भारत में योजना की रणनीति: उद्देश्य - नियोजन में बदलाव
उद्देश्य - नियोजन में बदलाव
90 के दशक से भारत निदेशात्मक योजना (Indicative Planning) को महत्व दे रहा है। कारण- आर्थिक सुधार कार्यक्रम - बाजार शक्तियों के संकेत के आधार पर होना चाहिए, उद्यमियों को तकनीकी के चयन में स्वतंत्रता होनी चाहिए | योजना तैयार करने में स्वतंत्रता होनी चाहिए, क्योंकि इसी से आर्थिक कुशलता सुधरेगी। संसाधनों का बेहतर उपयोग होता तथा आर्थिक समृद्धि भी तेज होगी।
नियोजन का बल (Focus) अब वृहद् लक्ष्यों पर है जैसे- संवृद्धि, गरीबी उन्मूलन, समाजिक क्षेत्र का विकास। नियोजन का दृष्टिकोण अब (Economy के Micro Managements) पर नहीं हैं लेकिन साथ में योजना के माध्यम से नीतिगत परिवेश में बदलाव लाने की कोशिश हो रही है जिसने निजी ईकाइयों को पूरी जिम्मेदारी निभाने का मौका मिले, उनके लिए उपयुक्त परिवेश पैदा हो सार्वजनिक हस्तक्षेप के दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण है सामाजिक सेवायें पूरे तौर पर अब नियोजन को बाजार का अनुपूरक माना जाता है, (Supplementry to the market ) इस दृष्टिकोण में यह निहित है कि राज्य की आर्थिक भूमिका का पुनर्निर्धारण होना चाहिए। राज्य के संसाधन और क्षमता सीमित हैं, राज्य को अपना ध्यान उन्हीं क्षेत्रों पर केन्द्रित करना चाहिए जो अत्यावश्यक है। जहाँ बाजार शक्तियों पर पूर्णतः निर्भर नहीं किया जा सकता है। यहाँ भी यह दृष्टिकोण है कि जहाँ तक संभव हो निजी ईकाइयों को भी सहयोगी भूमिका दी जाए जैसे - Public Private Partnership (PPP) । सार्वजनिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक निजी सहभागिता पर बल दिया जा रहा है। योजना में प्राथमिकता के क्षेत्र का निर्धारण किया जा रहा है जैसे आधारीय संरचना (Infrastructure)। क्योंकि आज भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी बाधा, अच्छी गुणवत्ता की आधारीय संरचना की कमी है जैसे विद्युत, सड़क, रेल, बन्दरगाह, एअरपोर्ट, इत्यादि ।
भारतीय आयोजन में विकास की रणनीति को 4 अवयवों की सहायता से समझा जा सकता है-
1. नेहरू महालनोविस प्रारूप (टपकन सिद्धांत पर आधारित)
2. गांधीवादी मॉडल
3. राव मनमोहन प्रारूप
4. नव- गाँधीयन विकास मॉडल पूरा (PURA)
नेहरू महालनोविस प्रारूप ( Nehru Mahalnobis Model)
नेहरू विकास मॉडल की विशिष्ट उपलब्धियां इस प्रकार हैं-
1. कृषि उत्पादकता में भारी वृद्धि के कारण उर्वरक व तकनीकी का प्रयोग जिससे देश में खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता
2. भारत में औद्योगिक क्षमता के विस्तार को कारण पूंजी वस्तुओं में कामगार व सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका । 3. संचालन शक्ति, सिंचाई, परिवहन एवं संचार आदि के रूप में आर्थिक अवसंरचना का विकास।
4. आधुनिक औद्योगिक ढांचे को चलाने हेतु विकास एवं अनुसंधान और तकनीकी व प्रबन्धकीय कार्यों की स्थापना ।
नेहरू महालनोविस में औद्योगिकरण पर बल देने का कारण
1. आधारिक व मूलभूत उद्योगों के विकास द्वारा ही तीव्र औद्योगिकरण को प्राप्त किया जा सकता है। यह आगामी विकास की पृष्ठभूमि को तैयार करते हैं।
