष्ट रूप में यह नहीं बताया जाता कि शक्तिवान व्यक्ति आखिर उनसे क्या चाहता है। इस अन्तिम प्रक्रिया में विभिन्न तरीकों और प्रतीकों (symbols) का प्रयोग करते हुए प्रचार की प्रणाली को अपनाया जाता है। मैक्स वेबर केवल औचित्यपूर्ण शक्ति का अध्ययन करता है और उसे वह सत्ता कहता है। जिसे व्यक्तियों या अधीनस्थों द्वारा स्वीकार किया जाता है या अधिकारपूर्वक माना जाता है, उसे औचित्यपूर्ण सत्ता कहते हैं। जो शक्ति औचित्यपूर्ण नहीं है उसे वेबर दमन ( coercion) कहता है। वेबर ने औचित्यपूर्ण शक्ति के तीन प्रमुख रूप बताये हैं: (i) कानूनी या वैधानिक, (ii) परम्परागत, (iii) करिश्मावादी (charismatic ) । जब अधीनस्थ लोग शक्तिवान व्यक्तियों द्वारा निर्मित क़ानूनों, निर्देशों एवं डिक्रियों (Decrees) की वैधानिकता में विश्वास करते हैं, तो यह औचित्यपूर्ण शक्ति वैधानिक कहलाती है। जब शक्तिवान द्वारा प्रसारित आदेशों को परम्परा के आधार पर पवित्र माना जाये अथवा परम्परा के कारण ही वह शक्ति का प्रयोग करे तो इसे औचित्यपूर्ण शक्ति का परम्परागत रूप " कहा जायेगा। तीसरे, जब औचित्य की मान्यता का आधार शक्तिवान के व्यक्तिगत गुणों के प्रति भक्ति होती हैं, तो वह करिश्मावादी औचित्यपूर्ण शक्ति कही जाती है। करिश्मावादी औचित्यपूर्ण शक्ति के अन्तर्गत अनुवायियों को अपने नेता की विशेषताएँ प्रायः अद्वितीय प्रतीत होती हैं और उसके सम्मुख वे पूर्ण समर्पण कर देते हैं। पं. नेहरू को अपने प्रधानमंत्री काल के अधिकांश वर्षों में और 1971-72 के वर्षों में श्रीमती गाँधी को भारतीय जनता पर करिश्मावादी शक्ति ही प्राप्त थी।
बायर्सटेड ने भी शक्ति के अनेक आधारों पर कई प्रकार बताये हैं:
(i) दृश्यता के आधार पर शक्ति अदृश्य या प्रकट हो सकती है शक्ति के अदृश्य रूप को प्रच्छन्न ( latent) शक्ति कहा जायेगा तथा उसका प्रकट रूप अभिव्यक्त होने पर उसे सत्ता, बल आदि कहा जायेगा।
(ii) दमन की दृष्टि से शक्ति दमनात्मक या अदमनात्मक हो सकती है,
(iii) औपचारिकता की दृष्टि से वह औपचारिक तथा अनौपचारिक हो सकती है,
(iv) शक्ति प्रयोग की दृष्टि से यदि शक्ति का प्रयोग स्वयं धारक द्वारा किया जाय तो उसे प्रत्यक्ष और अधीनस्थों द्वारा प्रयुक्त हो, तो उसे अप्रत्यक्ष कहा जायेगा।
(1) शक्ति प्रवाह या दिशा की दृष्टि से वह एकपक्षीय, द्विपक्षीय या बहुपक्षीय हो सकती है।
(2) केन्द्रीकरण के दृष्टिकोण से वह केन्द्रित विकेन्द्रित अथवा विस्तृत हो सकती है। केन्द्रित में केन्द्रीय सत्ता का नियन्त्रण होता है, विकेन्द्रित होने पर शक्तियाँ अनेक अधीनस्थ निकायों का स्वायत्त या अर्द्ध-स्वायत आधारों पर प्रदान की जाती हैं। विस्तृत शक्ति का स्वरूप बिखरा हुआ, अस्पष्ट एवं प्रस्तुत होता है जैसे जनशक्ति ।
(3) क्षेत्रीयता के आधार पर वह अन्तर्राष्ट्रीय या भूखण्ड विशेष से संबंधित होती है।
(4) शक्ति की मात्रा एवं प्रभाव की दृष्टि से विभिन्न राज्यों को महान, मध्यम तथा निम्न शक्तियाँ कहा जाता है। इस प्रकार की शक्ति के अनेक स्वरूप हो सकते हैं।