2. औद्योगिक क्षेत्र के विकास से अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों को मदद मिलती है जैसे औद्योगिक क्षेत्र में कृषिजन्य वस्तुओं की मांग तो बढ़ती है साथ ही साथ कृषि विकास के लिए भी कृषि आदानों से सम्बन्धित उद्योगों का विकास होता है।
3. कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता कम करने हेतु औद्योगिक विकास आवश्यक था। 4. 1956 में अर्थव्यवस्था में असंतुलन व्याप्त था, औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ापन था इसलिए नये उद्योगों की स्थापना और विद्यमान उद्योगों का विकास एवं विस्तार आवश्यक था। इसके लिये उत्पादन तथा तकनीकी क्षमता को बढ़ाने हेतु औद्योगिकरण की नीति को अपनाना आवश्यक था।
5. उद्योगों की स्थापना से रोजगार संभावनाओं का सृजन किया जा सके और साथ ही प्रति व्यक्ति उत्पादकता बढ़ायी जा सके।
6. औद्योगिक विकास के द्वारा यातायात एवं संवहन के साधनों और शक्ति के उत्पादकता को भी गति प्रदान कर सके।
नेहरू- महालनोविस मॉडल की कमियां
भारी उद्योगों पर आधारित नेहरू विकास मॉडल में कई कमजोरियां थी। तीन दशकों के आयोजन के बावजूद यह राष्ट्रीय न्यूनतम जीवन स्तर उपलब्ध कराने में असफल रहा। 40 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या निर्धनता स्तर के नीचे रह रही थी। बेरोजगार और अल्प रोजगार व्यक्तियों की संख्या बहुत ज्यादा रही, और यह लगातार बढ़ रही थी। आय तथा सम्पत्ति की असमानतायें और गंभीर होती जा रही थी। कुछ लोगों के हाथों में आर्थिक शक्ति का संकेन्द्रण बढ़ता जा रहा था। भू-सुधारों को सही ढंग से लागू नहीं किया गया और इस कारण ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत अधिक असंतोष रही। इन सबके अतिरिक्त देश में कभी एक और कभी दूसरी वस्तु का अभाव बना रहा है। और इसके परिणामस्वरूप देश में एक भयंकर स्फीतिकारी दबाव पैदा हो गया। इन परिस्थितियों के देखते हुए टपकन सिद्धांत को स्पष्ट किया जा सकता है।
टपकन सिद्धांत (Trikle Down Theory )
यह सिद्धान्त वस्तुतः परकोलेशन सिद्धांत (Percolation Theory) Filtration Theory व' आर्थिक वृद्धि के आय-वितरण पर प्रभाव' के रूप में जाना जाता है। इस बात का आधार यह है कि आर्थिक विकास या उच्च संवृद्धि दर (high growth rate) से उत्पन्न लाभ का अंश स्वतः रिसाव के द्वारा अन्य निम्नतर प्राथमिकताओं के उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक होंगे। जैसे गरीबी निवारण, रोजगार सृजन, आय असमानता में कमी, जीवन की गुणवत्ता में सुधार, आत्मनिर्भरता आदि। यह समझा जाता है कि जैसे-जैसे राष्ट्रीय आय का आकार बड़ा होता जायेगा वैसे-वैसे गरीबों की आय का हिस्सा बड़ा होता जायेगा और निर्धनता स्वतः दूर हो जायेगी। संवृद्धि स्वतः संचालित होगी ।
टपकन सिद्धान्त की असफलता के कारण
टपकन सिद्धान्त परिकल्पना की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह निर्धनता निवारण व रोजगार सृजन में सहायक हुई या नहीं। इस प्रकार इसे दो तरिके से स्पष्ट किया जा सकता है।
1. प्रथम, निजी क्षेत्र में होने वाले विनियोग तथा उसके फलस्वरूप रोजगार सृजन में अंश के द्वारा लाभ के फैलाव की सीमा निर्धारित करके। यदि रोजगार सृजन अंश अधिक रहा तब आर्थिक विकास से उत्पन्न लाभ धीरे-धीरे समयान्तर में नीचे की और रिस कर चला जायेगा। ज्ञातव्य है कि निजी क्षेत्र द्वारा किये जाने वाले निवेश का रोजगार सृजन भाग अत्यन्त ही कमजोर होगा। इसलिए टपकन (रिसाव) सिद्धांत आवश्यक रूप से गलत सिद्ध होगा।
2. द्वितीय, निजी क्षेत्र प्रदत्त उत्पादन के ढांचा के कारण आर्थिक विकास की दर अत्यन्त ही अधिक हो पर राष्ट्रीय उत्पाद में मजदूरी वस्तुओं का हिस्सा कम हो। यह सामान्यतया बाजार निर्देशित उत्पादन व्यवस्था में होगा तो भी सिद्धांत गलत सिद्ध होगा।
अन्ततः यह महसूस किया गया कि FYP-6 में रिसाव सिद्धांत का प्रभाव निर्धनों तक नहीं पहुंच रहा है तभी निर्धारण निवारण कार्यक्रमों का प्रारम्भ हुआ। नवीन आर्थिक सुधारों के दौर में रिसाव सिद्धान्त असफल रहा है फलस्वरूप निर्धनता निवारण में आर्थिक सुधार की भूमिका नहीं रही है।
गांधीवादी मॉडल
इसमें ग्रामीण विकास, कृषि एवं लघु एवं कुटीर उद्योग के विकास के माध्यम से करने पर बल था। आर्थिक विकेन्द्रीकरण की नीति पर आधारित था। इसमें लोगों को रोजगार प्रदान कर आत्मनिर्भर बनाने पर बल दिया गया था। 1977 के औद्योगिक नीति में इस दिशा में बल दिया गया।
राव - मनमोहन प्रारूप ( Rao - Manmohan Model)
विकास का राव - मनमोहन प्रारूप भारत में आर्थिक संकट (1990-91) के बाद 1991 में अपनाया गया। 90 के दशक में एक नवीन रणनीति राव मनमोहन प्रारूप अपनाने से नेहरू महालनोविस प्रारूप पूर्ण रूप से अपनी महत्ता खो दी। यह संवृद्धि एवं विकास में एक नये रणनीति का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें उदारीकरण एवं वैश्वीकरण पर बल है। इसके अन्तर्गत अर्थव्यवस्था के खोले जाने एवं बाजार की शक्तियों के महत्वपूर्ण भूमिका पर बल है। इस रणनीति में अर्थव्यवस्था के संवृद्धि एवं विकास में निजी क्षेत्रों की भूमिका बहुत सीमाओं तक सार्वजनिक क्षेत्रों की भूमिका को प्रतिस्थापित करती है । राव- मनमोहन प्रारूप में 'निर्यात प्रेरित संवृद्धि' के रणनीति को अपनाया गया है। आयात प्रतिस्थापन (Import Subtitution) के रणनीति के स्थान पर इसे स्वीकार किया गया है।
राव - मनमोहन मॉडल द्वारा निम्न परिवर्तन लाये गये
(1) सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योग निजी उद्योग के लिए खोल दिये गये। सरकार हानि उठाने वाले सार्वजनिक उद्यमों को निजी क्षेत्र को सौंपना चाहती थी परंतु वह इस लक्ष्य में विफल रही। प्रारंभ में विनिवेश से प्राप्त राशि का उपयोग राजकोषीय घाटा का कम करने हेतु उपयोग किया गया।
(2) लाइसेंस राज का उदारीकरण किया गया, बिना लाइसेंसे प्राप्त किये निजी क्षेत्र को औद्योगिक इकाइयां स्थापित करने की अनुमति देकर सरकार ने निजी क्षेत्र के निवेश में रूकावटों को समाप्त किया।
(3) MRTP कंपनियों के संदर्भ में सरकार ने परिसम्पत्तियों की सीमा को समाप्त करके व्यावसायिक तन्त्र को स्वतन्त्र बना दिया। इस प्रकार एकाधिकार आयोग की अनुमति लिए बिना असीमित निवेश कर सकते हैं।