शक्ति का प्रयोग एवं सीमाएँ
शक्ति का प्रयोग विभिन्न प्रकार की शास्तियों (sanctions) या साधनों के आधार पर किया जाता है; जैसे पुरस्कार, दण्ड, आर्थिक लाभ देना या रोकना आदि। इन साधनों की मात्रा एवं प्रकार देश, काल तथा संस्कृति विशेष के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। शक्ति का प्रयोग करते हुए पिटाई, जेल, जुर्माना, अपदस्थीकरण या अपमान इसमें से किसी भी साधन को अपनाया जा सकता है। इसी प्रकार संस्था पर शक्ति का प्रयोग करते हुए धमकी या प्रलोभन में से किसी को भी आवश्यकतानुसार चुना जा सकता है। उदाहरण के लिए, अमरीका का राष्ट्रपति वहाँ की कांग्रेस पर अपना प्रभाव जमाने के लिए या तो काँग्रेस सदस्यों एवं उनके अनुयायियों को पदों का प्रलोभन देता है अथवा विशेष सम्मेलन बुलाने या मतदाताओं से सीधे अपील करने की बात कहता है अथवा विधेयक विशेष पर निषेधाधिकार के प्रयोग की धमकी देता है। इनमें से एक साधन के असफल रहने पर दूसरे साधन को अपनाया जा सकता है। सामान्यतया शक्ति प्रयोग में सफलता प्राप्त होती है, लेकिन कभी-कभी इसमें असफल भी रहना होता है।
किन्तु शक्ति का प्रयोग स्वच्छन्द नहीं होता और उसके ऊपर अनेक प्रतिबन्ध तथा सीमाएँ आदि होती हैं। ये सीमाएँ अनेक बातों से सम्बन्ध रखती हैं जैसे इतिहास और परम्पराएँ, सहमति या स्वीकृति प्राप्त करने की आवश्यकता के तरीके, राजनीतिक विकास का प्रभाव, धर्म, नैतिकता एवं समूहों का दबाव आदि। शक्ति की सीमाएँ प्रयोगकर्ता के लक्ष्य एवं उद्देश्यों उसकी क्षमता, पारस्परिक सम्बन्धों प्रतियोगिता, कार्य-पद्धतियों और वातावरण सम्बन्धी कारणों आदि से भी उत्पन्न होती हैं।
राजनीति विज्ञान में शक्ति का दृष्टिकोण
राजनीति विज्ञान के अध्ययन का एक प्रमुख उद्देश्य यह जानना होता है कि शक्ति किसके हाथ में है और उसका प्रयोग किस प्रकार किया जा रहा है। इसी कारण वर्तमान समय के राजनीतिक विचारक राज्य के विचार को अभिव्यक्त करने की अपेक्षा शक्ति की धारणा व्यक्त करने में अधिक रुचि ले रहे हैं। वस्तुतः शक्ति राजनीतिक अनुसन्धान का हृदय है और इसका स्पष्ट लाभ यह है कि इसके द्वारा दूसरों को प्रभावित करने वाली क्रिया को समझा जा सकता है, लेकिन कुछ समय पूर्व तक शक्ति के विचार को राजनीतिक अध्ययन में उचित स्थान प्राप्त था। प्राचीन काल में शक्ति की धारणा को असीमित या निरंकुश शक्ति से सम्बद्ध समझा जाता था और इसी कारण इसके प्रति सन्देह उत्पन्न होना नितान्त स्वाभाविक था।
वर्तमान समय में शक्ति की धारणा ने पर्याप्त महत्त्व और लोकप्रियता प्राप्त कर ली है और जार्ज कैटलिन तथा हैरल्ड डी. लासवेल ने इस धारणा पर विस्तार से विचार व्यक्त किये हैं। लासवेल वर्तमान युग का सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली शक्ति शोधकर्ता है।