( 4 ) FDI को सुविधाजनक बनाने हेतु सरकार ने उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 51 प्रतिशत तथा उससे अधिक करने की स्वीकृति का निर्णय लिया।
(5) विदेशी तकनीकों के संदर्भ में देश में विकसित तकनीकी के विदेशी परीक्षण के लिए कोई स्वीकृति लेने की जरूरत नहीं होगी।
(6) बीमार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को औद्योगिक और वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (BIFR) के अन्तर्गत लाया गया ताकि वह उनके पुनर्वास सम्बन्धी योजनाएं तैयार करे।
(7) सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निष्पादन को उन्नत बनाने हेतु सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबन्धकों और सरकारी कर्मचारियों के बोर्डों को अधिक स्वायत्तता बाद में दी गयी।
(8) विश्व के शेष देशों से निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए अर्थव्यवस्था में ढील दिया गया। विदेशी पूंजी, तकनीकी और आयात को सुविधाजनक बनाने हेतु आयात शुल्क तथा अन्य अवरोधक घटाये गये।
नवगांधीयन विकास प्रारूप- पूरा ( PURA)
(Neo - Gandhian Approach of Development)
ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों जैसी मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए 2004 से विकसित किये गये एक प्रारूप को -PURA-Providing Urban Aminities In Rural Areas 'पूरा' नाम दिया गया है। मूलत: यह प्रोफेसर डॉ, कलाम द्वारा दिया गया सुझाव है जोकि उन्होंने राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के 90वें अधिवेशन चंडीगढ़, जनवरी 2004 में प्रस्तुत किया। इसमें ग्रामीण क्षेत्र के समन्वित एवं समयबद्ध आर्थिक विकास के लिए तैयार किये गये दस्तावेज विजन 2020 में इस मॉडल के सम्बन्ध में विवरण प्रस्तुत किया गया है। प्रोफेसर कलाम ने ग्रामीण विकास की परम्परागत तकनीक के एक बेहतर विकल्प के रूप में 'पूरा' का जो अभिनव प्रारूप प्रस्तुत किया है उसमें 4 प्रकार के सम्पर्कों की बात कही गयी है।
1. सड़क परिवार एवं विद्युत संयोजन के रूप में भौतिक संपर्क ।
2. विश्वसनीय, दक्ष एवं त्वरित दूरसंचार, इंटरनेट एवं सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं के रूप में इलेक्ट्रॉनिक्स संपर्क ।
3. अच्छी शिक्षण एवं प्रशिक्षण के रूप में ज्ञान संपर्क ।
4. ग्रामीण क्षेत्र के उत्पादकों, कृषकों एवं अन्य को उनके उत्पादन का अधिकतम संभव मूल्य दिलाने में सक्षम आर्थिक संपर्क ।
क्षेत्र और विकास की वर्तमान अवस्था को देखते हुए 'पूरा' का वर्गीकरण 3 वर्गों में किया जा सकता है।
1. Type A: यह किसी शहर क्षेत्र के समीप होता है जहां न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं।
2. Type B: यह भी शहरी क्षेत्र के समीप होता है, लेकिन वहां अपर्याप्त एवं बिखरे रूप में बुनियादी सुविधाएं होती हैं।
3. Type C: यह भीतरी क्षेत्र में पिछड़े रूप में होता है, जहां बुनियादी सुविधाएं नहीं होती हैं। पूरा बहुत सी ग्रामीण समस्याओं का सुलभ समाधान उपलब्ध करता है। तथा बेरोजगारी, बाजार से अलगांव, संपर्क सुविधा का अभाव आदि । प्रक्रियानुसार उत्पादन का विस्तार एवं रोजगार के नये अवसरों का सृजन किया जायेगा । अन्ततः 'पूरा' एक विकसित एवं क्रांतिकारी कदम है जो केन्द्र एवं राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों के बीच समन्वय और निजी क्षेत्र एवं सामुदायिक भागीदारी के सम्मिलित प्रयासों द्वारा ही सम्भव है। 'पूरा' से चहुँमुखी लाभ संभावित है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में संरचनात्मक उन्नयन द्वारा रोजगार एवं विकास के अवसरों का सृजन होगा। गांवों से शहरों को पलायन की दर घटने से महानगरों पर बढ़ते जनसंख्या दबाव पर नियंत्रण पाया जा सकेगा। आत्मनिर्भर एवं प्रगतिशील ग्राम्य विकास से नगर ग्राम्य संबंध भी प्रभावित होंगे। ग्रामीण क्षेत्र जिनकी विशिष्ट भौगोलिक एवं पर्यावरणिक स्थिति है पर्यटकों को आकर्षित करने में समर्थ हो सकेंगे। विविधीकरण, मूल्यवर्धन एवं बाजार विस्तार द्वारा कृषि क्षेत्र रोजगार सृजन करके साथ ही निर्यात आधिक्य सृजित करके देश के विकास में अपना योगदान दे सकता है। इससे ग्रामीण भारत को प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति उत्पादन एवं जीवन स्तर में भी वृद्धि होगी ।
आर्थिक सुधारों के संदर्भ में योजना की प्रासंगिकता
( Planning in the Context of Economic Reform)
आर्थिक सुधारों के इस युग में जहां एक ओर राज्य के नियमन एवं नियंत्रण में काफी सीमा तक कमी आ रही है। वहीं बाजार की शक्तियों का महत्वपूर्ण भूमिका दी जा रही है, इससे योजना की प्रासांगिता पर राष्ट्रीय बहस भी हो रही है। पंचवर्षीय योजनाओं में सरकारी निवेश के अनुपात में भी कमी आ रही है।
यह सत्य है कि अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण के परिप्रेक्ष्य में योजना के परिमाणात्मक पक्ष विशिष्ट रूप से खत्म किये जा रहे हैं और योजना प्रक्रिया की प्रकृति में गुणात्मक परिवर्तन हो रहा .
योजना की प्रकृति में हो रह बदलाव इस रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।
1. संघीय लोकतंत्र में योजना का मुख्य कार्य न केवल संघीय इकाइयों बल्कि आर्थिक एजेंडों में विचारों की सहभागिता को विकसित करना है ताकि सभी कारकों के प्रयास राष्ट्रीय प्राथमिकता की ओर अनुगामी हो ।
2. निगमित क्षेत्र को बहुत सीमा तक विकास प्रक्रिया के लिए उत्तरदायी बनाया जा सकता है तो दूसरी तरफ उसकी दिशा और वितरण को योजनाबद्ध लोकहस्तक्षेप द्वारा तीव्र किया जा रहा है ताकि क्षेत्रीय असंतुलन कम किया जा सके और सामाजिक आर्थिक असमानता को दूर किया जा सके।
भारत में योजना की रणनीति सारांश (Summary)
1947 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में राज्य की प्रमुख भूमिका निर्धारित की गयी। स्वतंत्रता के पूर्व भी स्वतंत्र भारत के लिए कई योजना बनायी गयी थी। गांधीयन योजना में राज्य की भूमिका बहुत सीमित, इसमें विकन्द्रीकृत योजना की सकल्पना, ग्रामीण क्षेत्रों पर मुख्य बल, लघु उद्योगों को प्राथमिकता, शेष सभी योजना में राज्य को महत्वपूर्ण भूमिका, औद्योगिकरण को प्राथमिकता, गांधीवादियों को छोड़ इसमें सभी लोगों में आम सहमति थी।
आमतौर पर Economic Reforms का मुद्दा राजनीतिक मुद्दा नहीं रहा है, जब कि भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन किया गया। 2004 के आम चुनाव को इसका अपवाद माना जा सकता है, जैसे India's Shining का मुद्दा |