जार्ज कैटलिन के विचार राजनीति शास्त्र में जार्ज कैटलिन वह प्रथम व्यक्ति था, जिसने शक्ति को केन्द्रबिन्दु बनाकर व्यवस्थित सिद्धान्त अथवा संकल्पनात्मक संरचना का विकास किया। जार्ज कैटलिन ने शक्ति को राजनीतिक जीवन का प्राथमिक तत्व माना है। कैटलिन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में अपनी कामनाओं को पूरा करने की इच्छा होती है और यही इच्छा उसके समस्त कार्यों का आधार है। अपनी इच्छा लागू करने के लिए अन्य लोगों की इच्छाओं को नियन्त्रित करना आवश्यक हो जाता है और व्यक्ति जब इस दिशा में चेष्टा करता है, तभी शक्ति या संघर्ष के तत्व का उदय हो जाता है।
शक्ति का अध्ययन पूर्णरूप से यह स्पष्ट नहीं करता कि सरकार समाज को किस प्रकार नियन्त्रित करती है अथवा व्यवस्था की स्थापना कैसे करती है, वरन् इसके द्वारा इस व्यापक समस्या पर विचार किया जाता है कि एक व्यक्ति या समूह दूसरों की इच्छाओं को किस प्रकार प्रभावित करता है। कैटलिन का विचार है कि “इच्छाओं के संघर्ष को राजनीति विज्ञान का आधार बनाया जाए तो राजनीति विज्ञान की शेष विषय-वस्तु स्वयं ही स्पष्ट हो जायेगी।”
लासवेल के विचार-शक्ति की अवधारणा का सबसे विस्तृत विश्लेषण हमें लासवेल और कैपलान की रचनाओं में मिलता है। यद्यपि कैटलिन और लासवेल दोनों ही विचारक शक्ति पर जोर देने के सम्बन्ध में एकमत हैं, लेकिन लासवेल ने राजनीति के अध्ययन को कैटलिन की अपेक्षा कुछ व्यापक दृष्टि से देखा है और इसलिए उनके निष्कर्ष भी भिन्न प्रकार के हैं।
लासवेल का विचार है कि राजनीति विज्ञान मूल रूप से एक शक्ति प्रक्रिया नहीं है, वरन् यह समाज के मूल्यों की स्थिति एवं बनावट में परिवर्तन का अध्ययन है, अतः राजनीति विज्ञान में शक्ति एवं मूल्य दोनों का ही अध्ययन किया जाना चाहिए और इन दोनों की परस्पर निर्भरता को भी स्पष्ट किया जाना चाहिए। उन्होंने अपनी पुस्तक 'कौन, कब, क्या, कैसे प्राप्त करता है '( Who gets, What, When and How) में स्पष्ट किया है कि उच्च राजनीतिक वर्ग के पास जो शक्ति होती है, उसका स्रोत क्या होता है? यह पुस्तक मुख्य रूप से उन साधनों का वर्णन करती है, जिसके माध्यम से उच्च वर्ग के लोग शक्ति के पद पर पहुँचते हैं और कायम रहते हैं तथा अपनी सुरक्षा, आय और आदर को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। यदि हम राजनीतिक विचार को बदलते हुए मूल्यों के रूप का अध्ययन मानें तो लासवेल की यह पुस्तक सम्पूर्ण प्रक्रिया के केवल एक छोटे भाग मात्र को अभिव्यक्त करने वाली समझी जायेगी। अनेक विचारकों ने लासवेल की धारणा को एक संकीर्ण विचारधारा माना है, क्योंकि इनके आधार पर लासवेल ने राजनीति विज्ञान की सम्पूर्ण विषय-वस्तु को शक्ति के लिए संघर्ष मान लिया है। इसके बाद लासवेल की एक अन्य पुस्तक 'शक्ति और समाज ' ( Power and Society) प्रकाशित हुई और इस पुस्तक में उन्होंने मूल्यों के वितरण को भी राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन में सम्मिलित कर लिया।