आर्थिक सुधार (Economic Reforms) की जो प्रक्रिया 1991 से शुरू हुई इसमें काफी परिवर्तन हुये हैं। कई क्षेत्रों में लाभ भी हुआ है। GDP में उछाल, भारतीय अर्थव्यवस्था का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाना। इसके बावजूद कूछ समस्यायें बनी हुयी है। बहुत से लोगों का मानना है कि आर्थिक सुधार कार्यक्रम अपूर्ण रहा है।
पहली योजना - तदर्थ प्रकार की योजना थी, इसके पीछे कोई निर्देशित रणनीति आरम्भिक दौर में नहीं था । द्वितीय योजना में रणनीति योजना (Strategic Planning) की शुरूआत हुई और नेहरू- महालनोविस मॉडल इसका आधार था।
नियोजन की रणनीति में विभिन्न क्षेत्रों के लिए संख्यात्मक लक्ष्यों का निर्धारण Multi Sectoral Planning Model के आधार पर किया गया। यह नेहरू महालनोविस मॉडल पर आधारित है। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार द्वारा - एक तो प्रत्यक्ष निवेश, सार्वजनिक इकाइयों की स्थापना करना, उनके लिए धनराशि की व्यवस्था करना, साथ में विभिन्न प्रकार के केन्द्रीय नियंत्रण (Central Instruments) का उपयोग की ताकि निजी ईकाइयों पर नियंत्रण रखा जा सके और उनको भी नियोजन के लक्ष्यों से जोड़ा जा सके। लक्ष्यों के प्राप्ति के दृष्टिकोण से रणनीति काफी हद तक विफल रही जैसे - तृतीय योजना में 5.6 प्रतिशत के लक्ष्य के स्थान पर 2.7 प्रतिशत की प्राप्ति हुई।
यहां पर लक्ष्य से उपलब्धियां काफी कम रही, यहां ऐसे कारकों का प्रभाव भी था कि व्ययों पर नियोजकों का नियंत्रण नहीं था। 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1965 में भारत-पाक युद्ध, मौसम का प्रतिकूल असर, इसके अलावा रणनीतिक विफलता भी थी, इस कारण निवेश की मात्रा बढ़ाने पर बल दिया गया।
1990-91 के संकट का मुख्य तत्व भुगतान संतुलन का संकट था। भारत का विदेशी मुद्रा आरक्षित कोष बहुत कम हो गया और विदेशी दायित्वों के पुनर्भुगतान पर प्रश्चचिन्ह लग गया। इसका तात्कालिक मुख्य कारण अन्तर्राष्ट्रीय तेल संकट था, यद्यपि यह अल्पविकसित था, जब दीर्घकालिक कारण पहले नतियाँ थी। सार्वजनिक क्षेत्र (Public Sector) के लिए आरक्षण प्रणाली को बहुत सीमित कर देना और मुख्यत: सामरिक महत्व के क्षेत्रों तक और यह माना गया कि सार्वजनिक ईकाइयों को भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना चाहिए। सार्वजनिक ईकाइयों के कामकाज में सुधार की भी आवश्यकता है।
1991 के पश्चात् इसमें उदारीकरण किया गया है। जैसे लाइसेंस की आवश्यकता वाले क्षेत्रों में और कमी की गयी है। अब केवल 5 क्षेत्रों में ही लाइसेंस की जरूरत है, मुख्यत: पर्यावरणिक या खतरनाक उद्योगों के मामले में। विदेशी निवेश के मामले में भी नकारात्मक सूची (Negative List) के दायरे को कम किया गया है। 90 के दशक से भारत निदेशात्मक योजना (Indicative Planning) को महत्त्व दे रहा है। कारण-आर्थिक सुधार कार्यक्रम - बाजार शक्तियों के संकेत के आधार पर होना चाहिए, उद्यमियों को तकनीकी के चयन में स्वतंत्रता होनी चाहिए योजना तैयार करने में स्वतंत्रता होनी चाहिए, क्योंकि इसी से आर्थिक कुशलता सुधरेगी। संसाधनों का बेहतर उपयोग होता तथा आर्थिक समृद्धि भी तेज होगी।
भारतीय आयोजन में विकास की रणनीति को 4 अवयवों की सहायता से समझा जा सकता है-
1. नेहरू महालनोविस प्रारूप (टपकन सिद्धांत पर आधारित)
2. गांधीवादी मॉडल
3. राव मनमोहन प्रारूप
4. नव- गाँधीयन विकास मॉडल पूरा (PURA)
वर्ष 1951 में बड़ी मात्रा में खद्यान्न के आयात तथा अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीति के दबाव को ध्यान में रखते हुए पहली योजना ( 1951-56 ) में कृषि सहित सिंचाई तथा बिजली परियोजनाओं को सर्वोचच प्राथमिकता दी गई। सार्वजनिक क्षेत्र में व्यय के लिए निर्धारित 2,069 करोड़ रुपये का लगभग 44.6 प्रतिशत इन कार्यों के लिए रखा गया था।
बीस सूत्री कार्यक्रम ग्रामीण लोगों और विशेष रूप से गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के जीवन स्तर में तेजी से सुधार लाने के लिए शुरू किया गया था।
दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-57 से 1960-61) में विकास के एक ऐसे ढांचे को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया, जिससे देश में समाजवादी स्वरूप के समाज का निर्माण हो सके।
गरीबी हटाना छठी योजना (1980-85 ) का मुख्य लक्ष्य था। योजना की कार्यनीति बुनियादी तौर पर यह थी कि कृषि और उद्योग, दोनों के आधारभूत ढांचे को एक साथ मजबूत किया जाए।
सातवीं योजना (1985-90) में विकास, आधुनिकीकरण, आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय जैसे आयोजना
के मूलभूत सिद्धांतों का पालन करते हुए खाद्यान्न उत्पादन, रोजगार और उत्पादकता बढ़ाने की नीतियों और कार्यक्रमों पर अधिक बल दिया गया।
केंद्र में तेजी से बदलते राजनीतिक घटनाक्रम के चलते आठवीं पंचवर्षीय योजना (1990-95 ) को समय कार्यान्वित नहीं किया जा सका और 1990-91 तथा 1991-92 दो एक वर्षीय योजना चलाई गई और वर्ष 1992 से आठवीं योजना शुरू की गई।
नौवीं पंचवर्षीय योजना ( 1997-2000) भारत की स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर शुरू की गई। योजना का उद्देश्य सकल घरेलू उत्पाद में सात प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर हासिल करना रखा गया। तथा चुनी हुई सात 'बुनियादी न्यूनतम सेवाओं' पर जोर दिया दिया गया और इन सेवाओं के वास्ते अतिरिक्त केंद्रीय सहायता आवंटित की गई, जोकि चरणबद्ध तरीके से समूची आबादी को बुनियादी न्यूनतम सेवाएं प्रदान की जा सकें।
दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) को राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 21 दिसम्बर 2002 को अपनी मंजूरी दी। योजना में और सुधार करते हुए इसमें राष्ट्रीय विकास परिषद के इन उद्देश्यों को शामिल किया गया।
11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा 19 दिसंबर 2007 को अनुमोदित की गई थी। यह अर्थव्यवस्था की बढ़ती हुई शक्ति पर आधारित समग्र विकास की एक व्यापक रणनीति प्रस्तुत करती है।
समावेशिता की दृष्टि से प्रगति का अनुमान लगाना कठिन है क्योंकि समावेशिता एक बहु-आयामी अवधारणा है। समावेशी एक बहु-आयामीय अवधारणा है।